साल का सातवाँ गहनअम्बर पाण्डेय |
एक पतली सी गली से मैं जाता था. गली उतनी पतली न थी जितनी चौड़ी उसके दोनों तरफ़ नालियाँ थी जिसकी वजह से चलने को जगह बहुत कम बचती थी. कई बार तो यों होता कि साइकिल आ जाती और नाली में ही एक पाँव रखकर खड़ा होना पड़ता. गली में अक्सर अँधेरा रहता था और ऊपर कपड़े सूखते रहते. गीले कपड़ों से कन्धे और सर भीगना रोज़मर्रा की बात थी. आसमान दर्ज़ी की दुकान पर बची कतरनों जितना गली से दिखाई देता था. हवा घुटी हुई रहती और कुत्ते सोए रहते. ऐसा लगता था कुत्ते उस गली में बस सोने आते थे. कभी कभी गाय आकर बैठ जाती और गली में आना जाना बंद हो जाता. हालाँकि ज़्यादा होता न था मगर कई बार एक गधा आकर गली में बैठा रहता और कई कई दिनों तक न जाता. पहलेपहल लोगों ने उसे डंडे लगाकर भगाना चाहा और जब गधा नहीं गया तो औरतें और बच्चे उसे घास डालने लगे. ऐसे समय गधे के ऊपर चढ़कर लोग निकलते और गधे को कोई फ़र्क़ न पड़ता. वह सोया रहता था.
उस गली से जाने की दो वजहें थी. पहली ये कि रास्ते में भीड़ न रहती थी. गाड़ियों के धुआँ नहीं लगता था और दूसरी जोशीजी का घर रास्ते में पड़ता. जोशीजी उस समय सियागंज में कागदमल एण्ड संस पर मुनीमी करते रहते और घर सूना पड़ा रहता मगर फिर भी मुझे वहाँ से निकलना अच्छा लगता. उनका घर बहुत पुराना था. पत्थर और लकड़ी से बना हुआ. लोहे का बड़ा दरवाजा हमेशा खुला पड़ा रहता और अंदर आँगन में रखी साइकिलें और स्कूटर दिखाई देते. आँगन कच्चा था और कुछेक झाड़ियाँ और बेलें वहाँ लगी थी. अंदर लकड़ी के खम्बों पर उनका घर टिका हुआ था. पाखाना कोने में था. घुसते ही सामने रसोई पड़ती. जो बहुत बड़ी थी. दीवारें धुएँ और तेल से काली पड़ गई थी. जहाँ जोशीजी की बीवी सुलोचनाजी हमेशा बैठी रहती. वह हमेशा चाय छानती हुई मुझे दिखती थी. रसोई का फ़र्श लाल था और गैस का चूल्हा फ़र्श पर ही एक पटिए पर रखा हुआ था. पटिया ईंटों पर टिकाया गया था. पूरी रसोई में अलग अलग रंगों के ढेरों डिब्बे और पूड़े पड़े रहते थे. रसोई से दूसरा कमरा भंडारे का था जहाँ पीतल के बड़े बड़े बर्तन, ऊँची कोठियाँ और ताम्बे के घड़ें, लोहे की बालटियाँ, गायभैंस बाँधने की साँकलें, रस्सियाँ, खुला मूँज, खलबत्ता, सिलबट्टा, खरल वग़ैरह रखे हुए थे.
