अजय गोयल पेशे से चिकित्सक हैं, ‘एक और मनोहर’ शीर्षक से उनका उपन्यास प्रकाशित हो चुका है. ‘गिनीपिग’ उनका तीसरा कहानी-संग्रह है जिसे हापुड़ से संभावना प्रकाशन ने छापा है, इसमें २१ कहानियां संकलित हैं. विषय में विविधता और शिल्प-संरचना में प्रयोग इस संग्रह में देखा जा सकता है. ये कहानियां वर्तमान को समझने के क्रम में अतीत से मुठभेड़ करती हैं और उन्हें कथात्मक विस्तार देती हैं.
इस संग्रह की चर्चा कर रहें हैं- आलोचक सुधांशु गुप्त. इस संग्रह की एक कहानी- ‘काला ताज’ भी दी जा रही है,इस संग्रह के आवरण पर कवि महेश वर्मा की पेंटिंग है.
इतिहास झांकता है इन कहानियों से
सुधांशु गुप्त
काफ़्का ने एक बार कहा था, दृश्य आपको कैसा दिखाई देगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप उसे कहां खड़े होकर देखकर रहे हैं. यानी दृश्य देखने वाले की जगह बदलने से ही दृश्य का स्वरूप, उसका अर्थ बदल जाता है. काफ़्का की इस बात को थोड़ा और विस्तार से समझते हैं. एक ग्रामीण कहीं से चला आ रहा था. दूर वह कुएं पर देखता है कि एक आदमी एक बच्चे के गले में ‘सन्सी’ डाले कुए में लटका रहा है. ग्रामीण को लगा कि यह बच्चे की हत्या करने के लिए उसे कुएं में लटका रहा है. वह तेजी से भागते हुए कुएं तक पहुंचा. करीब पहुंचकर उसने देखा, दरअसल वह बच्चे की हत्या नहीं कर रहा था, बल्कि कुएं में से उसे बचा रहा था.
यथार्थ को हमें इसी तरह देखना चाहिए. यथार्थ वह नहीं होता जो खुली आंखों से दिखाई पड़ता है. घटनाओं को जस का तस देखना भी यथार्थ नहीं है. यथार्थ उसके पीछे कहीं होता है. जो लेखक और रचनाकार उसे पकड़ने की ताक़त अर्जित करते हैं, वही बड़ी रचनाकार बनते हैं. दुर्भाग्य से हिन्दी में यथार्थ शब्द का जितना दुरुपयोग हुआ है, शायद ही किसी और शब्द का हुआ हो. हम घटनाएं जिस रूप में घट रही हैं, उन्हें उसी रूप में दर्ज करते हैं और कहते हैं कि हमने यथार्थ का चित्रण किया. वास्तव में यह अर्द्धसत्य होता है. हम इसी अर्द्धसत्य पर मुग्ध होते रहते हैं. हम यही समझते हैं सच (यथार्थ) हमारी जेबों में रहता है.
नब्बे के दशक में भारतीय समाज जिस तेजी से बदला है, उससे भी अधिक तेजी से यथार्थ की गति बदली है. आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण, बहु-राष्ट्रीय कंपनियों का आगमन, बाज़ार का फैलाव, चारों तरफ फैलता पैसों का जाल, हमारे सपने, हमारी इच्छाएं, हमारे मूल्य, हमारी प्राथमिकताएं सब कुछ बदल गया, बदल रहा है. हम चाहे अनचाहे एक ‘रेट रेस’ में शामिल हो गए. हिन्दी कहानीकार इन बदलावों को अपने–अपने तरीके से रेखांकित कर रहे हैं या करने की कोशिश कर रहे हैं. इसी दौर में, भारतीय समाज में पैसों का भी अचानक महत्व बढ़ गया है. इतना कि अब पैसा ही सब कुछ हो गया. यह भी सच है कि लोगों की कमाई (अधिक से अधिक कमाने की इच्छा) भी तेजी से बढ़ रही है. कहते हैं कि जब पैसा आता है तो अकेले नहीं आता. अपने साथ वह अपने मूल्य, चरित्रहीनता, पैंतरेबाजी, भ्रष्टाचार और गिरावट भी लाता है. अजय गोयल हिन्दी के उन गिनेचुने रचनाकारों में हैं, जो इस बदलती और बदल रही दुनिया पर बड़ी महीन नज़र रखते हैं. अजय गोयल के यहां यथार्थ इकहरा नहीं है. वह यथार्थ के पीछे जाते हैं, उन कारणों की खोज करते हैं कि क्या, क्यों, कैसे बदला. उनकी लेखनशैली इसीलिए प्रभावित करती है.
