स्वाधीनता-संघर्ष की चेतना ने अलक्षित क्षेत्रों में जाने की प्रेरणा बहुतों को दी थी, अनेक व्यक्तित्व साहित्य और समाज की तरफ नयी ऊर्जा और दृष्टि के साथ लौटे, देवेंद्र सत्यार्थी उन्हीं में से एक थे. उनका नाम लोकयात्रा का पर्याय है, इस सफर में वह लोकगीतों को एकत्र करते चलते थे. स्वाधीनता के बाद वह ‘आजकल’ पत्रिका के संपादक के रूप में प्रसिद्ध हुए. वह बेहतरीन कथाकार भी थे. आज ही के दिन १९०८ में उनका जन्म पंजाब के एक गाँव भदौड़ में हुआ था.
लेखक-संपादक प्रकाश मनु देवेंद्र सत्यार्थी के शब्द और कर्म के साक्षी रहें हैं. उनका यह संस्मरण यहाँ प्रस्तुत है. साथ ही देवेंद्र सत्यार्थी की पुत्री श्रीमती अलका सोईं के सौजन्य से उनकी लिखी पहली कहानी ‘कुंगपोश‘ भी यहाँ दी जा रही है. इस कहानी का अपना महत्व है.
II देवेंद्र सत्यार्थी II
‘लोकगीतों के यायावर’ नाम से प्रसिद्ध हिंदी के दिग्गज कथाकार और लोक साहित्य के उद्भट विद्वान देवेंद्र सत्यार्थी का जन्म 28 मई, 1908 को पंजाब के भदौड़ गाँव (जिला संगरूर) में हुआ. लोकगीतों की खोज के लिए पढ़ाई अधबीच छोड़कर घर से भागे. वर्षों तक पूरे भारत की अथक लोकयात्राएँ. महात्मा गाँधी और रवींद्रनाथ ठाकुर सरीखे युगनायकों ने उनके काम को सराहा और उसे इस देश की ‘आत्मा की खोज’ कहा. सत्यार्थी जी किस्सागोई के बादशाह थे.
वर्षों तक ‘आजकल’ पत्रिका संपादक रहे सत्यार्थी जी ने हिंदी, पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी में विपुल साहित्य लिखा है. उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं : ‘धरती गाती है’, ‘धीरे बहो गंगा’, ‘बेला फूले आधी रात’, ‘चित्रों में लोरियाँ’, ‘बाजत आवे ढोल’, ‘गिद्धा’, ‘दीवा बले सारी रात’, ‘पंजाबी लोक-साहित विच सैनिक’, ‘मैं हूँ खानाबदोश’ ‘गाए जा हिंदुस्तान’, ‘मीट माई पीपल’ (लोक-साहित्य), ‘चट्टान से पूछ लो’, ‘चाय का रंग’, ‘नए धान से पहले’, ‘सड़क नहीं बंदूक’, ‘घूँघट में गोरी जले’, ‘मिस फोकलोर’, ‘देवेंद्र सत्यार्थी की चुनी हुई कहानियाँ’, ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’, ‘कुंगपोश’, ‘सोनागाछी’, ‘देवता डिग पेया’, ‘तिन बुहियाँवाला घर’, ‘पेरिस दा आदमी’, ‘नीली छतरीवाला’, ‘नए देवता’, ‘बाँसुरी बजती रही’ (कहानी-संग्रह), ‘बंदनवार’, ‘धरती दीयाँ वाजाँ’, ‘मुडका ते कणक’, ‘बुड्ढी नहीं धरती’, ‘लक टुनूँ-टुनूँ’ (कविता), ‘एक युग : एक प्रतीक’, ‘रेखाएँ बोल उठीं’, ‘क्या गोरी क्या साँवरी’, ‘कला के हस्ताक्षर’, ‘यादों के काफिले’ (संस्मरण तथा रेखाचित्र), ‘रथ के पहिए’, ‘कठपुतली’, ‘ब्रह्मपुत्र’, ‘दूधगाछ’, ‘कथा कहो उर्वशी’, ‘तेरी कसम सतलुज’, ‘घोड़ा बादशाह’, ‘विदा दीपदान’, ‘सूई बाजार’ (उपन्यास), ‘चाँद-सूरज के बीरन’, ‘नीलयक्षिणी’, ‘हैलो गुडमैन दि लालटेन’, ‘नाच मेरी बुलबुल’ (आत्मकथा), ‘सफरनामा पाकिस्तान’ (यात्रा-वृत्तांत), ‘देवेंद्र सत्यार्थी : नब्बे बरस का सफर’, ‘मेरे साक्षात्कार’ (साक्षात्कार). इसके अलावा बाल साहित्य, अनुवाद और संपादन के क्षेत्र में बहुत काम.
साहित्य सेवा के लिए भारत सरकार की ‘पद्मश्री’ उपाधि के अलावा हिंदी अकादमी, दिल्ली समेत अनेक संस्थाओं से सम्मानित.
12 फरवरी, 2003 को दिल्ली में सत्यार्थी जी का निधन हुआ.
लोकगीतों के अद्भुत यायावर देवेंद्र सत्यार्थी
प्रकाश मनु
(प्रकाश मनु) |
किसी ने कहा औघड़ फकीर, किसी ने कहा फरिश्ता. किसी ने लोकगीतों और लोक संस्कृति का राजदूत कहा तो किसी ने धरती का सच्चा पुत्र. लेकिन देवेंद्र सत्यार्थी का कद इतना बड़ा था, और व्यक्तित्व सीधा-सरल, पर भीतर से देखो तो ऐसा बीहड़ भी कि वे किसी परिभाषा में बँधे नहीं.
मशहूर पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम ने बड़े ममत्व के साथ कहा कि लोकगीतों की खोज करते-करते सत्यार्थी खुद एक लोकगीत बन गया है. रामनरेश त्रिपाठी ने, जिन्होंने स्वयं भी लोकगीतों के क्षेत्र में बड़ा काम किया, एक चिट्ठी में सत्यार्थी जी की इस अनोखी धुन को बड़ी स्पृहा, आदर और भावुकता के साथ याद किया है,
“ग्रामगीतों के संबंध में जिस मार्ग पर चलने की इच्छा मैं वर्षों से कर रहा था, उसे तो आपने नाप डाला. आपका साहस धन्य है. आपकी सच्ची लगन इतिहास की वस्तु हो गई है. मैं आपको प्रणाम करता हूँ. …इस क्षेत्र में आप ही पहले और आप ही अंतिम हैं. इतना परिश्रम कौन करेगा!”
सत्यार्थी जी का काम इतना महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक महत्व का इसलिए भी है कि पहली बार वे खुले मन और एक शिशु की सी निर्मलता के साथ लोकगीतों के निकट गए, और उनके हृदय को टटोला, उनकी आत्मा को पहचाना. लोकगीतों में बसी धरती की मटियारी गंध को पहचाना और उसे वैसे ही सीधे-सच्चे हरफों में जुबान दी. साथ ही सीधे हृदय से निकले अपने भावपूर्ण लेखों के जरिए उसे हजारों पढ़े-लिखे शहराती लोगों तक पहुँचाया, जो अभी तक इन्हें गँवई चीज मानकर हेठी निगाहों से देखते थे.
पर सत्यार्थी जी ने अपने सच्चे भावावेगी अंदाज में बताया कि लोकगीत धरती की सर्वोत्कृष्ट रचना हैं, जिनमें लाखों सीधे-सच्चे लोगों का सुख-दुख और करुणा बही चली आती है.
