सवाई सिंह शेखावत (फरवरी १३, १९४७) के आठवें कविता संग्रह ‘निज कवि धातु बचाई मैंने (२०१७) को इस वर्ष राजस्थान साहित्य अकादमी के मीरा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. शेखावत राजस्थानी भाषा में भी लिखते हैं.
ईमानदारी, नैतिकता, सलीका और साहस कवि के बीज शब्द हैं जिनसे वे कविता का अपना संसार रचते हैं.
उनकी कुछ कविताएँ आपके लिए.
उनकी कुछ कविताएँ आपके लिए.
सवाई सिंह शेखावत की कविताएँ
पुनर्वास
पुनर्वास एक जायज कार्रवाई है
बशर्ते वह दूसरों की जमीन न हड़पती हो
घर बसाने की कला हमें दूब से सीखनी चाहिए
स्थानिकता की जड़ों में ठहरी
समय के निर्मम थपेड़ों को सहती
वह इंतजार करती है रात को झरती ओस का
हितैषी हवाओं और अनुकूल मौसम का
जब वह दीवार की संध में फिर से अंकुरित होगी
और ढाँप लेगी खंडहर महल के कंगूरों को.
स्नेह भरे गर्वीले
सीधे स्थिर खड़े घर को देखता हूँ
और अपने पुरखों को याद करता हूँ
पाँव तले की ज़मीन सिर पर का आसमान
आँगन का साझा सहकार याद करता हूँ
याद करता हूँ वह ज़बान जो माँ से सीखी
साँवली काली पड़ती माँ की त्वचा याद करता हूँ
विपदा की खरोचों के बीच बची यक़ीन की ज़मीन
खारी जुबान में छिपी मिठास याद करता हूँ
ठसाठस जिंदगी से भरा वह भरपूर अपनापन
एक तालाबंद गुमशुदगी का निज़ाम याद करता हूँ
घर के कोने अंतरों में बसी समूची स्निग्ध नमी
गाँव गली का विरल एतबार याद करता हूँ
दुनिया के तमाम-तमाम बेघर लोगों को
पनाह देने का ख़्वाहिशमंद नहीं मैं
बस इतना चाहता हूँ वे मेरे पड़ौसी हों
स्नेह भरे गर्वीले.
थोड़े पिता थोड़ी-थोड़ी माँ
मैं जब भी कराहता हूँ मुझे माँ की याद आती है
मेरी यादों में पैबस्त है पिता का रुआबदार चेहरा
खुशी के पलों में मैं अक्सर माँ को बिसराए रहा
दुनिया को बरतते हुए पिता जब-तब याद आए
वैसे हर पिता में छिपी होती है थोड़ी-थोड़ी माँ भी
जो प्रकट होती है केवल जीवन के आर्द्र क्षणों में
ठीक वैसे ही माँ भी भीतर से मजबूत पिता होती है
लेकिन माँ में पिता का आधिपत्य होते ही
माँ अक्सर सिकन्दर हो जाती है फिर वह
घर-परिवार को सल्तनत की तरह चलाती है
जबकि पिता में माँ का होना उन्हें मानवीय बनाता है
ऐसे में ऊपर वाले से बस इतनी-सी दुआ है
बचे रहें माँ में थोड़े पिता, पिता में बची रहे थोड़ी-थोड़ी माँ.
अड़सठ का होने पर
अड़सठ वर्ष का होने पर सोचता हूँ
अब तक ग़ैर की ज़मीन पर ही जिया
एक आधी-अधूरी और उधारी जिंदगी
समय को कोसते हुए कविताएँ लिखीं
ग़म की और छूँछी खुशी की भी
अक्सर डींग भरी और दैन्य भरी
भुला बैठा कि एक दिन मरना भी है
लेकिन कल से फ़र्क दिखेगा साफ़
अपनी रोज़मर्रा जिंदगी जीते हुए अब
हर पल बेहतर होने की कोशिश करूँगा
धीरजपूर्वक जानूँगा घनी चाहत का राज
वृक्षों से सीखूँगा उम्र में बढ़ने की कला
ताकि हो सके दुनियाँ फिर से हरी-भरी
अपराजेय आत्मा के लिए दुआ करूँगा
अपनी धरा, व्योम और दिक् में मरूँगा.
(ताद्यूश रूजे़विच की कविता से अनुप्रेरित)
सच्ची कविता
सच्ची कविता जय-पराजय का हिसाब नहीं रखती
वह न त्याग से लथपथ है न किसी भोग से
बेवजह चीजों से घिन करना भी उसका स्वभाव नहीं
वह किसी करिश्में की तलबगीर नहीं है
उसका कद सामान्य है और वजन भी सामान्य
उसे चीजों का वैसा ही होना पसंद है जैसी वे हैं
अपनी सीमाओं और विविधताओं में मौलिक
जहाँ अनेकता की एकता का सच्चा बसाव है
कोई वायदा, कोई आश्वासन नहीं है वहाँ
पर एक उम्मीद है जीवितों की भाषा में
पीढ़ियों से जिसकी रखवाली की है मनुष्यता ने
वह जानती है स्वतंत्र होने का मतलब
वह हार सकती है स्वयं के विरुद्ध
पर दूसरे की जमीन नहीं हड़पेगी.
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