संयोग से अजय गोयल डॉक्टर भी हैं. तो उनसे यह उम्मीद की जाती है कि उनके पास एक वैज्ञानिक नज़रिया होगा. उनके कहानी संग्रह ‘गिनीपिग’ की कहानियां इसका सुबूत हैं. हिन्दी में एक समस्या यह भी है कि लोग अक्सर सवाल करते हैं कि आजकल क्या लिख रहे हो, कोई यह सवाल नहीं पूछता कि क्यों लिख रहे हो. अजय गोयल की कहानियां स्वतः इस सवाल का जवाब देती हैं या कम से देने की कोशिश करती हैं. संग्रह की 22 कहानियों के मिज़ाज को समझने के लिए उन्हीं के द्वारा कुछ कहानियों में इस्तेमाल किए गए नैरेटर पर ग़ौर करिए-
‘चुनाव आज के युद्ध है. युद्ध विजेता प्रतिनिधि नहीं कहा जाता, नायक होता है. अब प्लासी के विजेता क्लाइव को लो, खाली हाथ आया था हिन्दुस्तान…लौटते वक्त ढाई लाख पौंड की दौलत उसकी अंटी में अटकी थी, यह किस्सा अठारहवीं सदी का है, और उसने अपनी कंपनी के लिए तीन साल के भीतर 40 लाख पौंड की दौलत बरतानियां रवाना कर दी. बगैर एक सोने का सिक्का खर्च किया. उसी दौलत से चला वहां भाप के इंजन और पावरलूमों का खूनी पहिया.’
‘ग्लोबलाइजेशन का सामना जापान ने कैसे किया? कैलीफोर्निया के बड़े–बड़े खास खुशबू वाले रसीले मीठे संतरे जब जापान पहुंचे तो वहां के अवाम ने उनकी पुरजोर खिलाफ़त की. सरकार कायदे कानून से बंधी हाथ खड़े किए थी. अवाम ने जरूर हिस्ट्री लिख डाली. सबसे पहले वहां के मजदूरों ने अपनी मजदूरी का लालच छोड़ा. संतरे जहाज से उतारकर जापान की धरती पर रखने से मना कर दिया. तब संतरे उतारने के लिए अमेरिकी मजदूर बुलाने पड़े. संतरे उतर तो गए पर अब सवाल उन्हें बेचने का था. अब बेचता कौन? ट्रेडर्स ने उन्हें बेचने से मना कर दिया. कुछ दिनों के बाद सारे संतरे सड़ गए. उन्हें समन्दर की नज़र करना पड़ा. सवाल है कि हम क्या करते?’
\’उसकी आंखों में विचार का अनुवाद था.\’
\’विज्ञापनों की रमक में जब कोई कार पर बैठे तो उसे लगे कि वह औरत पर चढ़ा है. सीट पर बैठे तो लगे औरत में धंसा है और तंबाकू खाए तो तो लगे कि औरत को चबा रहा है-\’
अगर उपरोक्त दिए गए सभी वाक्यों से आप कुछ अंदाज लगाने की कोशिश करें तो यह पता चलता है कि अजय गोयल की कहानियां अलग-अलग दुनिया की कहानियां नहीं हैं, बल्कि ये एक ही दुनिया की कहानियां हैं, जिसे समझने में हम शायद चूक कर गए. गिनीपिग कहानी में वह दिखाते हैं कि अमेरिका और साम्राज्यवादी देशों के लिए लातिन अमेरिका, अफ्रीका और भारत समेत अधिकाँश एशियाई देश गिनीपिग से अधिक महत्व नहीं रखते. उनके लिए गांधी, मार्क्स या बासमती चावल महज पेटेंट हैं, जिनके माध्यम से दुनिया पर अपना नियंत्रण किया जा सकता है.
अजय गोयल की कहानियों की एक ख़ास बात यह है कि वह इतिहास, वर्तमान और भविष्य को एक साध साधते हैं. गिनीपिग में वह बंगाल के गर्वनर को 1762 में पत्र लिखे पत्र में लिखते हैं–वे किसानों और व्यापारियों का माल असबाब चौथाई कीमत पर उठा ले जाते हैं और मारपीट, जुल्म करके वे रैयत को उस माल के लिए पांच रुपए देने को मजबूर करते हैं जिसकी कीमत एक रुपया होती है. इस अतीत को वह वर्तमान से जोड़ते हैं. सलीम बॉटलिंग प्लांट का विरोध करता है. स्थानीय विधेयक प्लांट के समर्थन में है. मौजूदा सत्ताधारियों का मकसद हर हाल में पैसा कमाना है. इसके आगे पीछे कोई नहीं सोचना चाहता. यह कहानी बहुत से सवाल उठाती है. कहानी पूछती है कि यदि मुसलमान गद्दार हैं तो वे कौन हैं जिनका एक हजार डॉलर स्विस बैंकों में जमा है. वे सब यानी 99 फीसदी हिन्दू ही हैं ना. इसी कहानी में अजय गोयल वह उदाहरण भी देते हैं कि किस तरह कैलिफोर्निया से जापान आने वाले रसीले मीठे संतरे जब जापान पहुंचे तो किस तरह वहां की जनता ने ग्लोबलाइजेशन का विरोध किया. कहानी में एक तरफ लूट की अमेरिकी नीतियों पर चोट है तो दूसरी तरफ भारत सरकार की उन नीतियों पर चलने को भी कठघरे में ख़ड़ा किया गया है.
अजय गोयल की प्राथमिकताओं में इतिहास, समाज परंपरा और पर्यावरण हैं. उनकी कहानियों में बाजार जीवित किरदार की तरह आता है. ‘काला ताज’ में मनुष्य की नैसर्गिक इच्छाओं पर अपना शिकंजा कसता बाजार है. यह कैच लाइन है कि क्रीम लगाने को संस्कार करना कहना चाहिए. ‘हरम’ में बाजार बार्बी डॉल के रूप में आता है. नायक की छोटी उम्र की बेटी बॉर्बी डॉल की तरह बनना चाहती है. वह बॉर्बी डाल के गीत सुनती है, उस पर कहानियां लिखती है. यहां भी अजय गोयल इतिहास के सफे टटोलते हैं. यह पूरी कहानी दस घंटे लंबी शिमला तक की यात्रा है. नायक के मन में रह-रहकर यह सवाल उठता है. भोपाल गैस त्रासदी बीस हजार आदमी मारे गए और हमारी सरकार यूनियन कार्बाइड कंपनी के चीफ एंडर्सन को एक दिन की भी सजा नहीं दिला पाई. नायक अपने आपसे ही पूछता है- उस रात हवा का रुख़ हुक्मरानों के महलों की तरफ क्यों नहीं था? यह सिर्फ नायक का ही सवाल नहीं है बल्कि हर भारतीय का सवाल है.
अजय गोयल की कोई भी कहानी ठेठ परंपरागत खांचे की कहानी नहीं है. वह किसी शिल्प या भाषा के वैभव के भी मोहताज दिखाई नहीं पड़ते. लेकिन उनके पास विचार हैं. हर कहानी में वह विचार को ही अपनी कथा में पिरोते हैं. उनके यहां वायरस (कोरोना वायरस नहीं) वह कुसंस्कृति है जिसने पूरी पीढ़ी को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. वायरस कहानी में वह कहते हैं, आज देश के स्थान पर बाजार में रहने का ज्यादा अहसास होता है. जहां हर किसी की एक कीमत है. यहां जाति की दलदल है, कठमुल्लेपन का अंधेरा पसरा है. कहानी में अजय दिखाते हैं कि किस तरह उपनिवेश से मुक्त होकर भारत भूमंडलीकरण के जाल में फंस गया है. जिस तरह हम अमेरिका से खैरात का इंतजार करते हैं, उसी तरह मां बाप बच्चे के विदेश से खैरात का इंतजार करते रहते हैं. उनकी कहानियों में वह ‘दूसरा आसमान’ भी दिखाई देता है, जिसे हम असली आसमान जान बैठे हैं.
‘बीसवीं सदी का जीवाश्म’ में खत्म हो गये और नये मूल्यों के बीच द्न्वद्न्व दिखाई पड़ता है. अजय गोयल के पास चीजों को देखने का नज़रिया है. ‘वेलेंटाइन डे’ कहानी में वह दिखाते हैं कि किस तरह नब्बे प्रतिशत भारत यदि इस दस प्रतिशत की होड़ करेगा तो बेइज्जत ही होगा. अप्रवासी हो जाने की अदम्य इच्छा, उसके परिणाम और कुपरिणाम अजय की कहानियों में देखे जा सकते हैं. अजय गोयल की अनेक कहानियां बच्चों के इर्दगिर्द भी घूमती हैं. ‘नन्हीं उंगलियों का विद्रोह’ एक बच्चे को बाजार के अनुरूप बनाए जाने के विरुद्ध लिखी गई कहानी है. इसमें पिता अपने बच्चे को कमोडिटी की तरह बाजार में हिट करने के लिए चाहता है कि उसका बच्चा क्विज जीत जाए. लेकिन बच्चा अपने दोस्त बंदर पप्पू से कहता है, मैंने सोचा है कि क्विज़ हार जाऊं. हार जाने पर ना तो मुझे बाहर जाना पड़ेगा और न तुम्हारा साथ छूटेगा. अजय गोयल मौजूदा समय में चर्चित स्त्री विमर्श और कन्या भ्रूण हत्या जैसे विषयों को अपनी कहानी में लाते हैं. ‘सौनचिरैया का पहला गीत’ भ्रूण हत्या पर लिखी गई कहानी है. लेकिन यहां भी बाजार, उपभोक्तावादी दृष्टिकोण और विसंगतियों को वह अनावृत्त करते हैं. ‘सारथी ने कहा-गधों! हर बोतल में समन्दर’ टेलीविजन पर आ रहे या आए उन कार्यक्रमों पर सवाल उठाती है, जो आपको करोड़पति बनाने के सपने दिखाते हैं.
