• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मंगलाचार : आशीष बिहानी

मंगलाचार : आशीष बिहानी

आशीष बिहानी की कविताएँ आपके समक्ष हैं. उजाड़ अवसाद, अप्रवास और यूटोपिया के अनेक धूसर रंगों से लिखी इन कविताओं में संभावनाओं के मुलायम किसलय आप को दिख जायेंगे. आशीष बिहानी की कविताएँ                                       अवसाद हम बहुत […]

by arun dev
April 20, 2016
in कविता
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें










आशीष बिहानी की कविताएँ आपके समक्ष हैं. उजाड़ अवसाद, अप्रवास और यूटोपिया के अनेक धूसर रंगों से लिखी इन कविताओं में संभावनाओं के मुलायम किसलय आप को दिख जायेंगे.


आशीष बिहानी की कविताएँ                                      



अवसाद

हम बहुत पुराने, कली पुते घरों में
किराये पर रहते थे
जिनकी दीवारों से उम्र का अवसाद
पपड़ी बनकर झड़ता रहता था

हम कुरेदते थे
भुरभुरे, असमतल चूने को
नाखून-पेन्सिल-खुरपे से
कुछ रोमांचक पाने की आशा में.


समस्या

अनगढ़ कोटा स्टोन टाइल्स
कोनों-कोचरों, ताकों-पट्टियों-खिडकियों
पर मम्मी सधे हाथों से झाड़ू लगाती थी
कूड़े-कचरे, धूल को
लकड़ी की देहरी के पार फेंक देती थी

पर धूल अवसाद की तरह होती है
उसे लोग चुग-चुग कर फेंक आते हैं बाहर
पर लकीरें रह जातीं हैं
पुनः अधिकार जमा लेती है उस साम्राज्य पर
जिससे उसे धकेलकर बाहर किया गया.


उपाय

तब मम्मी ने धूल को देहरी की दरारों में ही
ठूंस देना शुरू किया
अपनी समस्याओं और जरूरतों की तरह.


स्थानान्तरण

हमारा परिवार घुमंतू पेड़ों का परिवार है
हमें अपने घरों से
उखाड़-उखाड़कर नयी जगहों पर छोड़ा दिया गया
हम बड़े जतन से वहाँ जड़ें जमाते
चिड़ियों-बंदरों-कबूतरों को अपने साथ बसाते
और दो ही बारिश बाद फ़रमान आ जाता
किसी भी हालत में
एक महीने के भीतर-भीतर
सब आवश्यक सामान समेटकर
नयी जगह जड़ें जमाने का
तब हम बड़े असमंजस में होते (हर बार)

चिड़ियाँ-बन्दर-कबूतर-कुत्ते-बिल्लियाँ
खेखरे के दिन रंगे गए सींगो वाली गाएँ 
(जिन्हें हमारे चूल्हे की रोटी और दादी माँ की झिडकियों की आदत हो गयी थी)
कंकड़-पत्थर-पपड़ियाँ-ताकें
दरवाज़े-खिड़कियाँ-गर्डर-देहरियाँ

संभव-असंभव की क्रूर सीमाएं बना
हम नेह के टुकडे झाड़ते हुए
अपने आप को ४०८ गाडी में
लाद लेते.

नींद

रात में शहर पसर जाता है
गन्दगी, मिट्टी, सड़क किनारे के थूक के ऊपर
ट्रकों की आवाजों में डकारें भरता, कै करता नालों में
सुबह-सुबह सिल्वर फीते वाली नारंगी जाकेट पहन
औरतें उसे झाड़-पौंछकर खड़ा करतीं हैं
उन्हें नहीं पता कि
उसके फेफड़ों में जमा है
धुआं, टार और हिंसा.


जूतम पैजार

पसीने से तरबतर
दढ़ियल दद्दा ने
अपने घिसे फ्रेम और मोटे लेंस वाले चश्मे को
नीले- सलेटी चैक्स छपी लुंगी पर साफ़ किया
और नए-नवेले अंधड़ में से
सड़क के पार देखा
इमारतों पर जमी धूल की चद्दरें बदल दी गयीं हैं
झाड़ दिए गए हैं पेड़ों के लिबास
हवाएं फटे गले से घोषणा करती हैं
वर्षा के आगमन की
 
वर्षों से जारी हानिकारक ज़र्दे के सेवन से
भूरे-कत्थई पड़े दांतों पर उन्होंने
जीभ फिराई और
नमक, पानी और धूल का मिश्रण
सड़क के किनारे थूक दिया

बारिश की जूतमपैजार के समक्ष उन्होंने अपना
झुर्रियों भरा चेहरा पेश कर दिया;
किसी कारण से उन्होंने
अपनी नवजात पोती को याद किया
जिसने चलाये थे उनके चेहरे पर
नन्ही लातें और घूंसे
और मूत्र की गर्म धार.


रामराज्य

सलेटी आँखों वाले एक बुढऊ
सर्पिलाकार यातायात के
बगल में
लम्बे-लम्बे डग भरते,
लोगों से टकराते
सर हिलाते भागे जा रहे हैं
बदहवास
यातायात के अंत की ओर
जहाँ ख़त्म होता है
कोलाहल, प्रदूषण और इंसानों का सैलाब;

जहाँ मिलते हैं
निर्वाण और सठियाहट,
कच्ची ईमलियाँ और नकली दाँत,
साफ़ कीचड़ और हथकढ़ वाले गेडिये,
अख़बार और पाटे,
मसालों की गन्ध और मुल्ला की अजान
टेढ़े-मेढ़े संकरे रास्ते और
स्वस्थ गायों के छोड़े पोठे.

काले बादलों की आड़ में
कहीं छुपा रामराज्य
जिसकी खोज में बिता दिए
ऋषि-मुनियों ने
युग और कल्प.
________________________________

आशीष बिहानी 
जन्म: ११ सितम्बर १९९२, बीकानेर (राजस्थान)
पद: जीव विज्ञान शोधार्थी, कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB), हैदराबाद .

कविता संग्रह: \”अन्धकार के धागे\” 2015 में हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
ईमेल: ashishbihani1992@gmail.com
ShareTweetSend
Previous Post

बात – बेबात : कवि का साक्षात्कार : राहुल देव

Next Post

उसकी पहली उड़ान: लायम ओ’ फ़्लैहर्टी: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

Related Posts

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन
समीक्षा

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी
समीक्षा

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण
संस्मरण

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक