• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » गूँगी रुलाई का कोरस: रणेन्द्र

गूँगी रुलाई का कोरस: रणेन्द्र

रणेंद्र के तीसरे अप्रकाशित उपन्यास ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं. ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ और ‘गायब होता देश’ से चर्चित, प्रशंसित रणेंद्र के इस तीसरे उपन्यास से भी बहुत उम्मीदें हैं. शीर्षक ही इस बात का पता देता है कि इस उपन्यास के केंद्र में शास्त्रीय संगीत है और वह समय भी जिसने इसे अब बदरंग कर दिया है. रणेन्द्र अध्ययन और शोध करके लिखने वाले कथाकार हैं. उनके उपन्यासों के लिए यह कहा जा सकता है कि जिसे इतिहास भुला देता है उसे साहित्य याद रखता है.   

by arun dev
July 25, 2019
in कथा
A A
गूँगी रुलाई का कोरस: रणेन्द्र
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
 

गूँगी रुलाई का कोरस

रणेन्द्र

 

“रक्त की गंध लेकर हवा जब उन्मत्त हो
जल उठे कविता विस्फोटक बारूद की मिट्टी
अल्पना-गाँव-नौकाएँ-नगर-मंदिर
तराई से सुन्दरवन की सीमा जब
सारी रात रो लेने के बाद शुष्क ज्वलंत हो उठी हो
जब जन्म स्थल की मिट्टी और वधस्थल की कीच
एक हो गई हो
तब दुविधा क्यों? संशय कैसा? त्रास क्यों?”
नवारुण भट्टाचार्य

 

 
 
 
सबेरे थोड़ी देर से नींद खुली. पत्नी श्रावणी का चेहरा आँसुओं से भींगा था. बहुत मुश्किल से आवाज़ आई…क..म..ल.. फिर धार-धार आँसू. लगा कि छाती के भीतर जोर से मरोड़ उठा हो. अजब तरह की पीड़ा, हूक की तरह…  अँतड़ियाँ ऐंठने लगी. हूक ऊपर उठी, लगा छाती फट जायेगी. चक्कर सा आने लगा. श्रावणी ने दौड़ कर सँभाला. पानी पिलाया. सिर चकराना बन्द हुआ. रुलाई फूट पड़ी.
अम्मू के आँगन में आज सूरज नहीं उगा था. न जाने किस राहु-केतु ने उसे निगल लिया था. उस अँधेरे के दलदल में हम धँसे जा रहे थे. तभी कोई कानों में फुसफुसाया, पुलिस आत्महत्या बता रही है. लेकिन अपने गाँव वाले स्टेशन के बस फर्लांग भर पहले कोई चलती ट्रेन से छलाँग लगा कर आत्महत्या क्यों करेगा?
कल सबेरे ट्रेन में बिठाने तक तो सब नॉर्मल था. ठीक-ठाक. यह सही है कि अखबार के मैनेजमेंट से उसकी बहस हुई थी. वही अखबार ‘डेली एक्सप्रेस’, जिसने कभी माँग-माँग कर लेख छापे. उन लेखों पर बहसें करवा कर उन्हें लोकप्रिय बनाया. तब यही सम्पादक श्रीवास्तव हर तीसरे-चौथे दिन फोन किया करते. आलेख का नया विषय सुझाया करते. सुआर्यन जागरण सेना और भगवान् कच्छप-रक्षा सेना की हरकतों से वे भी उतना ही बेचैन हुआ करते थे जितना कि कमल या ‘मौसीकी-मंजिल’ और आश्रम के लोग. ठीक है कि बी०बी० गुप्ता ने अखबार के शेयर खरीद लिए. इसका क्या मतलब कि एकदम एक सौ अस्सी डिग्री पर घूम जाया जाये. आश्रम की जमीन जायदाद बड़ो नानू-नानू के खानदान की बेटियों का नाम से था. झूठे कागजात पर दावा पेश कर रहे किसी बाहुबली बिल्डर के पक्ष में मुख्य पृष्ठ पर समाचार छापने का क्या मतलब? वह भी छह कॉलम का. क्या मजाक है? बात ऐसी थी कि अपने भालो कमल दा जैसा बाउल मानुष भी गुस्से में आ गया. हाँ! सम्पादक श्रीवास्तव से थोड़ी ज्यादा गरमा-गरमी हो गई थी. इसका उसे अफसोस जरूर था. लेकिन इस वाकये से वह किसी तनाव में या डरा हुआ तो नहीं था. 


