हेमंत देवलेकर की कविताएँ |
प्रूफ़ रीडर
मैं भाषा का कारीगर हूं
आप मुझे लिपि का आलोचक भी कह सकते हैं.
कुछ तो चुंबकीय ताक़त है मेरी आंखों में
कि वर्तनी की तमाम ग़लतियां
उड़-उड़ कर खिंची चली आतीं हैं.
पांडुलिपि पर चील की तरह मंडराते सोचता हूं
कि पैनी निगाह सिर्फ़ शिकार के लिए नहीं,
उपचार के लिए भी होती है.
लिपि
जो मनुष्य की आवाज़ जितनी प्राचीन
बहती रही लगातार
हज़ारों वर्षों की उथल-पुथल के बीच
बदलते और निखरते हुए
लिपि मुझे भाषा में बहते हुए रक्त की तरह लगी.
कितना रोमांचित करता है, यह विचार
कि उस प्रागैतिहासिक धरोहर को
एक प्रूफ़ रीडर ने पाला-पोसा है.
फिर भी वो दुनिया का सबसे गुमनाम आदमी है.
पांडुलिपियां मेरे सामने ऐसे आती हैं
जैसे स्ट्रेचर पर मरणासन्न मरीज़
मेरी टेबल तत्काल ऑपरेशन थिएटर में बदल जाती है मैं: शल्य चिकित्सक और
मेरी क़लम: धारदार छुरी, चिमटा, कैंची, सुई धागा सब कुछ
मेरी क़लम की स्याही में उस वक्त खून भी उपलब्ध होता है
और दवाएं भी
क़लम से चिकित्सा का यह कितना वास्तविक बिम्ब है.
पांडुलिपियां मेरे सामने इस तरह भी आती हैं
जैसे कोई ख़राब हो चुकी इलेक्ट्रॉनिक मशीन
मेरी क़लम एक सुलगता सोल्डरिंग आयरन बन जाती है
अंगार वाली एक नीब उचेटनी लगती है
अशुद्धियां: ख़राब पार्ट्स की तरह
अपना काम करते वक्त कभी मेहतर होता हूं,
कभी बगीचे का माली, कभी प्रसव कराने वाली दाई भी
अगर मैं कहूं
कि मेरा पूरा वजूद ही भाषा बन चुका है
तो इसे मेरी विक्षिप्तता मत समझिएगा
मुझे लगता है कि वह सिर्फ़ मेरे लिए बनी है
पर यह भी जानता हूं कि
भाषा के सपनों का राजकुमार लेखक है, मैं नहीं
लेकिन आप प्रेम का आदर्श उदाहरण ढूंढेंगे
तो वह प्रूफ़ रीडर ही होगा
जहां भाषा के लिए कोई संवेदना नहीं
उन जगहों पर मैं अपमानित ही नहीं
अपराधी भी होता हूं
मुझे लगता है कि हर लिखावट और छपावट की ज़िम्मेदारी मेरी है
किसी ग़लत लिखे शब्द की यातना
जब सबकी पीड़ा बनेगी
तब समझूंगा कि मेरा काम एक आंदोलन भी है.
कभी सोचता हूं कि कुछ दिनों की छुट्टी लेकर
एक ऊंची निसैनी और कुछ रंग-ब्रश के साथ निकल पड़ूं
आखिर किसी को तो यह प्रदूषण भी दूर करना होगा
मेरी गुज़ारिश है कि साइन बोर्ड, बैनर, पोस्टर बनाने वालों के लिए
भाषा की ट्रेनिंग अनिवार्य हो
क्योंकि उन्हीं जगहों से भाषा समाज में दाख़िल होती है.
इस मूल्य विहीन होते समाज में
अगर मैं चिल्लाता हूं
कि भाषा भी एक नैतिक मूल्य है
किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता
स्मार्ट होते समय ने
क्या कुछ नहीं ध्वस्त किया
तकनीकें सुविधाएं उगलती हैं
लेकिन क्षमताएं निगल जाती हैं
प्रणाम-लिखना पुरानी बात हुई
जुड़े हाथों का चित्र भेजना ही आधुनिक भाषा
लिखने का कष्ट कोई अब क्यों उठाए
हर भाव-परिस्थिति के लिए असंख्य चित्र बने हैं
चित्र कोष में
मैं कई सहस्त्राब्दियों पीछे लौटता हूं
जब मनुष्य गुफाओं की चट्टानों पर ऐसे ही चित्र बनाता था
आज हर आदमी की अपनी गुफा है
और उसके हाथ में एक चट्टान
लेकिन भाषा कहां है, कौनसी है भाषा ?
वह धाड़ धाड लगातार चित्र बना रहा है
आशीर्वाद का चित्र, पीड़ा का चित्र
विरोध का चित्र, सहमति का चित्र
दया का, सहानुभूति का चित्र
भूख और मैथुन का चित्र
यहां तक कि
भयंकर आपदा में राहत पहुंचाने का भी चित्र.
और मैं ये सब देखने के लिए विवश हूं
यह देखकर भी कितना चुप हूं
कि मेरी भाषा परतंत्रता की गुंजलक में फंसती जा रही
“अगर देवनागरी में लिखना चाहते हो
तो रोमन में टाइप करना होगा”
चाबुक बरसाते हुए कोई कहता है
मेरा वजूद इस नए तरह के कर से दहलता है.

ख़याल गाथा
यह बात बहुत पुरानी है कितनी पुरानी ?
यह ठीक-ठीक गायक को भी नहीं पता
गायक का एक मित्र था- कवि
एक दिन झरने के नीचे, एक पत्थर पर
फुहार में भीगते हुए गायक ने कहा था-
“मित्र, मेरे लिए एक गीत लिख दो
अगली पूरणमासी पर दरबार में है गायन मेरा
मेरे लिए एक गीत लिख दो”
“गीत!” कवि स्वप्न में खो गया
कुछ देर दोनों फुहार में भीगते रहे
झरना, हवा, पत्थर, कुंड सभी विस्मित थे
उन दोनों से ज्यादा उत्सुक थे
यह स्वरों और शब्दों के लिए नया जीवन था
यह स्वप्न था शब्दों को उड़ने के लिए आकाश जैसा
यह स्वप्न था स्वरों को तिरने के लिए सागर जैसा
कवि मुसकुराया, पास पड़ा एक पत्थर उठाया
उछाल दिया कमलों से भरे कुंड में
आवाज हुई जैसे उस ध्वनि का अर्थ हो- ज़रूर
उस क्षण बाद कवि ओझल हो गया
एक नदी का पीछा करते पहाड़ों के पार
घने वनों से गुज़रते, घाटियों में उतरते
जनपदों से विमुख होकर
वह एक झील के किनारे गया
सघन बांस वनों से आच्छादित
इस किनारे पर प्रवासी पक्षियों के दल के दल उतरे थे
जहां असंख्य चिड़ियों का कलरव डेरा डाले था
कितनी तरह की बोलियां, कितनी तरह के स्वर-आलाप
गीत ही गीत थे सघन बांस वनों में
कवि फिर किसी को दिखा नहीं
मतलब शायद उसने ख़ुद को तलाशा नहीं
उसके बारे में अगर कोई पड़ताल करता
तो झील या बांस वन बतला सकते थे
“वह चिड़ियों का शोर सुनते हो
बस, उनमें से कोई एक है वह.”
उधर गायक प्रमुदित-सा घर लौटा
उसने तानपूरे को देखा,
वह उसे खाली घड़े सा लगा
अपने घर में यहां-वहां फैले सारे स्वरों को
उसने नवीन ममता से दुलारा
उनके शरीर को सहलाया
जैसे वह भूख से निढाल कबूतरों के लिए
दाना-पानी लेकर लौटा हो.
गायक में अचानक आए परिवर्तन से अनभिज्ञ थे स्वर
गायक के मन में कोई अभूतपूर्व विश्वास है
इसी अनुभूति से प्रसन्न थे वे
आंगन में चांदनी चादर की तरह बिछी थी
मधु मालती के सुगंधित पवन झकोरे
तानपूरे के तारों संग खेल रहे थे
गायक के सामने स्वर सारे बैठे थे-
“कहो, कैसा लगेगा जब तुम्हारे पास सिर्फ नाद नहीं शब्द भी होंगे
कहो, कैसा लगेगा जब तुम्हारी ध्वनि से कोई अर्थ अंकुरित होगा
कहो तो कैसा लगेगा तुम्हें जब दूर कहीं
किसी उत्सव में लोग गा रहे होंगे
जब तुम किसी को प्रसन्न, भावुक या अधीर कर दोगे
उत्साह और साहस भर दोगे, कैसा लगेगा तुम्हें ”
गायक आवेग से, अधीरता से, जिज्ञासा से
टटोल रहा था स्वरों के चित्त को
“मैने तुम्हारे लिए गीत की अभ्यर्थना की है
जानते हो, मनुष्य की सबसे मूल्यवान वस्तु
उसकी भाषा है
कुछ ही दिनों में यहां का वातावरण कितना सुंदर होगा”
गायक के उत्साह को सुनकर
कुछ स्वर मुग्ध थे, कुछ स्वप्न में डूब रहे
कुछ थे तटस्थ और कुछ असहमत
किसी ने कहा- “अहा! हमारा जीवन ही बदल जाएगा”
किसी ने कहा- “धन्य हैं, हम अर्थ और भाव होंगे”
किसी ने कहा- “स्वर की अपनी सत्ता है,
उसे शब्दों के सहारे की आवश्यकता बिल्कुल नहीं”
किसी ने कहा- “वीणा में कौन से शब्द हैं पर सुनते ही हैं रसिक”
किसी ने कहा “क्षमा कीजिए, मगर…
शब्द आएंगे तो गुणगान कवि का होगा,
यश आपका धूसरित होगा
स्वर्णहार होगा शब्दों के गले में
स्वर याचकों की भांति खड़े होंगे निष्प्रभ”
गायक ने गुरुवत उन्हें समझाया-
“कोई कला पूर्ण नहीं अपने में
जब संयोग करती वह दूसरी कला से
तभी हो पाती समृद्ध
इसलिए संकुचित वृत्ति छोड़ो, उदार बनो
और स्वागत करो गीत का, संगीत के नए युग का.”
दिन बीतते गए
कहने को तो गायक की स्वर साधना अनवरत जारी थी
पर स्वर सारे देखते कि गायक व्याकुल दृष्टि से
द्वार की ओर बार-बार देखा करता है
आलाप गाते हुए अचानक गायक के स्वर गायब हो जाते
और मुंह खुला रह जाता जैसे वह स्मृति को गा रहा हो
गीत के ख़याल को गा रहा हो
वह ख़याल में देखता:
द्वार और वातायन धूल से भर गए हैं
वह चीते की फुर्ती से उठता है
घाटियों की पगडंडी से
दौड़ता, हांफता, स्वेद में लथपथ, धूल धक्कड़ कवि
हाथ में गीत लहराते आ रहा
गीत लिखा पत्ता दूर से हिलता और चमकता,
आकाश से उतरता- सा आ रहा
इतने सु स्पष्ट तरीके से वसंत को आते कौन देख पाता है
ज्यों ज्यों वह बढ़ता आ रहा गायक की ओर
घाटी के छोटे बड़े वृक्ष नई पत्तियों और पुष्पों से खिल गए
हवा चली तो घाटी में पत्तों की नहीं,
गीतों की आवाज़ गूंज रही
गायक ने लपककर कवि को हृदय से लगा लिया
हर्ष से दिशाओं में वैस्वर्य की हुंकार भरी
स्वर उन्हें घेरकर नाचने लगे फूल बरसाते
चरम हर्ष और सजल नयनों से उसने गीत हाथ में लिया
माथे से लगाया और सरस्वती का ध्यान किया
स्वर गोल घेरे में बैठ गए, कवि भी वहीं
गायक ने तानपूरा उठाया
मगर यह क्या अपशकुन उसमें तार नहीं हैं??
यह कैसा दुस्वप्न ? जैसे अचानक जागा हो वह
टूटी तंद्रा, कोई नहीं था सामने
न कहीं धूल थी न कोई वसंत था
न कवि आया, न गीत था
कानों में सन्नाटे के थपेड़े पड़ रहे
घाटी की हवा में था अवसाद अजीब-सा
बाण लगे क्रौंच पक्षी के आर्तनाद-सा गायक.
शुक्ल पक्ष का चंद्रमा जैसे जैसे पूर्णमासी की ओर बढ़ता
उसका अकेलापन, संदेह और विषाद भी बढ़ता रहा.
स्वर अपने साधक को निराश कैसे देख पाते
विनम्र वाणी से बोले- “गीत की अभिलाषा को त्याग दें आप”
माया मृग के पीछे भागने का अंजाम बुरा ही होता
विश्वास रखिए अपने पर
आप हमारे सूर्य हैं और हम आपके सात अश्व
आप जिधर ले चलेंगे हमें, उधर होगी चेतना
उधर होंगे रंग
राग है क्या आपकी वांछित दिशा की ओर दौड़ती
हमारी टापों से उठता हुआ धूल का बादल
और क्षमा कीजिए मगर
जब शब्दों का अस्तित्व नहीं था तब केवल नाद था
उन्हीं में थे भाव सारे,
अगोचर का प्रकटीकरण था सारा स्वरों से
उठाइए किसी शपथ की तरह तानपूरा
और प्रसन्न मन से शुरू कीजिए अभ्यास
हाथ जोड़कर यही विनती हमारी
कल पूर्णिमा है
और संध्या में परीक्षा हमारी.
हम दिशाएं भूल सकते हैं, दशाएं भूल सकते हैं
मगर समय को नहीं भूल सकते
पृथ्वी को घुमाने वाले दो विशाल पहिए
अंतरिक्ष के किसी भी कोने से दिख जाते हैं
फिर वह तो झील किनारे का सघन बांस वन था
वहां से पूर्णमासी का चांद क्या छुपा रहता ?
जब धरती और आकाश की झिरी से निकला वह
तो सबको दिखा
सबको दिखा तो उस चिड़िया को भी दिखा
उसके मन में चांद जैसी ही गोल और भारी आवाज़ हुई: पूर्णमासी
“यह चांद क्या कोई विशाल जाल है?
मुझ पर घिरता हुआ
यह चांद क्या मुद्रा है कोई, जिसके बदले मुझे कुछ देना है?
कमल-से खिले इस पूरे चांद ने ज्वार की तरह
मुझ में गले-गले तक ग्लानि क्यों भर दी है?”