भंडारे से लगकर मगर अलग पनेड़ी थी. जहाँ मटकों और नाँदों में, दो चार ताम्बे के घड़ों में और बीसेक बालटियों में पानी भरा रहता था. वहाँ की बत्ती हमेशा ख़राब रहती थी बल्कि भंडारे की बत्ती भी बंद रहती. जब भी रात को मर्तबानों से अचार या मुरब्बा निकालना होता तो मोमबत्ती ले जाना पड़ती. ऐसे समय बहुत अफ़रातफ़री मचती और कुछ की कुछ चीज़ निकल आती. कई बार दरवाजे के पीछे रखी नमक की हंडिया फूट जाती. वह हंडिया चीनी मिट्टी की लाई जाती थी और अगर महीने के आख़ीर में टूटती तो जोशीजी कुम्हार से यहाँ से छोटी गगरी और ऊपर ढाँकने को दीया ले आते. खड़ा नमक कूटने का काम जोशी की बेटी अन्नपूर्णा करती थी. खलबत्ते में देर तक कुछ सोचते हुए वह नमक कूटती रहती थी. वह पूड़ेवाला नमक क्यों नहीं लाते ऐसा मैंने कभी उनके घर में किसी से नहीं पूछा. मुझे लगता पूछने पर कहीं वे लोग बुरा न मान बैठे. कई बार मैं नमक की डली गगरी से उठा लेता और लौटते समय संतरे की गोली की तरह चूसता रहता. थोड़ी देर बाद थूक देता और कुत्ता दौड़ा दौड़ा आता. सूंघकर और थोड़ा सा चाटकर वह भी नमक की डली छोड़ जाता.
जोशीजी के घर में पनेड़ी से एक और कमरा खुलता था जहाँ उनके घर के भगवान रखे हुए थे. वहाँ की बत्ती सही काम करती थी और खिड़की न होने के कारण दिन में भी बल्ब जलाकर पूजा पाठ करना पड़ता था. वहाँ तरह तरह की रंगीन तस्वीरें थी जो लोग अलग अलग जगहों से तीर्थयात्रा के दौरान लाए थे. मूर्तियाँ एक लकड़ी की बड़ी अलमारी में जमाई गई थी जिसके पल्ले भगवान को साँस मिलती रहे इसका ख़्याल करके हमेशा खुले रखे जाते थे. वहाँ एक दीया भी सुबह शाम जलता था. कभी कभी जोशीजी का बेटा जगदीश अगरबत्ती जला देता. ऐसे समय सभी को बहुत छींकें आने लगती और पनेड़ी, भंडारे, पूजाघर में जाना मुश्किल हो जाता. सुलोचना जी जगदीश की बहुत डाँटती मगर वह हँसता रहता.
जगदीश के मरने के बाद मैंने जोशीजी के घर जाना शुरू किया था और जगदीश के अगरबत्ती जलाने की बात उनके घर में सुनी थी. जगदीश की तस्वीर पूजाघर में मैंने देखी थी और अगरबत्ती जलानेवाली घटना को तस्वीर के आदमी पर फिट करके मैंने कई बार देखा था और अब ऐसा लगता जैसे मेरे सामने यह बात घटी है. जगदीश बारहवीं पास करने के बाद और बीए में दाख़िला लेने से पहले ही मर गया था. वह कैसे मर गया यह बात मुझे नहीं पता थी और न मैंने कभी जानने की कोशिश की. मुझे बस इतना पता था कि जगदीश जो सुलोचना जी और जोशीजी का बड़ा बेटा था वह मर चुका था. उनके दो बेटे और थे उजागर और धर्मवीर. उजागर का नाम उसके परदादा पण्डित उजागरराम जोशी के नाम पर रखा गया था और धर्मवीर जोशीजी के प्रिय लेखक धर्मवीर भारती के नाम पर. धर्मवीर इंजीनियर बनने की पढ़ाई कर रहा था और उजागर हिंदी साहित्य में एमए.
धर्मवीर और जोशीजी अक्सर सूरज का सातवाँ घोड़ा की भाषा और कथानक की तारीफ़ करते थे. बहुत पुरानी, फटी हुई सूरज का सातवाँ घोड़ा की पतली सी किताब धर्मवीर हमेशा लेकर बैठ रहता था. गुनाहों का देवता नाम की कोई किताब की दोनों बहुत बुराई करते थे. वह किसी खूनी की कहानी थी जिसे अपने किए पर कोई पछतावा न था. यह बात उस किताब के नाम से मेरे दिमाग़ में बैठ गई थी. मैंने अपने तब तक के जीवन में कोई किताब नहीं पढ़ी थी और न बाद में पढ़ी. धर्मवीर को किताब इसलिए भी अच्छी लगती थी क्योंकि उस किताब को लिखनेवाले का नाम और उसका नाम एक था. वह कभी ऐसा कहता नहीं था मगर मुझे पता था कि ऐसा ही होगा क्योंकि अगर मेरे नाम का कोई लेखक होता तो मुझे भी वह किताब बहुत अच्छी लगती.
गली में भूलेभटके ठेलेवाला आ जाता तो गली बिलकुल बंद हो जाती. अक्सर ठेले का पहिया नाली में अटक जाता और माल होने की वजह से भारी ठेला फँसा रहता. ऊँचा नीचा करने पर माल गिरने का अंदेशा होता था इसलिए पहले धीरे धीरे माल उतारा जाता और फिर ठेला नाली से निकाला जाता. इसमें बहुत समय लगता और लोग देखने बाहर आ जाते. देर तक खड़े खड़े बाहर ठेलेवाले की मशक़्क़त देखते रहते. घर से चाय या खाना की बुलाहट होने पर ही अंदर जाते. शाम होते होते ठेलनेवाला ठेला निकालकर वापस सामान ठेले पर जमा लेता मगर उसका दिन ख़राब हो जाता, गाहकी बिगड़ चुकी होती. ऐसे में वह आसपास लोगों के मुँह देखता कि कोई पानी पिला दे. कोई न पिलाता तो अपनी प्लास्टिक की बोतल वह खोजने लगता जो अक्सर नहीं मिलती या ख़ाली मिलती.
जोशीजी के घर में जाने के लिए भी नाली पार करना पड़ती थी. नाली में गंदा पानी बहता रहता और गेंदे के फूल पड़े रहते. कभी कभी नाली में रिबन या किसी की तस्वीर भी तैरती होती. जोशी जी कई बार लोहामंडी से फरशियाँ लाकर घर के सामने नाली को ढाँकने की कोशिश करते ताकि उनके घर की आवक गंदी न लगे और स्कूटर अंदर करने में मुश्किल न हो. फरशियाँ दो चार दिन में टूट जाती या कोई उन्हें ले जाता. आश्चर्य की बात थी कि कोई ऐसा नहीं कहता कि फ़र्शियाँ चोरी हो गई. उस गली में कुछ भी चोरी नहीं होता था. उसके बाद जोशीजी लकड़ी का पटिया नाली पर रखकर स्कूटर निकालते और वापस लकड़ी का पटिया अंदर रखकर आते.
photo by Ashraful Arefin
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गली में पत्थर लगे थे. जो समय बीतने के साथ चिकने हो गए थे और आते जाते कई लोग फिसल जाते थे. ज़्यादातर बाहर के लोग फिसलते थे. गली के लोगों को वहाँ चलने की आदत थी. कई बार नई नई ब्याहकर गई गली की लड़कियाँ जब लौटती तो फिसल जाती ऐसे में दूसरी औरतें कहती कि इतनी जल्दी गली के चिकने पत्थरों पर चलने की आदत छूट गई. ऐसी लड़कियों के नए नए बने पति भी फिसल जाते मगर तब गली भर के लोग दौड़े आते. उन्हें उठाकर अदब से भीतर ले जाते और गिरने की घटना पर न हँसने की कोशिश करते. बाद में बहुत बार गली के चिकने पत्थरों को निकालकर सीमेंट की सड़क बनाने की बात भी चलती. चिकने पत्थर और चिकने होकर अब भी वैसे के वैसे है. बरसात में चलना मुश्किल बहुत मुश्किल हो जाता और इसलिए मैं उस गली से गुजरना और ज़्यादा पसंद करता. मुझे लगता मैं अब फिसला अब फिसला मगर कभी न फिसलता. इसकी वजह थी मैं कुछ भी सोचते हुए नहीं चलता था. मेरे पास सोचने के लिए कोई वजह न थी. मेरे पास सोचने के लिए कोई चीज़ ही न थी. मैं जानबूझकर आसपास चीजें देखकर उनके बारे में सोचने की कोशिश करता था. उनके पीछे क्या हुआ होगा यह सोचता. यही मेरा शग़ल था वरना मैं बेकार था. मेरे जीवन में कुछ नहीं था.