इन सभी 22 कहानियों को अलग-अलग करके देखना और पढ़ना मुमकिन नहीं है. क्योंकि इन सभी कहानियों का उत्स एक ही है. ये कहानियां बाजारवाद, उपभोक्तावाद, धार्मिक कट्टरता, विदेशी पूंजी के आगमन के पड़ने वाले कुप्रभावों से उपजी कहानियां हैं. भाषा के वैभव के साथ रूमानी कहानियां पढ़ने का आदी हो चुके हिन्दी के पाठक को ये कहानियां खांचे से बाहर की कहानियां लगेंगी. इसलिए भी क्योंकि ये इकहरी कहानियां नहीं हैं. अपनी संरचना में ही ये जटिलता लिए हैं. ये गंभीर और जरूरी कहानियां हैं. जिन्हें ना केवल पढ़े जाने की बल्कि समझे जाने की भी जरूरत है.
बीसवीं सदी के प्रमुख फ्रांसीसी विचारक मिशेल फूको ने कहा था कि फिक्शन को इतिहास होना चाहिए और इतिहास को फिक्शन. उस मानदंड पर भी ये कहानियां खरी उतरती हैं.
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कहानी
उनींदी आँखों में धनुष को सुबह का सूरज किसी बच्चे की तरह खिड़की से अन्दर आने के लिए मचलता लगा. आकाश में उड़ते पक्षी उसका दिल बहलाते लगे. अगले क्षण धनुष को एक मीठे सपने से वापसी का बोध हुआ. उन दिनों वह दिन में ताज क्रीम से माथापच्ची करता. रात में सपनों का इन्द्रधनुष फलक पर सजाता, जिसमें बादशाह शाहजहाँ आते. ताजमहल विश्वविद्यालय बन जाता. जिसके परिसर में वह बादशाह के साथ चहलकदमी करता.
ताज क्रीम सांवली युवतियों में गोरेपन की सीढ़ी लगाने के लिए बाजार में उतारी जा रही थी.
कम्पनी मालिक को धनुष ने क्रीम का नाम ताज रखने का सुझाव दिया. तर्क दिया-
‘‘मासूम रूई के फाये से धवल ताज की पहुँच कौम की अस्थि-मज्जा तक है. हमें प्रचार में कहना चाहिए कि बादशाह ने ताज में लगे एक-एक संगमरमर पत्थर को हल्दी और चन्दन से संस्कार कराकर चिनवाया था. हल्दी और चन्दन से हर युवती में ताज सी धवलता और मासूमियत कुदरती तौर पर समा जाएगी. और… दिन में सूरज घर में घुसकर गोरी काया से चोरी नहीं कर सकेगा. क्रीम लगाने को प्रतिदिन संस्कार करना कहना चाहिए.’’
धनुष के सपनों के ताज विश्वविद्यालय में समय की दूरियाँ सिमट जाती. ताज विश्वविद्यालय आक्सफोर्ड और कैंब्रिज से आगे था, जहाँ उसे चार्ल्स डार्विन से लेकर न्यूटन तक पढ़ाते मिलते. कालिदास रचनारत मिलते. गाँधी नेतृत्व को दिशा समझा रहे होते. वह बादशाह शाहजहाँ के साथ ताज परिसर में होता. बादशाह की आँखों में सदियाँ झाँक लेने की सूझ दिखायी देती. इतिहास बदल देने का जुनून चेहरे पर तमतमा रहा होता. बादशाह फरमाते—
‘‘तालीम की जन्नत ताज ने दुनिया जीत ली है. अब नस्लें घर बैठे हज़ारों मील से रूबरू हो सकती हैं. सालों का सफर चंद घंटों में सिमट गया है. फाख्तों के मानिंद आदमी परवाज कर सकता है. हमारी मुकद्स ज़बान और तहजीब का परचम दुनिया भर में लहरा रहा है. माबदौलत पाँच सौ साल बाद का सूरज देखना चाहते हैं. पाँच सौ साल सोना चाहते हैं. पाँच सौ साल बाद की नस्लों से रूबरू होना चाहते हैं. वक़्त की दूरियाँ पार करना चाहते हैं.’’
उस सुबह बीप-बीप की आवाज़ ने इस मीठे सपने से धनुष की वापसी कराई थी. वीडियो फोन पर माँ थी. उन्होंने धनुष को हज़ारों साल जीने का आशीर्वाद दिया और पूछा—
‘‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आदमी फैक्स जैसी यात्रा कर सके.’’
मुस्कराया था धनुष. उसने सोचा—
‘‘कैसी सुबह है आज? बादशाह सलामत पाँच सौ साल सोने की पेशकश कर रहे थे. माँ फैक्स जैसी यात्राओं की उम्मीद लगाए है.’’
‘‘फिर हमारी पृथ्वी हमारे लिए एक ब्लैक होल जैसी छोटी-सी गेंद की तरह रह जाएगी. आदमी सर्वत्र और सर्वव्यापक हो जाएगा.’’
