राकेश बिहारी
कहानियाँ अपने समय और समाज की सांस्कृतिक समृद्धि तथा अपने लेखक की वैचारिक तैयारी और कलात्मक कौशल का सूचकांक होती हैं. यूं तो कोई कहानी किसी खास काल संदर्भ से आबद्ध होते हुए उसी काल विशेष की चारित्रिक विशेषताओं और उससे जुडी चिंताओं को लक्षित करके लिखी जा सकती है, लेकिन कहानी के संदर्भित कालखंड का अतीत और भविष्य के साथ नाभिनालबद्ध होना उसकी उपादेयता को बहुपरतीय और बहुआयामी बना देता है. हंस – अप्रैल 2016में प्रकाशित और राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान से हाल ही में सम्मानित पंकज सुबीर की कहानी ‘चौपड़ें की चुड़ैलें’, अपने कथानक के समकालीन संदर्भ और सुदूर अतीत में घटित उसकी पृष्ठभूमि के अंतर्संबंधों की पड़ताल की कोशिश के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय है. यह कहानी सूचना-समय के नए यथार्थों से निर्मित हो रही नवीन कथा-संवेदना और उससे उत्पन्न रचनात्मक चुनौतियों (खास कर कहानी कला के संदर्भ में) को ठीक से समझने के लिए जो जरूरी सूत्र और उदाहरण उपलब्ध कराती है इससे इसका महत्व दुहरा हो जाता है.
चूंकि अभी-अभी यह कहानी सम्मानित हुई है, हो सकता है कुछ लोगों को मेरा यह कहना प्रसंगानुकूल न लगे, बावजूद इसके जिस एक और कारण से मैं इस कहानी को चर्चा योग्य समझता हूँ, वह है – तमाम संभावनाओं से भरे होने के बावजूद इसका एक बड़ी कहानी बन पाने से वंचित रह जाना. कथानिरूपण की कलात्मकता और किस्सागोई की रहस्यात्मकता के बीच एक बेहद खूबसूरत कहानी की जो संभावनाएं इस कहानी के लगभग दो तिहाई हिस्से में निर्मित होती हैं, कहानी के आखिरी एक तिहाई हिस्से में उन सम्भावनाओ का अपेक्षित निर्वाह नहीं हो पाने के कारण यह कहानी अपनी समग्रता में उस कलात्मक गौरव को हासिल करने से रह जाती है जिसकी उम्मीद पाठक के मन में कहानी के आरंभिक दी तिहाई हिस्से से गुजरते हुये पैदा होती है. अच्छी या बुरी कहानी होने के फतवों से युक्त महज विशेषणविभूषित आलोचना-प्रविधि से किनारा करते हुये, ऐसी कहानियों पर गंभीरता से बात किया जाना किसी कथा-कार्यशाला में शामिल होने जैसा अनुभव हो सकता है. इस कहानी का यह कार्यशालाई महत्व वह चौथा कारण है, जिसके लिए इस कहानी पर बात किया जाना बेहद जरूरी है.
विगत कुछ वर्षों में हिंदी कथालोचना के परिसर के कुछ हिस्सों में आलोचना के नाम पर सम्बन्ध साधने और बनाने-बिगाड़ने की जो प्रवृत्ति पल्लवित-पुष्पित हुई है, उसे देखते हुए हिंदी कहानी के एक बहुत बड़े और प्रतिष्ठित मंच से सम्मानित होने वाली किसी कहानी, और वह भी एक मित्र की कहानी पर इस किन्तु-परंतु के साथ बात करने के अपने खतरे हैं. लेकिन कहानी, आलोचना और सम्बन्ध तीनों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए उन खतरों का उठाया जाना आज बेहद जरुरी है.