चांद को देखते हुए अचानक लगा
कि वह दर्पण देख रही है
उसने देखा गायक कवि से कह रहा है
“मेरे लिए एक गीत लिख दो पूर्णमासी पर गाना है”
उसने खुद को झटकारा मानो बेड़ियों से छूट जाना हो
पंख इस तरह फड़फड़ाए
मानो चिड़िया को झाड़कर कवि हो जायेगी.
वह उड़ चली
जिधर जिधर से आया था कवि
उसी उसी रास्ते वह उड़ चली
अचानक दिखे उसे झरना चट्टान कुंड
उसे दिखाई दिया डूबा हुआ वह पत्थर
जो असल में एक वचन था
वह उड़ चली दरबार की ओर
सभा में क्या हो रहा होगा?
क्या संगीत आरंभ हुआ होगा ?
गायक गाएगा क्या ? उसका गीत?
गीत पता नहीं कहां है ?
काम तो पूरा हुआ नहीं, चांद अवश्य पूरा हो गया
समय हमेशा मनुष्य की परीक्षा क्यों लेता है?
चलूं दरबार की ओर उड़ चलूं
पता नहीं क्या सहायता कर पाऊंगा पर चलूं
अपने वचन की खातिर ही सही, चलूं.
साक्षात सरस्वती और नटराज
जिस रंगशाला के अधिष्ठाता भी हों तथा दर्शक भी
उस मंच की प्रसिद्धि कवियों में कालिदास के समान,
उस मंच की प्रतिष्ठा नगरों में काशी तुल्य
उस मंच की पवित्रता नदियों में गंगा समान
सुगंधित धुआं पवित्र कर रहा वातावरण
जगमग ज्योतियों से अलंकृत चहूं ओर दीप दीपन
दीर्घा के मध्य में रत्नजड़ित सिंहासन पर
हीरे की तरह आभामंडित राजाधिराज विराजित
वे स्वयं कलाओं के प्रकांड मर्मज्ञ
रंगशाला के श्रोता सारे अत्यंत रसिक
आए हैं दूर दूर से एक नवोदित गायक को सुनने
तभी अनुमति दी महाराज ने आरंभ किया जाए
महाराज को प्रणाम करने के पश्चात
सभी को अभिवादन करते हुए गायक ने
रंगशाला के मुख्य द्वार को भरपूर विश्वास के साथ देखा
अभी भी समय पूरी तरह चुका नहीं
“आ जाओ मित्र” मन में कहकर उसने तानपूरे का तार छेड़ा
आलाप का अर्थ एक अंतिम प्रतीक्षा है
गायक इसी प्रतीक्षा को जीना चाह रहा
राग कौन सा है यह जिज्ञासा थी सब में
वह तो आकुल-व्याकुल अंतर से आलाप लेने लगा
और प्रतीक्षा करने लगा, हां वही तो था राग
जीवन का सबसे सुंदर और विकट राग
वह कवि के गीत लेकर आने की कल्पना में गा रहा था
वह उसकी स्मृति में, उसके स्वप्न में गा रहा था
वह आकांक्षा में गा रहा था, वह अपेक्षा में गा रहा था
वह विश्वास में गा रहा था, वह अनुमान को गा रहा था
और श्रोता भूल गए यह जानना कि राग कौनसा
सबको अपनी-अपनी व्याकुलताएं याद हो आईं
सबको अपना कोई बिछुड़ा
अपना अधूरापन याद आने लगा
सभा जितनी स्वर में डूबी थी उससे कहीं ज्यादा ख़यालों में
हर एक वहां सिर्फ प्रतीक्षा था, ख़याल था
गायक ने घंटों सिर्फ आलाप गाया
उसमें सिर्फ़ पुकार थी, आने की याचना
स्वर सारे सिर्फ एक शब्द को बार-बार बार-बार दुहराते
“आ ..आ …आ …. आ ”
तभी अकस्मात चांदनी की एक धवल किरण कौंधी
और आ गया वह या कहें आ गई वह
चीं चिं चीं चिं
टूं टी प्यूं टी
कि कि क्यू क्यू
गाते-गाते चिड़िया सभा में चक्कर काटने लगी
पता नहीं कवि क्या कहना चाहता था
पता नहीं वह कौन से गीत का संकेत कर रहा था
यद्यपि गायक का चिड़िया के स्वरों से स्वर भंग होने लगा
पर पता नहीं क्यों उसे लगा, उसकी पुकार व्यर्थ नहीं गई
चिड़िया गायक के पास आ जाती
फिर अपनी चोंच उसके मुंह में डाल देती
उसे लगा कुछ क्षण रोक दे गायन अपना
पर यह अभ्यास नहीं था प्रस्तुति थी
महाराज और समस्त श्रोताओं के आनंद में विघ्न होने लगा
महाराज की भृकुटियां चढ़ीं, अंगरक्षकों को इशारा हुआ
कुछ तलवारें हवा में लहराईं
तभी तानपूरे के तारों से फिसलता हुआ
मुलायम, रक्त से सना कुछ
गायक के चरणों में आ गिरा
रंगशाला में स्तब्धता छा गई
सबने देखा एक चिड़िया मरी पड़ी थी
