कोई आहट नहींआशुतोष भारद्वाज |
एक लेखक और सामान्य पाठक के पाठ में शायद गहरा फर्क है. किसी रचना से गुजरते वक्त उनके सरोकार भिन्न हो सकते हैं. लेखक, खासकर उन लम्हों में जब वह उस विधा में रची गयी कृति से गुजरता है जिसे वह खुद भी बरतता है, उसे पाठकीय से कहीं अधिक लेखकीय आइने में टटोलना चाहता है. आरंभिक लेखक तो ख़ासकर. उसके पास समय कम है, भयाक्रांत हड़बड़ी में जीता अपने पुरखों की किताबों के वजन तले कुचला जाता वह कम समय में अधिकाधिक लिख, पढ़ लेना चाहता है, इस प्रक्रिया में उन किताबों के सानिध्य में अधिक समय बिताता है जो उसके लेखकीय नक्षत्रमंडल में सितारे मढ़ती हैं. पाठक के मानवीय संसार का विस्तार किसी भी कृति की उपलब्धि है लेकिन इस युवा लेखक को इतने से तृप्ति नहीं होती. वह इन रचनाओं की कोशिकाओं में वे सूत्र ढूढ़ता है जिनसे उसकी हफ्ते भर से अटकी कहानी आगे बढ़ सके, उसके अधूरे किरदारों को बूंद भर रोशनी मिल सके, उसकी उपमाओं में उड़ान, मुहावरों में मस्ती आ सके. पगलाये प्रेम के लम्हों में नवजात प्रेमी हर लड़की में अपनी प्रेमिका तलाशता है, उसी तरह यह नवजात कथाकार हर कथा में अपने किरदार खोजता है, उस किताब से भागते, उचटते हुये गुजर जाना चाहता है जहां उसका आख्यान अपनी परछांई नहीं देख पाता. शायद उसका यह पाठ उस किताब के साथ न्याय न हो, लेकिन उसके भीतर तमाम संवेदना उड़ेलते हुए भी रचना प्रक्रिया रचनाकार को इतना निर्मम तो बना ही देती है कि वह हर उस शै को नकारना चाहता है, नकार भी देता है जो उसके रचना संसार को समृद्ध नहीं करती है.
इस दृष्टि से अज्ञेय के मशहूर उपन्यास शेखर: एक जीवनी के साथ मेरा गल्पकार कोई रिश्ता नहीं जोड़ पाता. इस उपन्यास और इसके नायक ने बीती पीढ़ियों के कई रचनाकारों को जबरदस्त सम्मोहित किया है, लेकिन अज्ञेय के रचनात्मक अवदान का सम्मान करते हुये, सृजन कर्म के प्रति उनकी निष्ठा से ऊर्जा ग्रहण करते हुये भी मेरा गल्पकार उनकी कथा से कुछ हासिल नहीं कर पाता. उनका आख्यायकीय स्वर, उनका नायक, इस नायक का संवेदन तंत्र- शायद कहीं कुछ नहीं जो मेरे लेखकीय संसार को समृद्ध कर सके.
इस उपन्यास से मेरे अलगाव का पहला बिंदु यह है कि इसके आख्यायक को नायक शेखर पर और खुद शेखर को अपने ऊपर शायद रत्ती भर भी संशय नहीं है. वह ऊपरी तौर पर भले ही तमाम चीजों पर प्रश्न करता दिखाई देता हो लेकिन सतह उघाड़ कर देखें, वह किसी चीज को हासिल करने के संघर्ष में नहीं डूबा. उसकी मुद्रा बतलाती है कि वह पहले ही सभी क्षमताओं, गुणों को अर्जित कर आया है और उपन्यास में महज उनकी पुनर्स्थापना कर रहा है, उन्हें दोहरा रहा है. शब्द उसकी आंतरिक यात्राओं में उठाये जोखिम के वाहक नहीं बनते, उसके अपने आत्म के संग हुई सिहराती मुठभेड़ की कथा नहीं कहते, किन स्थलों पर वह जूझा, टूटा, स्खलित हुआ नहीं बतलाते; शब्द महज माध्यम हैं उसके लिये अपनी उपलब्धियों की गाथा सुनाने के.
