आलोचक और कथाकार राकेश बिहारी के स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ का समापन वन्दना राग की कहानी ‘ख़यालनामा’ की विवेचना से हो रहा है, इसके अंतर्गत आपने निम्न कहानियों पर आधारित आलोचनात्मक आलेख पढ़ें हैं –
1) लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले)
2) शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट (आकांक्षा पारे)
3) नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल)
4) अँगुरी में डसले बिया नगिनिया (अनुज)
5) पानी (मनोज कुमार पांडेय)
6) कायांतर (जयश्री राय)
7) उत्तर प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र पाण्डेय)
8) नीला घर (अपर्णा मनोज)
9) दादी,मुल्तान और टचएण्डगो (तरुण भटनागर)
10) कउने खोतवा में लुकइलू ( राकेश दुबे)
11)चौपड़े की चुड़ैलें (पंकज सुबीर)
12) अधजली (सिनीवाली शर्मा)
13) जस्ट डांस (कैलाश वानखेड़े)
14) मन्नत टेलर्स (प्रज्ञा)
15) कफन रिमिक्स (पंकज मित्र)
16) चोर– सिपाही (आरिफ)
17) पिता–राष्ट्रपिता(राकेश मिश्र)
18) संझा (किरण सिंह)
19) अगिन असनान (आशुतोष)
20) बारिश के देवता (प्रत्यक्षा)
21) गलत पते की चिट्ठियाँ(योगिता यादव)
22) बंद कोठरी का दरवाज़ा (रश्मि शर्मा)
23) ख़यालनामा (वन्दना राग)
चयनित कथाकार और उनकी कहानियाँ ही श्रेष्ठ हैं ऐसा कोई प्रस्ताव यह श्रृंखला नहीं रखती है, इस उपक्रम का लक्ष्य समकालीन समय-सत्यों का अन्वेषण और उसकी विवेचना है. एक तरह से २१ वीं सदी की कथा-प्रवृत्तियों की पड़ताल की यह एक कोशिश रही है, अब यह पुस्तकाकार भी प्रकाशित होकर आपके समक्ष होगी. आलेखों के साथ संदर्भित कहानियाँ दी गयीं है जिससे यह ‘पाठ-चर्चा’ युवा अधेय्ताओं के लिए भी उपयोगी हो. कथा को समझने के अनेक औजार उन्हें यहाँ मिलेंगे.
आलोचना के लिए आलोचकीय विवेक, अन्वेषण और साहस की जरूरत होती है जो राकेश बिहारी के पास है. कहानियों की आलोचना के सिलसिले में वे पाठ तक ही केन्द्रित नहीं रहें हैं, पाठ के बाहर की बहसों और विमर्श तक वे जाते रहें हैं, शोध और खोज की जहाँ जरूरत थी वहाँ भी वे गये हैं.
लगभग चार वर्षो के इस आलोचकीय परिघटना का सहभागी और साक्षी समालोचन रहा है. यह स्तम्भ खूब पढ़ा जाता रहा है और इसने अपने समय को कई तरह से प्रभावित किया है. इस सार्थक श्रृंखला के पूर्ण होने पर राकेश बिहारी बधाई के हकदार हैं. जल्दी ही समकालीन उपन्यास पर अपने नये स्तम्भ के साथ वह समालोचन पर आपको मिलेंगे.