गायक पहचान गया यह उसकी प्रतीक्षा थी
सदियां बीत गईं
कई गीत, सबद, पद, छंद मिल गए गायकों को
मगर अपने आदि गायक के ख़याल में
आज भी गायक उसके ख़याल में अपना ख़याल गाते हैं
हेमंत देवलेकर 11 जुलाई 1972( उज्जैन). दो काव्य संग्रह ‘हमारी उम्र का कपास धीरे-धीरे लोहे में बदल रहा है’ तथा ‘गुल मकई’ प्रकाशित. रंगकर्म में सक्रिय हैं. सम्मानः वागीश्वरी सम्मान, स्पंदन युवा सम्मान आदि प्राप्त. hemantdeolekar11@gmail.com |
वाह. हेमंत भाई का सान्निध्य खुशनसीबी है। अक्सर उनकी कविताओं के पहले पहले ड्राफ़्ट सुनने का अवसर मिलता रहा है। यहाँ इन कविताओं के प्रकाशन की ख़ुशी है। ❤️
दोनों ही कविताएँ बहुत अच्छी हैं। कुछ अलग हट कर। नए कथ्य और नए कहन के साथ। प्रस्तुत करने का आभार।हेमंत जी को बधाई।
1 प्रूफ़ रीडर
मुझे प्रोफ़ेसर अरुण देव जी जानते हैं । आप भी मेरी टिप्पणियों से जान जाओगे । इस कविता में कवि का नाम हेमंत देवलेकर लिखा है । परंतु मैं भी इसकी आत्मा में छिपा हुआ हूँ । प्रशिक्षण प्राप्त प्रूफ़ रीडर नहीं हूँ । जिस ज़माने में कंप्यूटर से युक्त मुद्रणालय नहीं होते थे उस समय शब्दों की वर्तनियों को शुद्ध करना चुनौती भरा कार्य होता था । अपने मित्रों द्वारा संचालित संस्थाओं के लेटर पैड, आमंत्रण पत्र और बाक़ी सूचना-सामग्री बनाता ।
फिर छापाखाना में जाकर प्रूफ़ रीडिंग करता । हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा मेरे पाठ्यक्रम के विषय नहीं होते थे । शब्दों के हिज्जे ठीक करने का भूत सवार था । आपकी तरह मुझमें चुंबकीय शक्ति थी । त्रुटियाँ खिंचकर मेरी ओर चली आतीं । ‘मेरा मुझमें कुछ नहीं’ जैसी भावना का प्रवाह मेरे रक्त में बहता था । लेटरहेड या अन्य सामग्री की सज्जा करते हुए ख़याल रखता कि यह पाठक को खाने या कह सकते हैं निगलने के लिये न दौड़े । मैंने सादगी को सौंदर्य माना ।
अब कंप्यूटर से सामग्री छपने लगी है ।
जितने मुद्रणालयों पर मैं काम कराने के लिये गया हूँ वे सभी अनपढ़ हैं । कंप्यूटर से कंपोज़ करने की जानकारी रखने के कारण ये सब अपने को चौधरी (बादशाह) समझते हैं । उदाहरण के लिये सही शब्द है-बरात । ये बारात लिखते हैं । ठीक कराओ तो मुझे खाने को पड़ते हैं । मेरे लिये भी पांडुलिपियाँ मरीज़ की हालत में आती हैं । मैं इनका डॉक्टर बन जाता हूँ । आप मेहतर बन जाते हैं । इधर जमादार शब्द का प्रयोग किया जाता है । मैं जमादार हूँ और कूड़ा करकट साफ़ करता हूँ । हैरान होंगे कि मैंने 26 वर्ष तक अपने घर के फ़र्श पोंछे । प्रूफ़ रीडर की भूमिका निभाते हुए मैं कठोर हो जाता हूँ ।
प्रायः सभी मित्र जन ईमोजी भेज देते हैं । मानो हम प्रागैतिहासिक युग में लौट गये हों, जब भाषा का आविष्कार नहीं हुआ था । लिखने के लिये बहुत कुछ है । बस यहीं तक सीमित कर रहा हूँ ।
प्रूफ रीडर’ पर पाठकीय टिप्पणी
‘मेरा पूरा वजूद भाषा बन चुका है’
हेमंत भाई की इस पंक्ति से गुजरते हुए यह एहसास तारी होता है कि एक कवि भाषा के किस परिष्कृत रूप को अपने भीतर संजोए हुए हैं. अगली पंक्ति में जब कहते हैं
‘इसे मेरी विक्षिप्तता मत समझिएगा’
तो यह विश्वास जीवंत हो उठता है.
‘प्रूफ रीडर’अपनी डेस्क पर बैठा हुआ उन तमाम गलतियों को पकड़ता है जिन्हें अक्सर कमतर या अवांछित माना जाता है.
तमाम तरह के उद्धरणों और उपमाओं के माध्यम से प्रूफ रीडर कि जिस महत्ता को स्थापित किया है वह पठनीय ही नहीं वरन हमेशा गौण रह जाने वाले को आगे लाता है.
प्रूफ रीडर की भूमिका निभाते निभाते यह परकाया प्रवेश की तरह एक कवि का परिवर्तित रूप लगता है. जहां वह अपनी भूमिका को और व्यापक बनाता है.
यह प्रूफ रीडर एक कवि होकर किस तरह लौटने लगता है जब वह इमोजी और सांकेतिक चित्रों को देखकर सहस्त्राब्दियों पीछे लौटता है. जहां आदिमानव ने अपनी कथाएं गुफाओं में अंकित की थी यह भाषा का पहला संकेतिक रूप था. लेकिन आज भाषा विकास के बाद यह पीड़ा सहसा निकलती है कि
‘हर आदमी की अपनी गुफा है’
विकासवाद के इस दौर में जहां तकनीकी पूर्णतया इंसानों पर हावी है और वह लगातार जैसे इस की जकड़ में गहराता जा रहा है कवि जो वर्तमान में लौटता है तो इसे बखूबी एक मुकम्मल ढंग से अपनी कविता में दर्ज करता है.
‘मौत का कोई प्रूफ रीडर नहीं होता’ भाषा के बारे में प्रूफ रीडर से बेहतर यह बात कौन जानता है…
दोनों कविताएँ अद्भुत ! मेरे विचार से भारतीय साहित्य की क्लासिक परंपरा में रखने लायक।हेमंत देवलेकर को हृदय से बधाई एवं समालोचन पर इनके प्रकाशन के लिए अरूण जी को भी।
दुअँखियों से भरे कवियों के संसार में अरसे बाद कोई मिला जिसके पास तीसरी आँख है।
प्रूफ रीडर कमाल कविता है । एक जगह सही तरीके से कविता से बाहर जाने का साहस भी करती है जब साइन बोर्ड लिखने वालों के लिए कह रही है।
भाषा अपने लिए प्यार देख रही है यहां
अछूते विषय पर शानदार कविताएं। प्रूफ रीडर तो वाकई विलक्षण है। दूसरी कविता गंभीरता से दोबारा पढ़ने के बाद ही कोई टिप्पणी करना उचित होगा। समालोचन हमारी साहित्यिक दिनचर्या का अभिन्न अंग है।
-ललन चतुर्वेदी
2 ख़याल गाथा
गायक ने अपने कवि मित्र से कविता लिखने के लिये कहा । कवि ने झील में पत्थर फेंका । न जाने क्या जादू हुआ कि कवि आँखों के सामने से ओझल हो गया । वह रहस्यमय लोक में था । इस ओर गायक घर लौटा । तानपुरा उठाया । किंतु उसके तार ग़ायब थे । वह पशोपेश में पड़ गया । कवि जहाँ पहुँचा वहाँ कमल का तालाब था । अच्छी झील और तालाब की निशानी है कि उसमें कमल के फूल खिले हुए हों । गायक को सुर सूझे और तानपुरा बज उठा । कवि और गायक में अन्योन्य आश्रित का संबंध होता है । इतना ही नहीं बल्कि चित्रकार भी कविता पर आधारित चित्र बनाता है । कविता को अधिक पंक्तियों में समाहित किया गया है । मुझे महसूस हुआ है कि कहीं कविता को कम शब्दों में समेटा जा सकता था ।
Bahot hi gahri kavita hain koi bhi isme dub jayega
करुण और विलक्षण दृष्टि रखने वाले अति संवेदनशील और हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं हेमंत देवलेकर। ‘प्रूफरीडर’ लाजवाब कविता है। इसकी एक-एक पंक्ति किस क़दर यथार्थ है, इस पर मेरी तरह हर वह व्यक्ति ठप्पा लगा सकता है, जिसने भी अपने जीवन में कभी गंभीरता से यह कार्य किया हो: वही-वही सरोकार, वही-वही चिंताएँ। बहुत सुन्दर निर्वहन है इस कविता का। दूसरी कविता भी बेहद शानदार है। नाद, स्वर, शब्द, गायन और काव्य की अंतर्निहित ध्वनियों से गुम्फित सुन्दर कविता। कवि को हार्दिक बधाई और अरुण देव जी को बहुत धन्यवाद।
ख़्याल गाथा पढ़ते हुए असाध्य वीणा गूंजती रही वही भाव भूमि वही कलेवर ….बहुत सुंदर
हेमंत की ये कविताएं दरसल कहानियां हैं। या कहें, – नाट्य। दोनों ही कविताओं का जन्म, उनकी बढ़त और समापन एक विचार या सूझ के साथ कवि के दीर्घ कालिक संवाद में रमे, डूबे रहने से होता है। ‘ प्रूफ रीडर और भाषा ’ तथा ’ गायक के खयाल (यहां शास्त्रीय संगीत में आलाप और खयाल गायन की ओर इशारा खास बात है)में कवि ’ इन दोनों समुज्यों के साथ हेमंत आदि काल से लेकर, घोर आज के समसामयिक इमोजी काल तक की यात्रा करते हैं और इन दो छोरों को मिलाने के लिए उपयुक्त बिंब भी गढ़ते हैं। कुलमिला कर हेमंत की इन कविताओं में दो पूरी कहानियों के मंच पर अभिनीत होने का आनंद मिला!☘️☘️☘️