‘चौपड़ें की चुड़ैलें’ के केंद्र में जर्जर होती एक ऐसी हवेली है, जिसका अतीत ‘शानो शौकत’ से भरा हुआ था. यह हवेली अपने स्थापत्य के कुछ जरूरी हिस्सों यथा आम के एक सघन बाग और हवेली की स्त्रियॉं के स्नान करने हेतु निर्मित एक खास तरह की बावड़ी जिसे उसके विशेष शिल्प के कारण चौपड़ा कहा जाता है, के साथ मिल कर सामंती मूल्यों का एक मजबूत और जीवंत प्रतीक बन के उभरती है. विडम्बना यह है कि सुदूर अतीत में अपने मालिकों के जघन्यतम सामंती व्यवहारों का गवाह रह चुकी यह हवेली आज जर्जर भले हो चुकी हो, लेकिन उन सामंती मूल्यों की गंध इस खंडहरप्राय हो चुके इमारत की ईंटों में आज भी मौजूद है. हालांकि निकट अतीत में घटित कुछ घटनाओं में उन के टूटने या यूं कहें कि उसके लगभग उलट जाने की कुछ ध्वनियाँ भी इन खंडहरों से जरूर सुनाई पड़ती हैं, लेकिन बहुत शीघ्र ही वे कातर ध्वनियाँ बदलते समय के चौपड़ पर एक नए सामंत के बाने में फिर से उपस्थित हो जाती हैं. सुदूर अतीत में ‘शानो शौकत’से भरी एक सामंती हवेली का निकट अतीत में जर्जर हो जाना और फिर थोड़े अंतराल के बाद वर्तमान में एक नई चकाचौंध के साथ पुनर्जीवन को प्राप्त होना ही वह त्रिकोणीय भूगोल है जिसके भीतर इस कहानी की तमाम अर्थ छवियाँ अपने आकार ग्रहण करती हैं.
जिन पाठकों ने यह कहानी नहीं पढ़ी है उनके लिए यह बताना जरूरी है कि इस कहानी को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है. कहानी का पहला हिस्सा हवेली के उस अतीत से जुड़ा है जब वहाँ एक खास तरह की चहल-पहल हुआ करती थी और जिन दिनों हवेली की स्त्रियॉं के गोपनीय स्नान के लिए एक खास किस्म के वास्तुशिल्प में बावड़ी का निर्माण किया गया था. दूसरा हिस्सा वर्तमान से कुछ वर्षों पूर्व का है जब हवेली बेनूर होने को अभिशप्त थी और तीसरा हिस्सा कहानी का वर्तमान है जहां वह हवेली फोन फ्रेंडशिप इंडस्ट्री के अभेद्य व्यावसायिक किले में तब्दील हो जाती है. कहानी के ये तीनों हिस्से सामंतशाही के तीन अलग-अलग रूपों को हमारे सामने खोलते हैं. सामंत संपत्ति और स्त्री में कोई फर्क नहीं करता या यूं कहें कि स्त्रियॉं को अपनी जागीर और जायदाद से ज्यादा की हैसियत नहीं देता.
स्त्रियॉं को जागीर मानने की इस प्रवृत्ति के मूल में एक खास तरह का वर्गीय चरित्र भी काम करता है जिसके अनुसार अपने घरों की स्त्रियाँ तो सात ताले में बंद रखी जाती हैं वहीं अपने घर से बाहर, खास कर आर्थिक-सामाजिक रूप से अधीनस्थ तबके की स्त्रियॉं पर जैसे जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है. स्त्री को लेकर सामंती सोच की इस दोहरी आचार संहिता को कहानी के पहले हिस्से में लेखक ने हवेली, बाग और चौपड़े की बनावट तथा हवेली में काम करने वाली दो लड़कियों के रहस्यमय मौत और उसके बारे में प्रचारित किस्से के माध्यम से बहुत ही खूबसूरत कलात्मकता और सघन बुनावट के साथ रचा है.
कहानी का दूसरा हिस्सा,जिसमें हवेली अपनी सामंती ठसक को खोकर लगभग बेनूर हो चुकी है, पितृसत्ता के एक अलग चेहरे को बेनकाब करता है जहां सुदूर अतीत के सामंती परिवार की स्त्रियाँ कालांतर में रात के अंधेरे में अपना शरीर बेच कर हवेली की जरूरतें पूरा करती हैं. कहानी की पंक्तियाँ हैं – ‘हवेली को सबसे ज्यादा जरूरत थी पैसों की. जिसके लिए गहरी रात में चुड़ैलें चौपड़ें तक जाती थीं.‘ यद्यपि कहानी अपने आरभ में ही इस बात की घोषणा कर देती है कि हवेली में कोई पुरुष नहीं रहता और वहाँ सिर्फ तीन स्त्रियाँ ही बची हैं, बावजूद इसके मैं ‘हवेली की जरूरत’ और कहानीकार के अनुसार हवेली में बची तीन स्त्रियॉं की जरूरतों में फर्क करना चाहता हूं. हवेली की जरूरत कहने पर उसके पीछे छुपी उस पितृसत्ता का अहसास भी बना रहता है जो अपने दुर्दिन में अपने ही घर की उन स्त्रियॉं के इस्तेमाल तक को तैयार हो जाता है जिन्हें कभी वह सात पर्दे में छुपा कर रखता था. वर्गीय और लैंगिक वर्चस्व के द्वंद्व का यह वह विंदु है जहां लैंगिकता वर्गीयता को पीछे छोड़ देती है.