भूमंडलोत्तर कहानी – २३ (समापन क़िस्त)
चयनित अकेलेपन का अनिवार्य उपोत्पाद
(संदर्भ: वंदना राग की कहानी `ख़यालनामा`)
राकेश बिहारी
दिलचस्प है कि `ख़यालनामा`से गुजरते हुये मुझे हिन्दी कथा साहित्य की एक अविस्मरणीय कहानी और हिन्दी साहित्य जगत के एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व की याद लगातार आती रही. कहानी- `कोसी का घटवार` और व्यक्ति- राजेन्द्र यादव! राघव रमण का अविवाहित होना, उसके पहले प्रेम की स्मृति और प्रेमिका से मिलना (हूबहू वैसा ही न होने के बावजूद) अपने मोटे साम्य के कारण जहां `कोसी का घटवार` की याद दिलाता है वहीं राघव रमण की जिजीविषा और हर पल युवा दिखने की चाहत राजेन्द्र यादव की. हाँ, इस सिलसिले में उसके सेवक सोमेश की सपरिवार (पत्नी और बच्चा सहित) उपस्थिति से राजेन्द्र जी के स्थायी परिचारक किशन और उसके परिवार की याद भी ताजा हो जाती है. यह इस कहानी का एक ऐसा पक्ष है जो मुझे बार-बार अपने तक खींच लाता है और हर बार मैं चाहते न चाहते भीतर से नम हो जाता हूँ. कई पाठकों के लिए अवांतर होने के बावजूद इसके जिक्र से न बच पाने का यही कारण है. हालांकि पाठक को अपने किसी जीवन प्रसंग से पल भर को जोड़ पाना भी मेरी नज़र में किसी कहानी की बड़ी सफलता है. यहाँ यह भी रेखांकित किया जाना जरूरी है कि राघव रमण के अविवाहित होने या उसके प्रथम प्रेम की स्मृति और एक अन्य प्रेमिका से मिलने के बावजूद कहानी के केंद्र में पात्रों के परस्पर संबंध से ज्यादा अकेलेपन और उसके भय से व्याप्त मनोवैज्ञानिक अभिक्रियाओं का होना इसे `कोसी का घटवार` और `राजेन्द्र यादव` की स्मृति-छवियों से विमुक्त भी कर देता है.
विविध अनुशासनों में उच्च शिक्षा के अवसरों की बढ़ती अधिकता और मेडिकल क्षेत्र में होने वाले नित नए अनुसन्धानों से मनुष्यों की औसत आयु बढ़ी है. वहीं जीवन की नई जटिलताओं, बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और संकुचित होते जीवन-मूल्यों ने आज तरह-तरह की भौतिक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को जन्म दिया है. अकेलापन, उसके अनुसांगिक भय और परिणामस्वरूप उत्पन्न होनेवाला अवसाद इस नई जीवन शैली के अनिवार्य उपोत्पाद हैं. जीवन के उत्तरार्ध में दोस्तों की कमी और तेज गति से बदलते समय के साथ तुकतान बिठाने में होनेवाली व्यावहारिक दिक्कतों के कारण ऊब, अकेलापन और अवसाद ऐसे लोगों के जीवन का अनिवार्य हिस्सा हो जाते हैं. डर, आशंका और असुरक्षाबोध के त्रिकोण में फंसे राघव रमण के बदलते व्यवहारों के सूक्ष्म अंकन से यह कहानी इन नई जीवन-स्थितियों की विडंबनाओं को बहुत ही प्रभावशाली तरीके से साकार करती है.
आयुवृद्धि को मनोवैज्ञानिकों ने एक चरणबद्ध शारीरिक प्रक्रिया कहा है जिसके साथ सामंजस्य स्थापित करने में सामाजिक संबंध और सामाजिकता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. वैयक्तिक स्वतन्त्रता और निजता की चाहत का चाहे जितना भी उत्सवीकरण किया जाये, एक खास उम्र के बाद समाजविमुख निजता के आग्रह अकेलेपन, तनाव और अवसाद को ही जन्म देते हैं. परिवार के अभाव से उत्पन्न अकेलेपन, समय के तमाम अंतरालों के बीच उग आए अजनबीपन, पल-पल सर उठाते असुरक्षाबोध और अवसाद में धकेलने वाले तमाम लक्षणों के बावजूद यदि राघव रमण की जिजीविषा कायम रहती है तो इसमें उनके शोध छात्र अनिकेत कुलकर्णी और सेवक सोमेश की सपरिवार उपस्थिति की बड़ी भूमिका है जो उनके लिए कहानी में परिवार का प्रतिस्थानापन्न हैं.