बिस्तर छोड़ते हुए उसने माँ को जवाब दिया.
‘‘जन्मदिन है आज तेरा. फैक्स यात्राएँ सम्भव होती तो शाम को घर आ जाता. रात में वापस लौट जाता. चाहे घर से हज़ारों किलोमीटर दूर होता. लेकिन कुदरत का आभार व्यक्त करने मंदिर जरूर जाना.’’
धनुष ताज क्रीम की योजना बनाकर कम्पनी से इस्तीफा दे चुका था. वह चाहता था कि क्रीम के आवरण पर एक तरफ अपनी भाषा में क्रीम का नाम लिखा जाए. आखिर क्रीम ग्रामीण बालाओं को लक्षित कर बाजार में उतारी जा रही थी. इस पर कम्पनी मालिक ने कहा—
‘‘प्रोडक्ट हल्का लगेगा. आज नमक भी अंग्रेजी के साये में बिकता है. अपनी लाठी में इतना दम नहीं लगता. तुम कौन से युग में रहते हो मिस्टर.’’
कम्पनी से इस्तीफे का कारण सपना था. यह सपना धनुष ने संजोया. जैसे धूप की सीढ़ियों पर चढ़ आकाश चूम लिया जाए. जैसे बादलों को हिंडोला बना सैर की जाए. जैसे आधी रात सूरज झाँकने आ जाए. बिजनेस प्रबन्धन की पढ़ाई के बाद धनुष सपना देखता कि क्यों न न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों की पूरी एक टीम हमेशा रहे. गाँधी जैसा नेतृत्व हर पीढ़ी को मिले. कालिदास हर युग में रहे.
इन सपनों की हकीकत के लिए धनुष को, आक्सफोर्ड, कैंब्रिज और जीवन्त नालन्दा या तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों की एक पूरी शृंखला की जरूरत महसूस होती.
‘‘यदि ऐसा थोड़ा भी कुछ होता…’’ – यह सोचकर धनुष के विचारों में बिगबैंग जैसा महाविस्फोट होता और सम्भावनाओं की आकाशगंगाएँ उसके मस्तक में समा जातीं.
धनुष वापस लौटता तो उसका साक्षात्कार शून्य से होता. इस शून्य को उसने पहिया बना लिया था. जिसको चलाते हुए वह बच्चों के साथ महायात्राएँ करता. अपने इस समय को वह ‘शून्य बेला’ कहता. जीरो पुकारे जाने पर वह आहत होता. उत्तर देता—
‘‘शून्य पुरखों की महान सौगात है. जिस पर चढ़ कर इनसान ने चाँद चूमा है. वरना यूरोप हमें वास्कोडिगामा से शुरू करना चाहता है.’’
शून्य बेला रंगमंच बन जाती. बच्चे अभिनेता होते. श्रोता भी. एक सपना होती हर बेला. जिसके कैनवास पर कभी आकाश उतरकर इठला रहा होता. तो कभी ताज महल. कभी गीजा या गाँधी का अपमान.
सपने से जब बच्चे बाहर आते तो शून्य बेला की अनुभूतियाँ उन्हें आश्चर्य में भर देती. गदगद वे चिड़ियों की तरह चहक रहे होते. क्योंकि उन्हें मालूम होता कि कैसे उनका शरीर किसी विशाल तारे द्वारा अपनी उम्र पूरी करने के बाद उसमें हुए विस्फोट के कारण बना है.
रात में बच्चे जब आकाश झाँकते तब उनका मुंह खुला होता. दिमाग उलझा. उन्हें इतना याद होता कि जब कोई आकाश झाँकता है तो एक साथ 15अरब साल से मुठभेड़ करता है.
उनके अन्दर सवाल गूंजते. जिनके उत्तर ढूंढने की बच्चे कोशिश करते. आखिर पृथ्वी पर जल आया कहाँ से? कितने अरब साल लगे पृथ्वी को इतना जल इकट्ठा करने में? यदि यह जल आधा होता तो? दुगना होता तो?
माँ समझ नहीं पाती कि धनुष क्यों इंग्लैण्ड से लौट आया. एक अच्छी खासी तनख्वाह की नौकरी उसने क्यों छोड़ दी. पूछने पर उसका उत्तर था—
‘‘आपका सपना फैक्स जैसी यात्राओं का था. उसे पूरा करना चाहता हूँ.’’
अपने सपनों में अटका धनुष सोचता—
‘‘बादशाह शाहजहाँ पाँच सौ साल बाद का सूरज देखने का सपना देखते हैं. टामस रो ने कहाँ सपना देखा होगा कि बादशाह की जली बेटी जहाँआरा का इलाज कर ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखने जा रहा हूँ. अंग्रेजी साम्राज्य की बुलन्द इमारत बाद में बनी. इस इमारत के सामने सजदा पूरा भारत बंदे मातरम् गाकर करता है.’’