‘हवेली की जरूरत’ की स्वाभाविकता में विन्यस्त रचनात्मक संभावनाओं के कारण यह बात मुझे सिर्फ तीन औरतों के बचे रह जाने के मुक़ाबले ज्यादा सहज लगती है, जिसका अहसास शायद लेखक को भी नहीं है तभी वह चुड़ैलों को कहानी में बनाए रखने के व्यामोह में हवेली में सिर्फ तीन स्त्रियॉं के होने की बात को जैसे सायास कहता है. चूंकि कहानी अपने सुदीर्घ विन्यास के बावजूद कहीं भी हवेली में पुरुषों के नहीं बचे होने की तार्किकता को स्थापित नहीं करती है,इसलिए भी ‘हवेली की जरूरत’ और हवेली में बची तीन स्त्रियॉं की जरूरतों को अलग करके समझा जाना चाहिए. कहानी की यह सबसे पहली फांक है जिसके कारण वर्णन की तमाम कलात्मकताओं के बावजूद कहानी में स्थित एक बड़ी संभावना का सूत्र कहानीकार की पहुँच में होते हुये भी छिहुल कर उससे और कहानी से दूर छिटक जाता है.
अब बात कहानी के तीसरे और अंतिम हिस्से की जिसमें वीरान हो चुकी हवेली सूचना क्रान्ति के उपोत्पाद के रूप में सामने आई फोन फ्रेंडशिप इंडस्ट्री का हाथ थाम कर नए सिरे से गुलजार हो जाती है. कहानी के इस हिस्से की बनत और पूरी कहानी पर इसके प्रभाव की बात करने के पूर्व कहानी में आए पुरुष पात्रों को जानना बहुत जरूरी है जो कहानी की शुरुआत से ही कहानी में मौजूद हैं. इनमें एक तरफ है आम के बागीचे का रखवाल अधेड़ हम्मू खाँ जो अपनी खाल के नीचे एक विशुद्ध दलाल है. दूसरी तरफ हैं कस्बे के कुछ लड़के जो किशोर से युवा होने के दरम्यान हैं. बढ़ती उम्र के ये लड़के देह और यौन संबंधों के प्रति एक सहज जिज्ञासा से भरे हैं,जैसा कि अमूमन इस उम्र में होता है.
अवस्थानुकूल सहज जिज्ञासा और कभी-कभी उसके अतिरेकपूर्ण वर्णन के बीच एक रात चौपड़े में होने वाले कृत्य के बेपरदा होते ही कहानी एक दूसरे ही धरातल पर चली जाती है. उस रात उन लड़कों ने हवेली की उन तीन औरतों के साथ अपने चाचा, पिता, मामा, भाई आदि को नग्न और संभोगरत क्या देखा खुद ही निर्वसन होकर तमाम रिश्तों के खोल से बाहर आ गए. नतीजतन वे अपने उन बुजुर्गों को अपदस्थ कर खुद उस कृत्य का हिस्सा हो गए और तमाम तरह की नैतिकता-अनैतिकता,तार्किकता-अतार्किकता, मर्यादा-अमर्यादा आदि की परिभाषाओं को ठेंगा दिखाता हुआ ‘चुड़ैलों’ और ‘भूतों’ का यह कुकृत्य और तेज गति से जारी रहा. कहानी में एक नाटकीय मोड उन्हीं लड़को में से एक सोनू के शहर से लौटने के बाद आता है. सोनू जो पढ़ने के नाम पर अपने भीतर दमित कामेषणाओं की पूर्ति का सपना लिए शहर गया था कॉल सेंटर की आड़ में चलने वाले पोर्न चैट के व्यवसाय का शिकार होकर कस्बे में लौटा था. शुरू में तो वह अपनी मित्र मंडली के साथ देह के कुत्सित खेल का हिस्सा बनता है पर बाद में हवेली की तीन औरतों में से एक की व्यावसायिक सलाह मानकर उसी हवेली में मोबाइल फोन पर पोर्न चैटिंग का व्यवसाय शुरू कर देता है जो धीरे धीरे किसी बड़ी टेलीकॉम कंपनी के साथ मिल कर एक इंडस्ट्री की तरह फलने फूलने लगता है. यह सबकुछ इस नाटकीय और इकहरे ढंग से कहानी में घटित होता है कि कहानी के शुरुआती दो हिस्सों में कहानी का खड़ा हुआ विशाल स्थापत्य सहसा ताश के पत्तों से बने महल की तरह भरभरा कर गिर पड़ता है.