रचनात्मक लेखन के लिए शोधात्मक प्रविधि का इस्तेमाल पहले भी किया जाता रहा है. सूचना क्रान्ति ने बहुअनुशासनिक शोध को जिज्ञासु और प्रयोगधर्मी लेखकों के लिए बहुत आसान बना दिया है. भूमंडलोत्तर समय की इस विशेषता को इधर की कई कहानियों में देखा जा सकता है. यह लेखिका की शोधवृत्ति का नतीजा है कि `ख़यालनामा` आयुवृद्धि के कारण और प्रभावों की बहुकोणीयता को सामाजिक और मनोवैज्ञानिक ही नहीं जैविक सिद्धांतों की कसौटी पर भी कसने का हरसंभव जतन करती हैं. राघव रमण की सामाजिक-पारिवारिक स्थिति, उसकी मनोवैज्ञानिक अभिक्रियाओं के समानान्तर उसके भीतर पल रहे संशयों और चौकन्नेपन के परिणामस्वरूप `स्टेम सेल थेरेपी` की संभावनाओं के प्रति उसकी जिज्ञासा सब मिलकर उसके अकेलेपन की स्थिति का बहुकोणीय जायजा लेते हैं.
राघव रमण के व्यवहारों में प्रसिद्ध चीनी वैज्ञानिक वॉन्ग द्वारा प्रतिपादित क्षति-संचय सिद्धान्त से लेकर आयुवृद्धि से संबन्धित गतिविधि सिद्धान्त तक की मान्यताओं के लक्षण देखे जा सकते हैं. भूमंडलोत्तर कहानियों में बहुधा संवेदना के मुक़ाबले शोध को तबज्जो देने के कई उदाहरण मौजूद हैं. आयुवृद्धि के संदर्भ में हुये आधुनिक शोध के कई सूत्रों को राघव रमण के दैनंदिन व्यवहार में भी देखा जा सकता है लेकिन यह सुखद है कि ये शोध कहानी में शोध की तरह नहीं आए हैं. अपनी उम्र को लेकर राघव रमण के भीतर पल रहे नानाविध भयों और उनके परिणामस्वरूप उसकी प्रतिक्रियाओं और आचार-व्यवहारों की अंतर्ध्वनियों में इन सिद्धान्तों की अनुगूंजें आसानी से सुनी जा सकती हैं.
प्रेम की उत्कट लालसा, आखिरी बूंद तक जीवन-रस में पगे रहने की प्यास और जीवन के अठहत्तरवें वर्ष में भी युवा और चुस्त दिखने का शौक राघव रमण के जीवन-स्वप्न का अभिन्न हिस्सा है. लेकिन उम्र एक ऐसी सच्चाई है जो उसके भीतर तरह-तरह की चिंताओं-आशंकाओं के बीज रोपती चलती है. अपनी अवस्थाजनित हकीकतों के कारण किसी के आगे दयनीय नहीं दिखने की वह हरसंभव कोशिश करता है लेकिन इस उपक्रम में उसकी दयनीयता लगातार प्रकट होती चलती है. अनिकेत के साथ अपने सम्बन्धों को लेकर एक अतिरिक्त सजगता हो या फिर परिमिता और अनिकेत के बीच के सहज सामीप्य को देख अनिकेत के प्रति अपमान और ईर्ष्या से भरा व्यवहार, उसी दयनीयता के प्रकट होने के संकेत हैं. इन सब के मूल में राघव रमण का अकेलापन और असुरक्षाबोध ही है. अनिकेत कुलकर्णी में दोस्त और सेवक सोमेश के परिवार में उसके परिवार के विकल्प की तलाश के बहाने यह कहानी जीवन में मित्र और परिवार की जरूरतों को ही रेखांकित करती है जिसका संकुचन भूमंडलोत्तर समय का एक बड़ा सच है.
आज के समय में मजबूती से फैल रहा यह अकेलापन उस अकेलेपन से सर्वथा भिन्न है जिसका महिमामंडन साहित्य में निजता की रक्षा और आध्यात्मिक अन्वेषण के नाम पर गाहेबगाहे होता रहा है. यह वह अकेलापन है जो समाज और सम्बन्धों की आत्मीय परिधि से विलग होकर विकसित हो रहे नवउदारवादी आर्थिक माहौल का उपोत्पाद है जिससे बचने का एक और अकेला उपाय लगातार क्षीण हो रहे सम्बन्धों की ऊष्मा का संरक्षण है. सोमेश के बच्चे के प्रति राघव रमण के मन में उमड़ा वात्सल्य हो या कि मैराथन दौड़ पूरा करते अनिकेत कुलकर्णी में उसका खुद को देखना, समबन्धों की ऊष्मा के संरक्षण का ही उपक्रम है.
