“राही मासूम रज़ा और टोपी शुक्ला”
लगभग 1967 से राही बम्बई में रहने लगे थे. वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था. राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे. आधा गाँव, नीम का पेड़, कटरा बी आरज़ू, टोपी शुक्ला वगैरह उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं.
राही मासूम रज़ा ने किस आधार पर उर्दू में लिखने के बजाये हिन्दी में लिखना पसंद किया इस बारे में मेरे पास कोई ठोस जानकारी नहीं पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि बावजूद देवनागरी लिपि में लिखने के वह अपनी कहानियों में उर्दू के प्रभाव से बच नही सके. शायद यह मामला उनकी शिक्षा दीक्षा के माध्यम से संबंधित है. चूँकि अभी मुझे उनके देवनागरी में लिखे गये उपन्यास “टोपी शुक्ला” पर बात करनी है इसलिये दूसरी बातों को जानबूझ कर छोड़ा जा रहा है.
आइये देखते हैं कि बनारस के रहने वाले बल भद्र नारायण अलीगढ़ पहुँच कर किस प्रकार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के वातावरण में “टोपी शुक्ला” बनते हैं:
“बात यह है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय जहाँ मट्टी, मक्खी, मटरी के बिस्कुट, मक्खन और मोलवी के लिये प्रसिद्ध है वहीं तरह तरह के नाम रखने के लिये भी प्रसिद्ध है. एक साहब थे उस्ताद छुवारा (जो किसी निकाह में लुटाये नहीं गये शायद) एक थे इक़बाल हेडेक. एक थे इक़बाल हारामी. एक थे इक़बाल खाली. खाली इसलिये कि बाक़ी तमाम इक़बालों के साथ कुछ ना कुछ लगा हुआ था. अगर इनके नाम के साथ कुछ ना जोड़ा जाता तो यह बुरा मानते. इसलिये यह इक़बाल खाली कहे जाने लगे. भूगोल के एक टीचर का नाम “बहरुल काहल” रख दिया गया. यह टीचर कोई काम तेज़ी से नहीं कर सकते थे. इसलिये उन्हे काहली का सागर कहा गया. भूगोल के ही एक और टीचर सिगार हुसैन जैदी कहे गये कि उन्हे एक जमाने में सिगार का शौक् चर्राया था……..बल भद्र नारायण शुक्ला भी इसी सिलसिले की एक कड़ी थे. यह टोपी कहे जाने लगे.बात यह है कि विश्वविधालय यूनियन में नंगे सर बोलने की परम्परा नहीं है. टोपी को ज़िद कि में तो टोपी नहीं पहनूंगा. इसलिये होता यह है कि यह जैसे ही बोलने खड़े होते हैं सारा यूनियन हाल एक साथ टोपी टोपी का नारा लगाने लगता है. धीरे धीरे टोपी और बल भद्र नारायण का रिश्ता गहरा होने लगा. नतीजा यह हुआ कि बल भद्र नारायण को छोड़ दिया गया और उन्हे टोपी शुक्ला कहा जाने लगा. फिर गहरे दोस्तों ने शुक्ला की पंख भी हटा दी और यह सिर्फ टोपी हो गये.” (1)
जीवनी के अंदाज़ में लिखा गया यह उपन्यास विभाजन के कुछ साल पहले से शुरू हो कर विभाजन के बाद की एक दहाई पर फैला हुआ है. कहानी कभी फ्लैश बैक में चलती है तो कभी वर्तमान में, इस प्रकार वर्तमान से भूतकाल और भूतकाल से वर्तमान में आने जाने का सिलसिला चलता रहता है. उपन्यासकार ने उपन्यास के हीरो टोपी के आस-पास की घटनाओं से उपन्यास का सारा ताना बाना बुना है और प्रमुख्ता से हीरो के व्यक्तित्व के विकास में जो कारक ज़िम्मेदार रहे हैं उनको उभारा है. इस प्रयास में उसने हीरो के साथ दूसरे सहायक नायकों को भी उभारा है लेकिन उनकी हैसियत सिर्फ यह है कि वे घटनाओं और डायलाग के ज़रिये हीरो के नज़रिये को उभारें.
दूसरे शब्दो में कह सकते हैं कि बल भद्र नारायण उर्फ टोपी शुक्ला तो एक आईना है और आईने का काम यह है कि वह सामने वाले को उसका असली चेहरा दिखा दे. इस उपन्यास में राही मासूम रज़ा ने इस आईने की तकनीक की सारी संभावनाओ को काम में लाते हुये अपने उद्देश्य की ओर कदम बढ़ाया है.