डरता वह किसी से भी नहीं था. चाहे श्रीवास्तव की हिस्ट्री-ज्योगारफी, जो भी रही हो. चाहे जिन सफेदपोश लोगों के कालेधन को खपाने के लिए उसने यह प्रेस खरीदा हो. चाहे सुआर्यन जागरण सेना के खतरनाक और रहस्यमय नेता बी०बी० गुप्ता से उसकी जितनी गहरी दोस्ती हो. हमारे यार कमल कबीर को ठेंगा भर फर्क नहीं पड़ता था. हाँ! उसे पछतावा इस बात का था कि श्रीवास्तव के बोल-वचन जो भी रहे हों, जिसके कहने पर झूठी खबर उसने छापी हो, उसे इतना लाउड और एग्रेसिव नहीं होना चाहिए था. यह उसका एटिकेट नहीं था. उसने स्टेशन से ही हमारे सामने श्रीवास्तव को ‘सॉरी’ का मेसेज भेजा था. लेकिन यह कोई गिड़गिड़ाहट नहीं थी. अब यह सब न डिप्रेशन के लक्षण थे और न आत्महत्या की प्लानिंग के. उसने आत्महत्या नहीं की है. इसकी तो गारंटी है. लेकिन सवाल यह भी है कि अगर हत्या हुई है, तो किसने करवाई?
हाँ! यह सच है कि कुछ समय पहले कमल डिप्रेशन में था. इसके कारण कहीं बाहर नहीं थे बल्कि घर में थे….. दरअसल शब्बो भाभी अपने अब्बू से बहुत गहरे जुड़ी थीं. और बाबा-बेटियों के लगाव से थोड़ा ज्यादा ही लगाव. बात ऐसी थी, जब बचपन और कैशोर्य में उन्हें अम्मी की सबसे ज्यादा जरूरत थी उस वक्त वे बहुत ज्यादा व्यस्त थीं. उनकी ख्याति चरम पर थी. वे तब देश की सबसे व्यस्त शास्त्रीय गायिकाओं में से एक थीं. उनका होना भर कार्यक्रमों की सफलता की गारंटी था. देश-विदेश के संगीत-समारोहों, आकाशवाणी-दूरदर्शन के कार्यक्रमों से फुर्सत मिलती, तो उनकी अतिप्रिय शिष्य-शिष्याएँ घेरे रहतीं. उनमें से तो कुछ इतनी दुलारी थीं कि रसोईघर से बेडरूम तक वे ही वे होतीं. शबनम का तो मानो वजूद ही न हो. शबनम तो थी ही नहीं. ऐसी अम्मी तो किसी घर में नहीं. नानू तो और भी व्यस्त. घर में रहते भी तो अपने कमरे में रियाज़़ में डूबे. उन जैसे सारे उबाऊ दिनों, बोझिल रातों में केवल अब्बू-बेटी का ही संग-साथ रहता. एक दूसरे को ढाढ़स बँधाता. इसीलिए जब भी अब्बू अपना जोगिया जामा पहन कर संगियों के संग सारंगी-एकतारा लेकर निकलते, शब्बो की जान निकल जाती. उसकी बायीं आँख फड़कने लगती. नाक सुरसुराने लगती. बुखार चढ़ने लगता. पेट खराब हो जाता. किन्तु अब्बू नहीं रुकते. 

अब शब्बो की कोशिश होती कि वह उन रातों में नहीं सोये. क्योंकि सोते ही बुरे सपने आ घेरते कि अब्बू को लोग खदेड़ रहे हैं. मार रहे हैं. तलवारें चला रहे हैं. गोलियाँ चल रही है. धायँ-धायँ. अब्बू गोली खाकर औंधे मुँह सड़क पर पड़े हैं. भीड़ उन्हें कुचलती हुई भागी जा रही है. अब्बू लहूलुहान. डर से काँपती शब्बो की आँखें खुल जातीं, तो सचमुच पट्टियों में लिपटे अब्बू, लहूलुहान, बगल के बिस्तर पर लेटे दिखते. थोड़ी देर के लिए तो उसे यकीं ही नहीं होता कि यह ख्वाब है कि हक़ीक़त. फिर शब्बो को बहुत गुस्सा आता. सब पर. पूरी दुनिया पर. खास कर अम्मी पर, जो अब्बू को कभी रोकती नहीं थीं. बहुत-बहुत गुस्सा. दिनों-हफ्तों-महीनों अम्मी से बात नहीं करती. थोड़ी बड़ी हुई. तो सब कुछ समझने लगी. 