समालोचन और प्रिय कवि मित्र अरुण देव जी का विनम्र आभार कि इस महत्वपूर्ण मंच पर मेरी कविताओं को फिर जगह दी है। इस बार कुछ अलग प्रस्तुत करने का मन हुआ। पिछले समय में मुझसे कुछ कविताएं ऐसी लिखा गईं जो लंबी थीं। जिनमें खयाल गाथा सही मायने में एक लंबी कविता लगी। पर आपने पाया होगा कि इसमें एक कथा है। जैसा कि शंपा शाह जी ने कहा कि नाटक है इनमें… तो विशेषकर यह कविता लिखते हुए मैने पहली बार महसूस किया कि बिना किसी पूर्व तैयारी या बिना किसी पूर्व विचार के लिखने का क्या असर है, क्या मज़ा है। कविताएं अक्सर कवि के मन में बन जाती हैं। उसका सघन खाका तैयार हो ही जाता है। फिर वह कभी भी याने कुछ या ज्यादा समय बाद उसे कागज पर उतारता है। यह समय वह उस भाव विचार को पकाता रहता है। मगर खयाल गाथा का केवल प्लॉट मन में था वो ये कि हम अक्सर पाते हैं कि सुगम संगीत में एक एक शब्द का महत्व है। शास्त्रीय संगीत के गायक उतना महत्व नहीं दे रहे। वे बस गा रहे हैं। आधा एक दो घंटा उससे भी लंबा। और उस समय के अनुपात में शब्द कितने हैं मुश्किल से दो या चार पंक्ति। वह भी समझ से परे। तो एक कल्पनाशील विचार यूं आया कि गायक ने किसी लिखनेवाले से गुजारिश की होगी कि लिख देना। और वो जिससे गुजारिश की थी भूल गया होगा। इधर गायक प्रोग्राम पेश करने के क्षण तक उसकी राह देखता रहा होगा। बस। इतना ही प्लॉट दिमाग में था। और यह सालों पड़ा रहा। Lockdown के घोर विराम क्षणों में पता नही क्या हुआ टेबल पर कागज लिए बैठा और लिखना शुरू किया। और लिखने का क्या आनंद होता है यह पहली बार जाना। जैसे मेरे भीतर से कोई अबाध, अजस्र झरना बह रहा हो। एक विहंगम दृश्य या सिनेमा चल रहा है जिसे मैं लिख रहा हूं। कभी तो लगा सिर्फ साक्षी हूं, देख रहा हूं और देखना ही लिखने में तब्दील हो रहा है। और फिर ऐसे ऐसे मोड़ मिले, इतने अलग अलग मनोभाव -रस कि उसका रोमांच , सुख और तनाव व्यक्त करना अब शब्दों के परे है। कुछ हुआ उस समय जो यहां प्रस्तुत है। इस कविता को जो संगीत पर आधारित है और एक फैंटेसी रूपक है आपका प्यार मिला। शब्द और स्वरों के बहाने कलाओं के अंतर्संबंध के विमर्श को पाठकों ने अनुभूत किया। इसके सौंदर्य पक्ष को खुलकर सराहा, आप सभी के प्रति प्रेम भरा आभार।
प्रूफ रीडर यह काम मैंने आजीविका की खातिर ज़रूर किया मगर मैंने पाया कि यह काम बहुत विशिष्ट है इसे हर कोई नही कर सकता । इसका अभी तक कोई डिग्री आदि का प्रशिक्षण कोर्स भी नहीं है। चूंकि मेरा लिखने पढ़ने से वास्ता है तो मुझे यह काम करना चाहिए। अपने ही भाषा विकास के लिए। फिर मुझे इसमें आनंद आने लगा। और यह एक नैतिक जिम्मेदारी की तरह लगा मुझे। हालांकि आदिवासी एवं बोली विकास परिषद अब जनजातीय संग्रहालय की कई पुस्तकों जो आकार में ग्रंथ सरीखी थीं, की प्रूफ रीडिंग की। कई बार लंबा समय इसमें चला जाता तो लगा इसे छोड़ देना चाहिए। मगर यह काम मुझसे छूटा नहीं। प्रसिद्ध उद्घोषक, संपादक, लेखक श्री विनय उपाध्याय जी समय समय पर मुझे यह काम सौंपते रहे। वैसे इस काम की शुरुआत भोपाल आने पर हुई। 