इस टिप्पणी के आरंभ में मैंने `ख़यालनामा` पढ़ते हुये `कोसी का घटवार` के याद आने की बात कही थी. कथानायक के अकेले होने के बावजूद सम्बन्धों की सांद्र सघनता और पात्रों की परस्पर आत्मीयता के कारण जहां ‘कोसी का घटवार’ प्रेम की कहानी है वहीं सहज सम्बन्धों के चयनित अभाव के कारण `ख़यालनामा अकेलेपन की त्रासदी की. उल्लेखनीय है कि दोनों कहानियों के लिखे जाने के बीच लगभग पचास वर्षों का फासला है. इस दौरान भारतीय समाज में रिश्तों की बुनावट को लेकर तीन सौ साथ डिग्री का सांघातिक बदलाव आया है, जिसकी रफ्तार पिछले कुछ वर्षों में लगातार तेज हुई है. यही कारण है कि कुछ हद तक एक जैसे पात्रों की कहानी होने के बावजूद `ख़यालनामा` अपने युगीन अर्थ-संकेतों के साथ `कोसी का घटवार` का विलोम है. काश यह कहानी उसका पूरक या विस्तार हो पाती! यह मांग इस कहानी से ज्यादा अपने समय से है.
हिन्दी कहानी में किसी बुजुर्ग या वृद्ध का अकेलापन कोई दुर्लभ विषय नहीं है. बिना स्मृति पर ज़ोर डाले ही इस विषय पर अलग-अलग कोणों से लिखी गई कई अच्छी कहानियों का आस्वाद हमारे संवेदना तंतुओं में जाग्रत हो जाता है. निर्मल वर्मा की `सूखा`, शेखर जोशी की `कोसी का घटवार` राजेन्द्र यादव की \’उसका आना\’ , उषा प्रियम्वदा की `वापसी`, सुषम वेदी की `गुनहगार`, आनंद हर्षुल की `उस बूढ़े आदमी के कमरे में` आदि कुछ ऐसी ही कहानियाँ हैं. `अकार` के रजत जयंती अंक में प्रकाशित वंदना राग की कहानी- `ख़यालनामा`को मैं बुजुर्गों के अकेलेपन पर लिखी गई इन कहानियों की समृद्ध शृंखला की भूमंडलोत्तर कड़ी के रूप में देखता हूँ. इस विषय पर अबतक लिखी गई कहानियों से गुजरते हुये बुजुर्गों की ज़िंदगी में व्याप्त अकेलेपन को सुविधा के लिए प्रकृतिप्रदत्त, समाजप्रदत्त और परिवारप्रदत्त की तीन श्रेणियों में विभाजित कर के देखा जा सकता है.
`ख़यालनामा`के केंद्रीय चरित्र राघव रमण का अकेलापन इन सब से अलग बहुत हद तक उसी के द्वारा चयनित है. आध्यात्मिक और पारलौकिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु परिवार के त्याग और अकेलेपन के चयन के उदाहरण तो प्राचीन भारतीय जीवन और साहित्य में खूब मिलते हैं, लेकिन कैरियर और पेशेगत काम के सिलसिले में इस कदर रम जाना कि परिवार बसाने की याद ही न रहे भारतीय समाज के लिए अपेक्षाकृत नया है. पाश्चात्य जीवन शैली से जोड़ कर देखे जाने के कारण इस तरह के अकेलेपन को भारतीय समाज की समस्या के रूप में नहीं देखा जाता रहा है. पर अब ऐसा नहीं किया जा सकता. अकेलेपन का दंश झेलेते राघव रमण जैसे वृद्धों की संख्या भले आज भी भारतीय समाज में कम हो, लेकिन नवउदारवादी आर्थिक परिवेश में इस तरह के अकेलेपन का चयन करनेवालों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जिन्हें भविष्य के राघवों की तरह ही देखा जा सकता है. भविष्य के गर्भ में छिपे इन राघवों की यह अनिवार्य संभावना मुझे `ख़यालनामा`को एक महत्वपूर्ण और जरूरी कहानी के रूप में रेखांकित करने का तर्क और दृष्टि प्रदान करती है.