मेरे सब हमउम्र चाहे मेरे रिश्ते के भाई बहन हो या दोस्त दूसरे बड़े शहरों में नौकरी के लिए चले गए थे. कई विदेश में नौकरियाँ कर रहे थे. मेरी पढ़ाई बीए के दूसरे साल ही बंद हो गई थी. फ़िलासफ़ी, मनोविज्ञान और हिंदी साहित्य मेरे विषय थे. फिर पढ़ने से बैराग हो गया. कॉलेज उसके बाद जाना बंद कर दिया. वहाँ मेरे कोई दोस्त भी नहीं थे. मैं नानी के पास रहता था. मेरे माँ-बाप ने मुझे अपने मामा को गोद दे दिया था. मामा के अपने बच्चे होने के बाद मामी उन्हें लेकर पहले उसी शहर में अलग हुई फिर दूसरे शहर चली गई. मैं और मेरी विधवा नानी रह गए. हम नाना की पेंशन पर गुज़ारा करते थे. नानी को अक्सर बहुत कम दिखता था. दिन में ही वह खाना बना लेती और बिस्तर पर जा पड़ती.
सावन के सोमवारों को हम दोनों व्रत रखते थे और परचून की दुकान से लाकर राजगीरे के लड्डू खा लेते. गली पार परचून की दुकान थी. जहाँ राजगीरे के लड्डू मिलते थे. लड्डू बहुत हल्के और फीके होते थे. इन्हें खाकर पानी पी लो तो पेट में जाकर वह फूल जाते और भूख नहीं लगती थी. परचून की दुकान में काँच के सैंकड़ों मर्तबान थे. जिसमें रंगबिरंगी गोलियाँ, चूरन, हक़ीमी नुस्ख़ों के पाउडर, हिना के पूड़े, दालें, सिगरेट रखे रहते थे. दुकान का फ़र्श चीकट है ऐसा देखने पर लगता था हालाँकि कभी मैंने अंदर जाकर महसूस नहीं दिया. काग़ज़ की रिबन के गोले बिक्री के लिए दुकान के कोने पर लटके रहते थे. दुकान में अजीब सी गन्ध भरी रहती. हींग और अजवायन की ख़ुशबू जो तम्बाकू से मिलकर नाक के रास्ते माथे पर चढ़ जाती और लौटते समय चक्कर से आते मगर अच्छा लगता.
दुकान में रोशनी बहुत कम रहती मगर उतनी तो रहती कि काम चल जाता. दुकान में गाहक बहुत कम आते. जो आते वे अक्सर बूढ़े होते. उन्हें चढ़ने में परेशान होती थी क्योंकि दुकान सड़क से बहुत ऊँची थी. दुकान पर चढ़ने के लिए एक चट्टान वहाँ रखी हुई थी. ऊपर किसी ने एक मजबूत रस्सा लटका दिया था जिसे पकड़कर दुकान पर चढ़ना आसान हो जाता था. दुकान का फ़र्श चीकट तो था ही बल्कि पुराने जमाने की तरह सफ़ेद और काले संगमरमर से बना था. सफ़ेद हिस्सें तेल के पीपें रख रखकर धुंधले पड़ गए थे. काला हिस्सा सलेटी हो गया था. तेल के पीपे एक के ऊपर एक रखे रहते थे और तेल ख़रीदने आए गाहक को दुकानदार की तेल निकालने में मदद करना पड़ती थी. तजुर्बा न होने के कारण गाहक तेल गिरा देते थे मगर दुकानदार कुछ नहीं कहता था. वह बस एक कपड़े से तेल जहाँ गिरा हो उस जगह को थोड़ा रगड़ देता था. शीशी में तेल भरकर वह चार बार हाथ पोंछकर रुपया लेता और अंदर चला जाता था. देर बाद अंदर से लौटता तब भी गाहक वही खड़ा मिलता. दुकानदार समझ जाता कि उसने बचे पैसे नहीं दिए. वह मुस्कुराकर पैसे लौटाता और फिर अंदर चला जाता. गाहक घर लौट जाता. दुकानदार ज़्यादातर अंदर ही रहता. गाहक आने पर बाहर आता था.
