विनोद पदरज की कविताएँ
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मुम्बई
गाँवों में खेत हैं
खेतो में अन्न
गाँवों में कुँए हैं
कुँओं में जल
गाँवों में वृक्ष हैं
वृक्षों पर फल
फिर भी रोटी ?
रोटी है मुंबई में
जनता एक्सप्रेस के दूसरे दर्जे की ठसाठस बोगी में
कसाई की बकरे की तरह ठुँसा हुआ
वह दोस्तों का प्यारा
पिता का दुलारा
माँ की आँखों का तारा
मुम्बई जा रहा था
किसे चाहिये गोश्त लजी़ज़
दस्त, पुश्त, चाँप, कलेजी
और सिरी ठोस
किसे चाहिये
यह एक अदृश्य हाथ था
जिसने उसे सतोल कर
बोगी में फेंक दिया
जब वह मुम्बई के खयालों में खोया था
मैंने उसे हाँडी में खदकते देखा.
जो अभी तक हँस रहा है
लकदक वस्त्रों में
गाड़ियों, बंगलों में
कोई नहीं था ऐसा
जो हँसता हो-वैसी हँसी
पहाड़ी झरने जैसी
यह एक गड़रिया था
अनथक यात्रा के बाद
रेवड़ के बीचों बीच
खिले हुए छीले सा खड़ा हुआ
कि कैमरे को देखकर
खिलखिलाकर हँस पड़ा
पर्यटन विभाग की सुचिक्कन पत्रिका के पृष्ठ पर
छपा है यह चित्र
‘रंगीलो राजस्थान’
जो अभी तक हँस रहा है
उसे नहीं पता
कि उसकी कपोत हँसी को
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेच दिया गया है.
कृषक मेध
जब भी कोई किसान
अपनी जोरू को पीटता है-
‘‘मालजादी
हरामजादी
राँध नहीं सकती भाजी
चुपड़ नहीं सकती थी क्या
सूखे टिक्कड़ फेंक दिये
जैसे कोई कुत्ता हूँ मैं।’’
और फिर लाचार पर
लात, घूसा, थप्पड़, लाठी ताबड़तोड़
रात के अँधेरे में उठता है आर्त स्वर
धेनुएँ रोती हैं
रोते हैं बैल
हल और कुँए
अन्नपूर्णा धरती रोती है जार जार
चीख चीख कर टिटहरी
अंडों पर बैठ जाती है
आसमान से झरती है
बूँद बूँद ओस.
उत्सव में औरतें
उत्सव में आई हैं वे औरतें
पाउडर की घनी पर्तों के पीछे भी
नहीं छिप सकी हैं
आँखों की तलहटी की कालिख
होंठ हँसते हैं पर मन उदास हैं
कहाँ खो गईं इनके भीतर की वे लड़कियाँ
जिनकी किताबों में मोरपंख दबे थे
जो मेघों की छाँह में
खूब दूर दूर तक दौड़ना चाहती थीं
बालुई रेत पर
जिन्हें हम खरगोश और चंचल हिरणियाँ कहते थे
उनका आखेट कर लिया गया
वे लकदक वस्त्रों में हैं
जिन्हें खरीदने को ही
उन्होंने सुख समझा
और भूल गईं
कि किस सूर्य के ताप से
हौले हौले खिलती थीं
आत्मा की कली
किस मेघ के नाद से
आँखों के घौंक हरे हो जाते थे
यूँ तो कहती हैं वे
कि उन्होंने किसी से प्रेम नहीं किया
मगर उनकी पीठ पर नील पड़े हैं
जिनसे पता लगता है
कि बरसों बाद भी
सोते में कभी-कभी कोई नाम
उनके होठों से
हरसिंगार के फूल जैसा झर जाता है.
नई नई
घर में दूध नहीं था
पर वह चाय बना लाई
घर में चून नहीं था
पर उसने रोटियाँ बनाई
घर में साग नहीं था
पर उसने सब्जी पकाई
इस पर भी बिना नागा
धुत्त धणी की मार खाई
‘चिड़ा लायगा मूँग
चिड़ी चावल
दोनों प्रेम से पकायेंगे
खायेंगे
बच्चों को डैनों तले दुबकाकर
गरमास में डूब जायेंगे’
कैसा सुंदर सपना था !
कैसी विकट सचाई !!
भायली से मिलके रोई बहुत
माँ बाप के आगे
बहुत खिलखिलाई.