`ख़यालनामा`के केंद्रीय चरित्र राघव रमण का अकेलापन इन सब से अलग बहुत हद तक उसी के द्वारा चयनित है. आध्यात्मिक और पारलौकिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु परिवार के त्याग और अकेलेपन के चयन के उदाहरण तो प्राचीन भारतीय जीवन और साहित्य में खूब मिलते हैं, लेकिन कैरियर और पेशेगत काम के सिलसिले में इस कदर रम जाना कि परिवार बसाने की याद ही न रहे भारतीय समाज के लिए अपेक्षाकृत नया है. पाश्चात्य जीवन शैली से जोड़ कर देखे जाने के कारण इस तरह के अकेलेपन को भारतीय समाज की समस्या के रूप में नहीं देखा जाता रहा है. पर अब ऐसा नहीं किया जा सकता. अकेलेपन का दंश झेलेते राघव रमण जैसे वृद्धों की संख्या भले आज भी भारतीय समाज में कम हो, लेकिन नवउदारवादी आर्थिक परिवेश में इस तरह के अकेलेपन का चयन करनेवालों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जिन्हें भविष्य के राघवों की तरह ही देखा जा सकता है. भविष्य के गर्भ में छिपे इन राघवों की यह अनिवार्य संभावना मुझे `ख़यालनामा`को एक महत्वपूर्ण और जरूरी कहानी के रूप में रेखांकित करने का तर्क और दृष्टि प्रदान करती है.
दिलचस्प है कि `ख़यालनामा`से गुजरते हुये मुझे हिन्दी कथा साहित्य की एक अविस्मरणीय कहानी और हिन्दी साहित्य जगत के एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व की याद लगातार आती रही. कहानी- `कोसी का घटवार` और व्यक्ति- राजेन्द्र यादव! राघव रमण का अविवाहित होना, उसके पहले प्रेम की स्मृति और प्रेमिका से मिलना (हूबहू वैसा ही न होने के बावजूद) अपने मोटे साम्य के कारण जहां `कोसी का घटवार` की याद दिलाता है वहीं राघव रमण की जिजीविषा और हर पल युवा दिखने की चाहत राजेन्द्र यादव की. हाँ, इस सिलसिले में उसके सेवक सोमेश की सपरिवार (पत्नी और बच्चा सहित) उपस्थिति से राजेन्द्र जी के स्थायी परिचारक किशन और उसके परिवार की याद भी ताजा हो जाती है. यह इस कहानी का एक ऐसा पक्ष है जो मुझे बार-बार अपने तक खींच लाता है और हर बार मैं चाहते न चाहते भीतर से नम हो जाता हूँ. कई पाठकों के लिए अवांतर होने के बावजूद इसके जिक्र से न बच पाने का यही कारण है. हालांकि पाठक को अपने किसी जीवन प्रसंग से पल भर को जोड़ पाना भी मेरी नज़र में किसी कहानी की बड़ी सफलता है. यहाँ यह भी रेखांकित किया जाना जरूरी है कि राघव रमण के अविवाहित होने या उसके प्रथम प्रेम की स्मृति और एक अन्य प्रेमिका से मिलने के बावजूद कहानी के केंद्र में पात्रों के परस्पर संबंध से ज्यादा अकेलेपन और उसके भय से व्याप्त मनोवैज्ञानिक अभिक्रियाओं का होना इसे `कोसी का घटवार` और `राजेन्द्र यादव` की स्मृति-छवियों से विमुक्त भी कर देता है.
