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Home » पहला ही आख़िरी है: आदित्य शुक्ल

पहला ही आख़िरी है: आदित्य शुक्ल

आदित्य शुक्ल की यह पहली कहानी है जो समालोचन पर प्रकाशित हो रही है. उनकी कुछ कविताएँ, अनुवाद और गद्य यत्र-तत्र प्रकाशित हुए हैं. महानगर में युवा की ज़िंदगी का एक ख़ाका यहाँ खींचा गया है. तमाम तरह के दबावों और तनावों के बीच प्रेम की जगह भी बनती बिगड़ती रहती है.

by arun dev
January 27, 2020
in कथा
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पहला ही आख़िरी है
आदित्य शुक्ल

मैं जिस कहानी को महीनों से लिखने की कोशिश कर रहा था उसके सन्दर्भ में मेरे साथ आज एक अज़ीब घटना हुई. सुबह मैं जब सोकर उठा तो मैंने देखा वो कहानी ख़ुद ब ख़ुद लिख गयी है, न सिर्फ़ लिख गयी है बल्कि उस वेबसाइट पर छप भी गयी है जिसपर छपने के लिए भेजने की मैं योजना बना रहा था- नहीं मैं किसी सपने की बात नहीं कर रहा – ऐसा सच में आज हुआ है और अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो आप ये पंक्तियाँ कैसे पढ़ रहे होते?

वैसे इस कहानी की सबसे अज़ीब बात ये है कि इसे कहीं से भी शुरू करके कहीं भी ख़त्म किया जा सकता है. यह कहानी इस दुनिया की नियति जितनी अनिश्चित है. क्या अभी भी लोग ऐसी कहानियां लिखते हैं जिनमें दुनिया की समस्याओं पर चिंता जताई गयी हो? छोटे और गरीब देशों में तो आये दिन धरने प्रदर्शन होते रहते हैं– कुछ लोगों ने यह संभावना भी ज़ाहिर की है चिली के लोग नव-उदारवाद को ख़त्म करने पर तुल गए हैं. पर यहाँ, क्या लोगों को वाकई चिंतित होते हैं? ऐसा सोचकर मुझे थोड़ी देर के लिए ख़ुशी होती है. ख़ैर आपको इतना बताऊंगा कि मुझे इस कहानी के पन्नों को तह करके अपने डेस्क पर रखकर इसे देर तक निहारना पसंद है. जैसे आपके सामने बैठी हो आपकी प्रियतमा. मेरी प्रियतमा मेरी आंखों के सामने बहुत दिन से नहीं आयी है. या यूं भी कह लें कि अब मेरी कोई प्रियतमा नहीं है. कुछ दिन पहले मैंने होने से नहीं होने में उतर गयी उस स्त्री को फोन करके कहा- कुछ पल के लिए तुम थी, बाकी के लिए तुम नहीं हो, तुम्हारे होने न-होने में मेरा सारा समय खप गया.

उसने कोई उत्तर नहीं दिया. फ़ोन के दूसरे छोर पर एक घुप्प ख़ामोशी. फ़िर उसने कई दिन तक मुझसे कोई बात नहीं की. एक दोस्त ने यह बताया कि मैंने फ़ोन पर उससे जो बात कही थी उससे मिलती जुलती बात बोर्हेस ने भी लिखी है. मैंने उसकी बात को टाल तो दिया पर भूला नहीं.

कई दिन बाद उसने मुझे फ़ोन किया और कहा कि वो मुझसे कुछ बताना चाहती है.

‘कुछ बहुत अपशगुन जैसा हो गया है. हलांकि मैं ये सब में विश्वास तो नहीं करती नहीं फ़िर भी जब कुछ बुरा होता है तो पल भर के लिए यह एहसास आपके मन में आता जरूर है. उस दिन बाबा से मेरा झगड़ा हुआ. मैं घूमते-घूमते कब्रिस्तान चली गयी. दिन भर एक अजनबी की कब्र से पीठ सटाकर बैठी रही और एक के बाद एक सिगरेट फूंके. मेरा मन हुआ मैं कब्रिस्तान में किसी के साथ सेक्स करूं. सूखे पत्तों और मिटीयारी घास पर लेटकर. तुम्हारे साथ नहीं किसी और के साथ. तुम्हारे अलावे किसी भी और के साथ. बुरा मत मानना – मेरे मन में ऐसा, ठीक ऐसा ही ख्याल आया था. और फ़िर मैंने बाबा को जी भरकर कोसा. उन्हें गालियाँ दीं. मेरा मन हुआ उनकी आंखों के सामने जाकर सिगरेट पीऊं, शराब पीऊं और नाचूं झूमूं. जितना हो सके उतना उनका दिल जलाऊं. मैंने कब्रिस्तान में चीखकर कहा – मर जाओ बाबा! शाम को जब मैं घर लौटी बाबा नहीं रहे. वे चल बसे थे. बस वह एक अज़ीब दिन था.‘

यह अपराध-बोध मुझसे उठाया नहीं जाता.