शेखर सही मायनों में प्रश्नाकुल नहीं है. वह अपने संशय, अंतर्द्वंद्व अभिव्यक्त करने के लिये नहीं, बल्कि पूर्वनिर्धारित निष्कर्षों को हासिल और सत्यापित करने के लिये ही प्रश्न करता है. उसकी सारी क्रियायें उसे वैधता प्रदान करने के लिये हैं. एक जगह नायक, जब वह सिर्फ चौदह-पंद्रह साल का है, का अपनी मां से झगड़ा होता है, मां उसे नाकारा समझती है, उस पर विश्वास नहीं करती. वह अपना कमरा बंद कर डायरी में लिखता है-
‘अच्छा होता मैं कुत्ता होता, चूहा होता, दुर्गन्धमय कीड़ा होता बनिस्बत ऐसे आदमी के जिसका विश्वास नहीं है.’ फिर वह जोर से कहता है- आई हेट हर, आई हेट हर. वह घर से बाहर निकल आता है, प्रतिज्ञा करता है उसे कागज पर लिखता है कुछ ऐसा काम नहीं करेगा जिससे माँ को उस पर रत्ती भर भी विश्वास करना पड़े. पर तभी — पर तभी उसके भीतर एक और परिवर्तन हुआ, उसने उस कागज के चिथड़े किये, उन्हें गीली जमीन पर फेंका और पैरों से रौंदने लगा तब तक जब तक कि वे कीच में सनकर अदृश्य नहीं हो गये-
मैं योग्य हॅूं, योग्य रहॅूगा. उसमें विश्वास की क्षमता नही तो मैं क्यों पराजित हूँगा.
एक चौदह पंद्रह साल के लड़के का मां से तीखा झगड़ा हुआ है. माँ को उस पर भरोसा नहीं रहा है लेकिन उसे अपने कर्मों पर पुनर्विश्वास अर्जित करने में जरा देर नहीं लगती. अपने को सत्यापित करते वक्त वह मां और उनके संशय को सुनवाई की जगह भी नहीं देता है. महज पंद्रह का लड़का.
यह नायक बहुत महान होगा, बुद्ध होगा (उपन्यास में शेखर के जन्म पर उपन्यासकार कुछ भिक्षुओं से यह भी कहलवा देता है कि “यह शिशु बुद्ध का अवतार है”), लेकिन मेरा, मेरे किरदारों का शायद इसलिए इस लड़के से कोई संबंध नहीं जुड़ पाता. मेरा नायक कितना ही आत्मविश्वस्त हो, पंद्रह नहीं पच्चीस या पैंतीस का हो, अपने से प्रश्न करेगा क्यों उसने विश्वास खोया, कभी इस सरलीकृत दंभ की शरण नहीं लेगा कि मैं योग्य हॅूं, योग्य रहॅूगा.
उपन्यासकार बड़े मासूम ढंग से अपने नायक को महानायक बनाता चलता है. एक जगह वह लिखता है- शेखर को एक बड़ी खतरनाक आदत पड़ गयी — वह अकेला बैठ-बैठकर सोचने लगा.
अकेले ‘बैठ-बैठ कर’ सोचने लगने को उपन्यासकार बड़ी खतरनाक आदत बतलाता है. तमाम उपन्यासों के नायक अकेले में चिन्तन करते हैं. क्या यह वाकई एक खतरनाक आदत है या सहज मानवीय कर्म है? नायक को इतने सरल ढंग से परिभाषित करना, एक सहज कर्म को इस कदर महिमंडित कर दिखलाना क्या आख्यान की विकट तकनीकी और वैचारिक खामी है या उपन्यासकार का नायक के प्रति विराट सम्मोहन का सूचक है?
निर्मल वर्मा ने लिखा है कि एक अच्छा उपन्यासकार अपने किरदारों को समान मात्रा में सहानुभूति बांटता है, लेकिन एक महान उपन्यासकार इस सहानुभूति के विरूद्ध संघर्ष करता है. अपराध और दण्ड का राश्कोल्निकोव भी गहन आंतरिक वैचारिक संसार में जीता है, अपने को कुरेदता है लेकिन दोस्तोयवस्की उसका महिमागान नहीं करते, उसे बीच रास्ते में छोड़ देते हैं जहाँ वह बाकी सभी किरदारों से बहस करता हुआ, अपने विचारों को परखता हुआ एक निरीह युवक बतौर उभरता है, अंततः अपनी वैचारिक सीमा और अपना गुनाह स्वीकारता है.