पहली बार लोगों ने यह सुना और चकित हुए. पहली बार लोगों ने जाना कि लोकगीतों का मोल कितना ऊँचा है और किसी भी देश या समाज की लोक साहित्य की विरासत नाज करने की चीज है, और उस पर दुनिया की बड़ी से बड़ी दौलत कुर्बान की जा सकती है.
सच पूछिए तो ओस में नहाए फूलों सरीखे ताजा टटके लोकगीतों की तलाश और उनकी सच्ची भावना की पहचान, किसी बड़े भाषा-विज्ञानी या विद्वान के बस की बात नहीं थी. इसे तो सत्यार्थी जी सरीखे सहृदय और जनता के दर्द से जुड़े भावुक लोकयात्री ही समझ सकते थे. और यह काम उन्होंने अथाह कष्ट उठाकर दर-दर की ठोकरें खाते हुए पूरे समर्पण और निष्ठा किया.
प्रभाकर माचवे ने बड़े सही लफ्जों में इस बात की ओर इशारा किया है कि सत्यार्थी जी के लोक साहित्य के काम ने पूरे देश में लोक साहित्य के लिए जैसे एक आंदोलन ही खड़ा कर दिया था—
“रवींद्रनाथ ठाकुर उनकी लगन और प्रतिभा से आतंकित हुए. गाँधी जी ने कहा कि इतने हजार गीत और एक आदमी घूम-घूमकर कैसे जमा करता है, आश्चर्य है!…‘मीट माई पीपल’ देवेंद्र सत्यार्थी की पहली अंग्रेजी किताब थी, जिसने बहुत बड़ा काम इस दिशा में किया. उसका ऐतिहासिक महत्त्व है.”
उन्नीस बरस की अवस्था में कालेज की पढ़ाई अधबीच छोड़कर सत्यार्थी जी घुमक्कड़ी के लिए निकल पड़े. उन्होंने अपनी उम्र का एक बड़ा भाग गाँव-गाँव, शहर-शहर भटककर लोकगीत एकत्र करने में लगाया. गाँवों की धूलभरी पगडंडियों पर भटकते हुए, धरती के भीतर से फूटे किस्म-किस्म के रंगों और भाव-भूमियों के लोकगीतों को देखा, महसूस किया और उसके पीछे छिपे दर्द, करुणा, प्रेम और इनसानी जज्बात से भीतर तक भीगे. तभी उन्होंने जाना कि धरती की कोख से जनमी फसलों की तरह ही लोकगीत भी जन्म लेते हैं और उन्हें उनकी जमीन और लोगों के दुख-दर्द और हालात से जोड़कर ही देखा जा सकता है.
जहाँ भी कोई अच्छा लोकगीत सुनने को मिलता, वे बैठकर कॉपी में उसे लिखने लग जाते थे. फिर भाषा की कठिनाई आई, तो पूछ-पूछकर उसका अर्थ भी लिख लेते. कापियाँ भरती गईं, पर अच्छे लोकगीतों के संग्रह की उनकी प्यास कम होने की बजाय और बढ़ी. उसका कोई अंत ही नहीं था, जैसे बेतरतीब पसरी धरती की पगडंडियों, नदियों, पहाड़ों, झरनों और कंदराओं का, और लोकयात्री के पैर बिन थके चलते रहे, चलते रहे. कहीं कुछ खाने को मिला तो खा लिया, नहीं तो भूखे ही सो गए. बस तड़प यह थी कि कोई भी अच्छा लोकगीत मिला तो वह कॉपी में दर्ज होने से न रह जाए.
इस बीच विवाह हुआ, तो पत्नी भी साथ चल पड़ीं. राह में बेटी हुई तो वह भी नन्ही लोकयात्री बन गई. और असीम लोकयात्राओं की डगर पर इस असीम यात्री के पैर बढ़ते ही गए.
(दो)
सत्यार्थी जी से मेरी अनगिनत मुलाकातें हैं, और हर मुलाकात का एक अलग किस्सा. लिखूँ तो शायद पन्ने के पन्ने भर जाएँ. हर मुलाकात में उनकी जीवन-कथा का एक नया अध्याय खुल पड़ता और उसके साथ बहते हुए न मुझे समय का कुछ होश रहता, न देह का. वह बिना पंखों के उड़ना था और उड़कर इतिहास के उन अज्ञात क्षितिजों की सैर कर लेना था, जिनकी मैंने पहले कभी कल्पना भी न की थी.
याद पड़ता है, एक बार सत्यार्थी जी से उनकी घुमक्कड़ी को लेकर चर्चा हुई, तो उनकी बातों का कोई अंत ही नहीं था. बातों के छोर न जाने कहाँ-कहाँ तक फैलकर फिर कहाँ मिल जाते. मेरे लिए यह सब बड़ा रोमांचक था. यायावर की दीवानावार घुमक्कड़ी की अजीबोगरीब दास्तानें रह-रहकर सामने आ रही थीं. एक से जुड़ी दूसरी घटना, दूसरी से तीसरी. अंतहीन कहानियाँ मिलकर एक घने बियावान जंगल का आभास देने लगतीं.
फिर उस दाढ़ी वाले जंगल की बात चल पड़ी जो सत्यार्थी जी के चेहरे पर उग आया और उनकी एक अलग पहचान बना. इस जंगल में सत्यार्थी जी की घुमक्कड़ी की न जाने कितनी कहानियाँ छिपी हैं. कुछ के बारे में तो उन्होंने खुद लिखा भी है. इस बारे में पूछने पर सत्यार्थी जी ने हँसते हुए बताया था—
“हाँ, आप ठीक कह रहे हैं! इस जंगल में एक नहीं, कई कहानियाँ हैं, कई किस्से हैं. …हाँ, तो पहले यह सुन लीजिए कि इस जंगल की जरूरत मुझे क्यों पड़ी? तो इसका कारण यह है कि जब मैं लोकगीत इकट्ठे करने जाता था, तो मेरे सामने कई तरह की मुश्किलें आती थीं. ज्यादातर लोकगीत स्त्रियों को ही याद होते हैं, जैसे पर्वों और विवाह आदि के गीत. सच मानिए, उन्हीं के कारण ये अभी तक जीवित भी रहे. खुद स्त्रियों के जीवन का बहुत-सा दुख-दर्द और दबी हुई इच्छाएँ इनमें समाई हुई हैं. इसीलिए इन लोकगीतों में इतना मिठास, इतना दर्द है और ये मन पर इतनी गहरी चोट करते है!…खैर, पर लोग यह पसंद नहीं करते थे कि उनकी स्त्री से कोई गैर-आदमी मिले और पूछ-पूछकर लोकगीत लिखता फिरे. तो मैंने साधु-संन्यासी वाला बाना धारण किया. दाढ़ी बढ़ा ली. बहुत समय तक लोग मुझे ब्रह्मचारी ही समझते रहे, जबकि विवाह हो तो चुका था. …”
और तो और, शांतिनिकेतन में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भी उन्हें इसी रूप में जानते थे और ‘ब्रह्मचारी जी’ कहकर संबोधित करते थे. एक बार जब सत्यार्थी जी ने उन्हें बताया कि वे विवाहित हैं, तो आचार्य द्विवेदी बड़े जोर का ठहाका लगाकर हँसे!