इसकी अनुभूति उसे बायो इस्फीयर में काम करते हुए हुई. उस समय धनुष इंग्लैंड में था. बायोइस्फीयर में पृथ्वी जैसा कृत्रिम वातावरण बनाया गया था जिसमें मौसम में परिवर्तन का वनस्पति पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करना था. उन दिनों प्रिंस विलियम और केट के विवाह में एक भारतीय मूल की जनरल स्टोर की मालकिन को शाही शादी में सम्मिलित होने का न्यौता मिला. केट कभी-कभी स्टोर से रोज़मर्रा की चीजें खरीद लेती थी. इस न्यौता पाने का उत्सव भारतीय समुदाय में मनाया गया. केवल न्योते से पूरा समुदाय अपनी आन-बान-शान में चार चाँद महसूस कर रहा था. उस समारोह में धनुष को अपने पिता याद आए थे. प्रोस्टेट कैंसर से जूझते हुए उन्होंने कहा था—
‘‘अन्तिम समय में इन अंग्रेजी दवाइयों से मुक्ति मिल सकती है क्या? कीमोथरेपी से साल दो साल मिल भी जाए तो…? कुदरत की आवाज़ भी सुननी चाहिए.’’
धनुष उनकी भावनाएँ समझता था. अंग्रेजों व अंग्रेजी दवाइयों से वे जीवन भर आतंकित रहे.
उन्होंने अपने बचपन में अंग्रेज अधिकारी के कुत्ते के आक्रमण से अपने आप को बचाने के प्रयास में पहले कोड़ों की मार व इसके बाद अदालती सजा पाए एक भारतीय को देखा था. इस सदमें से वे जीते जी नहीं उबर सके. धनुष कहता—
‘‘अपना आयुर्वेद अभी तक चरक व सुश्रुत काल में ठिठका है.’’
पिता ने उत्तर दिया—
‘‘ठीक है. मैं गिनीपिग बनना पसंद करूँगा. कोई लाभकारी दवा की तरफ कदम बढ़ा तो जीवन धन्य हो जाएगा. संन्यास सार्थक होगा.’’
हैरान था धनुष. आयुर्वेदाचार्य का मत भी किमोथिरेपी के लिए था. उन्होंने कहा—
‘‘रोग आगे बढ़ गया है. किमोथिरेपी से आयु बढ़ जाएगी.’’
जीवन के प्रति पिता का फलसफा धनुष को अहिस्ता-अहिस्ता समझ आया.
उस दिन शून्य बेला में पृथ्वी व चन्द्रमा विषय था. जब पृथ्वी से चंदा केवल अट्ठाईस हज़ार किलोमीटर दूर था, उस समय एकदम लाल थी धरती— दहकती हुई. आग की लपटों से घिरी. धीरे-धीरे चन्द्रमा दूर जाता गया. पृथ्वी भी शान्त हुई. जीवन की लहर पैदा कर माता बन गई. हम इसकी शानदार सन्तानें हैं. चन्दा मामा अभी भी दूर जा रहा है. हर साल दो इंच दूर हो जाता है. जैसे-जैसे दूर जाएगा जीवन रथ….
‘‘जीवन ठहर जाएगा.’’ न्यूटन ने पूछा.
शून्य वेला में बच्चों को धनुष ऐसे ही नाम से पुकारते. न्यूटन. आर्यभट्ट. आइंस्टीन. चन्द्रशेखर.
धनुष को लगा कि अंत के इसी बिन्दु को स्थगित करने के लिए पिरामिड खड़े हुए. और ताजमहल बना.
बायोस्फीयर में साथ-साथ काम करते हुए धनुष से सहयोगी तान्या ने पूछा था—
‘‘आज की ज़िन्दगी में तुम्हारे क्षेत्र का क्या योगदान है? सिवाय पिरामिड व ताज के. लेकिन कब्रिस्तान में सभ्यताएँ विकसित नहीं होती. तुम एक कायर कौम के अच्छे नुमाइन्दे हो. जिन्हें सब कुछ पका पकाया चाहिए.’’
दोस्ताना अंदाज़ में तान्या ने नंगे प्रश्न किए थे. धनुष को गहरा धक्का लगा. उसे अपनी डिग्री तक मुँह चिढ़ाती लगी. मन को लगे इस धक्के के कारण धनुष ने सपने देखने शुरू किए. सपनों में भूत, वर्तमान और भविष्य नई इबारत के साथ साकार होते. पराये भी अपने बन जाते. आइंस्टीन गाँधी की वेशभूषा में बादशाह शाहजहाँ के साथ गोल मेज वार्ता में व्यस्त होते. फलसफा गढ़ते—
‘‘आप एक आक्सफोर्ड बनाकर पचास हज़ार साल बाद के सूरज से रूबरू हो सकते है. वक़्त की दीवार लांघ सकते हैं.’’