जिन स्त्रियों ने मुझे पाला
जिन स्त्रियों ने मुझे पाला
वे खूबसूरत नहीं थीं
पर सुंदर थीं
उनके हाथ पाँवों की खाल
जैसे आँधी, पानी और धूप का प्रहार झेलते
बबूल की छाल
चिड़ियों के घोंसलों से उनके बाल
उनके दाँत
किंचित उजले किंचित ज़र्द
(बीड़ियाँ जो पीती थीं)
उनके लीर लीर लत्तों पर
जमाने की धूल और गर्द
फिर भी हँसी
जैसे धरती के कलेजे से लगकर
खिली शंखपुष्पी
वे जब लड़तीं
आँधी में पेड़ हो जातीं
और प्रेम करतीं
तो बारिश में पेड़
हक़ीक़त में अमृत का
अटूट कुण्ड थीं वे
जो शीत में निवाया रहता
और ग्रीष्म में ठण्डा टीप
पर उनके दुख की कथा अलग है
भीतर तक भर जाने पर
वे मुझे मारतीं पीटतीं गालियाँ देतीं
फिर छाती से चिपटाकर
जोर से डकरातीं
थोड़ी देर को ही सही
पर शिला बर्फ की
पिघल पिघल जाती
ऐसी ही स्त्रियों ने मुझे पाला
जैसे अधर में लटकी
अहर्निश चकरधिन्नी
तदपि सुजलाम सुफलाम पृथ्वी ने
हमें पाला.
पणिहारी का नया गीत
पणिहारी
तेरी कमर के लचके तो सबको दिखते हैं
पर माथे पर धरी
भरी जेगड़ का बोझ
किसी को नहीं दिखता
पणिहारी तेरी अचक चाल से हलर मलर
लहँगा तो सबको दिखता है
पर दाझते पाँवों के छाले
किसी को नहीं दिखते
पणिहारी
तेरी उँगलियों की फाँक में से झाँकती
कामणगारी आँखें तो सबको दिखती है
पर उनमें घुमड़ती दुख की घटाएँ
किसी को नहीं दिखतीं
पणिहारी
तेरे परेंडे का पानी तो सबको
मीठा और ठण्डा लगता है
पर कितना मर मर के माटी
मटकी रूप धरे है
आठों पहर झरे है
किसी को नहीं दिखता
किसी को भी नहीं.
गुदड़ी
हमारे घर की खपरैल पर
सूख हरी है वह
धूप में चमकती
इसे किस रंग की कहें
हरा घिसते घिसते
हरे का धब्बा रह गया
और आसमानी धुलते धुलते
आसमानी जैसा कुछ
फिर भी कोई तो रंग है इसका
शायद वही
जो इन्द्रधनुष का है
इसके अंतस्तल में
हमारे पुरखों की कमीजे़ं
बंडियाँ, कुर्ते
जनानी मर्दानी धोतियाँ
और ऊपर, आँखों की तरह ताकती
मेरी माँ की वह लूगड़ी
जिसका पल्लू पकड़े पकड़े
घूमा करता था मैं घर में
इसे फटने नहीं दिया गया
जब भी ज़रूरत हुई
तागा नए सिरे से
हर पीढ़ी ने अपनी तरह
कि अब तो
धमनियों शिराओं जैसा धागों का जाल है
कहना बड़ा मुश्किल है
कि कौनसा धागा कहाँ से शुरू हुआ
कहाँ पर खत्म
जब भी मैं इस पर बैठता हूँ
जाने क्या हो जाता है
कभी कच्चा माँस खाते देखता हूँ खुद को
कभी चकमक पत्थर से आग जलाता हूँ
कभी फसल उगाता हूँ
खुसरों की लोरी को
सूर के पदों में मिलाकर गाता हूँ
अभी कल का किस्सा सुनिये
किसी राजा की सवारी निकल रही थी
कि खड़ा था मैं किनारे पर
सिर पर जूतियाँ धरे
खम्माघणी अन्नदाता खम्माघणी
कहता हुआ
और एक दिन तो हद ही हो गई
मैं मोहनजोदड़ों के स्नानागार में नहाने चला गया
कि कुछ घुड़सवार आये
और मुझे पकड़ कर ले गये
न जाने कितनी स्मृतियाँ हैं
कितने खून,पसीने, और नींद और रतजगों का
गड्डमड्ड संसार
यकीन मानिए आप
इसी में लाल छिपे हैं.