अब्बू के पीछे लगी हुई बद्दुआ से अब उसे मुहब्बत हो गयी. अम्मी की तरह उसे भी यह एतबार हो गया कि उस कमबख्त बद्दुआ से कहीं बड़ी एक दुआ भी अब्बू खुर्शीद शाह जोगी के कदम-दर-कदम साथ चलती है. कि दंगे-बलवे कितने भी बड़े हों, गोलियाँ-फरसे-बर्छे कितने भी चलें, अब्बू को हमसे छीन नहीं सकते. जब असम-नेल्ली में चले तलवार, भागलपुर में लाशों के ऊपर फूलगोभी के खेत में चौतरफा चले फरसे, और हाशिमपुरा में लगी गोलियाँ कुछ नहीं बिगाड़ सकीं, तो कोई इब्लीस-कोई शैतान क्या बिगाड़ लेगा? अब्बू तो हर हाल में हमारे पास आयेंगे ही आयेंगे. हर बार परवरदिगार की दुआ उन्हें अपनी चादर में लपेट कर हिफाजत से हमारे पास पहुँचा देगी.
लेकिन शब्बो की पकती समझ, रौशन दिमाग, आला दर्जे की पढ़ाई, मौसीकी की चाँद-चाँदनी सब फक्क से उड़ जाते, जब वह अब्बू को पट्टियों में लिपटे-जख्म खाये देखती. तब उसे बहुत-बहुत गुस्सा आता. अम्मू-नानू सब पर. खास कर अहमदाबाद वली दकनी की मजार के ज़मींदोज होने के बाद, रातों-रात उस पर कोलतार फेरने और सड़क बनने की खबर के बाद जब बुलडोजर से घुटने तक कुचला दाहिना पैर लेकर अब्बू वापस आये तो लगा, वह सबों पर टूट पड़ेगी. उसे अब्बू के संगी जोगी काकू लोग भी दूश्मन ही लगने लगे. अपने नहीं ……… कोई और ………… अन्य ……….. शायद दंगे वाले गुंडों जैसे.
ठीक है कि पूरे देश या सच कहें तो पूरी दुनिया की हवा बारूद के कणों से भर गई है. तेजाबी हो गई है. अब कहीं-कोई इन्साँ को इन्साँ की नज़र से नहीं देखता. वह हिन्दू है या मुसलमाँ, कैथोलिक या प्रोटेस्टेंट या यहूदी या शिया-अहमदिया-कुर्द-सूफी-मैक्सिकन-ब्लैक-ब्राउन.. न जाने क्या-क्या…. एक कभी न खत्म होने वाली लिस्ट, जो यह बतलाती थी कि सामने वाला हमारा नहीं है. हमारे ‘हम’ में शामिल नहीं है. वह कोई और है, दूसरा है, ‘अन्य’ है. एक अजनबी है, जिससे अलग रहना है. जिसमें कमियाँ ढूँढ़नी है. अभी नहीं तो इतिहास के पन्नों में ढूँढ-ढूँढ कर उससे चिढ़ना है-उससे घृणा करनी है. क़िस्से-कहानियों के राक्षस के शक्ल में उसे ढालना है. मौका मिलते ही इस राक्षस को, पैदाइशी दुश्मन को खत्म कर देना है. यही वह जलेबी जैसा घुमावदार नक्शा था जिसका चक्कर लगा, हवा बवंडर का रूप इख्तियार करती थी.
लेकिन यह बवंडर, यह बारूद-भरी धूल अम्मू की चौखट को कैसे लाँघ गई? शब्बो भाभी की साँसों में- सोच में- दिल में- कैसे समा गई? वह देश में संगीत के सबसे आला घराने की वारिसों में से एक थी, जिनके यहाँ मौसीकी-गायन ही इबादत थी. जहाँ पूजा और नमाज को एक साथ इज़्ज़त बख्शी जाती थी. निजामुद्दीन औलिया से इजहारे मुहब्बत और माँ शारदा देवी से गुहार में कोई फर्क नहीं था. खुद अम्मू के बड़ो बाबा जब भी मौज में होते तो यह बतलाते थे कि उनके पूर्वज त्रिपुरा के दीनानाथ देव शर्मा हिन्दू थे, जिनके इकलौते बेटे ने देवी चौधरानी के इंकलाबी समूह में शामिल रहने के कारण गिरफ्तारी के भय से इस्लाम ग्रहण कर अपनी पहचान छुपाई थी. वे सिराजू से शम्स फकीर बन गये थे. बड़ो बाबा और अपने बड़े नानू की बीवियाँ भी हिन्दू घराने से थीं. खानदान में कौन क्या था? किसकी इबादत-पूजा करता था, अब तक किसी ने न ध्यान दिया, न किसी का ध्यान गया. 

बड़ो बाबा का मैहरवाली माँ शारदा से लौ लगी थी, इसे तो हर कोई जानता है. बिना माँ की पूजा किये उनके मुँह से निवाला भी नहीं उतरता था. क्या शख्सियत थी बड़ो बाबा की! मैहर देवी की सैकड़ों सीढ़ियाँ चढ़ी, मग्न होकर पूजा की. मन हुआ तो मैया को कुछ गाकर सुनाया. उतरे तो मछली बाजार की ओर निकल लिए. उसी मस्त भाव से मछलियाँ खरीदीं. घर आकर नमाज पढ़ी, खाना खाया और रियाज़़ के लिए बैठ गए. लेकिन आज किसे याद थे बड़ो बाबा और उनकी मैहर माई की सेवा, किसे याद थे बड़ो नानू माहताबुद्दीन खान का काली माँ से जुड़ाव और बाबा बिस्मिल्ला खाँ का गंगा मैया से लगाव. हवा में घुला तेजाब इन सारे लगावों, मुहब्बतों को तार-तार करने पर आमादा था. अभी तो बस मौत की खबरें ही सच थीं. अभी तो हमारे जिगर का एक हिस्सा कट गया था. अभी तो कमल के मौत की खबर आरे की तरह हमारे कलेजे को चीरे जा रही थी.