शेखर निरीह नहीं हैं. भले वो पांच साल का बालक हो या बीस का युवक. उसमें अनछुई निरीहता, तुतलाती मासूमियत, बेबाक छटपटाहट, बेखौफ वासना, चिल्लाती हवस का अभाव है. वह किसी शिखर पर पहुंचा नायक है, दुनियावी आवेग व संशय या तो मिट गये हैं या उपन्यासकार की नायक पर और खुद नायक की अपने उपर घनघोर आस्था के जरिये उनका सरलीकृत समाधान हो गया है. किन रास्तों से हो, किन जख्म-खरोंच अपने जिस्म-रूह पर झेलकर वह वहां पहुंचा, आस्था हासिल की इसका जिक्र अज्ञेय नहीं करते. शेखर के भीतर द्धंद्ध नहीं, उसे अपने कर्म और विचार की वैधता घनघोर पूरा भरोसा है. उसका अलगाव महज बाह्य सृष्टि से है, एक छोटी सी खाई जिसे वह सहजता से संसार को ठुकरा या एकांत, प्रकृति के सुनहरे सानिध्य में आ मिटा देता है. न उसके भीतर भटकाव, विचलन न बिखराव. चॅूंकि वह हमेशा अपने को सही मानता है उसके भीतर अपराध बोध भी नहीं. ऐसा नहीं कि वह जड़ है, वह विचारमग्न है, संवेदनशील भी, लेकिन बेहतर और उससे बेहतर का संघर्ष उसके भीतर नहीं. वह नहीं कहेगा अबकी बार लौटूगा तो वृहत्तर हो लौटूगा. वह आरंभ से ही खुद को वृहत्तर माने बैठा है.
शेखर मेरा नायक नहीं है. मेरा नायक स्खलित होता है, अपनी रूह आत्म-भर्त्सना के नुकीले खंजर पर अटकी थरथराती पाता है. अज्ञेय का नायक कभी स्खलित नहीं होता, पाठक को उसका स्खलन-पतन दिखलाई दे भी जाये, वह आश्वस्त जीवन जीता चलता है. इसे हम मनुष्य की सिद्धावस्था भी कह सकते हैं. सूरदास व तुलसीदास में फर्क करते हुये रामचन्द्र शुक्ल लिखते थे कि सूर की कविता लोकमंगल की सिद्धावस्था है जबकि तुलसी लोकमंगल की साधनावस्था का साहित्य रचते हैं. शेखर सिद्धावस्था के शिखर पर दिखाई देता है. वह सब कुछ पहले ही अर्जित कर चुका हैं महज उसे प्रतिपादित करना, पाठक को दिखलाना बाकी है.
इस सिद्धावस्था से मेरा कोई सरोकार नहीं. मेरी दिलचस्पी उस साधना में है जो सिद्धि की तरफ ले जाती है — सिद्धि जो किसी कलाकार के लिए शायद सबसे बड़ा छलावा है, जिसके पीछे वह खिंचता चला जाता है, लेकिन जो शायद उसे कभी हासिल नहीं होती. वह दुर्गम, कठिन रास्ता जिस पर मनुष्य लुढ़कता है, गिरता है, बदन पर खरोंचें आतीं हैं, आत्मा लहूलुहान होती है, उसी पीड़ा की राख से नायक का पुनर्जन्म होता है.
२)
नायक शेखर की इस अवस्था के बीज क्या इस उपन्यास की बुनावट, इसकी आख्यान शैली में निहित हैं? क्या यह उपन्यास जिस स्वर में कहा गया उसकी परिणति इसी किस्म के आत्मुग्ध नायक में होनी थी?
इस उपन्यास की एक विशेषता यह है कि कुछेक स्थलों के सिवाय यह भले ही तृतीय पुरुष में खुद को कहता है लेकिन न सिर्फ इसका वादी स्वर बल्कि संवादी स्वर भी सिर्फ नायक शेखर के जरिये व्यक्त होता है. हम समूची कथा शेखर की निगाह से ही देखते हैं, बाकी किरदारों व घटनाओं के बारे में हम लगभग सिर्फ वही जान पाते हैं जो शेखर उनके बारे में सोचता है. अज्ञेय इस तरह से कथा बुनते हैं कि अमूमन तृतीय पुरुष में व्यक्त हुआ यह आख्यान प्रथम पुरुष कथा बनकर उभरता है.
उपन्यास की भूमिका भी इस प्रथम पुरुष स्वर को पुष्ट करती है. अज्ञेय उन बिरले उपन्यासकारों में हैं जो उपन्यास से पहले उसकी लम्बी लेखकीय भूमिका देते हैं. यह भूमिका कथा की भूमि निर्धारित कर देती है.