बायोस्फीयर में बदलते मौसम सम्बन्धित अध्ययन का एक चक्र सम्पन्न होने को था. तान्या ने प्रस्ताव किया कि गल्फ चलते हैं. तुम ब्रिटिश पासपोर्ट लो. आखिर आदमी को कीमत उसकी कौम की साख के अनुसार मिलती है.
तान्या कहना चाहती थी कि इस समय ब्रिटिश पासपोर्ट पर अरब देशों में भारतीय पासपोर्ट के मुकाबले चार गुना तक वेतन मिल सकता है. उन दिनों धनुष एक यूरोपियन अभियान दल में शामिल होना चाहता था जो कुछ सौ डालर में एक कमरे का घर बनाने में जुटा था. जिसमें शौचालय व रसोई घर भी सम्मिलित थे. उसे अभियान से जुड़ने में सफलता नहीं मिली. उसे लगा-
‘‘क्यों दूसरे अपने विश्व विजयी अभियानों में हमें शामिल करें.’’
बायोस्फीयर से लौटते वक़्त धनुष पिरामिडों के बीच गया. पिरामिडों के बीच खड़े होकर उसे लगा कि अमरता ऐसी बेवकूफियों से मिल सकती है क्या? पिरामिड पूरी संस्कृति निगल गए. फैरो की एक इच्छा. राज्य ने सारी ताकत बिना कुछ पूछे स्वाहा कर दी. हज़ारों ने अपना जीवन गर्क कर दिया. उस समय के मजदूरों की मोटी-मोटी हड्डियां गवाह है कि वहाँ मलेरिया मौत का तांडव करता था. इसके लिए फैरो को न कुछ करना था. न उसने कुछ किया.
इसी समझ के साथ उसकी शून्य बेला में ताज महल जुड़ा था. फकीर कहता-
‘‘बादशाह! तू खुदा से होड़ लेकर एक नकली जन्नत तालीम करना चाहता है. रहम कर रिआया पर. मत बरपा रिआया पर नकली अकाल. वह तो उल्टी दस्तों में खत्म हुई जाती है. खजाना खाली करने का तू दोषी है. कुदरत तुझसे इंसाफ़ करेगी. आने वाली नस्लें तेरी इस बेवकूफी पर हैरान होंगी. इसे भुगतेंगी.’’
धनुष को लगता कि शासक को विष्णु का अवतार नहीं विष्णु बनना चाहिए. अन्यथा…?
तान्या उसके विचारों में उतर आती. उन दिनों पश्चिम के अख़बार कह रहे थे कि दुनिया में बढ़ती मंहगाई भारतीयों के ज्यादा खाने की आदत की वजह से है.
‘‘यह ठीकरा भी तुम्हारे सर. अपने गिरेबान में झाँककर कोई नहीं देखता. अमेरिका मक्के से भी पैट्रोल बनता है. एक बार मोटर बाइक की टंकी में भरे जाने वाला पैट्रोल एक आदमी की पूरे वर्ष के अन्न के बराबर जरूरी मक्के से बनता है. दुनिया में आज भी जंगल के कानून लागू होते हैं. अंग्रेजों ने भारत को चबा-चबा कर खाया. भारतीयों को कुत्ता कहा. चर्चिल ने खरगोश के बराबर तक नहीं समझा. बंगाल में अकाल के दौरान लोगों को मरने से नहीं बचाया. भूले रहने की मजबूरी तुम्हारी है.’’
तभी शून्य वेला में गाँधी आते. पार्श्व में रेल के डिब्बे का चित्रा होता. दक्षिण अफ्रीका में सूट बूट पहने गाँधी को अंग्रेज रेल के कूपे से बाहर धकेल कर कहता—
‘‘मैं इस इंडियन के साथ नहीं बैठ सकता. चाहे यह सूट पहनता हो. अंग्रेजी बोलता हो.’’
इस शून्य बेला के चलते धनुष के मन में तान्या की आहट रहती. वे बायोस्फीयर में काम करने के कुछ अन्तिम दिन थे. वहाँ धनुष जान सका कि कैसे गर्म होती पृथ्वी की दोषी पश्चिम की धुआँ उगलती मशीने हैं. लगभग नब्बे प्रतिशत. जबकि तोहमत हम ग़रीबों पर है कि तुम्हारे अलावों से धरती गुस्सा खा रही है.
अपनी शून्य बेलाओं में डूबे धनुष की तान्या से इंटरनेट चैट होती रहती. पाँच छः साल साउदी अरब में काम कर वह लंदन वापस लौट चुकी थी. उसका ईमेल था— ‘‘बधाई धनुष. तुम्हें न्यूटन-आर्यभट्ट का बाप कह कर पुकारा जाने लगा है.’’
‘‘इससे क्या फर्क पड़ता है?
‘‘क्यों अपनी ज़िन्दगी ऐसी ही घिस रहे हो?’’
‘‘एक न्यूटन या आर्यभट्ट के लिए कई ज़िन्दगी घिसी जा सकती हैं.’’