“इन्हीं दिनों वह कुछ नए लोगों से भी मिला. यह लोग सुबह सुबह लड़कों को इकट्ठा करके लकड़ी सिखलाते, कुश्ती लड़वाते, परेड करवाते और उनसे बातें करते. टोपी अचानक उनके पास चला गया. हाथों हाथ लिया गया. फिर जब उसे पता चला कि यह वह पार्टी है जिसने गांधी जी को मारा है तो उसे बड़ा डर लगा. लेकिन वह उन लोगों से मिलता रहा. उन्हीं लोगों से उसे पहले पहल पता चला कि मुसलमानों ने किस तरह देश को सत्यानाश किया है. देश भर में जितनी मस्जिदें हैं वो मंदिरों को तोड़ कर बनाई गयी हैं (टोपी को यह मानने में ज़रा शक था, क्योंकि शहर की दो मस्जिदें तो उसके सामने बनी थीं और कोई मंदिर वंदिर नहीं तोड़ा गया था) गौ हत्या तो मुसलमानों का ख़ास शौक है. फिर उन्होने देश का बटवारा कराया है. पंजाब और बंगाल में लाखों हिन्दू बूढ़ो और बच्चों को बेदर्दी से मारा. औरतों की इज़्ज़त लूटी और क्या क्या नहीं किया इन मुसलमनों ने. यह जब तक देश में हैं देश का कल्याण नहीं हो सकता. इसलिये मुसलमानों को अरब सागर में ढकेल देना हर हिन्दू नव युवक का कर्तब्य है.”(2)
विभाजन से पहले मोहम्मद अली जिन्नाह और दूसरे मुस्लिम लीगी नेता अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय में बराबर आते रहते थे इसी तरह गांधी जी और दूसरे कांग्रेसी नेता भी लगातार दौरा करते थे. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय के वामपंथी लोग भी बराबर जलसा करते थे. इस तरह हम देखते हैं कि उस समय अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय का पूरा केम्पस अलग अलग विचार रखने वालों का गढ़ बना हुआ था. उपन्यास का हीरो तो सीधे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविधालय में इतिहास विभाग के शिक्षक और उसके बचपन के दोस्त सय्यद ज़र्गाम मुर्तोज़ा आब्दि उर्फ इफ़्फ़्न तथा दूसरे दोस्तों से जुड़ा हुआ था. यह सभी वामपंथ से प्रभावित थे. इन सभी से जुड़ी घटनायें और इनके करनामों से यह अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है कि आगे देश में किस प्रकार का परिवर्तन देखने को मिलेगा. राजनैतिक दलों के द्वारा छात्रों के अंदर भरी गयी जागरूकता क्या रंग लायेगी इसका भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
“देखिये बात यह है कि पहले ख्वाब सिर्फ तीन तरह के होते थे- बच्चों के ख्वाब, जवानों के ख्वाब और बूढ़ों के ख्वाब. फिर ख्वाबों की इस फेहरिस्त में आज़ादी के ख्वाब भी शामिल हो गये. और फिर ख्वाबों की दुनिया में बड़ा घपला हुआ. माता पिता के ख्वाब बेटे और बेटियों के ख्वाब से टकराने लगे. वालिद बेटे को डाक्टर बनाना चाहते हैं और बेटा वामपंथी पार्टी का होल टाइमर बन कर बैठ जाता है. सिर्फ यही घपला नहीं हुआ. बरसाती कीड़ों की तरह भाँति-भाँति के ख्वाब निकाल आये. कलर्कों के ख्वाब, मज़दूरों के ख्वाब, मिल मालिकों के ख्वाब, फिल्म स्टार बनने के ख्वाब, हिन्दी ख्वाब, उर्दू ख्वाब, हिंदुस्तानी ख्वाब, पाकिस्तानी ख्वाब, हिन्दू ख्वाब, मुसलमान ख्वाब. सारा देश ख्वाबों के दलदल में फंस गया. बच्चों, नोजवानों और बूढ़ों के ख्वाब, ख्वाबों की धक्कम पेल में तितर बितर हो गये. हिन्दू बच्चों, हिन्दू बुज़र्गों और हिन्दू नौजवानों के ख्वाब मुसलमान बच्चों, मुसलमान बूढ़ों और मुसलमान नोजवानों के ख्वाबों से अलग हो गये. ख्वाब बंगाली, पंजाबी और उत्तर प्रदेशी हो गये.” (3)