अपराध-बोध?  कौन कम्बख़्त इस दुनिया में कोई बोझ उठाना चाहता है. पहाड़ियों पर ठहरते अंधेरे में देखा है पुल पर गुजरते हुए दो-पहिया वाहनों को? अंधेरे को चीरकर प्रकाश-पुंज बनाते उनके पीले हेडलाइट देखें हैं कभी आपने? पुल पर बोझ बनकर ही आदमी इस दुनिया से उस दुनिया में प्रवेश कर पा रहा है…                   

महीनों से मैं जिस कहानी की तलाश में था वह मुझे एक कचरे के डब्बे में पड़ी मिली और पहली नज़र में मैंने उसे ऐसे ही नज़रअंदाज किया जैसे कोई व्यक्ति अपने प्रियजनों को करता है – जिनके प्यार की निश्चितता होती है – कैसे, कितनी बेरहमी से हम उसे नज़रअंदाज कर देते हैं. ख़ोज तो मैं कुछ और रहा था और मेरे हाथ लगी यह कहानी.

सर्दी के उस दिन जब मैं घर से लौटकर वापस शहर आया- शहर हॉलीवुड के किसी डिस्टोपियन शहर जैसा दिखने लगा था. हर ओर धुँआ ही धुँआ. लोग बताते थे कि इस वातावरण में साँस लेना चालीस सिगरेट पीने जैसा था. लोग मास्क पहनकर चलते थे. जो लोग मास्क पहनकर नहीं चलते थे वे उन लोगों पर हँसते थे जो मास्क पहनकर चलते थे. असल में सरकार को मास्क पहनने वालों को मास्क पहनने की और मास्क नहीं पहनने वालों को मास्क पहनने वालों पर नहीं हँसने की ट्रेनिंग देनी चाहिए. जिन्हें अपने जान की बहुत परवाह थी वे हाय-तौबा मचाए हुए थे. हलांकि मुझे भी अपने जान की परवाह थी पर एक पल भी मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं मर रहा होऊं. मेरा जीवन जस का तस नीरस चल रहा था. अपने बाबा की मौत के बाद विनीता ने मुझसे तीन चार बार बात की थी, एक आध बार फोन सेक्स और फिर अचानक एक दिन वह कहाँ गायब हो गयी मुझे पता नहीं चला – कोई सम्पर्क नहीं. मेरा मन हुआ मैं उसे ढूंढता; मगर मैंने अब अपने मन की सुननी बंद कर दी है और चुप रहने की कोशिश करता हूँ हलांकि चुप्पी मुझसे सधती नहीं.

जिम्मेदार लोगों को जिम्मेदार कहते-कहते मेरी ज़ुबान थक गयी है. उनके तो कान पर कोई जूं नहीं रेंगता ऊपर से बकबक करने के जुर्म में मुझे कब पुलिस उठाकर ले जाए इसका कोई अता-पता नहीं. मेरे दिमाग़ में चल रहे विचारों के लिए कब मुझे पुलिस उठा ले जाए, कह नहीं सकते. और उधर, आधा से ज्यादा शहर नींद की गोलियां लेकर सोया हुआ है. अगले दिन अधिक से अधिक वह उठकर अपने दफ्तर के काम-काज निपटाएगा और पूरे दिन घर लौटकर खाने, सेक्स करने और सोने के सपने देखेगा. अगर कूपमण्डूक होगा तो यह भी सोचेगा कि गलती से कंडोम का पैकेट पूजा के कमरे में न रख जाए, मंगलवार के दिन गलती से सेक्स न हो जाए.

रेलवे स्टेशन से जब मैं अपने अपार्टमेंट के दरवाज़े पर पहुँचने ही वाला था मुझे ख्याल आया कि दरवाज़े खुले छोड़कर कमरे के अंदर बैठने पर ऐसा लगता है मानो कमरे के बर्तन में से धीरे-धीरे जगह रिसने लगा हो और कहीं रिसते-रिसते एक दिन यहां जगह कम न पड़ जाए! फिर ताले में चाभी घुमाते मैंने इस उम्मीद से दरवाज़ा खोला कि शायद मैं कमरे में अंदर ख़ुद को पा सकूं. फिर यह छोटा-सा विश्व मेरी तरफ शोर की तरह खुलता है जिसके अंतर्जगत में अपनी लिए थोड़ी सी चुप की जगह बना लेता हूँ. मैं एक अधूरे वाक्य के रिक्त-स्थान की जगह का भुला दिया गया हुआ एक शब्द हूँ और जाने कबसे मैं अपना पीछा कर रहा हूँ. दरवाज़े के ताले में चाभी घुमाते मैं ऐसे ही व्यर्थ की काव्यात्मक पंक्तियों के बारे में सोच रहा था.