‘‘पूर्व पश्चिम के लिए बाजार भर है. जबकि पूर्व के लिए पश्चिम मोक्ष का द्वार है. हमारे पास एक ज़िन्दगी है. मैंने एक बड़ा घर खरीदा है. तुम इधर आ जाओ. खूबसूरत पल तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’–तान्या ने जवाब दिया.
धनुष अक्सर सोचता-
‘‘मनुष्य क्या जानवरों से भी गया बीता है. कौम में परिवर्तन के लिए कितनी पीढ़ियाँ गुजर जाती हैं?’’
उसने पढ़ा था कि भयंकर आक्रामक साइबेरिया बिल्ली को पालतू बनने में उसकी छह पीढ़ियों का अन्तराल लगा. छह पीढ़ियों के बाद जन्मी साइबेरियाई बिल्ली ने आदमी के तलवे चाटे और उसके हमेशा खड़े रहने वाले कान झुक गए.
जबकि आदमी दूसरी तीसरी पीढ़ी बाद तलवे चाटने लगता है. शाही न्यौता पाने वाले परिवार के किशोर अर्जुन की मसूम इच्छा थी कि ब्रिटेन की महारानी उसकी दी हुई चाकलेट खाये. उसकी एक कविता सुने. जिसे उसने कुछ इस तरह लिखा था-
‘‘मैं अपनी चाकलेट देकर अपने आप को सम्मानित समझूंगा, क्योंकि आप मानवता के लिए जागृत देवी हैं. मैं सुबह शाम आपको प्रणाम करता हूँ. आप ही सबका कल्याण कर सकती है. सभ्यता के सारे औजार आपने दिए हैं. नई संस्कृति आपकी वजह से है.’’
धुनष को पिता ने विरासत में दो चीजें अतिरिक्त सौंपी थी. भगतसिंह का टोप वाला फोटो, जो असम्बेली में बम फेंके जाने से पहले उन्होंने खिंचवाया था. फोटोग्राफर दादा का उस दिन अकस्मात कुछ क्षणों के लिए उनसे साक्षात्कार हुआ था. जिसका पता उन्हें बाद में अख़बारों से लगा. और… दूसरी चीज दादा की लिखी एक कविता थी. दादा अपने जीवन में महात्मा गाँधी को वह सुनाना चाहते थे-
जन की आँधी.
जन के रोष.
जन गण के प्राणों के घोष..
जन के संकल्प.
जन के संघर्ष.
जन गण के प्राणों के उत्कर्ष.
जन की आशा.
जन की भाषा.
जन गण के प्राणों की गाथा..
जन के तारण हार गाँधी.
जन के गाँधी.
जनगण के राम गाँधी..
अर्जुन की कविता की एक पंक्ति पर धनुष का ध्यान अवश्य गया था. जिसमें उसने लिखा था कि नई सभ्यता के सारे औजार आपने दिए हैं.
उस दिन शून्य वेला के बाद आर्यभट्ट और कालिदास उसके सामने थे. प्रश्न करना चाहते थे. ‘‘भगत सिंह और गाँधी जी हमसे आज क्या चाहते?’’
ऐसे प्रश्न की धनुष को आशा नहीं थी.
‘‘शायद वे चाहते कि हम अपनी आजादी का विस्तार करें. कुछ नया करें. जो अब तक न हुआ हो. न किया जा सका हो. तभी हमें और हमारे ताज को नया अर्थ मिलेगा.’’
उस दिन सपनों के फलक पर सदानीरा यमुना के बहते जल पर धनुष ताज विश्वविद्यालय चलकर पहुँचा था. ज्योतिपुंज बने ताज विश्वविद्यालय में उल्लास कदम-कदम पर जीवंत था. मानवता अगली महान छलांग यहाँ लगा सकी थी. मानव तीन लाख किलोमीटर प्रति क्षण की गति से उड़ सके यह इस विश्वविद्यालय ने कर दिखाया था. अब समय की दूरियाँ सिमट सकेंगी, वक़्त की डोर थम सकेगी. उस समय विश्वविद्यालय परिसर में बादशाह शाहजहाँ का विदाई समारोह आयोजित था. वे अगले पाँच-सौ साल के लिए सोने जा रहे थे. उन्होंने कहा- ‘‘माबदौलत पाँच-सौ साल बाद कौम की पाँच-सौ गुनी बुलंदी देखना चाहते हैं.’’
इस सपने से धनुष को कुछ वर्षों पूर्व रहे उनके दो छात्रों ने जगाया. जिन्हें वह डार्विन व चन्द्रशेखर कहकर शून्य वेलाओं में बुलाता था.
वे धनुष को आमंत्रित करने आए थे. विज्ञान कौंसिल के सामने तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेण्ड की गति से मानव की प्रकाश यात्रा पर पेपर प्रस्तुत करने जा रहे थे.
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संभावना प्रकाशन, रेवती कुञ्ज, हापुड़- २४५१०१ : मूल्य: २५० रुपये.