2007 में। भोपाल निवासी प्रख्यात रंगनिर्देशक श्री अलखनंदन जी के सान्निध्य में मैं रंगकर्म सीख रहा था। वे पत्र हाथ से लिखते फिर मैं उसे रोशनपुरा स्थित टाइपिंग की दुकान में टाइप कराने ले जाता। प्रोफेसर कॉलोनी से रोशनपुरा की घाटी चढ़ते हुए। एक पत्र जिसमे बमुश्किल दस वाक्य होते थे। दुकान वाला टाइप कर देता। मैं बिना पढ़े ले जाकर अलख जी के सामने कर देता। वे पेन निकालते। गलतियों पर गोले लगाते। मेरे हाथ में वापस थमा देते। न मैं उन्हें देखता , न वे मुझे। मैं वापस वही घाटी चढ़ते हुए पैदल पैदल जा पहुंचता। टाइप वाले मुझे देख तनिक खिसिया जाते, नाक भौं सिकोड़ते। वह दुकान अन्य ग्राहकों से भरी रहती थी। सो मुझे इंतजार करना पड़ता। चूंकि गलती को ठीक करवाना है तो मन में पता नही क्यों एक अपराध बोध भी उमड़ आता। जैसे इन रिमार्क के गोलों में मेरी ही गलती है। वे बेमन से उस पन्ने को लेते और लगभग बेमन से ही दुरूस्त करते। बीच बीच में यह ताना भी मार देते ” पुरानी उधारी कब चुकाएंगे तुम्हारे गुरुजी। तुम आ जाते हो एक बिंदी एक नुक्ते की ख़ामी लेकर। पिछला बकाया चुका जाओ।” इतना सुनने के बाद जैसे तैसे ठीक करवाकर वो कागज़ लेता और फिर पैदल पैदल चल पड़ता। उनके घर पहुंचकर चैन की सांस लेता और उनके हाथों में थमा देता। वे चश्मा चढ़ाते … और पता नही कैसे उनको कोई बहुत बारीक सी त्रुटि फिर भी दिखाई दे ही जाती। फिर उस साफ सुंदर से दिखते कागज पर एक और गोला या एक से ज्यादा भी होता या होते। मैं फिर उसी घाटी पर पैदल चढ़ाई करता। और लगभग सर नीचा किए उसी दुकान में फिर दाखिल होता। सबकी नजरें उपहासपूर्ण ढंग से मुझ पर उड़ती। फिर कुछ ताने फिकरे होते। मुझे कितने पैसे मिलते हैं… जैसे सवाल भी होते। फिर कंप्यूटर के सामने बैठा व्यक्ति बहुत दया भावना के साथ उसे फिर से दुरुस्त कर देता। मैं खुद उसे जांचने की कोशिश करता। अब यह लगभग सही होगा। यही मानकर चल देता। अलख जी चश्मा चढ़ाकर उसे जांचते। कुछ भी कहते नहीं। पेन से अपने नाम के नीचे दस्तख़त कर देते और कहते कल स्पीड पोस्ट कर देना। मैं कहता अभी क्यों नहीं। वे कुछ नही कहते। मैं आसमान की ओर देखता हूं। रात हो चुकी है। सुबह ग्यारह से शुरू हुआ काम रात सात – साढ़े सात चला है और किया क्या है दिनभर …? तो केवल एक पेज को टाइप करवाया है। हाथ पांव की तुड़वाई हुई सो अलग।
ऐसी घटनाओं ने मुझे तैयार किया कि मैं खुद ही जांचना शुरू करूं। फिर मैने वैसा करना शुरू किया। सफलता मिली। एकदम से चक्कर खाना बंद नहीं हुए, कम ज़रूर हुए। इस तरह अलख जी का भी योगदान रहा है प्रूफ के काम में। उनका आभार।
इस कविता में मेरा और मेरे बहाने सभी प्रूफ जांचने वालों की कहानी है, मनोदशा है, द्वंद्व हैं, तनाव और अपेक्षाएं हैं। मैने इस कविता के बारे में सोचा और कई बिंब नज़र आने लगे, कई स्तरों पर बात चली गई। इसे लिखने में कई साल लगे। धीरे धीरे गुल्लक भरने की तरह इस कविता में भर डालता रहा।
बहुत शुक्रिया आप सभी पाठकों ने इसे अपनी ही कविता समझा। अधिकांश पाठकों ने भी यह काम किया है तो यह कविता उनको अलग रस दे रही होगी। जन्होने नही किया उनको इसकी महत्ता पता चली होगी। आप सभी का शुक्रिया इन दोनों कविताओं को अमूल्य समय देने के लिए। उस पर मूल्यवान टिप्पणी देने के लिए। आप सभी की टिप्पणियों से बहुत विश्वास मिला है, ताकत मिली है। उत्साह बढ़ा है। कई टिप्पणियों में इतना प्रेम और विश्वास है कि उस प्रशंसा से निहायत संकोच भी भर गया है और बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी महसूस हुई है। खयाल गाथा कविता का यह सौभाग्य रहा है कि इसे पढ़कर अधिकांश काव्य मर्मज्ञों ने विख्यात कविता ‘असाध्य वीणा ‘ की परंपरा में इसे देखा।
बहुत प्रेम भरा आभार अरुण देव जी का समालोचन का और कविताप्रेमी साथियों का।