विविध अनुशासनों में उच्च शिक्षा के अवसरों की बढ़ती अधिकता और मेडिकल क्षेत्र में होने वाले नित नए अनुसन्धानों से मनुष्यों की औसत आयु बढ़ी है. वहीं जीवन की नई जटिलताओं, बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और संकुचित होते जीवन-मूल्यों ने आज तरह-तरह की भौतिक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को जन्म दिया है. अकेलापन, उसके अनुसांगिक भय और परिणामस्वरूप उत्पन्न होनेवाला अवसाद इस नई जीवन शैली के अनिवार्य उपोत्पाद हैं. जीवन के उत्तरार्ध में दोस्तों की कमी और तेज गति से बदलते समय के साथ तुकतान बिठाने में होनेवाली व्यावहारिक दिक्कतों के कारण ऊब, अकेलापन और अवसाद ऐसे लोगों के जीवन का अनिवार्य हिस्सा हो जाते हैं. डर, आशंका और असुरक्षाबोध के त्रिकोण में फंसे राघव रमण के बदलते व्यवहारों के सूक्ष्म अंकन से यह कहानी इन नई जीवन-स्थितियों की विडंबनाओं को बहुत ही प्रभावशाली तरीके से साकार करती है.
आयुवृद्धि को मनोवैज्ञानिकों ने एक चरणबद्ध शारीरिक प्रक्रिया कहा है जिसके साथ सामंजस्य स्थापित करने में सामाजिक संबंध और सामाजिकता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. वैयक्तिक स्वतन्त्रता और निजता की चाहत का चाहे जितना भी उत्सवीकरण किया जाये, एक खास उम्र के बाद समाजविमुख निजता के आग्रह अकेलेपन, तनाव और अवसाद को ही जन्म देते हैं. परिवार के अभाव से उत्पन्न अकेलेपन, समय के तमाम अंतरालों के बीच उग आए अजनबीपन, पल-पल सर उठाते असुरक्षाबोध और अवसाद में धकेलने वाले तमाम लक्षणों के बावजूद यदि राघव रमण की जिजीविषा कायम रहती है तो इसमें उनके शोध छात्र अनिकेत कुलकर्णी और सेवक सोमेश की सपरिवार उपस्थिति की बड़ी भूमिका है जो उनके लिए कहानी में परिवार का प्रतिस्थानापन्न हैं.
रचनात्मक लेखन के लिए शोधात्मक प्रविधि का इस्तेमाल पहले भी किया जाता रहा है. सूचना क्रान्ति ने बहुअनुशासनिक शोध को जिज्ञासु और प्रयोगधर्मी लेखकों के लिए बहुत आसान बना दिया है. भूमंडलोत्तर समय की इस विशेषता को इधर की कई कहानियों में देखा जा सकता है. यह लेखिका की शोधवृत्ति का नतीजा है कि `ख़यालनामा` आयुवृद्धि के कारण और प्रभावों की बहुकोणीयता को सामाजिक और मनोवैज्ञानिक ही नहीं जैविक सिद्धांतों की कसौटी पर भी कसने का हरसंभव जतन करती हैं. राघव रमण की सामाजिक-पारिवारिक स्थिति, उसकी मनोवैज्ञानिक अभिक्रियाओं के समानान्तर उसके भीतर पल रहे संशयों और चौकन्नेपन के परिणामस्वरूप `स्टेम सेल थेरेपी` की संभावनाओं के प्रति उसकी जिज्ञासा सब मिलकर उसके अकेलेपन की स्थिति का बहुकोणीय जायजा लेते हैं.
राघव रमण के व्यवहारों में प्रसिद्ध चीनी वैज्ञानिक वॉन्ग द्वारा प्रतिपादित क्षति-संचय सिद्धान्त से लेकर आयुवृद्धि से संबन्धित गतिविधि सिद्धान्त तक की मान्यताओं के लक्षण देखे जा सकते हैं. भूमंडलोत्तर कहानियों में बहुधा संवेदना के मुक़ाबले शोध को तबज्जो देने के कई उदाहरण मौजूद हैं. आयुवृद्धि के संदर्भ में हुये आधुनिक शोध के कई सूत्रों को राघव रमण के दैनंदिन व्यवहार में भी देखा जा सकता है लेकिन यह सुखद है कि ये शोध कहानी में शोध की तरह नहीं आए हैं. अपनी उम्र को लेकर राघव रमण के भीतर पल रहे नानाविध भयों और उनके परिणामस्वरूप उसकी प्रतिक्रियाओं और आचार-व्यवहारों की अंतर्ध्वनियों में इन सिद्धान्तों की अनुगूंजें आसानी से सुनी जा सकती हैं.