इस दाढ़ी को लेकर तमाम किस्से हैं, जिनमें कहीं न कहीं उनकी अलबेली लोकयात्राओँ की गंध भी महसूस की जा सकती है. पर यहाँ इतना बता देना प्रासंगिक होगा कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सत्यार्थी जी की दाढ़ी की प्रशंसा में बाकायदा संस्कृत में श्लोक रचकर उन्हें भेजे. सत्यार्थी जी की पुस्तक ‘बाजत आवे ढोल’ में 19 अक्तूबर, 1935 को शांतिनिकेतन से भेजा गया द्विवेदी का वह पत्र और उनके द्वारा रचे दाढ़ी-वंदना के श्लोक देखने को मिल सकते हैं. उन शलोकों का अर्थ भी खुद आचार्य द्विवेदी ने ही बड़े सुललित ढंग से किया है—
“पुराने दूर विस्तीर्ण बरगद के प्ररोहों के समान जटिल, काली-काली तमाल वृक्षों की प्रभा धारण किए हुए, उस ग्राम-ग्राम विहरने वाले नागर की नटी डाढ़ी की मैं वंदना करता हूँ, जो एक ही साथ मोहम्मद धर्म साधन में भी तत्पर है, ‘देवेंद्रता’ भी दे सकती है, सिक्ख (शिष्य) बनने में भी और गुरु बनने में भी समान रूप सहायक है और जो रामाओं की मनोहारिणी भी है. इति मंगलाचरणम.”
इतना ही नहीं, इसके कोई पाँच बरस बाद 18 जनवरी 1940 को शांतिनिकेतन से एक अनूठा लोकगीत रचकर भेजा, जिसके नायक अद्भुत लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी हैं. भावनाओं से छलछलाता यह लोकगीत काफी लंबा है, जिसमें सत्यार्थी जी की लोकगीत इकट्ठे करने की लाजवाब धुन का बड़े निराले ढंग से महिमागान है. इस लोकगीत की शुरुआत कुछ इस तरह होती है—
कि सतार्थी भैया रे!
पवलों तोरी चिठिया, वजवलों रे वधौआ,
कि सतार्थी भैया रे!
तोरी डगरी अकेल कि सतार्थी भैया रे!…
और पत्र में स्वयं आचार्य द्विवेदी ने इस लोकगीत का सुंदर भावानुवाद भी किया है—
“अरे ओ सत्यार्थी भैया! पाई तेरी चिट्ठी, बजाया बधाव, अरे ओ सत्यार्थी भैया! तेरा चलने का रास्ता अकेले का रास्ता है, अरे ओ सत्यार्थी भैया!…एक मैंने देखा है, सरग (आकाश) के बीच एक सूर्य का रास्ता अकेले का रास्ता है, दूसरा मैंने देखा, सरग (आकाश) के बीच एक चाँद का रास्ता अकेले का रास्ता है. तीसरा मैंने देखा, दुनिया के बीच तेरा रास्ता अकेले का रास्ता है—अरे ओ सत्यार्थी भैया!”
ऐसे ही सत्यार्थी जी की लंका-यात्रा का एक बड़ा भावपूर्ण प्रसंग है. सत्यार्थी जी उन दिनों मद्रास (आज का चेन्नई) में रुके हुए थे. उन्हीं दिनों तमिल के एक पत्र के संपादक उनके पास पाँच हजार रुपए लेकर आए. बोले, “आपके लोक साहित्य संबंधी लेख हमारे यहाँ अनूदित होकर तमिल में छपते हैं. यह उसका पारिश्रमिक है.”
सत्यार्थी जी ने कहा, “मेरी लंका-यात्रा के खर्च का इंतजाम तो हो गया. मैं यह राशि लेकर क्या करूँगा? देना ही तो इसे आप अनुवादक को दे दीजिए. उसके अनुवाद की मैंने खासी प्रशंसा सुनी है.” और वे पाँच हजार रुपए आखिरकार अनुवादक को दिए गए.
सत्यार्थी जी की यायावरी तबीयत और फक्कड़पने का यह ऐसा अविस्मरणीय प्रसंग है, जिससे समझा जा सकता है कि वे किस मिट्टी से बने थे.
इसी तरह आल इंडिया रेडियो के तत्कालीन डाइरेक्टर अहमद शाह बुखारी पितरस ने सत्यार्थी जी से देश के अलग-अलग अंचलों के एक हज़ार एक श्रेष्ठ और भावपूर्ण लोकगीत चुनकर देने का आग्रह किया, जिनका रेडियो से प्रसारण किया जा सका. सत्यार्थी जी ने खुशी-खुशी यह काम किया, पर उसका पारिश्रमिक लेने से यह कहकर इनकार कर दिया कि इन पर तो भारत माता का कापीराइट है.
इन्हीं यात्राओं में ही एक दफा देहरादून में मालवीय जी से सत्यार्थी जी की मुलाकात हुई थी. यह भी उनके जीवन की एक यादगार घटना थी. इसलिए कि मालवीय जी की करुणा का एक अनूठा रूप उन्होंने देखा. हुआ यह कि मालवीय जी सत्यार्थी जी का धूल से सना बाना और धूल-धूसरित पैर देखकर खासे व्यथित हुए. बोले, “अरे, यह क्या?” उन्होंने तत्काल सत्यार्थी जी से हाथ-पैर धोने के लिए कहा. इसके बाद उन्होंने जुराबें मँगवाईं और अपने हाथों से उन्हें जुराबें पहनाने लगे. सत्यार्थी जी भौचक! बोले, “आप क्या करते हैं!” आखिर उनका संकोच देखकर मालवीय जी ने अपने बेटे से कहा और उसने अपने हाथ से सत्यार्थी जी को जुराबें पहनार्ईं.
सत्यार्थी जी ने जब यह प्रसंग मुझे सुनाया, उनका गला भर आया था. आँखों से उमड़ते आँसुओं को वे बमुश्किल रोक पाए थे.
(तीन)
यों सत्यार्थी जी की यात्राओं में बहुत-से लोग मदद करने वाले मिल जाते और राहें आसान हो जातीं. ये लोग न सिर्फ अपने घर ठहरने और भोजन का प्रबंध करते, बल्कि आगे की यात्रा के लिए रेलगाड़ी का टिकट खरीदकर भी दे देते थे. ऐसे ही सहृदय लोगों के कारण भाषा की समस्या भी आड़े न आती और कोई सुंदर भावों वाला गीत मिलता, तो वे लोगों से पूछ-पूछकर उसका अर्थ लिख लेते. फिर रास्ते में कोई स्कूल या कॉलेज मिलता तो वहाँ जाकर लोकगीतों पर व्याख्यान देते. वहाँ से कुछ आर्थिक सहायता मिलती तो फिर आगे की राह पकड़ लेते.