नब्बे के दशक में शुरू हुये उदारीकरण के बाद भारत जिस तरह विश्व में आउटसोर्सिंग और कॉल सेंटर के व्यवसाय की अघोषित राजधानी के रूप में उभरा था उसके साये में फोन फ्रेंडशिप इंडस्ट्री भी तभी अस्तित्व में आ गई थी, जो आज और धड़ल्ले से जारी है. ऐसे में इस विषय पर कहानी लिख कर पंकज सुबीर ने एक समय-सजग कहानीकार होने का परिचय दिया है. इस कहानी को पढ़ते हुये ठीक इसी विषय पर लिखी हुई गौरव सोलंकी की कहानी ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ जो नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई थी, की याद आना स्वाभाविक है. हालांकि ‘चौपड़ें की चुड़ैलें’ अपने अलग स्थापत्य के कारण ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ की तरह अराजक नहीं होती पर अपने तीसरे हिस्से की एकरैखिक बुनावट और तनावरहित वर्णनात्मकता के कारण समग्रता में एक अच्छी कहानी होने से वंचित हो जाती है.
पंकज सुबीर की इस कहानी की जिन दिक्कतों की तरफ मैं इशारा करना चाहता हूँ वह सिर्फ इस कहानी की दिक्कत नहीं है. दरअसल मेरी यह शिकायत अधिकांश समकालीन युवा कहानी जिसे मैं भूमंडलोत्तर कहानी कहता हूँ से रहती है. इससे भला कौन इंकार कर सकता है कि सूचना समय के यथार्थ पूर्ववर्ती समय के यथार्थ से बहुत अलग और जटिल हैं. लेकिन कहानी में उन सूचनाओं का इस्तेमाल करते हुये आज की अधिकांश कहानियाँ, सूचना को ही कथा-संवेदना या रचनात्मक यथार्थ की तरह लिख कर रह जाती हैं. इस बात को समझे जाने की जरूरत है कि कहानियाँ सूचना या घटनाओं में नहीं, उनसे उत्पन्न बेचैनियों और विडंबनाओं में होती हैं. इस बात को ठीक से समझने के लिए इस कहानी का एक अंश देखा जाना चाहिए –
“जिस कंपनी के नंबर पर बातें होती थीं उस कंपनी ने पूरे भारत में क़रीब पाँच हज़ार से ज़्यादा मोबाइल कनेक्शन ग़रीब और ज़रूरतमंद महिलाओं तथा लड़कियों को दिये थे. इन लड़कियों में ज़्यादातर छोटे क़स्बों की लड़कियाँ थीं. इन मोबाइल नंबरों पर ही वह मीठे–मीठे कॉल आते थे. इन महिलाओं को उन कॉल्स को सुनने के सौ से डेढ़ सौ रुपये रोज़ मिलते थे. चार शर्तें इन महिलाओं को पूरी करनी होती थीं. पहली यह कि मोबाइल किसी भी स्थिति में स्विच्ड ऑफ नहीं किया जाएगा. दूसरी सामने वाला आदमी जो भी, जैसी भी बातें करे, इनको फोन नहीं काटना होगा, हाँ में हाँ मिलाना होगा और अपनी तरफ से भी बातें करनी होंगी. तीसरी शर्त यह कि सभी कॉल्स को रिसीव करना होगा और दिन भर में कम से कम तीन घंटे की बात करनी ही होगी, यह उनका उस दिन का टारगेट रहेगा. टारगेट पूरा न होने पर उस दिन का पैसा नहीं दिया जाएगा. मोबाइल स्विच्ड ऑफ मिलने, कॉल रिसीव नहीं करने पर भी पूरे दिन का पैसा काट दिया जाएगा. तीन से ज़्यादा बार मोबाइल स्विच्ड ऑफ मिलने पर पूरे महीने का पैसा काट लिया जाएगा. और यदि ग्राहक की बात सुनकर फोन काट दिया तो भी पूरे महीने का पैसा कट जाएगा. चौथी शर्त यह कि किसी भी हालत में ये अपनी कोई भी वास्तविक जानकारी कॉल करने वाले को नहीं बताएँगीं.”