उस साल सालभर में सात गहन पड़े थे. उस साल सावन भी दो पड़े और सावन में सोमवार नौ. नौ बार मुझे राजगीरे की लड्डू लेने गली पार करके परचून की दुकान पर जाना पड़ा. उस साल मेरे पास सोचने के लिए अपनी नानी का मरना था. वह बहुत बूढ़ी हो गई थी और ऐसा लगता था कि कभी भी मर जाएँगी. वह बात बहुत करने लगी थी और पानी बहुत पीती थी. खाना जैसे तैसे मेरे लिए बना देती थी मगर ख़ुद बहुत कम खाती थी. एक दो निवाले खाकर बर्तन माँजने बैठ जाती. उन्हें मोरी में बैठने में बहुत तकलीफ़ होती थी. कई बार मैं बर्तन माँजता मगर वह मना करती. वह कहती कि मुझे नौकरी करना है. मेरी शादी होगी. ऐसे में बर्तन माँजना मुझपर बिलकुल अच्छा नहीं लगता. उन्हें नहीं पता था मेरी उमर बयालीस साल हो गई थी. मेरे बाल खिचड़ी हो गए थे. वह मुझे डुग्गू डुग्गू कहकर पुकारती रहती थी. उनकी खुद की उमर क़रीब नब्बे थी. उन्हें कुछ याद नहीं रहता था. उन्हें मैं याद दिलाता था कि सावन आ गया. फिर उन्हें याद दिलाता था कि आज सोमवार है. फिर उन्हें बताता था कि आज हमें व्रत रखना है. फिर याद दिलाता कि राजगीरे के लड्डू लाना है.
photo by Ashraful Arefin
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साल में वह बस एक बार बाहर निकलती थी. वह बैंक में इस बात का सबूत देने जाती कि वह ज़िंदा है और उनकी पेंशन दी जाती रहे. पिछले साल उन्होंने मुझे बैंक में बहुत शर्मिंदा यह कहकर किया कि क्या उनके मरने के बाद उनकी पेंशन मुझे मिलती रह सकती है. क्लर्क के वह पीछे पड़ने लगी लिहाज़ा इस साल मैंने उन्हें बैंक न ले जाने का फ़ैसला किया और उन्हें याद नहीं दिलाया. जब वह मुझे उनके खाते में पेंशन आने का पूछती तो मैं झूठ कह देता था. यह ज़्यादा दिन नहीं चल सका. थोड़े दिनों में जब पैसे ख़त्म हो गए तो मुझे उन्हें बैंक ले जाना पड़ा. जहाँ उनका फ़ोटो खींचा गया. उस दिन मुझे लगा कि मुझे भी उनका फ़ोटो खींचना चाहिए. मेरे पास मोबाइल नहीं था. मैं कहीं आता जाता ही नहीं था कि मोबाइल की ज़रूरत पड़े. नानी के जवानी के दिनों के हमारे पास बहुत फ़ोटो थे मगर ताज़ी तस्वीर एक न थी.
एक दिन नानी ने मुझसे परचून की दुकान से इलायची लाने को कहा. इलायची खाने की उन्हें इच्छा हो रही थी. इतने सालों बाद मैंने परचून की दुकान से इलायची ख़रीदी थी. इलायची छोटी छोटी कलियों जैसी लगती थी. ख़ुशबू से भरी हुए बंद कलियाँ. इलायची महँगी भी बहुत थी मगर नानी के खाते में रुकी हुई पेंशन आने के कारण पैसों की कोई कमी नहीं थी. पैसा निकालना अलबत्ता मुश्किल होता जा रहा था. मैं जब भी बैंक जाता बैंकवाले कार्ड बनवाने को कहते थे. वह सीधे खाते से पैसे बस खातेदार को निकालकर देंगे ऐसा कहने लगे थे. क्लर्क मुझे देखते ही नाराज़ हो जाते थे. वह मुझे देखकर भी अनदेखा करते और दूसरे गाहकों से बात करने लगते थे. बहुत देर बैठने के बाद, कभी कभी पूरा दिन वहाँ गुज़ारने के बाद वह पैसें मुझे देते थे.