(दो)


“खूसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग.
तन मेरा मन पीउ का, दोऊ भये एक रंग.”
-अमीर खुसरो
बेचारा कमल! उसे सुआर्यन सेना के लोगों के साथ जब-तब होने वाली बहसों के पहले किसी ने यह याद नहीं दिलाया था कि उसका धरम क्या है? उसकी जाति क्या है? वैसे भी उसका पूरा नाम कमल कबीर था. वीरभूम के नामी बाउल रोबिन दादू का पोता और संगीत महाविद्यालय के उस्ताद मदन बाउल का इकलौता चिराग़. स्कूल के रजिस्टर में बाबा ने बाउल की जगह लिखाया कबीर तो वह कमल बाउल से कमल कबीर हो गया. हालाँकि उसका बहुत मन था कि नाम ही बदलना है तो अपना नाम वह लालन रख ले लालन कमल….न.. न लालन कबीर…कमल लालन ना.. लालन कमल ही ठीक. या फिर निताई रख ले, निताई कमल… या मिताई.. या कमल गौर कैसा.. कैसा…. रहता या कमल चैतन्य… भीषोण भालो… क्या नाम… कमल चैतन्य. किन्तु उसके मुँह से बोल ही नहीं फूटता था. 


ननिहाल चुरूलिया जाता तो उसका मन होता कि वह अपना नाम सीधे नजरूल इस्लाम ही रख ले. अब मन का क्या? मन तो क्या न क्या सोचता रहता! …कैसा …. करता रहता! मन करता कि जब कोई उसका धरम-जाति पूछे तो वह भी अपने पुरखे लालन फकीर की तरह चिल्ला कर कहे “सब पूछते लालन फकीर हिन्दू या मुसलमान, लालन कहे जानूँ न मैं मेरा क्या संधान.”
लेकिन लगता है माँ की तरह उसे भी घुट्टी में पिलाया गया था कि मन को मारो. चुप रहो. जब्त करो. जो बाबा कहें वो सच. जो दादू कहें वो सच. बाकी सब झूठ. उसे भालो छेलो बनना था, जैसे माँ को भालो बो-अच्छी बहू. दोनों ने केवल सिर हिलाना सीखा था. सपने में भी ना नहीं बोला. कभी मन की बात नहीं कही. बस फिर क्या, सब भालो… भालो…. कमोल खोका खूब भालो. मदन बो खूब भालो. लेकिन कमल जितना अपनी माँ को जानता था उतना बाबा और दादू क्या जानते. माँ अपने मन के खाते-खतियान में साल भर का हिसाब लिखती रहती और माँ-मनसा के पूजा के दिनों में सब वसूल लेती. हिसाब-किताब बराबर. कमल ने एक दिन मूड में माँ की कहानी सुनाई थी.
हमारे गाँव धूरिशा में माँ मनसा की पूजा सावन माह के आखिरी दिनों में बड़ी धूमधाम से सम्पन्न होती. तीन दिनों तक चलने वाली इस पूजा में बत्तख की बलि चढ़ती थी. खास बात यह थी कि माँ पर माँ मनसा की असवारी आती. वे पूजा-स्थल पर जा कर बाल-फाल फैला कर झूमने लगती. साल भर चुप रहने वाली माँ कितना-कितना बोलती. बोली-बानी सब बदल जाती. सबका भूत-भविष्य सब बाँचने लगती. बाबा-दादू से कितना-कितना साड़ी-सन्देश-रसोगोल्ला सब उसी अवस्था में वसूल लेती. बड़ा होने पर मुझे सब समझ में आने लगा था. साल भर जो भी खाने-पीने-पहनने-ओढ़ने का मन करता, माँ मनसा के असवारी के बहाने सब पूरा कर लेती. हिसाब-किताब बरोबर.
कमल के गप्प में माँ मनसा और माँ अक्सर आया करती थीं. लेकिन अभी तक कमल अपने मन की बातों को पूरा करने का उपाय नहीं ढूँढ पाया था. सचमुच में खूब भालो छेले था. नाटक करना-झूठ बोलना-लोगों की बात काटना सीख नहीं पाया. आदमी को इतना अच्छा भी नहीं बनना चाहिए. दादू ने कहा, कमोल गाना सीखेगा. कमल सबेरे तीन बजे रियाज़़ के लिए हाज़िर. बारहवीं पास करते बाबा ने कहा खोका इंजीनियरिंग पढ़ेगा. 


