आदर्श भूषण की कविताएँ
1)
इसी भाषा का अंतिम
तुमसे जिस भाषा में प्रेम किया
वह भाषा सीखनी नहीं पड़ी थी मुझे
इसी के गर्भ से जन्म लिया था
तौर-तरीक़े, जी-हुज़ूरी, कानाफूसी और काम-धँधा भी इसी भाषा ने सिखाया
इसी भाषा के पैठ से तर था जीवन का व्याकरण
लेकिन नहीं जानता था कि
इसी भाषा में बिछड़ने की भी क्रियाएँ थीं
तड़प के भी शब्द थे
फिर भी इसी भाषा ने सहूलियत दी
रहने दिया मुझे दुःख की ओर—
समझने के लिए दुःख का अनुतान
और समय रहते खींच लिया बने रहने के संघर्ष में
दूसरी भाषाओं को देखता हूँ तो
सोच में पड़ जाता हूँ कि
उनमें कैसे कर पाऊँगा अपने जीवन का अनुवाद—
एक भाषा में बने रहने का संघर्ष ही इतना बड़ा है कि
दूसरी भाषा को सीखने का समय ही नहीं मिल पाता
अन्ततः इसी भाषा के आघात से कोई क्रिया चुनूँगा और
चल पड़ूँगा देहलोक की भौतिकता से बाहर
फिर भी जाने की भाषा वही रहेगी
कोई तो शब्द होगा इसी भाषा का-
अंतिम की तरह दिखता हुआ.
२.
आदमी-आदमी के बीच
पतन की कोई दिशा नहीं होती
कहीं से भी उठ सकता है महावात
लील सकता है पके हुए खेत और बचाया हुआ घर
कभी भी डिगती हुई नाव में रिसना शुरू कर सकता है पानी
निराशा जगह नहीं खोजती
खीझती हुई जीविका में कर देती है घुसपैठ
और डुबो देती है उपलब्धताओं की डोंगी
दुर्भाग्य का कोई दिन नहीं होता
किसी चींटे पर अपनी जकड़ कसने के लिए
बैठी एकाग्रचित्त बिस्तुइया को ले उड़ेगा बाज़
और तल पर एक गहरा सन्नाटा फैल जाएगा
उत्तर-जीविताओं के संघर्ष में
विजेता की घोषणा एक खोखला विचार है
वैमनस्य का कोई रूप नहीं होता
कहीं भी उपज सकती है फसल ईर्ष्या की
लहलहाती हुई धीरे-धीरे पाँव पसारती
सीमा बघारती हुई क्रुद्ध चेतनाओं पर पूरा हाव डालती
किसी भी देश के किसी भी घर के किसी भी कमरे में
कमाई हुई फुलकी को एकटक निहारते किसी भी आदमी के
चीथड़े उड़ा सकता है एक मिसाइल कहीं से भी आया हुआ
लेकिन फिर भी
भूख जोड़ लेती है जून और प्रत्याशा खोज लेती है एक रैनबसेरा
पानी नाव को डुबाता नहीं बस प्राप्य आयतन पर घोषित करता है अपना आधिपत्य और द्रष्टा कहता है
नाव को पानी ने डुबो दिया
उत्तर-जीविता एक आधारभूत प्रवृत्ति है
इसके लिए कोई न्याय-संहिता नहीं
वैमनस्य की जगह वहीं है
जहाँ आदमी-आदमी के बीच रिक्तियाँ है
एक से दूसरे की इयत्ता नापती हुई
एक से दूसरे को अलग बनाती हुई
चाहिए यह कि दोनों को मिला दिया जाए
निरुपायों के ढेर से निकले एक उपाय की तरह;
शायद एक सस्ती दवा ही बचा ले उखड़ते हुए प्राण
3
लोहा और कपास
आँतों को पता है
अपने भूखे छोड़े जाने की समय सीमा
उसके बाद वे निचुड़ती
पेट कोंच-कोंचकर ख़ुद को चबाने लगतीं हैं
आँखों को पता है
कितनी दुनिया देखने लायक़ है
उसके बाद बुढ़ापे का मोतियाबिंद चढ़ाकर
झूलती लटकती रहती हैं
उजाड़ों के धुँधलके पर गड़ी हुईं
नाकों को पता है
कटने झुकने ऊँचाई बनाए रखने की
अवसरवादिता और
अच्छा बुरा सब सूँघ जाने की
लज्जाहीन परिभाषा
उसके बाद घास और माछ के बीच
किसी महकते तोरण पर अपना घ्राण खर्चतीं हैं
चमड़ी को पता है
नीचे गुज़रती नसों की आवारा दौड़
ऊपर चढ़ाती यौवन की अनिवार्यता
उसके बाद ले पटकती हैं
लटके हुए बुढ़ापे के गलन पर
हाथों को पता है
लोहे और कपास के बीच का फ़र्क़
लोहा पकड़कर लोहा बनने
और कपास छूकर कपास हो जाने की
अनुवांशिक अक्लमंदी से भरे हाथ
रगड़ खाते हुए भी बचे रहते हैं
दुनिया बदलने की तोता चश्मी में
उसके बाद अपना बदन मलते हुए भी काँपते हैं
उम्र का लोहा कपास होते जाने पर
सारे अंगों को पता है
उनके निर्वाण की जगहें और वजहें
इन्हें नहीं जाना पड़ता
किसी अधजगी रात में एक दूसरे से दूर
एक लम्बी लेकिन बहुत धीमी
क्षीण होते चले जाने की प्रक्रिया
जिसमें शरीर के
ये सारे हिस्से अपनी-अपनी
आत्महत्या की कोशिशों में लगे हुए हैं
ऐसे में यह कहना भी उचित नहीं कि
बे-ज़रूरत के मौसमी मोह में
अपनी इस ग़रीब देह को
थाती मान लिया जाए
जब यह स्वयं एक अंतर-युद्ध में मग्न है.
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आदर्श भूषण
25 फरवरी 1996, डुमरा (सीतामढ़ी), बिहार
आई. आई. टी. कानपुर में सीनियर स्टूडेंट रिसर्च एसोसिएट के रूप में कार्य.
गणित अध्यापन में सक्रिय.
adarsh.bhushan1411@gmail.com