लौटते समय पानी बरसने लगा. दो सावन होने की वजह से उस साल बहुत पानी गिरा था. गली में पानी भरा हुआ था और मेरे पतलून का निचला हिस्सा पूरा भीग चुका था. छाते के कारण बस सर बचा हुआ था. एक गाय गली में बैठी हुई और रास्ता लगभग बंद था. मैं गाय के किनारे से एक घर की सीढ़ी पर चढ़ा और वह गाय से घिरी जगह पार की. जेब में इलायचियों की ख़ुशबू बार बार मेरी नाक में भर रही थी. जोशीजी के घर का लोहे का फाटक वैसे ही खुला पड़ा था. नाली पर लकड़ी का पटिया देखते ही मैं समझ गया कि जोशी जी अभी अभी आए है. एक बुढ़िया ने मुझसे कहा कि गहन के टेम मैं बाहर क्यों घूम रहा हूँ. हालाँकि यह साल का सातवाँ गहन था मगर इससे पहले गहन देखने का ख़्याल मुझे कभी नहीं आया था. मैंने सर उठाकर छाता हटाया और ऊपर देखा. आसमान बादलों से भरा था इसलिए कुछ भी नहीं दिख रहा था. दिन में अँधेरा ज़रूर हो गया था. दोपहर में अँधेरा होना शायद मेरे जीवन की सबसे बड़ी घटना थी.
ऐसा होते मैंने कभी नहीं देखा था. मुझे घबराहट होने लगी और मैं जल्दी से जल्दी घर जाने के लिए तेज तेज चलने लगा. बरसात तेज हो गई थी और ऐसा लग रहा था मैं सर्दियों में शाम सात बजे गली में चल रहा हूँ. मुझे लगा इस बार मैं फिसल जाऊँगा. मैं इतनी तेज कभी नहीं चलता था. दौड़ा मैं बचपन के बाद कभी नहीं था. मौक़ा ही नहीं आया था. साँस लेने में गली के मुहाने पर रुका तो देखा नाली में धर्मवीर जोशी की किताब सूरज का सातवाँ घोड़ा तैर रही थी. नाली में पानी बहुत तेज़ी से बढ़ने लगा और किताब बरसाती पानी पर तैरती हुई नाली से बाहर निकलकर सड़क पर तैरने लगी. उसी की पुरानी, पतली फटी हुई किताब थी. धर्मवीर अपनी इतनी पसंद की किताब फेंक नहीं सकता ऐसा मैंने सोचा और किताब उठाना चाही मगर अँधेरे और गहन की वजह से मेरा जी अनमना था. पानी घुटनों तक भर आया था इसलिए मैंने घर जाना ही मुनासिब समझा. गली ख़त्म होते ही मैंने एक बार फिर मुड़कर किताब को देखा. वह तैरती तैरती अब जोशीजी के घर से बहुत दूर परचून की दुकान की तरफ़ जा रही थी. भीगकर उसका गत्ता भारी हो गया था और मुझे लगा वह किताब अब डूबने ही वाली है.
फिर अचानक किसी ने घर की तिरपाल लाठी से उचकाई तो पानी का बड़ा रेला किताब पर गिरा और किताब डूब गई. बड़ी देर तक मैं गर्दन मोड़े किताब को आँखों से ढूँढने की कोशिश करता रहा मगर किताब नहीं दिखाई दी. फिर गली में भरे पानी में एक लहर सी आई और किताब उसमें से धीरे से ऊपर आकर दिखाई देने लगी. अब किताब पानी पर सपाट होकर तैरने लगी. किताब की सिलाई उधड़ रही थी. उसका निचला हिस्सा खुल गया और वह किताब से अलग होने लगा. धीरे से अलग होकर वह हल्का होने के कारण धीमे धीमे बह रहा था. ऊपरी हिस्सा उससे आगे निकल गया था.