वे भूमिका में अपने बंदी जीवन और क्रांतिकारिता का उल्लेख करते हैं, उपन्यास को एक विराट चित्र, घनीभूत वेदना की एक रात में देखे हुये विजन को शब्दबद्ध करने का प्रयास बतलाते हैं, यह भी मानते हैं कि उनको जानने वाला पाठक इसमें उनके अपने जीवन, देशाटन इत्यादि के सूत्र पायेगा लेकिन पाठक को यह भी मनवा देना चाहते हैं कि आत्म-घटित ही आत्मानुभूति नहीं होता इसलिए मुझे मानना पड़ेगा कि इलियट के कथनानुसार मैं बहुत बड़ा आर्टिस्ट हो सका हूँ (इलियट का प्रसिद्द निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत).
लेकिन यहाँ दिलचस्प अंतर्विरोध यह है कि दो पंक्ति बाद ही वे स्वीकारते हैं कि तथापि मेरी अनुभूति और मेरी वेदना शेखर को अभिसिंचित कर रही है…शेखर में मेरापन कुछ अधिक है इलियट का आदर्श मुझसे निभ नहीं सका है.
उनका यह आग्रह कमोबेश हर किताब की भूमिका में बना रहता है. अपनी रचना को पाठक के सम्मुख रखने से पहले अज्ञेय को आखिर क्यों जरूरत पड़ती है अपने बचाव की? वे क्यों हमें बतलाना चाहते हैं कि उन्हें, उनकी कृति को किस तरह पढ़ा जाये किस तरह न पढ़ा जाये? उन्हें अपने पाठक, उसकी समझ पर भरोसा क्यों नहीं?
शेखर कोई बड़ा आदमी नहीं है, वह अच्छा भी आदमी नहीं है….लेकिन उसके अंत तक उसके साथ चल कर आपके उसके प्रति भाव कठोर नहीं होंगे, ऐसा मुझे विश्वास है. और, कौन जाने आज के युग में जब हम, आप सभी संष्लिष्ट चरित्र हैं, तब आप पायें कि आपके भीतर भी कहीं पर एक शेखर है जो बड़ा भी नहीं, अच्छा भी नहीं, लेकिन जागरूक, स्वतंत्र और ईमानदार है, घोर ईमानदार.
कौन उपन्यासकार भूमिका में अपने नायक की ऐसी अर्चना करेगा? इलियट की निर्वैयक्तिकता, अहं के विलयन आदि सिद्धांतों पर अज्ञेय का निरंतर बलाघात, उन सबका क्या?
अपने स्वर को वैधानिक होने का प्रमाण पत्र देती चलती यह भूमिका क्या उपन्यास को एक आत्मवक्तव्य में परिवर्तित करती है खासकर तब जब लेखक स्वीकार चुका है कि शेखर में ‘उसकापन’ अधिक है, वह कहीं गहरे लेखक ही प्रतिरूप है? क्या यह भूमिका यह इंगित करती है कि उपन्यास शायद लिखा ही नायक, उसके जीवन, उसकी दृष्टि और प्रकारांतर से शायद खुद लेखक को महिमामंडित करने के लिये गया है?
किसी कृति के पन्नों में लेखक की इस कदर सशक्त उपस्थिति कोई समस्या नहीं है लेकिन अज्ञेय के सामने समस्या यह उभरती है कि वे जिस मुद्रा से स्वघोषित तौर पर बचना चाहते हैं उसे अगली ही पंक्ति में जगह भी दे देते हैं. इतना विकट अंतर्विरोध आखिर किस तरह संभव होता है, और यह कथा को किस तरह निर्धारित करता है?
इन प्रश्नों से पहले आख्यान की प्रकृति पर चर्चा जरूरी है.
किसी रचना का आख्यायकीय स्वर — प्रथम, द्वितीय या तृतीय पुरुष- न सिर्फ उस रचना का प्रेक्षण स्थल यानि वैंटेज प्वाइंट निर्धारित करता है कि उसे किस धरातल से देखा जाये बल्कि उसका परिप्रेक्ष्य चीन्हने में भी मदद करता है.