कमोल कम्पीटिशन की तैयारी में भिड़ गया. दूसरे साल सिम्बोसिस इन्स्टीच्यूट ऑफ मीडिया एंड कम्यूनिकेशन, पूणे के इंजीनियरिंग कॉलेज में. साउन्ड इंजीनियरिंग का ब्रान्च भी बाबा की पसन्द से. क्लास में उतनी नामी गायिका पद्मविभूषण विदुषी रागेश्वरी देवी की बेटी शबनम खान. पर्सनाल्टी ऐसी कि सब दो हाथ दूर ही रहते. पाँच फीट सात-आठ ऊँचाई, एकदम देवी माँ जैसा रूप-रंग. खूब बड़ी-बड़ी आँखें. घुटनों तक लम्बे घुँघराले बाल. खूब घनी भौंहें. बस नाक सुतवा नहीं, पहाड़ियों जैसी. उसके ऊपर नानू उस्ताद अय्यूब खान साहब जैसी गम्भीर भाव-भंगिमा. अम्मीजान के देश-विदेश से लाये एक से एक ड्रेस एक अलग आतंक का माहौल बना देते. करैला पर नीम यह कि गुस्सैल भी. किसी ने न दोस्ती करनी चाही और न उसने किसी को तरजीह दी.
छह-सात माह बाद लाइब्रेरी में मिस खान ने ही आवाज दी थी… ऐ …छेले कि नाम … ओ… कमोल जरा सा मेरा यह प्रोब्लम देख लो. यानी पहले दिन से आदेश देने वाली अदा. कमोल बेचारा … उसे तो पैदा होते आदेश सुनने की आदत, एकदम नेचुरल …घर जैसी फीलिंग. कोई दिक्कत नहीं. कोई ईगो-फिगो नहीं. कोई किन्तु-परन्तु नहीं. मिस खान की पढ़ाई की तकलीफें अब कमोल कबीर- के॰ के॰ के जिम्मे. जब सेमेस्टर के सारे पेपर्स के॰ के॰ नोट्स के सहारे पार हो गये तो मिस खान साहिबा को थोड़ी-थोड़ी गिल्ट-गिल्ट सी फीलिंग हुई होगी, तो उन्होंने एक अटपटा सा, अजीबो-गरीब सा फरमान जारी किया, के॰ के॰ सुनो अब से हम तुम्हारे फ्रेंड. कमल को थोड़ी देर तक तो समझ में नहीं आया कि यह नया आदेश क्या है? इस पर किस तरह रिऐक्शन देना है? बात कुछ खुली, तो उसने सदा की तरह हामी भर दी.
लेकिन दादू-बाबा-माँ और अब मिस खान की हर बात पर हामी भरने वाला भालो छेले-भालो कमोल इतना भालो भी नहीं था. कुछ बातें अपनी मन की भी किया करता था. जैसे दादू से सात-आठ साल तक जो पक्का गान सीखा था वो सब धु्रपद, धमार-ख्याल, सबका कमरा बन्द कर रात में रियाज़़ किया करता. पढ़ाई-प्रोजेक्ट पूरा कर, कमरे की खिड़की-दरवाज़े बन्द कर के सारंगी से शुरू करता. माहौल बनते गायन का रियाज़़ शुरू. काफी-वागेश्वरी-जैजैवन्ती से होता आधी रात के राग मालकौस-विहाग तक पहुँचता. फिर नियम से सो जाता. कभी जल्दी नींद आती तो सबेरे जल्दी उठ कर ललिता-योगिया-रामकली-गुनकली, भोर के रागों का रियाज़.
लेकिन उस भोर में बात छुपी नहीं रह गई. उसे ठीक-ठाक याद है कि राग जोगिया के कोमल धैवत पर था कि कोई किवाड़ खटखटाने लगा. पहले धीरे-धीरे फिर जोर-जोर से. उसे उठना ही पड़ा. बड़ी खीज हुई. न जाने कौन है? अगल-बगल के कमरों के बैचमैट्स तो धूप चढ़े आठ-साढ़े आठ बजे तक सोते थे. बैचमैट्स ही क्यों, लगभग पूरे हॉस्टल का यही हाल था. फिर जैसे-तैसे ब्रश-फ्रश करते ब्रेड-आमलेट भकोसते हाफ पैन्ट्स में ही क्लास में. यह इतना आम मंजर था कि अब कोई चौंकता भी नहीं था. लड़कियों ने भी मान लिया था कि ये नालायक-इडियट्स ऐसे ही हैं. नहीं सुधरने वाले. अब भालो छेले कमोल ही पूरी ड्रेस में ऑड लगता. बैचमैट्स टीज़ करते. गुस्साते. हार कर कमल भी हाफ पैन्ट्स-स्लीपर में ही क्लास जाने लगा.
दरवाजा खोलते ही सामने मिस खान. अभी… अभी तो ठीक से उजाला भी नहीं हुआ था. सूर्योदय के ठीक पहले का गहरा अँधेरा. क्यों… कैसे,  अभी सोच ही रहा था कि मिस खान उसे हल्के से ठेलते हुए कमरे में अन्दर. घूम-घूम कर कभी सारंगी-कभी तानपूरा-कभी हारमोनियम देखने लगी. अजब-गजब मंजर थे. उनका चेहरा स्क्रीन बना हुआ था. उस पर तरह-तरह के रंग आ-जा रहे थे. कभी बैजनी-कभी नीला-जामुनी कभी लाल. चेहरा इन्द्रधनुष में तब्दील होता जा रहा था और आँखें फैल कर कानों तक पहुँच गई थीं. पहली बार भालो कमोल …. कमल कबीर उर्फ के॰ के॰ मिस खान के सामने नर्वस नहीं था. उसे स्क्रीन के क्षण-क्षण बदलते रंगों को देख कर मजा आ रहा था.
कुछ मिनटों के बाद ही मिस खान के मुँह से बोल फूटे. बोल क्या, केवल हँसी के बुलबुले फूटे. वह तो बस हँसे ही जा रही थी. धीरे-धीरे पूरा कमरा उनकी खिलखिलाहट से भर उठा. अपने रोम-रोम से खिलखिलाती मिस खान नीचे चटाई पर बैठ गई और तानपूरा उठा लिया. कोमल धैवत से आगाज़ किया. राग जोगिया अपने कोमल ऋषभ-कोमल धैवत के साथ कमरे में खुद पधार कर भक्ति बिखराने लगी… सूरत बिसरे नाहीं मन सो…. हृदय उपजे आस दरसन …..