तब जीवन में सादगी और भावनात्मक लगाव कहीं गहरा था. रिश्तों और इनसानी जज्बात का मोल लोग समझते थे. इसलिए राहें कहीं रुकी नहीं, और यायावर सत्यार्थी जी के पैर निरंतर आगे बढ़ते गए. प्रकृति माँ मानो अपनी दोनों बाहें उठाए उन्हें पुकार रही थी. लोकयात्राओं की गंध उन्हें विकल करती, और वे आगे चल देते. खुद सत्यार्थी जी के शब्दों में—
“घूमने का शौक तो था ही और इस मामले में राहुल सांकृत्यायन की तरह मेरी गति भी बड़ी रपटीली थी. दूर-दराज के स्थान, नदियाँ, पहाड़, लोग मुझे बुलाते थे. मैं पथ की पुकार सुनकर दौड़ पड़ता था. …तो घुमक्कड़ी का शौक तो था ही, लेकिन यह शौक खाली दिल बहलाव की चीज नहीं थी. इसके पीछे लोकगीत इकट्ठे करने की धुन और यह आदर्श भी बराबर रहा कि इस देश को उसके सभी रंगों, रूपों और विविधताओं में जानना है. लोकगीत बहुत प्रमुख तो थे, लेकिन लोकगीत भी शायद एक जरिया थे जिससे इस विराट देश की लोक संस्कृति, लोक सभ्यता और सुख-दुख के अमृत-हलाहल का साक्षात्कार किया जा सकता है. ”
इन यात्राओं में मुश्किलें भी कम न थीं. कई बार किसी पेड़ के नीचे या फुटपाथ पर भूखा सोना पड़ता. बीच-बीच में मेहनत-मजदूरी करने में भी उन्हें संकोच न था. आखिर घर वालों ने उनके पैरों में जंजीरें डालने के लिए उनका विवाह कर दिया. लेकिन विवाह के बाद भी उनकी घुमक्कड़ी कहाँ रुकी? कई बार उन्होंने चुपके से घर से भाग-भागकर यात्राएँ कीं. चार आने की सब्जी लेने के लिए निकले और चार महीने बार घर पहुँचे. पत्नी खीजकर कहती, “तुम तो चार आने की सब्जी लेने निकले थे!”
इस पर वे जवाब देते, “मेरा थैला देखो, इसमें चार हजार लोकगीत हैं. ”
एक बार तो सत्यार्थी जी घऱ पर बिना कुछ बताए शांतिनिकेतन जा पहुँचे. सत्यार्थी जी तब कलकत्ते (आज का कोलकाता) में रहते थे और ‘विशाल भारत’ में देश के विभिन्न अंचलों के लोकगीतों पर छपने वाले उनके सांस्कृतिक लेखों की धूम थी. पत्नी शांति सत्यार्थी उनका पता लगाने अज्ञेय जी के निवास पर पहुँचीं, तो वहाँ बलराज साहनी जी भी थे. उऩ्होंने बताया, सत्यार्थी जी तो शांतिनिकेतन गए हैं. किसी तरह शांतिनिकेतन तक का टिकट का इंतजाम करके शांति सत्यार्थी शांतिनिकेतन पहुँचीं. उऩ्हें देखकर सत्यार्थी जी हैरान. उन्होंने गुरुदेव टैगोर, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और नंदलाल बसु से उन्हें मिलवाया, और फिर उनके साथ ही घर लौट आए. पर मन तो उनका शांतिनिकेतन में ही छूट गया था, जहाँ उन्हें संथाल गीतों के दुर्वह आकर्षण से परचने का अवसर मिला था. इसी तरह बिना घर पर बताए वे एक बार बर्मा (आज का म्यामाँ) जा पहुँचे, जहाँ उन्हें लोकगीतों की एक अलग सी सुवास अपनी ओर खींच रही थी.
ऐसे एक नहीं अनगिनत प्रसंग हैं. बेशक सत्यार्थी जी की लोकगीत संग्रह की दीवानगी ने पत्नी शांति सत्यार्थी को मुश्किलों में डाला. वे कभी सत्यार्थी जी के साथ होतीं, तो कभी वे अकेले ही निकल जाते. पत्नी यह अच्छी तरह समझ चुकी थीं कि सत्यार्थी जी के पैर में चक्कर है, और लोकगीतों की तलाश में जगह-जगह भटकते उनके पैर अब रुक नहीं सकते.
यों सत्यार्थी जी ने लोक साहित्य में पहलकदमी करके पूरे देश में एक आंदोलन सा खड़ा कर दिया, जिसने बहुतों को अपनी ओर आकर्षित किया. पर इसके लिए बहुत बार उन्हें अपने और परिवार के सुख को भी तिलांजलि देनी पड़ी. ‘धरती गाती है’, ‘बेला फूले आधी रात’, ‘धीरे बहो गंगा’ और ‘बाजत आवे ढोल’ ग्रंथ यायावर सत्यार्थी के जीवन भर के काम और लोक यात्राओं के अमर दस्तावेज हैं.
सत्यार्थी जी ने बार-बार अपने लेखों में यह बात दोहराई है कि लोकगीतों में सब तरह की बेड़ियों से मुक्त धरती का स्वच्छंद हृदय बोलता है. उसमें स्त्री-जीवन की अंतःकरुणा, खेतिहर किसार-मजदूरों के सुख-दुख का संगीत और गरीब जनता के हृदय की पीड़ा बोलती है. कोटि-कोटि ग्राम्य जनों के हृदय से अनायास ही फूट पड़े इन सीधे-सच्चे लोकगीतों में खेतों में हुमचती फसलों का सा आनंद उमड़ता है. इसलिए जब-जब शहराती सीमाओं में बंदी नागर साहित्य ऊब और थकान महसूस करेगा, उसे पुनर्नवा होने के लिए लोक साहित्य और लोक संस्कृति के निकट आना ही होगा. यह एक तरह से निर्मल भावनाओं की गंगा में स्नान है.
आज जब सत्यार्थी जी नहीं है, उनके शब्द कहीं अधिक गंभीर और अर्थवान जान पड़ते हैं. दिग्दर्शक भी. काश, पहली बार लोक संस्कृति के आख्यान को जन-जन तक पहुँचाने वाले इस अद्भुत लोक यायावर के जीवन भर की तपस्या का मोल हमने ठीक से समझा होता!
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प्रकाश मनु
545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
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ईमेल – prakashmanu333@gmail.com
कुंग पोश
(विलक्षण लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी हिंदी साहित्य के बड़े अद्भुत कथा शिल्पी और किस्सागो थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन इस विशाल देश की धरती से उपजे लोकगीतों की खोज में लगाया, और इसके लिए देश का चप्पा-चप्पा छान मारा. यहाँ तक कि जेब में चार पैसे भी न होते थे, पर इस फक्कड़ फकीर की उत्साह भरी यात्राएँ अनवरत जारी रहतीं. धरती उनका बिछौना था और आकाश छत, जिसके नीचे उन्हें आश्रय मिल जाता. इस तरह राह में मिलने वाली ढेरों अकथनीय तकलीफें झेलकर भी धुन के पक्के सत्यार्थी जी के पाँव रुके नहीं. उन्होंने घोर तंगहाली में दूर-दूर की यात्राएँ करके, देश के हर जनपद के लोकगीत एकत्र किए और उन पर सुंदर भावनात्मक लेख लिखे तो देश भर में फैले हजारों पाठकों के साथ-साथ महात्मा गाँधी, गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर और महापंडित राहुल सांकृत्यायन तक उनके लेखन के मुरीद बने.
इन्हीं लोकयात्राओं ने सत्यार्थी जी को कहानीकार भी बनाया. उनकी लिखी कहानियों और उपन्यासों में धरती की गंध और लोकगीतों की सी सहजता, उच्छल उमंग और उल्लास है. ‘कुंग पोश’ सत्यार्थी जी की लिखी पहली कहानी है, जिसने उन्हें अपने ढंग के एक निराले कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया. कहानी में कश्मीर की प्रकृति की सुंदरता और लावण्य का ऐसा चित्ताकर्षक रूप है, जो पाठकों को रसमग्न कर देता है. भारतीय कथा साहित्य में कश्मीर की नैसर्गिक सुंदरता का चित्रण करने वाली ऐसी अद्भुत कहानी शायद ही कोई और हो.)