प्रथम पुरुष आख्यायक के संदर्भ में हेनरी जेम्स ने फ्लूयिडिटी आफ सैल्फ रैविलेशन उर्फ आत्मउद्घाटन की तरलता का जिक्र किया है. आख्यान की एक ऐसी तकनीक जिसमें लेखक के आत्म की किरदारों पर आरोपण की सम्भावना बनी रहती है. हालाँकि जेम्स की यह प्रस्तावना अपवाद के साथ आती है ( प्रथम पुरुष में कहे गए तमाम उपन्यास आत्मउद्घाटन की इस तरलता से मुक्त हैं, मसलन अल्बैर काम्यू का अजनबी, पॉल ऑस्टर का द न्यूयॉर्क ट्रिलजी, कृष्ण बलदेव वैद का तमाम लेखन इत्यादि), लेकिन यह शेखर: एक जीवनी की रचना-दृष्टि और सृष्टि को समझने में मदद करती है. अगर हम उपन्यास की भूमिका को लेखक का मैनिफेस्टो, उसके नायक के जीवन और हसरतों का संकेतक मानचित्र मानें तो क्या यह कह सकते हैं कि अगर उपन्यासकार ने अपने जेहन में शेखर को शुरूआत में ही निर्धारित, परिभाषित नहीं कर दिया होता, तो उसे कहीं तटस्थ, क्रूर और निर्मम निगाह से देख-उकेर पाता? तब शेखर इतना आत्ममोहित नायक नहीं होता?
एक दिन वह (शेखर) जंगल में घूमता हुआ भटक गया. यह उसके अत्यंत असहाय- सहायता के प्रति उपेक्षा किये — अकेलेपन का प्रमाण है कि वह घबराया नहीं; इधर उधर भागा नहीं (जो कभी जंगल में भटके हैं, वे समझ सकते हैं कि उस समय न घबराना क्या चीज है!), अपनी छाती तक लम्बी सांस को दबाकर, आसन-सा बनाकर बैठ गया, और बादलों को देखने लगा.
कोई नायक अगर जंगल में भटकने पर घबराता नहीं है तो क्या यह आवश्यक है कि यह भी बतलाया जाये कि चूँकि “उस समय न घबराना” भी “क्या चीज” है, जिसका प्रकारांतर से भाव यह है कि जो घबराते हैं वे हीनतर हैं, इसलिए ही शेखर के न घबराने का महत्व है. क्या उपन्यासकार अपनी कथा के बहाने उन अवसरों की तलाश में है कि किस तरह इस नायक को सबसे अलहदा, श्रेष्ठतर दिखलाया जाये? एक आधुनिक उपन्यासकार से शायद यह अपेक्षा करनी ही चाहिए कि वह अपने नायक को देवत्व और बुद्धत्व (यानि भक्त कवि की रचनात्मक मुद्रा) प्रदान करने से बचेगा.
क्या अज्ञेय के कथाघर में न सिर्फ फ्लूयिडिटी ऑफ़ सैल्फ रैविलेशन है, बल्कि सैल्फ ग्लोरिफिकेशन यानी आत्म-मुग्धता भी?
ऐसा नहीं कि प्रथम पुरुष स्वर हमेशा ही स्वयंभू-स्वप्रमाणित होता है या होना चाहता है. इसी विधा में आख्यायक द्वारा अपने को नकारती अनेक कथायें मिलेंगी. इस स्वर की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि इसमें कही गयी कथा कुछ ऐसा आत्मीय अवकाश रच देती है जहाँ पाठक पाठ से कहीं सघन तादात्म्य महसूस कर सकता है, रचनाकार भी मनचाहे रस्ते से अपने पात्र के भीतर गहरे उतर उसकी रूह उघाड़ सकता है. ‘मैं’ से विकसित होते आख्यान के अवकाश में आत्मचिंतन, एकालाप व इकबालिया बयान बड़ी सहजता से घटित हो जाते हैं. तृतीय पुरुष में कही कथायें भी अक्सर प्रथम पुरुष की ओर मुड़ जाती हैं ज्यों ही उनके किरदार आत्मचिंतन की मुद्रा में आते हैं. स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस तो अमूमन प्रथम पुरुष स्वर में ही विकसित होती है. मसलन यह दो अंश:
मैं एक बीमार आदमी हूँ… मैं एक जलनखोर आदमी हूँ. मैं एक बदसूरत आदमी हूँ. मुझे लगता है मेरे कलेजे में कोई रोग घुसा हुआ है. लेकिन मुझे अपने रोग के बारे में जरा भी नहीं पता, ठीक ठीक नहीं मालूम आखिर मुझे क्या बीमारी हुई है. मैं इसके लिये किसी डॉक्टर से भी संपर्क नहीं करता, कभी नहीं किया, यद्यपि मैं दवाईयों और डॉक्टरों का सम्मान करता हॅूं. और फिर मैं घनघोर अंधविश्वासी भी हॅूं …. मैं इतना तो शिक्षित हॅूं ही कि अंधविश्वासी न होऊं, लेकिन मैं अंधविश्वासी हूँ नहीं, मैं अपनी जलन की वजह से डॉक्टर की सलाह नहीं लेता.
पसरे हुए पिशाच सा यह मकान मानो गिरते गिरते संभल गया हो और अब संभलते संभलते गिर रहा हो. इस उपमा तक पहुँचने में मुझे काफी कष्ट हुआ. कई बार उठकर टहलना और बैठकर हांफना पड़ा. जब सर पर बाल हुआ करते थे तो कई बार टहलने की बजाय उन पर हाथ फेरने से भी कलम चल जाया करता था. फिर एक दौर ऐसा भी आया था जब बाल बहुत तेजी से उड़ने लगे थे और बचे खुचे कमजोर बालों को खींचने से ही उपमायें उतरा करतीं थीं. और फिर आखिर खोपड़ी बिल्कुल खाल हो गयी.
अगर आगाही के लिये दर्द की जरूरत है तो क्यों नहीं अपने उस सुराख में अंगुली या अंगूठा घुसेड़ कर चिचिला लेता? जवाब है कि यह सवाल वही साला कर सकता है जो यह न जानता हो कि एक हद के बाद अंगुली या अंगूठा तो एक तरफ उसमें कोई कील ठोकने से भी कुछ महसूस नहीं होता. और तो और बवासीर के बेर भी एक हद के बाद झड़ जाते हैं और किसी कौंच से नहीं झनझनाते.
तकरीबन सौ वर्षों के अंतराल में लिखी गयी इन दो उपन्यासों — फ्योदोर दोस्तोयवस्की के नोट्स फ्रॉम द अंडरग्राउंड और कृष्ण बलदेव वैद के दूसरा न कोई — के ‘मैं’ क्या अज्ञेय के नायक से एकदम विपरीत धरातल पर खड़े हो खुद को देखते हैं? आत्म-भर्त्सना, खुद पर हंस सकने की क्षमता जो इन नायकों में है, क्या वह शेखर के भीतर दर्ज होती है? अगर नहीं, तो जैसाकि ऊपर कहा क्या अज्ञेय की आख्यायकीय मुद्रा में कुछ ऐसा अंतर्निहित है जो उनके स्वर को यह स्वरुप देता है?
अज्ञेय की यह आत्मविश्वस्त सिद्धावस्था उनके लेखन में अन्यत्र भी पर्याप्त दिखाई देती है. मसलन उनके कविता संकलन चुनी हुई कवितायें में उनकी यह लम्बी भूमिका जो कई दशक पहले लिखी गयी शेखर की भूमिका के विस्तार बतौर सरीखी पढ़ी जा सकती है.
“इस चयन का पाठक यदि इसे पढ़ने के बाद मेरे सम्पूर्ण काव्य संग्रह सदानीरा – भाग 1-2 तथा उत्तरकालीन नयी रचनाओं की ओर आकृष्ट नहीं होगा तो मुझे निराशा होगी, यह स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं है. ऐसे पाठक के काव्य-प्रेम और काव्य-विवेक को भी मैं अधूरा समझूंगा, ऐसा भी मैं अहंकारी कहाने का संकट उठा कर भी स्वीकार करूँगा…. यह संग्रह पढ़ने के बाद वह ऐसा न समझ ले कि अज्ञेय के काव्य को पूरा जान लिया बल्कि इसके विपरीत यही अनुभव करे कि अज्ञेय के काव्य को पूरा पढ़ना जरूरी है.”
अज्ञेय का रचनात्मक-आत्म आखिर किस जगह से सृष्टि को देखता है? यह कौन सी स्थिति है जहाँ बैठकर लेखक पाठक की समझ पर बेखटक-बेधड़क संदेह कर सकता है, खुद अपनी समझ पर कोई शुबहा नहीं उसे, खुद को अंहकारी मानने की खतरा भी उठा लेता है अगर इस किताब के पाठक उसकी समूचे कृतित्व की ओर नहीं मुड़ते. यह कौन सी भावभूमि है जहाँ लेखक अपने पाठक को इतनी भी मोहलत नहीं देता कि वह उनकी कविताओं का अपनी इच्छानुसार पाठ कर सके? (यहाँ एक गौरतलब बिंदु यह भी है, जो एक दिलचस्प विरोधाभास को इंगित करता है, कि अज्ञेय अपने नायक को, जिसमें उनका आत्म “कुछ अधिक” ही है, बुद्ध, यानि एक अपार सहिष्णु मनुष्य, का अवतार भी बतलाते हैं). इस कविता संग्रह की भूमिका में झलकते “अहंकार” को इस तरह भी देखा जा सकता है अपनी कविताओं में अज्ञेय सभी सर्जकों को केवल आंचल पसार कर लेने को प्रेरित करते हैं लेकिन उन्हीं कविताओं को ले अपने आत्मवक्तव्य में इतने असहिष्णु हो उठते हैं कि अपने पाठक को असहमति तो दूर अपाठ का भी अवकाश नहीं देते. रचना और रचनाकार के मध्य फांक कोई नयी घटना नहीं है. इन्हें अमूमन नजरअंदाज दिया जाता है, लेकिन अगर वह लेखक की कला के प्रति बुनियादी प्रस्तावना पर ही प्रहार करे? अज्ञेय के आत्मवक्तव्य उनकी काव्य-स्थापनाओं को ही प्रश्नांकित कर दें?
क्या इसी ‘अहंकार’ की वजह से ही उनका कथा-नायक इतना आत्मविश्वस्त है कि विचलन की संभावना से परे हैं? उसके आत्म में अंतर्विरोधी परतें नहीं है? क्या उपन्यास की भूमिका में उनका यह दावा कि “आपके उसके (शेखर) प्रति भाव कठोर नहीं होंगे, ऐसा मुझे विश्वास है”, यह इंगित करता है कि लेखक का अपने किरदारों पर आख्यायकीय शिकंजा इस कदर जबरदस्त है कि उन्हें अपनी राह चुनने का अवकाश नहीं मिल पाता, वे लेखक के पूर्वनिर्धारित दार्शनिक एजेंडा के वाहक बन रह जाते हैं? क्या उनकी यह आख्यायकीय विधा गल्प के तंतुओं के समुचित दोहन को मुश्किल बनाती है? यह विडंबना ही है कि आत्म व उसकी स्वाधीनता पर निरंतर बलाघात देने वाले इस रचनाकार का प्रतिनिधि नायक अपने रचयिता का बंदी प्रतीत होता हैं. अज्ञेय जेम्स जॉयस के “पैरिंग नेल्स इन द कार्नर”, यानि कोने में चुपचाप नाखून तराशते आख्यायक नहीं, बल्कि एक सर्वव्याप्त, आत्मलिप्त आख्यायक नजर आते हैं.
यह आख्यायक मेरे आख्यायक से एकदम विपरीत है जिसका समूचा संघर्ष सर्जना की इस वेदी पर टिका है कि कैसे अपने किरदारों को सर्जक की उँगलियों से मुक्त किया जाये जहां वे सर्जक से स्वतंत्र हो वासना, फरेब, प्रेम, हसरत, चाहना, कमीनेपन, पवित्रता की अपूर्व द्धंद्धात्मक बारूदी सुरंग में धंसी अपनी रूह के भीतर होते विस्फोट को अनुभूत कर सकें.
हालाँकि यहाँ अज्ञेय के बाकी दोनों उपन्यासों पर विस्तृत चर्चा का समय नहीं है, लेकिन संक्षेप में कहूँ तो नदी के द्वीप और अपने अपने अजनबी भी आख्यायकीय समस्याओं की गिरफ्त में हैं. नदी के द्वीप के किरदार किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता के भागीदार प्रतीत होते हैं, एक निर्धारित कार्यक्रम के तहत उन्हें लेखक ने स्क्रिप्ट थमा दी है, वे अंतहीन रौ में, बिना थमे बोले चले जाते हैं. हो सकता है ऐसे भी नायक-नायिका होते हों, लेकिन मेरे लिये ऐसे किरदार असंभव है जिनके शब्द नहीं लड़खड़ाते, अपने कहे पर संदेह नहीं करते. नदी के द्वीप में क्रियाहीनता भी है. इसके किरदार किसी कर्म में रत नहीं दिखते, अपनी क्रियाओं के जरिये उद्घाटित नहीं होते, उनकी चेतना का विस्तार उनके आत्म व बाह्य जीवन के बीच हुए घर्षण से नहीं होता. अपने काव्य में अपूर्व शब्द-संयम अर्जित करते अज्ञेय गल्पात्मक संकट से शायद अनभिज्ञ रहे आते हैं. उनको पाठक की समझ पर भरोसा नहीं, वे अपने किरदारों के बारे में सब कुछ खुद ही कह देना चाहते हैं.
अपने अपने अजनबी के कथानक में विलक्षण संभावनायें हैं. बर्फ में दबे एक घर में कैद दो किरदार — एक बुढि़या, एक लड़की. राशन खत्म हो रहा है. मौत का खौफ इस कदर कि लड़की बुढि़या का कत्ल कर देना चाहती है. लेकिन अज्ञेय कथा को गढ़ते-बुनते नहीं. यह उपन्यास एक आवेगहीन रास्ते पर चलता खत्म हो जाता है. निर्मल वर्मा ने इस उपन्यास की भाषा के बारे में कुछ यूँ लिखा था कि अज्ञेय मानो अपने धुले, धवल पांयचे ऊँचे करते हुए कीचड़ से बचते हुए निकलना चाहते हैं.
इस उपन्यास में भी क्रियायें नहीं हैं, किरदार खुद को क्रियाओं के जरिये व्यक्त नहीं करते. अ स्टोरी टैलर मस्ट शो, नाट टैल. एक अच्छा कथाकार वक्ता या उपदेशक नहीं होता, वह कथा दिखलाता है, बतलाता नहीं. क्या अज्ञेय दर्शन और गल्प के सम्भोग को अपनी कथा में साध नहीं पाते?
दूसरा न कोई का नायक भी एक अकेला मरता बूढ़ा है. लेकिन यह उपन्यास मानव नियति को अंतिम बूंद तक निचोड़ लेना चाहता है. यह क्रियारत बूढ़ा है. हमेशा किसी हरकत, फितूर, शगल में लिप्त. वह एक दृश्य की तरह आपके समक्ष अपनी समूची वासना, खब्त, निराशा, ऊब के साथ उद्घाटित होता है. वह अपने को व्याख्यित नहीं करता कि वह सनकी, खब्ती है, घनघोर हवस से हरहरा रहा है. आप उसकी हरकतों से उसकी अदम्य लिप्सा को जान पाते हैं. एक बायस्कोप चलाते लेखक की तरह वैद पाठक और अपने किरदारों के बीच से खुद को मिटा देते हैं. लेखक का दर्शन किरदार की क्रियाओं और करतबों से जाहिर होता है.
निर्मल वर्मा कई अर्थों में मेरे सृजनात्मक पिता रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में मेरा गल्पकार उनसे मुक्ति पाने के फेर उनसे दूर हुआ है लेकिन अभी भी निर्मल के रचनात्मक डीएनए की कोशिकायें अपनी धमनियों में स्पंदित होता पाता हॅूं. विचित्र यह है कि अज्ञेय निर्मल के सृजनात्मक पिता रहे हैं, निर्मल ने शेखर से अपने गहन अतंर्संबधों का जिक्र किया है. यानी अज्ञेय मेरे पितामह हुये और संभव है निर्मल से होकर गुजरते उनके कुछ अंश मेरे भीतर भी आये होंगे. मैं अपनी धमनियों में उन कोशिकाओं को टटोलता हूँ. लेकिन अज्ञेय कहीं नहीं दिखाई देते. बिना किसी पूर्वाग्रह के चाहता हूँ इस कृतिकार से कोई, दूर का ही सही, संबंध जोड़ पाऊं, लेकिन नहीं.
अज्ञेय की मृत्यु पर जनसत्ता में प्रभाष जोषी ने संपादकीय लिखा था-सोने के पंख लगा कर गरुड़ उड़ गया. अज्ञेय की सर्जनात्मक उपस्थिति को स्वीकारते हुये भी श्रीकांत वर्मा की पंक्तियों से थोड़ा खेलते हुये अंत करना चाहूंगा-
गिद्धराज आओ
गरुड़ को किसने देखा है
जिन्होंने गिद्ध नहीं देखा
गरुड़ सिर्फ उनकी कल्पना में मंडलाता है
मंडलाने दो
गिद्धराज आओ
गरुड़ को किसने देखा है
गरुड़ महज मेरी कल्पना में परिंदा है.
पत्रकार, कथाकार. युवा आशुतोष भारद्वाज का एक कहानी संग्रह, कुछ अनुवाद, आलोचनात्मक आलेख आदि प्रकाशित हैं. इधर इंडियन एक्सप्रेस में छतीसगढ़ के नक्सली इलाके से लगातर रिपोर्टिंग और डायरी प्रकाशित हो रही है. |