प्रेम की उत्कट लालसा, आखिरी बूंद तक जीवन-रस में पगे रहने की प्यास और जीवन के अठहत्तरवें वर्ष में भी युवा और चुस्त दिखने का शौक राघव रमण के जीवन-स्वप्न का अभिन्न हिस्सा है. लेकिन उम्र एक ऐसी सच्चाई है जो उसके भीतर तरह-तरह की चिंताओं-आशंकाओं के बीज रोपती चलती है. अपनी अवस्थाजनित हकीकतों के कारण किसी के आगे दयनीय नहीं दिखने की वह हरसंभव कोशिश करता है लेकिन इस उपक्रम में उसकी दयनीयता लगातार प्रकट होती चलती है. अनिकेत के साथ अपने सम्बन्धों को लेकर एक अतिरिक्त सजगता हो या फिर परिमिता और अनिकेत के बीच के सहज सामीप्य को देख अनिकेत के प्रति अपमान और ईर्ष्या से भरा व्यवहार, उसी दयनीयता के प्रकट होने के संकेत हैं. इन सब के मूल में राघव रमण का अकेलापन और असुरक्षाबोध ही है. अनिकेत कुलकर्णी में दोस्त और सेवक सोमेश के परिवार में उसके परिवार के विकल्प की तलाश के बहाने यह कहानी जीवन में मित्र और परिवार की जरूरतों को ही रेखांकित करती है जिसका संकुचन भूमंडलोत्तर समय का एक बड़ा सच है.
आज के समय में मजबूती से फैल रहा यह अकेलापन उस अकेलेपन से सर्वथा भिन्न है जिसका महिमामंडन साहित्य में निजता की रक्षा और आध्यात्मिक अन्वेषण के नाम पर गाहेबगाहे होता रहा है. यह वह अकेलापन है जो समाज और सम्बन्धों की आत्मीय परिधि से विलग होकर विकसित हो रहे नवउदारवादी आर्थिक माहौल का उपोत्पाद है जिससे बचने का एक और अकेला उपाय लगातार क्षीण हो रहे सम्बन्धों की ऊष्मा का संरक्षण है. सोमेश के बच्चे के प्रति राघव रमण के मन में उमड़ा वात्सल्य हो या कि मैराथन दौड़ पूरा करते अनिकेत कुलकर्णी में उसका खुद को देखना, समबन्धों की ऊष्मा के संरक्षण का ही उपक्रम है.
इस टिप्पणी के आरंभ में मैंने `ख़यालनामा` पढ़ते हुये `कोसी का घटवार` के याद आने की बात कही थी. कथानायक के अकेले होने के बावजूद सम्बन्धों की सांद्र सघनता और पात्रों की परस्पर आत्मीयता के कारण जहां ‘कोसी का घटवार’ प्रेम की कहानी है वहीं सहज सम्बन्धों के चयनित अभाव के कारण `ख़यालनामा अकेलेपन की त्रासदी की. उल्लेखनीय है कि दोनों कहानियों के लिखे जाने के बीच लगभग पचास वर्षों का फासला है. इस दौरान भारतीय समाज में रिश्तों की बुनावट को लेकर तीन सौ साथ डिग्री का सांघातिक बदलाव आया है, जिसकी रफ्तार पिछले कुछ वर्षों में लगातार तेज हुई है. यही कारण है कि कुछ हद तक एक जैसे पात्रों की कहानी होने के बावजूद `ख़यालनामा` अपने युगीन अर्थ-संकेतों के साथ `कोसी का घटवार` का विलोम है. काश यह कहानी उसका पूरक या विस्तार हो पाती! यह मांग इस कहानी से ज्यादा अपने समय से है.