और सब फूल वसंत में खिलते हैं, पर केसर पतझड़ में खिलती है. वह मटमैली अबाबील, जो अभी-अभी उस टीले से पंख फैला उड़ गई थी, शायद केसर को जी भरकर देखने के लिए ही इधर आ बैठी है. क्या यह धरती कभी इतनी बाँझ हो जाएगी कि केसर का उगना बंद हो जाए?
कितनी चहल-पहल है यहाँ! ये लड़कियाँ हैं या रंगों की परियाँ? इनको देखता हूँ, तो ऐसा लगता है एक बहुत बड़ा दुपट्टा है, जिसमें ये रंग की धारियाँ बनकर लहरा रही हैं. वे केसर के फूल चुन रही हैं. उनके सुडौल शरीर देखता हूँ, तो उस बुत-तराश को दाद दिए बिना नहीं रह सकता, जिसने मांस में पत्थर की-सी नोक-पलक पैदा की.
रंग की इन लहरों में मेरा दिल, जो पहले अमीराकदल पुल के नीचे से गुजरने वाला शांत और बेरंग जेहलम था, अब उछलने लगा है. क्या कश्मीर की सभी स्त्रियाँ एक-सी सुंदर हैं? नहीं तो. न तो सभी एक-सी कोमल हैं और न एक-सी सूक्ष्म और गदमाती ही. रंग अलग बात है, रूप अलग.
ठेकेदार ललकार रहा है, “जल्दी हाथ चलाओ, जल्दी. ”
लड़कियाँ खुशी-खुशी फूल चुन रही हैं. वे पहले ठेकेदार की कड़क सुनकर सहम जाती हैं, पर फिर बातों का वही सिलसिला शुरू हो जाता है. जैसे भूत, वर्तमान और भविष्य का सारा सौंदर्य इस खेत में जमा हो गया है. ये गोरी-गोरी गरदनें, काली-काली आँखें, काली-काली बदलियों-सी, जिनमें बिजली चमक रही हो. होंठ- कार्तिक के शहद से कहीं रसीले और चमकीले. बातें करती हैं, तो होंठों के कोने हिलते हैं और मेरे दिल पर रंगीन फुहार पड़ती है.
कुछ बूढ़ी स्त्रियाँ भी फूल चुन रही हैं. साल के साल केसर चुनते-चुनते उनकी जवानी बीत गई है. जब वे दुलहनें बनी इधर आ निकली थीं, तब भी ये खेत इसी तरह केसर पैदा करते थे.
वह लाल फिरन वाली युवती, जो किसी बच्चे की माँ बनने वाली है, फूल चुनती-चुनती थक जाती है, जैसे लाले की टहनी वर्षा के बोझ से झुक जाए. मेरी निगाह घूम-फिरकर उस बिन-ब्याही अल्हड़ लड़की पर आ ठहरती है, जिसने हरा ऊनी फिरन पहन रखा है. उसकी नरगिसी आँखों में लाज है, झिझक है और कुछ-कुछ डर भी. उसके चेहरे पर बचपन की नटखट लाली गंभीरता की ओर पहला कदम उठा रही है. यह नहीं कि उसने मुझे देखा नहीं. देखने में तो कुछ बुराई नहीं. और यदि इसमें कुछ बुराई है, तो मैं उससे पूछना चाहता हूँ कि कनखियों से किसी अपरिचित की ओर देखना और फिर पलकें झुका लेना क्या कम अन्याय है? उसकी बाँहों की तराश देखूँ या उसकी पतली-पतली उँगलियाँ?
ठेकेदार के बोल डाँट रहे हैं, झिंझोड़ रहे हैं, और जब वह लाल-पीला होकर कह उठता है, ‘और फुर्ती से—और फुर्ती से’, तब हर एक का चेहरा पीला पड़ जाता है, बूढ़ी स्त्रियों का भी.
फूलों की पत्तियाँ बैगनी रंग की हैं. हर एक फूल में छह-छह तार हैं- तीन पीले और तीन नारंगी. फूल चुनने के बाद उन्हें धूप में सूखने के लिए डाल दिया जाएगा. फिर नारंगी तार, जो असल केसर है, अलग कर लिए जाएँगे. पीले तार फेंक दिए जाने चाहिए, पर ये यों ही केसर में मिल जाएँगे, या उसका वजन बढ़ाने के लिए जान-बूझकर उसमें मिला दिए जाएँगे.
पिछले सप्ताह जब मैं अपनी पत्नी और पुत्री के साथ चाँदनी रात में केसर के फूल देखने आया था, तो केसर के तार सोने की तरह चमक रहे थे. कभी मैं ऊपर आकाश पर तारों को देखता रहा था और कभी केसर के तारों को. मेरे मन में एक सुंदर चित्र बन गया है. उस हरे फिरन वाली अल्हड़ लड़की ने फिर एक बार मेरी ओर देख लिया है. सात वर्ष पहले भी मैं कश्मीर आया था. जो चित्र उस समय मेरे मन में अपने-आप बन गया था, वह भी तो कायम है. यह दूसरी बात है कि उसमें केसर का खेत मौजूद नहीं, पर वह कमी इस समय पूरी हो रही है.
केसर चुनती-चुनती कुमारियाँ एकाएक ऐसा गीत मिलकर गाने लगी हैं, जिसे सुनकर ठेकेदार के बुड्ढे गले में भी सुर खुरखराने लगे हैं :
यार गोमय पाम्पोर वते कुंग पोशव रुटनालमते,
सुछम तते बछुम यते बार सायबो बोजतम जार!
’मेरा प्रीतम पांपुर की तरफ चला गया. (और वहाँ) केसर के फूलों ने उसे गले लगा लिया. (आह!) वह वहाँ है और मैं यहाँ! ओ खुदा! मेरी विनती सुन. ’
वह हरे फिरन शर्मीली लडकी बड़ी होकर शायद इस गीत में अपने जीवन का कोई फीका पड़ा हुआ रंग उभारने का यत्न करेगी.
यह ऊँची-नीची धरती है. यह कुछ जेहलम के किनारे-किनारे और कुछ इससे दूर हटती गई है. कितने ही छोटे-छोटे अलग-अलग टीले जैसे दिखाई दे रहे हैं. मैं ठेकेदार से पूछता हूँ, “इन टीलों को यहाँ क्या कहा जाता है?”
वह जवाब देता है, ‘वुडर’ या ‘करेवा’.
ठेकेदार का चेहरा जिस पर गहरी झुर्रियाँ नजर आ रही हैं, और भी संजीदा हो गया है, मानो वह भी एक जरूरी आदमी है और जैसे इस प्रश्न का उत्तर वही दे सकता है. उसने मुझे अपने पास खाट पर बिठा लिया है. वह मुझे बता रहा है कि ये वुडर या करेवा सब के सब बारानी धरती के टुकड़े हैं, पर हैं बड़े उपजाऊ.
“तो क्या इन सभी वुडरों में केसर पैदा होती है?”