 

(तीन)

“तुव गुण रवि उदै कीनो याही तें कहत तुमको बाई उदैपुरी.
अनगिन गुण गायन के अलाप विस्तार सुर जोत
दीपक जो तोलों सों विद्या है दुरी..
जब जब गावत तब तब रससमुद्र लहरें उपजावत
एसी सरस्वती कौन कों फुरी.
जानन मन जान शाह औरंगजेब रीझ रहे याही तें
कहत तुमको विधारूप चातुरी.. ”
–औरंगजेब
मिस शबनम खान के चेहरे पर खिला इन्द्रधनुष थोड़ा ढीठ हो चला था. एक तो बिना पूछे जब-तब चला आता. और आता तो जल्दी रुखसत नहीं होता. वे जब के॰ के॰ के कमरे में तशरीफ लातीं तो चेहरे का वह इन्द्रधनुष साथ-साथ तशरीफ लाता और कमरे की दरो-दीवार पर काबिज हो जाता. बेशरम इन्द्रधनुष बड़ा मायावी था. मायाजाल फैलाना उसकी फितरत थी. दरो-दीवार से उतर कर वह इन दोनों के वजूद में जज्ब होने की कोशिश में लगा रहता. दोनों की निगाहों की रंगत बदलने में उसे देर नहीं लगती. उसके बाद वह हॉस्टल का नाचीज कमरा अपने को जन्नत का हिस्सा महसूसने लगता. फिर वहाँ जो तानपूरे-हारमोनियम के स्वर गूँजते, जो ताल और सुर चमचमाते, जो राग और सरगम की लहरें उठतीं, उनकी खुशबू से पूरी कायनात महक उठती. 


अमीर खुसरो-गोपाल नायक और जयदेव, स्वामी हरिदास-बैजू बावरा और तानसेन, राजा मानसिंह तोमर और बादशाह अकबर, मुहम्मद शाह रंगीले, सदारंग-अदारंग और खुशरंग, वाजिद अली शाह और विष्णु दिगम्बर पुलस्कर, भातखंडे, उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और बड़ो बाबा, पंडित ओंकार नाथ ठाकुर और उस्ताद अमीर खाँ, सब के सब उस जन्नत के टुकड़े पर हाजिर हो जाते. दाद देते, झूमते, उन दोनों के आलाप और सुर में सुर मिलाते उसे कोरस बनाते. सबका रोम-रोम गाता, रोम-रोम सुनता. ठीक शब्बो के नानू की सीख की तरह कि नगमा ऐसा कि रूह सुनाए और रूह सुने.
जन्नत के इस टुकड़े पर उस ढीठ धनुक की शरारत से रूहें सुना रही थीं और पूरी कायनात सुन रही थी. खिड़की से चोरी छिपे झाँकता चाँद सुन रहा था, एड़ियों पर उचक कर ताकते सितारे सुन रहे थे, नदियों-वनस्पतियों की डाकिया हवा कमरे में आलथी-पालथी मार कर सुन रही थी.
सब बदल रहे थे. जैसे पतझड़ के बाद बसंत आया हो. सबसे पहले तो मिस शबनम खान बदलीं. सारा रूखापन, उदासी, गुस्सा, डिप्रेशन सब के सब धीरे-धीरे यूँ गायब हुए मानो हरसिंगार के पौधों पर बरसों बाद नई टहनियाँ, पत्तों और कलियाँ आई हों. उसके नानू तो कहा ही करते थे कि मौसीकी रूह के सबसे पाक जज्बे का बहाव है, उसे पेड़ पर पत्तियों की तरह आना चाहिए. और गुलाबी-नई-नकोरी पत्तियां शब्बो की रूह में उतरती-खिलती ही जा रही थीं. यह कमाल के॰ के॰ का था. जो काम दवाओं और दुआओं ने नहीं किया, नानू-अब्बू-अम्मू की राग-रागनियों ने नहीं किया, वह असम्भव काम भालो कमोल के तानपूरे और सुर ने कर दिखाया था. एक जादू था जो घटित हो चुका था. उसे आश्चर्य भी हो रहा था, थोड़ी ईर्ष्या भी हो रही थी और थोड़ा दुलार भी आ रहा था. कमोल… भालो बाबू….
ईर्ष्या इसलिए कि जिस खानदान में वह पैदा हुई थी वह हिन्दुस्तानी मौसीकी के सबसे बड़े-ऊँचे आलिमों का खानदान था. कहते हैं छह महीने की उम्र से ही उसने मौसीकी की अपनी समझ दिखलानी शुरू कर दी थी. उसकी रुलाई तानपूरे की झंकार सुनते बन्द हो जाती. दो-ढ़ाई साल की उम्र से ही अम्मू के रियाज़़ के समय अलस्सुबह जग जाती. उनी बगल में बैठ, ध्यान से आरोह-अवरोह को गुनती रहतीं. कभी-कभी उनके आलाप में अपने तुतली-आलाप की युगलबन्दी का मजा लेती. दुनिया भर में हिन्दुस्तानी मौसीकी का अलख जगाते, सम्मान बढ़ाते लगातार घूमते रहने वाले नानू ने उसकी जन्मजात प्रतिभा को पहचाना और पाँच साल की उम्र से बाजाप्ता गंडा बाँध कर अपना शागिर्द बनाया. सबसे नन्ही शागिर्द. शायद हिन्दुस्तानी संगीत के इतिहास में बाल गंधर्व-कुमार गंधर्व के बाद दूसरी सबसे नन्ही शागिर्द. जिसके मानस की कोशिकाओं में सारी राग-रागिनियाँ सोई पड़ी थीं. केवल सच्चे गुरु के टोहके की जरूरत थी.
कुछ-कुछ कुमार गंधर्व वाली चमत्कार-जैसी बात शब्बो में भी थी. लेकिन दरअसल उसके असली गुरु उसके अपने अब्बा हुजूर ही थे, क्योंकि चाह कर भी नानू और अम्मू अपनी व्यस्ततम रुटीन से उसके लिए समय नहीं निकाल पाते थे. इसीलिए वह नानू से तो उतना नहीं, किन्तु अम्मू से बहुत नाराज रहती थी. अब्बू की तालीम को गाँठ में बाँध तो रही थी, किन्तु औरों की तरह उसके मन के कोने में यह बात छुपी थी कि अम्मू, अब्बू से कहीं बड़ी गायिका हैं तभी तो इतना नाम है, इतना सम्मान है. इतने प्रोग्राम्स, इतने ईनाम-एकराम. लेकिन जब अब्बू के पाठ-रियाज़ की बदौलत मात्र पन्द्रह बरस की उम्र में ख्याल गायकी का आउटस्टैंडिंग यंग पर्सन अवार्ड जीता तो उसका नज़रिया बदल गया. 