उल्लेखनीय है कि जिस सूचनात्मक तरीके से फोन फ्रेंडशिप इंडस्ट्री के मैकेनिज़्म को यह कहानी उद्धृत करती है वह हमें कहीं से संवेदित नहीं करता न ही इस व्यवसाय के माहौल में व्याप्त तनाव और उससे जुड़े लोगों के भीतर बनते बिगड़ते संसार से ही हमारा परिचय करा पाता है. फ़ैक्ट और फिक्सन के बीच की दूरी का इस तरह खत्म हो जाना इस समय की बहुत बड़ी त्रासदी है जिसे मैं आज की कहानियों के समक्ष एक बड़ी चुनौती की तरह देखता हूँ. ऊपर के वर्णन की बजाय क्या ही अच्छा होता यदि कथाकार ने कॉल अटेण्ड करने या न करने के बीच फंसी एक स्त्री की छटपटाहटों को हमारे सामने कर दिया होता. यह महज एक उदाहरण है. कहानी लिखते हुये इस तरह के मर्मस्थलों की पहचान या फिर सूचना और संवेदना के बीच के अंतर को समझने के लिए एक खास तरह की रचनात्मक कल्पनाशीलता की जरूरत होती है.
इस कहानी पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि ‘चुड़ैल’ शब्द के प्रयोग पर बात न की जाय. उल्लेखनीय है कि हवेली में काम करने वाली दो लड़कियों की हत्या और कालांतर में हवेली की तीन स्त्रियॉं के द्वारा शरीर बेच कर हवेली की जरूरतों को पूरा करने के बीच की कड़ी के रूप में कथाकार ने एक कथायुक्ति की तरह चुड़ैलों के लिए जगह बनाई थी ताकि चौपड़े में होने वाले कृत्य की खबर सरेआम न हो जाये. यहाँ तक इसका प्रयोग कथोचित भी है.
लेकिन बाद में जिस तरह नैरेटर कहानी में आने वाली हर स्त्री, जिनकी न सिर्फ सामाजिक और वर्गीय पृष्ठभूमि बल्कि कहानी में उनकी भूमिकाएँ भी अलग-अलग है, के लिए चुड़ैल शब्द का प्रयोग करने लगता है, वह भी खटकने वाला है. इस बात को भी समझा जाना चाहिए था कि हवेली की उन तीन स्त्रियॉं का वर्गीय चरित्र कहानी के तीनों हिस्से में अलग-अलग तरह से उभर कर आता है. और फिर कॉल अटेण्ड करने वाली वे पाँच हजार स्त्रियाँ हवेली की उन तीन स्त्रियॉं के साथ एक ही बटखारे से भी नहीं तौली जा सकतीं. जाहिर है कहानी में ये दिक्कतें लेखक द्वारा अपने ही कथा-पात्रों के अलग-अलग वर्गीय चरित्र को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण उत्पन्न हुई हैं. यही कारण है कि यह कहानी वर्तमान स्वरूप में अपनी पक्षधरता का ठीक-ठीक पता नहीं देती. कहानी की पक्षधरता तय हो सके इसके लिए रचनात्मक कौशल के साथ वैचारिक तैयारी का होना भी बहुत जरूरी है.
___________कहानी यहाँ पढ़ें – चौपड़ें की चुड़ैलें
(भूमंडलोत्तर कहानी विमर्श के अंतर्गत आप ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’ (रवि बुले), ‘शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट’ (आकांक्षा पारे), ‘नाकोहस’(पुरुषोत्तम अग्रवाल), ‘अँगुरी में डसले बिया नगिनिया’ (अनुज), ‘पानी’ (मनोज कुमार पांडेय),‘कायांतर’ (जयश्री राय), ‘उत्तर प्रदेश की खिड़की’(विमल चन्द्र पाण्डेय), ‘नीला घर’ (अपर्णा मनोज), ‘दादी,मुल्तान और टच एण्ड गो’ (तरुण भटनागर), ‘कउने खोतवा में लुकइलू’ (राकेश दुबे) पर युवा आलोचक राकेश बिहारी की आलोचना पढ़ चुके हैं. जैसा कि आप जानते हैं यह खास स्तम्भ समालोचन के लिए ही लिखा जा रहा है.)