“नहीं तो. केसर तो पांपुर के वुडरों में ही पैदा होती है. इस बारह हजार बीघा धरती पर खुदा का बड़ा फजल है. …यहाँ मिट्टी केसर पैदा करती है. ”
उसने मुझे यह भी बताया कि यह जमीन महाराज की निजी मिलकियत है. जो भी इसे ठेके पर लेता है, इसकी आधी केसर अपने नीचे खेती करने वालों को बाँट देता है और आधी स्वयं ले लेता है, जिसमें से उसे ठेके का रुपया चुकाना होता है.
“आधी छटाँक केसर तैयार करने के लिए चार हजार तीन सौ बारह फूल चाहिए. ” वह बड़े गर्व से कह रहा है, जैसे उसके बाप-दादा सदा केसर का ठेका लेते रहे हैं. उसकी कुशल आँखें, जिनमें कुछ आत्मप्रशंसा भी झलकती है, मस्त हो उठी हैं, जैसे उसने केसर का यह भेद मुझे बताकर कभी-न-कभी केसर का ठेका लेने के लिए उकसा दिया है.
(दो)
केसर से मुझे प्यार हो गया है. मैं इसे सब जगह देखना चाहता हूँ. हिंदुस्तान के नक्शे पर मैं हर जगह केसर छिड़क देना चाहता हूँ.
“धन्य है वह धरती जहाँ केसर ने जन्म लिया है.” यह कहते हुए कल एक दुकानदार ने मेरे लिए पाँच रुपए की केसर तोल दी थी. जेब से रुपए निकालता हुआ मैं सोच रहा था कि कौन जाने श्रीनगर के इस दुकानदार की पत्नी का नाम केसर हो और वह रात को घर आकर उसके सामने भी कह उठे, ‘धन्य है वह धरती, जहाँ केसर ने जन्म लिया!’ और वह स्त्री यह समझे कि उसके सौंदर्य की प्रशंसा हो रही है, यह नहीं कि उसके पति ने एक खानाबदोश लेखक के पास थोड़ी केसर बेचकर एक-आध रुपया कमा लिया है.
मेरे मन की सारी कविता सिमट-सिमटकर केसर के इर्द-गिर्द घूमने लगी है. मेरी पत्नी ने केसरिया साड़ी पहन रखी है. माँ की देखादेखी मेरी पुत्री ने भी केसरिया फ्रॉक पहन लिया है. और मैं खुश हूँ.
काश! उस शर्मीली लड़की ने केसर के खेत में केसरिया फिरन पहना होता, तो उसका गोरा रंग एक सुनहरी झलक ले उठता. वह मुझे और भी सुंदर दिखाई देती. मैं सोचता कि वह केसर के खेत की बेटी है, या फिर केसर की देवी है!
शफक की केसरिया प्रसन्नता देखता हूँ, तो सोचता हूँ कि उषा ने मेरी भावना समझ ली है. पर यह रंग तो उसे सदा से प्यारा है. नित नए हैं केसरिया उषा के चाव और वे सब रंगीन भाव, जो सदा से कवियों और लेखकों से होली खेलते आए हैं. क्या केसरिया उषा की ओर देखकर उस शर्मीली अल्हड़ लड़की को यह ध्यान नहीं आया कि उसी की तरह वह भी केसरिया फिरन पहन ले? या क्या वह प्रतिदिन दिन चढ़े जागती है. उषा को न सही, केसर चुनती-चुनती केसर के तार तो वह देखती ही है और उन्हें देखकर खो सी जाती होगी. यहीं से वह केसिरया फिरन का खयाल बड़ी आसनी से ले सकती थी. पर कौन बताए उसे कि वह सफेद ऊनी फिरन, जिसे उसने बड़े शौक से सिलवाया है, या सिलवाना है, जरूर केसरिया रँगा ले?
पांपुर श्रीनगर से बहुत दूर नहीं. ताँगा जाता है. पर जो आनंद पैदल जाने में है, वह ताँगे में कहाँ? मैं कई बार पांपुर हो जाया हूँ, और केसर के फूलों से कहीं ज्यादा वह अल्हड़ लड़की ही मुझे इस आकर्षण का कारण प्रतीत होती है. हर बार वही हरा फिरन- हरा फिरन! क्या उसके पास केवल यही एक फिरन है? जी चाहता है कि आगे से अपनी पत्नी को तब तक नई साड़ी न लेकर दूँ, जब तक उसकी सब की सब साडिय़ाँ फट नहीं जाएँ. उस अल्हड़ लड़की में क्या कुछ कम जान है? उसका दिल क्या किसी अलग मिट्टी का है?
बहुत यत्न करता हूँ कि किसी तरह वह अल्हड़ लड़की मेरी दिल से निकल जाए, पर वह तो उलट मेरे दिल में समाती चली जा रही है. कई बार तो मैंने उसे स्वप्न में भी देखा है. वह मुझे क्यों नहीं छोड़ती? वह मुझे क्यों घूरती है? क्यों खिलखिलाकर हँस पड़ती है? मैं क्या जानता था कि मेरे ये भाव यों उछल पड़ेंगे. जैसे वह कहती हो,
‘हरे फिरन से इतनी नफरत क्यों? घास भी तो हरी होती है. बल्कि मैं तो चाहती हूँ कि तुम भी हरे कपड़े पहनो. वृक्ष भी तो हरे दुशाले होढ़ते हैं. …पर तुम न मानोगे. …अच्छा, मैं ही मान जाऊँगी. मैं केसरिया फिरन पहन लेती हूँ. …क्या तुमने यह समझ लिया था कि मेरे पास केसरिया फिरन है ही नहीं? वाह, खूब सोचा तुमने! पिछले साल मैंने यह केसरिया फिरन बनवाया था, पर यह न जानती थी कि एक दिन एक बनजारा आएगा और इसे पहनने की फरमाइश करेगा. मेरी ओर देखो…देखो…देखो तो… मैंने केसरिया फिरन पहन लिया है. मैं केसर के खेत की बेटी हूँ या फिर केसर की देवी हूँ. ’
कल भी दिन-भर इसी कोशिश में रहा कि किसी तरह यह लड़की मेरे दिल में न आने पाए. एक लेख लिखने बैठा तो मैंने महसूस किया कि यह केसर की देवी मुझे कह रही है, ‘किस पर लिखोगे?’ उस केसर के खेत पर, जहाँ तुमने मुझे पहले-पहले देखा था? या उस ठेकेदार पर जिसने तुम्हें अपने पास बड़े अदब से खाट पर बैठा लिया था?
जब मैं नहाने लगा, तब मेरे मन की किसी अज्ञात गहराई से केसर की देवी की आवाज आने लगी, ‘पानी बहुत ठंडा है क्या? मैं जानती हूँ, तुम ठंडे पानी से नहाना पसंद नहीं करते. मुझसे क्यों न कहा? मैं क्या इनकार कर देती? मैं झट आग सुलगाती और पानी गरम कर देती. साबुन है? है तो. अच्छा, नहा लो. मैं जाती हूँ. ’
नहाकर गुसलखाने से निकला, तो मेरा चेहरा उदास था. पत्नी ने पूछा, “क्या बात है? कुछ खोए-खोए-से नजर आते हो!” पर मैंने हँसकर बात आई-गई कर दी. आखिर उससे क्या कहता? मैं भीतर-ही-भीतर घुला जा रहा था और पछताता था कि केसर के खेत पर गया ही क्यों?
जब मैं सैर करने के लिए बेरंग जेहलम के किनारे हो लिया, तब भी मैंने महसूस किया कि वह केसर की देवी मेरा पीछा कर रही है. एक परों वाला रंग है, जो उड़ता चला आ रहा है. यह रंग अपने स्थान पर चिपक गया और तस्वीर बोल उठी, ‘दासी का क्या कसूर है? यों दिल हटा लेना था तो मुझे न बुलाया होता, मेरा सोता प्यार न जगाया होता. यह कहाँ की रीति है जी? खेत की मेंड़ के पास खड़े होकर क्यों टकटकी लगाकर तुम मेरी ओर देखते रहे थे? तुम मुझसे कुछ बोले तो न थे, पर तुम्हारी आँखें तो बोली थीं. तब उन्हें क्यों न समझाया तुमने? एक बार नहीं, दो बार नहीं, तुम तो पूरे सात बार पांपुर के खेतों पर निकले और वह भी पैदल. जब मैं यह जान गई, तो तुमसे प्यार करने लगी. ’
मैं परेशान-सा हो गया. कुछ बोल भी तो न सका. आखिर क्या कहता? कसूरवार तो था ही. उसकी बातों का मैंने बुरा नहीं माना, पर मैं उसका स्वागत नहीं कर सकता था. मैं चाहता था, वह मुझे छोड़ दे. क्षमा कर दे. जब उसकी आँखों में आँसू आ गए, तो मैं डरे हुए हिरन की तरह रुककर खड़ा हो गया.
पहले तो मैंने सोचा कि उससे साफ-साफ कह दूँ, ‘कैसा प्यार? कहाँ का आनंद?’ पर मैं खुल्लम-खुल्ला यह न कह सका. इसके बजाय मैंने कहा, ‘केसर की देवी, रो नहीं. रोने से क्या लाभ? संसार को देख. संसार की विशालताओं को देख. दूर नहीं, तो पांपुर को ही देख. आँसू भरी आँखें देखती तो हैं, पर एक धुँधली-सी पन-चादर के बीच में से. जिंदगी और निगाहों के बीच आँसू न होने चाहिए. इससे रंग अपनी वास्तविकता खो देते हैं. और तेरी जिंदगी तो उड़ने वाली अबाबील है. क्या आँसू तेरे पंख भारी न कर देंगे? तुझे तेरा प्रेमी मिल जाएगा एक दिन, पर मुझे छोड़ दे, क्षमा कर दे!’
वह न मानी! बराबर रोती रही. न मैं केसर के खेत पर गया होता, न यह मुसीबत आ खड़ी होती.
मैं बाजार में जा निकला. मन पहले की तरह परेशान था. अब यह अनुभव भी था कि मैं अकेला हूँ! अच्छा ही हुआ. पैर की हर हरकत हलकी प्रतीत होती थी. बाजार तो किसी की मिलकियत नहीं. मैं आजाद था. फिर यों ही मेरी निगाह एक छत की ओर उठ गई. एक क्षण के लिए मुझे ऐसा लगा कि मेरे मन से रंग का एक टुकड़ा उड़कर सामने खिड़की में थिरकने लगा है. मेरे पैर रुक गए. कितना हमवार चेहरा था. सुर्ख गाल, जैसे दो उजले ताकों में दीये जल रहे हों. और आँखें-दो अँधेरी रातें, जिनमें टटोल-टटोलकर चलना पड़ता है.
(तीन)
लाख यत्न करने पर भी दिल हटता नहीं. मैं उलझा हुआ रहता हूँ, अपने सिर के लंबे बालों की तरह. राह चलते डरता हूँ. पहले वह पांपुर की देवी थी. वह मेरे मन का केसिरया खयाल. अब यह स्त्री थी, जो खिड़की में यों बैठी थी, जैसे चौखट में तस्वीर जड़ दी गई है. वह मेरी ओर किस तरह देखती रही थी. मैंने अपने हृदय में एक चुटकी-सी महसूस की थी, जैसे कोई नादान बच्चा किसी सुंदर रंगीन तस्वीर की बोटी नोच ले. वह कसूरवार थी? नहीं, वह बेकसूर थी. फिर कसूर किसका था? तो क्या यह मेरा कसूर था?
कल मैंने फिर दूर से उसे देखा, तो वह फाख्ता की तरह मुझे देखती रही. घर लौटने पर मैंने महसूस किया कि दो काली मदमाती आँखें पीछा कर रही हैं, दो अँधेरी रातें मेरे जीवन-उजाले में घुल-मिल जाना चाहती हैं. मैंने अपनी पत्नी की शरण ली. मेरा दिल धड़क रहा था. दिल मानता नहीं. इसका भेद मैं स्वयं नहीं समझता :
दिल दरिया समंदरों डूंगे
कौन दिलाँ दीयाँ जाणे?
विच्चे चप्पू विच्चे वेड़ी
विच्चे वंज महाणे!
’दिल भी एक दरिया है, समुद्र से कहीं गहरा. कौन जान सकता है दिल की बातें? इसमें क्या चप्पू, क्या किश्ती और क्या मल्लाह (सभी डूब जाते हैं). ’
क्या पंजाब के इस किसान को भी मेरी तरह ऐसी उलझन में फँसना पड़ा था? अब जो उस छत की ओर देखता हूँ, तो यही मालूम होता है कि उस पांपुर की देवी ने ही यह रूप धारण किया है. पर उसका फिरन तो हरा था और इसे लाजवर्दी रंग पसंद है. वह केसरिया फिरन क्यों नहीं पहन लेती? पर हर फूल को अपना रंग पसंद है, जैसे हर पक्षी को अपना गाना.
मुझे याद है कि बचपन में एक बार मैंने लाजवर्दी कोट सिलवाया था. वह बुरा तो नहीं लगता था. माँ कहा करती थी, ‘हर रंग एक नई ही खुशी देता है, मेरे लाल!’ यदि उसको यह बात मालूम हो जाए तो वह झट कह दे, ‘यह लाजवर्दी फिरन तुम्हें पसंद नहीं! वे दिन भूल गए, जब लाजवर्दी कोट पहनकर स्कूल जाया करते थे और इतनी भी समझ न थी कि वह लड़कों को सजता था या लड़कियों को?’
उसकी आँखें कितनी लाज भरी हैं. यह लाज न होती, तो वह कितनी ओछी लगती. इतनी लाज भी तो भली कि दिल का भेद दिल ही में रह जाए. मैं उसकी ओर क्यों देखता हूँ? मेरे दिल की धड़कन तेज क्यों हो रही है? वह कैसे बनी इस खिड़की की रानी? किसने उसे भड़कीले चौखटे में जड़ा? किससे पूछूँ? कौन सुनाए उसकी कहानी? उसे इस धुरी के गिर्द घूमने पर किसने आमादा किया? कसूर किसी का भी हो, वह स्वयं बेकसूर है. मैं उसे दूर से देखता हूँ. देखने में तो कुछ बुराई नहीं. मुझे उससे नफरत भी तो नहीं.
इस काली आँखों वाली के चेहरे पर कभी-कभी हँसी दौड़ जाती है, जैसे अँधेरी रात के काले-काले बादलों में बिजली गोटे की अनेक धारियाँ टाँक दे. मेरा दिल अंदर-ही-अंदर सिकुड़ रहा है. सोचता हूँ, वह रोती भी होगी. काजल-सा बरस जाता होगा. क्या उसे उस हरी-हरी घास की याद नहीं आती, जो मखमल की तरह उसके पैरों तले बिछी रहती होगी? घास की सोंधी-सोंधी खुशबू, जिसने फूलों की महक के अलावा हजार बार उसे रिझाया होगा, वह भूली तो न होगी. वह जरूर किसी गरीब किसान के घर में पैदा हुई है. इस मटियाले घर के साथ उसका नाता बहुत पुराना मालूम नहीं होता.
पर वह कुछ गाती क्यों नहीं? गाना जानती तो होगी. जरूरी नहीं कि बाँसुरी किसी के मुँह लगाने पर ही बजे. हवा भी तो सुर जगा दिया करती है. सुर नींद के माते नहीं होते. इनकी नींद बड़ी हलकी होती है. कभी-न-कभी जरूर उसके कंठ में सुर जाग पड़े होंगे, डरकर ही सही. इसलिए अब आँखें ही नहीं, मेरे कान भी उसके कोठे की परिक्रम करते रहते हैं.
अब तो मैं देखता हूँ कि आँखों से कहीं ज्यादा बेचैनी कानों को है. काश! मैं कभी दूर से उसका फड़फड़ाता गीत सुन पाऊँ. मैं सोचता हूँ. कान बराबर उधर खिंचे रहते हैं. आँखों में एक रंगीन गुबार-सा छाया रहता है. जब लांग फैलो ने लिखा था, ‘रात संगीत से सराबोर हो जाएगी और सब फिक्र-फाके जो दिन-भर हमें सताते रहते हैं, बद्दुओं की तरह डेरा-डंडा उठाकर चलते बनेंगे,’ तो शायद उसे भी मेरी ही तरह तरसना पड़ा होगा. गाँव के अपने आप पैदा होते रहने वाले गीत कभी तो इस लड़की की जबान पर आते ही होंगे.
किसे बनाऊँ अपने भेद का साझेदार? डरता हूँ कि समाज का हाथ बढ़कर उन सारी प्यालियों को अपने कंठ में न उड़ेल ले, जिनमें मैंने बड़े चाव से कई रंग घोले हैं. पर यह डर तो लगा ही रहेगा. लाख सोचता हूँ, डर बेकार है—मजहब का डर, खुदा का डर, समाज का डर, पर ये तमाम डर पीछा ही नहीं छोड़ते. वह सदाचार क्या, जो केवल डर टिका हुआ है? वह सदाचार क्या, जो नफरत सिखाए, बैर सिखाए? नहीं, अब मैं नहीं डरता.
कल रात मैं अपने सारे साहस को जमा करके उसके यहाँ चला गया. वह झट मेरे स्वागत के लिए उठी. बड़ी इज्जत से उसने मुझे काले कश्मीरी कंबल पर बैठा दिया.
‘पांपुर की देवी!’ अपने मन में मैंने पुकारा, और मेरे होंठों पर ये शब्द आए, “तुम्हारा नाम क्या है?”
शहद जैसे मीठ स्वर में उसने उत्तर दिया, “कुंग पोश. ”
मैंने देखा कि एक केसरिया लाज उसके गालों पर फूटने लगी है. “कुंग पोश!” मैंने पूछा, “कुंग पोश का क्या अर्थ है?”
“कुंग पोश यानी केसर का फूल. ”
उसे ऐसी जगह देखकर मुझे झट खयाल आया- और सब फूल वसंत में खिलते हैं, पर केसर पतझड़ में खिलती है! मैंने महसूस किया कि मेरे कानों में वही गीत गूँज रहा है, जो मैंने पांपुर के खेत में सुना था :
यार गोमय पांपोर वते
कुंग पोशव रुटनालमते,
सुछम तते बछुम यते
बार सायबो बोजतम जार!
मैं सोचने लगा कि पीछे यही खयाल मेरी पत्नी को न आ रहा हो, ‘मेरा प्रीतम पांपुर की तरफ चला गया. (और वहाँ) केसर के फूलों ने उसे गले लगा लिया. (आह!) वह वहाँ है और मैं यहाँ! ओ खुदा! मेरी विनती सुन. ’
कुंग पोश बहुत खुश नजर आती थी. उसके चेहरे पर प्रसन्नता की लाल-लाल धारियाँ एक जाल-सा बुन रही थीं. रात का पहला आदमी उसके यहाँ आया था. उसने सोचा होगा कि मैं उसे रुपया ही न दूँगा, बल्कि चनार का हरा पत्ता भी दूँगा, जिसका अर्थ यह होता है कि मैंने उसे अपना प्रेम भी दे दिया है. फिर कुंग पोश लकड़ी के बने चनार के पत्ते पर इलायची और बादाम की गिरियाँ रखकर ले आई. मैंने एक गिरी उठा ली, “शुक्रिया. ”
“इलायची न लोगे?”
“इलायची तो मैं खा चुका हूँ. ”
काँगड़ी में कोयले दहक रहे थे, उसके गालों की तरह. कुंग पोश ने वह काँगड़ी मेरी ओर सरका दी.
“शुक्रिया. ”
सुंदर थी उसकी मुखाकृति, केसर और उषा की लाली से कहीं सुंदर. काले रेशमी बाल रातों के अनगिनत साये छुपाए हुए थे. कुंग पोश अल्हड़ तो न थी. हाँ, शर्मीली जरूर थी. बिजली के प्रकाश में उसका लाजवर्दी फिरन उसे खूब सज रहा था.
बालाखाने की भाषा कुछ रस्मी वाक्यों तक सीमित रहती है. मैं इससे परिचित नहीं था. उलाहना, धन्यवाद और अनुग्रह के झट-झट बदलते रंग कुंग पोश की आँखों में कैसे देखता? मेरा दिल धड़क रहा था. कहकहा कैसे लगाता? ऐसा कहकहा, जो किसी पहाड़ी चश्मे की आवाज पैदा करता.
कुंग पोश ने लकड़ी का बना हुआ चनार का पत्ता, जिस पर बादाम की गिरियाँ और इलायचियाँ ज्यों की त्यों पड़ी थीं, मेरी ओर बढ़ाया. मैंने खामोशी से एक इलायची उठाकर मुँह में डाली. वह मेरी तरफ देखने लगी. सचमुच वह केसर का फूल थी.
मैं मुसकराया. वह भी मुसकराई. मैं शायद एक ‘नागराय’ था और वह एक ‘होमाल’, और शायद कश्मीर की पुरानी प्रेम-कथा एक बार फिर दोहराई जाने वाली थी. पर मैंने सँभलकर कहा, “मैं तो गीत जमा किया करता हूँ. ”
“गीत? कैसे गीत…?”
“गाँव के गीत. ’
“गीत-गीत…!” इससे अधिक वह कुछ न कह सकी. मैंने उसकी ओर देखा और मुझे ऐसा लगा कि किसी दुलहन की भड़कीली पोशाक मेरी आँखों के सामने मैली ही गई है. उसने अपनी थकी हुई बाँह उठाई और काँपती उँगली से सामने के मकान की ओर इशारा किया, जहाँ घुँघरू बज रहे थे और प्रकाश झिलमिला रहा था. “जाओ, उस तरफ चले जाओ. उधर गीत भी बिकते हैं और…और…”
उसके लहजे में खेतों की गुनगुनाहट थी. मैं उन खेतों की ओर जाने के लिए उठ खड़ा हुआ, जहाँ मिट्टी केसर पैदा करती है.
और सब फूल वसंत में खिलते हैं, पर केसर पतझड़ में खिलती है. क्या धरती भी इतनी बाँझ हो जाएगी कि केसर का उगना बंद हो जाए?
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