अँधेरे कमरे में जब मैंने अपनी परछाई को जैकेट उतरकर हैंगर में लगाते देखा तो ऐसा लगा मानो कंधे से कोई लाश उतार रहा हो.

घर में दरवाज़े की नीचे से किसी ने एक लिफाफा सरका दिया था. उसे खोलकर देखा तो यह विनीता का ख़त था.

 

प्रिय आदित्य,

‘मुझे लगता है मैं राष्कलनिकोव* जैसा महसूस कर रही हूँ – जैसा वह दो हत्याएं करके महसूस करने लगा था. जिस बुखार, शर्म और प्रायश्चित से वह भर गया था मैं भी वैसा ही महसूस करती हूँ. जी में आता है आत्महत्या कर लूं तो शायद इस पीड़ा, बुखार और शर्म से मुक्ति मिले परन्तु ऐसी मनोवस्था में अपने बिचारे परिजनों का चेहरा आंखों के सामने तिर जाता है. अपने पिता का गरीब आशियाना, उनकी पसीने की कमाई का एक-एक पैसा जो मेरे जीवन निर्माण में खर्च हो रहा है उसकी बिना पर मैं और शर्मसार हो जाती हूँ और मेरे सामने इस पीड़ित जीवन को जीने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता. मैं लगातार अपने आप से और न जाने किन-किन ताकतों से लड़ रही हूँ यह मुझे भी नहीं पता और अंततः मुझे यह भी कभी नहीं पता रहा कि मैं अपने बचकानेपन में अपने और दूसरों के लिए ऐसी पीड़ाजनक स्थितियां बना दूँगी, जैसी फिलहाल मेरी ज़िन्दगी और मेरी जिंदगी से जुड़े हुए लोगों के लिए खड़ी कर दीं हैं. 

मेरे हाथ कांप रहे हैं और मुझे खुद भी नहीं पता मैं क्या लिख रही हूँ. मेरे लिखे हुए अधिकतर शब्द गलत टाइप हो जाते हैं और मैं मैं को मैम लिख दे रही हूँ. लिख को लिखख लिख दे रही हूँ. ऐसी अचेतना का कभी शिकार नहीं हुई. बुखार में मैंने कुछ दवाइयां ले लीं थीं और उनका मुझपर न जाने क्या असर होने वाला है. याद है तुम्हें, अक्सर कहते थे कि कभी बैठकर दास्तोयेवस्की पर बातें करेंगे और संयोग देखो कि उसका जिक्र करने के लिए मैंने कैसी स्थिति का चयन किया है? मुझे तुम्हारी याद आती है लेकिन अब हम दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं. बाबा के जाने के बाद मेरा जीवन एकदम बदल गया है. मेरे कुछ कपड़े और किताबें तुम्हारे पास हैं जिन्हें कभी मौका मिलने पर तुमसे ले लूंगी. फ़िलहाल के लिए माफ़ करना. और मेरे लिए एक बार मेरा पसंदीदा वाक्य एक बार जरूर बुदबुदाना, मं कल्पना करके खुश हो लूंगी – ‘बेबी इतने बच्चों का खर्चा कौन उठाएगा?’

एक बार उसने मुझसे कहा था कि हम जिनती बार सेक्स करते हैं उतनी बार बच्चे पैदा हों तो कितना अच्छा लगता न – घर में चारों ओर प्यारे-प्यारे बच्चे होते! मैंने ठहरकर कहा – ‘बेबी, इतने बच्चों का खर्चा कौन उठाएगा?’

तबसे यह वाक्य उसका पसंदीदा बन गया था जिसे वह बार-बार मुझसे बुलवाती.

फिर मैंने बुदबुदाकर कहा – ‘बेबी, इतने बच्चों का खर्चा कौन उठाएगा?’  

फ़िर मैंने उसे कई ख़त लिखे जिन्हें मैंने बाद में फाड़कर फेंक दिया. मैं यह कहना पसंद करता हूँ कि मैंने उसे प्रेम किया था लेकिन प्रेम की इतनी परिभाषाएं पढ़ने को मिलती हैं कि मैं अब निश्चित नहीं प्रेम के बारे में. मैं अक्सर उसके बारे में सोचता हूँ और अगर कई दिन उसे सोचे बगैर गुजर जाते तो वह खुद ब खुद मेरे सपने में आ जाती है.

और ऐसा लगता है मानो जीवन एक बहुत लम्बा लापरवाही का दिन हो और पहला शुरू ही आखिरी समाप्त हो. जैसे कहानी ना हो सच हो और सच ना हों कहानी हों…

____________
shuklaaditya48@gmail.com
Tags: आदित्य शुक्ल
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