दरअसल अब्बू खुर्शीद शाह ने भले ही उस्ताद अय्यूब खान के कदमों में बैठ कर सबसे ऊँची तालीम पाई हो, हिन्दुस्तानी मौसीकी के जर्रे-जर्रे को रोम-रोम में जज्ब किया हो, किन्तु मंच-प्रदर्शन, बैठकी-समारोह, वाह-वाही, देश-विदेश के दौरे, ईनाम-एकराम, साहब-हुक्काम सब उन्हें बेमतलब के लगते. तालियों की गड़गड़ाहटों से उन्हें घबराहट होती. वे थे खानदानी जोगी और जोगी ही बने रहना चाहते थे. वर्षों के रियाज़-मिहनत-गायन की तालीम का लाभ यह हुआ कि अपने उस्ताद अय्यूब खान की तरह मौसीकी के बहाने वे भी रूहानी खुशबू से रूबरू हो गये. वह गाढ़ी खुशबू उनके वजूद पर इस कदर तारी हुई कि दुनिया की हर खुशबू, हर रंग फीका लगने लगा.
लेकिन इस औलिया फकीर खुर्शीद शाह ने मौसीकी की तालीम से एक दुनियाबी ईनाम भी हासिल किया था. कोहिनूर जैसे नयाब हीरे से भी बेशकीमती-अनमोल-अपरूप हीरा. दरअसल तालीम के आखिरी दिनां में उस्ताद अपनी बेटी रागेश्वरी को भी संगीत-समारोहों में साथ ले जाते. जाते तो और शागिर्द भी, लेकिन उनकी कोशिश रहती कि रागेश्वरी को भी एकल गायन का मौका मिले. बढ़ावा तो अन्य शागिर्दों को, खास कर मदन बाउल और खुर्शीद जोगी को भी देते किन्तु बेटी आखिर बेटी थी, वह भी इतनी गुणवान. मौका भले अब्बू के कारण मिला हो, लेकिन अपनी खास जगह, रागेश्वरी ने, अपनी प्रतिभा के बल पर बनायी. जल्द ही उस्ताद के बिना अलग से विदुषी रागेश्वरी देवी को गायन के न्योते आने लगे. उसी सिलसिले में एक बहुत ही नामी, राष्ट्रीय स्तर के संगीत सम्मेलन में गायन के लिए न्योता आया, किन्तु अब्बू को यूरोप दौरे पर निकलना था, सो रागेश्वरी का अकेले ही जाना तय हुआ. किन्तु मौसम बदल रहा था और रागेश्वरी को हरारत-सी थी. हल्का बुखार, सर्दी-खाँसी. तब तय यह भी हुआ कि साथ में खुर्शीद जोगी भी जायेंगे. शायद उस्ताद को कुछ अंदेशा रहा हो, या यूँ ही एहतियातन.
लेकिन यात्रा की थकान या बेअसर दवा के कारण रागेश्वरी की हरारत बढ़ गई. अब उस बड़े-विशाल समारोह में अपने घराने और उस्ताद की शान बचाने की जिम्मेवारी खुर्शीद पर. मौसीकी के एक से एक दिग्गज सामने बैठे हुए. उनके पीछे रसिकों की भारी भीड़. नये गायक का होश फाख्ता करने को सारा सरअंजाम मौजूद था. लेकिन खुर्शीद तो मन से जोगी. उन्हें इस भीड़ के लिए थोड़े गाना था, उन्हें तो बस अपने उस्ताद अय्यूब खान और आदिगुरु गोरखनाथ को सुनाना था. दिन का चौथा पहर था. आँखें मूँदीं. जिन्हें सुनाना था, उन्हें याद किया और उस्ताद का मनपसन्द राग मारवा उठाया. उस्ताद की ही मेरुदण्ड तकनीक. 


बिलम्बित में ‘जाग बावरा’ के षडज से ही सारी फुसफुसाहटें बन्द हो गईं. कोमल ऋषभ से तीव्र मध्यम पर पहुँचते चमत्कार सा हुआ. लगा कि शागिर्द खुर्शीद नहीं बल्कि उस्ताद अय्यूब खान साहब खुद माइक के सामने हों. एकदम सन्नाटा. फिर तो सवा घण्टे तक मारवा ही मारवा था, विलम्बित से द्रुत तक. ‘गुरु बिन ज्ञान न पावें’ के बोल धरती से आकाश तक छा गये. गायन खत्म हुआ तो महफिल सराबोर हो चुकी थी. सबके हृदय और कंठ भरे-भरे से. सुनने-सुनाने के लिए कोई अवकाश ही नहीं था. उस अपूर्व मारवा के बाद सभा उठ गई. गरम चादर और गाढ़ी चिन्ता में लिपटी रागेश्वरी के तो मानो होश गुम गये हों. गायन के शुरू होते कोमल ऋषभ से तीव्र मध्यम तक पहुँचते उसकी दिल की धड़कन तीव्र से तीव्रतम हो गई. 


अपने अब्बू की छवि खुर्शीद में उतरते देख आँखें फटी रह गईं. मारवा को यूँ रोम-रोम में उतरता महसूस करना एक अचीन्ही खुशबू में डूबना, सब उसके लिए नया था. सब नया-नकोर, चाँद-चाँदनी में ऊब-डूब करता. सामने मंच पर झूमता-झुमाता खुर्शीद भी नया-नया सा. मारवा भी बिल्कुल नये कलेवर में रिमझिम-रिमझिम बरस रहा था. रस में भींगता सारे रसिकों का वजूद धुल-पुँछकर ज्यादा हरा, चमचम चमकीला हो निखर आया था. कम से कम रागेश्वरी तो यही महसूस कर रही थी. उसे तो मंच पर अब्बू के साथ-साथ आदिगुरु गोरखनाथ भी अपने शिष्यों की भीड़ के साथ दिख रहे थे. रागेश्वरी को अब ज्यादा आगे-पीछे नहीं सोचना था. वह जिस खुशबू में डूब-उतरा रही थी उसी खुशबू से उसने एक अनोखी वरमाला गूँथी और सामने रस में लथपथ खुर्शीद के गले में डाल दी. अब्बू और आदिगुरु तो आशीर्वाद देने के लिए बैठे ही थे.
शब्बो को सब पता था. लेकिन न जाने क्यों ध्यान से सब उतर गया था. दुनियावी चमक-दमक, ईनाम-एकरामों की झमक से आँखों पर पर्दा पड़ गया था. वह अपने अब्बू के अनोखेपन को भूल गई थी. क्या अनोखा औलिया-फकीर-जोगी अम्मी चुन कर लाई थी? अब उसके हिस्से में यह बाउल. सब औल-बौल उसके ही खानदान की किस्मत में. समय-कुसमय, सोच में डूबती-उतराती, अनोखे रंग में रँगती, बेमतलब खिलखिलाती शब्बो खुद भी औल-बौल, औलिया-बाउल बनती जा रही थी.
अब शब्बो को लग रहा है कि जो होता है अच्छा ही होता है. न वह नानू-अब्बू से जिद्द कर अहमदाबाद के राहत शिविरों में जाती, न वे खौफनाक मंजर सामने आते, न वह शॉक्ड होती, न मेंटल ब्लॉक होता, न उसका गायन छूटता, न वह इस इंजीनियरिंग कॉलेज में आती और न इस आउल-बाउल कमल कबीर से भेंट होती. तब फिर अनजाने उसके कलम शबनम के॰ खान कैसे लिखते?
__________
kumarranendra2009@gmail.com  
Tags: गूँगी रुलाई का कोरस
ShareTweetSend
Previous Post

डब्ल्यू. एस. मरविन की आठ कविताएँ : सरबजीत गरचा

Next Post

निज घर : लटक मत फटक : व्योमेश शुक्ल

Related Posts

उपन्यास और सांस्कृतिक प्रतिरोध: विजय बहादुर सिंह
आलेख

उपन्यास और सांस्कृतिक प्रतिरोध: विजय बहादुर सिंह

गूँगी रुलाई का कोरस(रणेन्द्र): प्रेमकुमार मणि
समीक्षा

गूँगी रुलाई का कोरस(रणेन्द्र): प्रेमकुमार मणि

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक