अम्बर पाण्डेय की कविताएँ |
गंगास्नान
मेरी नानी को गंगास्नान का बड़ा चाव था
मेरे बाबा भी चाहते थे गंगा में लगाना डुबकी
मेरी दादी नहाना भी नहीं चाहती, ठहरी नास्तिक
और मेरे नाना तो भगीरथ के पृथ्वी पर
गंगा लाने से पूर्व ही स्वर्ग सिधार गए थे
मेरे लिए गंगा में डुबकी
और दवंगरा में हठात् फँसना बराबर है
दोनों में दशांश नहीं अन्तर
दोनों में दलकता है मन समान
फिर भी जब जाना ही पड़ा उसके अस्थि विसर्जन को
तो मार दी छलांग नर्मदा में, इसे ही गंगा मानो
पण्डित तो था नहीं सो स्वयं से कहा
बूड़कर जो तिरता है वह बदलकर लौटता है
ऊपर ध्वजा सा दीखने लगता है मस्तक
कायापलट आता है घर
चैत लगा ही था, रोमन कैलेंडर का अप्रैल
वर्ष का क्रूरतम मास
जल न ठंडा था न ताता न जल था न आग
जब नख से शिखा तक डूबकर बैठ गया भीतर
तिरछी, चिक्कण शिला पर तो सोचता रहा
क्या बनकर निकलूँगा बाहर
जो अस्थि लेकर आता है वह क्या लेकर जाता है
या केवल आता है छोड़ने को कुछ या कभी कभी सब कुछ
तालु की अधजली हाड़ जैसे टूटी गागर का तला हो
एक दाँत जिससे चबाता था वह रोटी का कौर
बहुत छोटा बच जाता है विराट जल्दी होता है नष्ट
देखो कहाँ बची उसकी फीमर बोन, रीढ़, पंसलियाँ!
अन्य होकर ही लौटना था मुझे, जिसका अनन्य खो गया
अब वैसा नहीं लौट सकता जैसा था
फेफड़ों तक भरती नर्मदा उससे पहले मैं उछला
और बाहर आ गया, वैसा का वैसा जैसा गया था
देर देर से दिन बीते फिर निमिष में वर्ष बीत गया
रीत गया शोक का घट, पुनः लग गई आग जठर की
इच्छा की, वन की और समुद्र की
ऐसा हो गया जैसा पहले था जैसे जिसकी अस्थि लेकर गया था
उसके बिना ही मैं जन्मा, जीवित रहा और जागा
इसका अर्थ है उस गंगास्नान में जो जल में गया था
वह बाहर नहीं आया था, आया था कोई और
वह कोई निराला ही जन्तु था बंधुओं, जिजीविषा के विष पर जीवित
ऐसे ठान लिया कि जहाँ जल देखूँगा
डूबा नहीं तो डुबकी ज़रूर लगाऊँगा
पण्डित कहते है जल को रहता है सब स्मरण
किन्तु मनुष्य को बहुत भूलना पड़ता है जीवित रहने के लिए.
दिल्ली का सबसे गरम दिन
इतना समय नहीं था कि प्रणय कलह करते,
बहुत जल्दी में मिले थे हम और बहुत थके हुए थे
दिल्ली के सबसे गर्म दिन
भूखे भी बहुत थे और हमारा खाना आने में बहुत देर थी
दही और खिचड़ी की प्रतीक्षा करते
मैंने जब उसका चुम्बन लिया
तब उसके बिना कहे मैं समझ गया कि उसे प्यास लग रही है
हाथ की पहुँच में उस भरी गर्मी की दोपहर
कोई मटका नहीं धरा था न कोई सुराही ही लुढ़क गई थी
होटल के उस पलंग के नीचे
बहुत देर से खाना आया बहुत देर से पानी बहुत देर के बाद
हम दोनों आए थे एक दूसरे के जीवन में
खीजे हुए, हर किसी से ग़ुस्सा और प्रेम से गले गले तक भरे
उसने कहा कंठ के नीचे ही है प्रेम के स्थान
फिर कहा हाँ कभी कभी बौद्धिक संवाद के लिए
उससे जिसे हम प्रेम करते है सिर काम आ जाता है
मगर प्रेम केतु की तरह मुण्डविहीन ही है
दिल्ली के उस सबसे गरम दिन फिर अचानक बादल घिर आए
खिचड़ी की थाली में पड़ी काली मिर्ची तारों की तरह चमक रही थी
आकाश के थाल में पड़े तारों की तरह नहीं बल्कि आँखों के तारों की तरह
जो अपलक नेत्रों से निहार रहे थे हम दोनों के मध्य
उदित अदृश्य चन्द्रमा को
उसके बाद कई दिनों तक मैं अपने प्रेम पर संदेह करता रहा
नशे में कही बातों का कोई ठिकाना है!
उसने कई बार मुझसे पूछा, तुम जो कह रहे हो
वह सच में मानते हो या तुम्हारे मुंह से शराब बोल रही है
मैं बड़बड़ाए जा रहा था प्रेम में डूबे वचन
वह एकटक देख रही थी
जैसे उसके नेत्र कान बन गए थे
वह पूछना चाहती थी
कि क्या सुबह तुम अपनी कही इन बातों पर अडिग रहोगे?
उसने पूछा नहीं न उस रात न दूसरे दिन सुबह
सच और झूठ से परे है प्रेम का स्थान उसने कहा
सही और ग़लत से परे भी
फिर भविष्य की चिन्ता करके कौन करता है प्रेम
भविष्य की चिंता करके तो व्यापार किया जाता है
हमारा निवेश तो शुरू से ही घाटे का है,
तुम्हें डर नहीं लगता कि ऐसी बातें बनाकर मैं तुम्हारा शोषण करके
निकल न लूँ.
कर भी लोगे तो क्या ले जाओगे! जो दे ही दिया
उसे छीनने या छल से हथियाने की तुक है!
उसके बाद देर तक कविता जैसा कुछ घटा
फिर कविता पर बातें हुई, फिर कविता सा कुछ घटा
चार के पाँच बज गए और खिड़की से जब थोड़ा थोड़ा
प्रकाश दीखने लगा जैसे गाय के थन से सुबह सुबह
दूध की पहली धार गिरती है घड़े की धातु पर बजती हुई
मेरी नींद लग गई वह कुछ कहती रही जयशंकर प्रसाद की
किसी कविता के बारे में
नींद लगने से ज़रा पहले मैंने देखा
यह जो चन्द्रमा उदित हुआ है हमारे मध्य, यह चन्द्रमा नहीं है
यह उसके कंधे की ऊपर मेरे काटे का नीला निशान है
चन्द्रमा के आकार का.
चन्द्रमा जिसे संस्कृत में शशांक भी कहते है
मेरा पिछले बरस मरा भाई शशांक
इस सृष्टि का सबकुछ शोक में बदल जाता है अंततः
किन्तु यदि इस शोक पर तुम करो चित्त एकाग्र तो हाथ लग जाता है
चन्द्रमा जिसे देने को मैं कितने दिनों से ढूँढता था तुम्हें.
शुक्र तारा
जागते है जन जैसे शुक्र तारा देखने को, जागता रहा
कि तुम आओगी.
बहुतों ने बतलाया शुक्र नहीं है
तारा, ग्रह है और यह भी कहा तुम्हारा और मेरा गृह
नहीं है यह मध्य मार्ग एकाकियों का टकरा जाना
है.
शुक्र इतना दीप्त जैसे उस रात को तुम्हारे कानों के
दो कर्णफूल थे, लचक बहुरि अपने स्थान पर
थिरनेवाले ज्यों उस दिन तुम्हारा मन था, जो आते आते
मुझ तक पुनः अपने स्थान थिर जाता था.
दूरी का
प्रेम अनुमान अधिक है- एक दूसरे से कितने दूर
है, आँख मींचकर वह रास्ता नापना और कि उसे
पार करने में जो समय लगेगा उसे जोड़ना, अँधेरे
जगत में जब चन्द्रमा नहीं, न नभचर, न तारे
यह भृगुनन्दन कम से कम जगमगाता तो है.
इसे देखने के लिए कितने
ब्रह्ममुहूर्तों को मैं अलार्म लगा जागा हूँ.
देखना
आते जाते, सँकरी गली में, झुटपुटे में देखता हूँ तुम्हें
पड़ जाता हूँ तब एक विचित्र दार्शनिक चिन्ता में-
मेरी पुतलियाँ तुम तक जाती है या तुम इन तक हो
आती और इतने पास दोनों के आ जाने पर भी क्यों
रह जाती है तुम्हारी श्याम ग्रीवा अस्पृश्य?
विज्ञान का गुरु मित्र बताता है रश्मियों
और छाया का चाक्षुष बिम्ब
बनता है और जो देखता हूँ वह तुम नहीं, अवसर
हाथ लगते जब तुम्हें छूता हो वह भिन्न है कोई.
ऐसे वह सभी इंद्रियों को अलगा देता है, तुम्हें देखना,
सुनना, छूना असम्भव करता लौटता है मुस्काता.
मैं कपाल तक ओढ़कर कम्बल तुम्हें इन सभी भिन्न
भिन्न ऐंद्रिक अनुभवों से गढ़ता हूँ एक, अनूठी.
पिताजी माँ से रसोई में बथुए के गुण है
बतलाते.
मातृभाषा
आँखों में आँखें देकर देखना मेरी मातृभाषा है इसलिए
बहुत चुप हूँ मैं.
चन्द्रबिन्दु सी चमकती उसकी
पुतलियों ने पूछा था मुझसे, यह जो कविता बन रही है
हमारे बीच इस भीड़भाड़ में, पाठ कितने लोग
इसका कर रहे है.
किसी से मिलो कभी तो झंकृति सी बनी
रहे दिनों तक आँखों की भाषा को संगीत में ऐसे लो
तुम बदल ज्यों शुद्ध कामना
प्रेम में बदल जाती है.
मेरा इसी भाषा से चल जाता काम
यदि मुझे लिखना न पड़ती यह कविता.
महात्म्य
उसने कहा बहुत रोने से नर कंचन हो जाता है और
अपने तीन नयनों से रो रो राधा-माधव सा दीखने लगा.
उसने कहा मन्दिर में जा, रो प्रभु के कलेवर के आगे.
रो संकोच छोड़.
रोना नहीं आए तो?
अरे, इतना रुदन भरा
है, ऐसा कोई नहीं है जिसने मन से पुतलियों तक माला
अश्रुओं की न पहनी हो.
रोना क्यों नहीं आएगा!
जैसे भीतर
चेतना वैसे रोना भी.
करना नहीं लज्जा रोने और खाने में.
फिर परोस दिया नया भात-अरहर की दाल.
तब मुझे
इतना रोना आया कौर तक खा नहीं पाया.
रो कभी सोए क्या?
सो देखना नींद ऐसी स्वच्छ कि लगे गहरी न हो और ऐसी
गहरी कि अगाध राशि स्वप्नों की ढेरियाँ.
वाक्
अशरीरी से जब उसने स्वयं का कलेवर गढ़ा होगा
उससे पहले बोलने तो लगा होगा वह. स्वयं से
बात करता होगा. वह यों विचारता होगा अहोरात्र कि
कैसे एक से बहुत हो जाना चाहता है.
भाषा आई
उसके पास सर्वप्रथम.
मेरे निकट भाषा तुम आई तो बहुत देर से. देह
पा चुका था, जीवन थोड़ा जी
चुका था.
पीछे तुम आई हो, पूर्णरूपेण भी कहाँ आई? मैं
यह पूरी सृष्टि भाषा की मंजूषा में भूषणों सी रख
करूँ यात्रा उतने चाहिए शब्द, उतने अर्थ, अलंकार
मुझे.
अभी तो मुझे सभी अपनी अस्थियों के नाम भी
नहीं ज्ञात, अभी तो पाकर तुम्हें निकट मैं जो अनुभव
करता हूँ वह चिन्तना अनाम्नी है.
ढूँढता हूँ वर्षों
से मैं किसी पुरातात्त्विक की भाँति अपनी मज्जा से बुहार
-झाड़कर धूल अपनी आत्मा का शब्दकोश बृहद.
अम्बर पाण्डेय
कवि-कथाकार ‘कोलाहल की कविताएं’ के लिए २०१८ का अमर उजाला ‘थाप’ सम्मान.
ammberpandey@gmail.com
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अम्बर पांडेय की कविताएँ पढ़ना इस सुबह की बड़ी समर्थ घटना है।इन कविताओं में अम्बर ने विराट परिदृश्य समेटने का प्रयत्न किया है।सधी हुई भाषा,चित्त और चेतना का टकराव,निष्कवच खड़ा है यह कवि हमारे सामने जब कहता है,”अन्य हो कर ही लौटना था मुझे
जिसका अनन्य खो गया”
सभी कविताओं में मौलिकता और तापमान महसूस होता है।समालोचन का आभार इस पाठ के लिए
बुद्धि और चित्त लगा कर पढ़ लें , फिर कुछ कह पाएं।
अंबर कविता में ठस्स निश्चयात्मकता को तोड़ते हैं। यथार्थ घुल जा रहा है फौरी जीवन में घिस से गए उदात्त के नैरंतर्य को खोजता हुआ।बिंब भी एक उलट पलट निर्मित करते से हैं और भाषा की लीला का तो कहना क्या।
आख्यान अपने बंकिम के साथ नया मेल बना रहा है इन कविताओं में।
अम्बर जी असाधारण लेखक हैं और उनकी कविताएँ भी।
जीवन और मृत्यु के बीच प्रेम के पेंडुलम सी झूलती कविताएँ ।
कवि और समालोचन को बधाई।
सुन्दर कविताएँ ,
शुक्रिया कवि, समालोचन।
तरल, मोहती हुई कविताएँ जिनमें विचार भी अपने प्रवाह में है, बोझिल नहीं करता, जैसे भाषा के सौन्दर्य में डूबते हुए एकाएक हथेली में कुछ अमूल्य डाल दिया गया हो ज्यों बचपन में खुली हुई हथेली पर मनपसंद टॉफ़ी चुपके से रख कर मुट्ठी बांध दी जाती थी।
गंगास्नान कविता मृत्यु पर होकर भी निराश नहीं करती, ना ही किसी व्यर्थ की अव्यवहारिक, अदम्य जिजीविषा का उपदेश देती है। यह बस किसी नदी सी ही बह जाती है। बाक़ी कविताओं में भी प्रेम और जीवन की छोटी छोटी घटनाओं के बीच सुंदर दृश्यात्मकता रची गयी है। अरुण जी ने इन कविताओं के बारे में बहुत सटीक टिप्पणी की है कि हर अति से बचते हुए ये मध्यम मार्ग की कविताएं हैं जहां कविता में विशुद्ध कविता तो है लेकिन शिल्प, विचार, स्मृति, कल्पना सब कुछ ठीक उतनी ही मात्रा में है, जितना एक कविता को चाहिए होता है।
अम्बर की इन कविताओं को पढ़ना मई की इस उमस में बारिश की हल्की फुहार पड़ने जैसा है। अम्बर कविताएं लिखते वक्त सचमुच आलसी और उतावले साथ साथ दिखते हैं, कविता में जिस मितकथन की बात की गई है वह भाषिक होने के साथ अर्थ के अंतर्गुफन में भी निहित होती है। यहां अम्बर प्रेम को जिस शिल्प में रचते हैं वह उसे एक नया अर्थ देते हुए कला में जिस अघटित का जिक्र है, उसे बहुत सुंदरता से निरूपित करता है। प्रेम कविताओं की यह श्रृंखला बहुत सुंदर है और मुझे भी लगता है कि अभी अंबर के झोले में और भी कविताएं हैं। समालोचन और प्रिय कवि अम्बर को हार्दिक बधाई
‘गंगास्नान’ का स्वर ‘एलिजायक’ (शोक कविता-जैसा) है। वाचक किसी प्रिय के अस्थिविसर्जन और उसके बाद से इन पंक्तियों के कहे जाने तक के कालखंड की बातें बयान करता है।शुरूआत की पंक्तियां विश्वास और अविश्वास के बीच झूलते वाचक की मनःस्थिति का संकेत देती हैं। इसके लिए वह अपने पितामह-पितामही और मातामह- मातामही को परस्पर विरोधी विचारों के रूपक के वेश में आगे करता है। उसके मन में संशय है। गंगा में डुबकी लगाने के बारे में वाचक कहता है कि यह पहली बरसात में कहीं निराश्रय फंस जाने-जैसा है। जाने क्या हो!
इस संशय में फंसा वाचक प्रियजन की अस्थियां लेकर नदी में कूद पड़ता है। कोई पंडित नहीं है तो वह स्वयं कुछ मंत्र जैसा बुदबुदाता है। वास्तविक मंत्र में ऐसा कुछ कहते हैं, ( हे प्रेत!) तुम नया रूप ग्रहण कर ब्रह्मलोक को प्रस्थान करो। वाचक इसके उलट यह कहता है कि मैं स्वयं अन्य रूप में लौटना चाहता हूं। जिस प्रियतर के वियोग का अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ उसकी मत्यु का इतना तो प्रभाव वाचक पर होना ही चाहिए। परंतु वह तद्वत् पानी के बाहर आ जाता है – कोई अंतर नहीं।
समय बीतता है। उसके साथ संसार और काया के व्यापार वाचक को अपना जीवन पूर्ववत् जीने को बाध्य करते हैं।
तो क्या वाचक अपरिवर्तित नहीं रहा, जैसा उसने पहले सोचा था? प्रियजन के अस्थि-विसर्जन के बाद का जीवन पहले से भिन्न और मानो अकारथ है? जिजीविषा, जो अमृत थी, अब विष है?
वाचक एक बार फिर जल में अवगाहन करना चाहता है। कहते हैं जल को सब कुछ याद रहता है! वाचक उसका अवगाहन कर प्रिय की स्मृति के दंश को पुनर्नवा करना चाहता है।
मंत्र का संदर्भ बता चुका हूं। अप्रैल महीने के उल्लेख में टी एस एलियट का संदर्भ है।
जठराग्नि, दावाग्नि और बडवाग्नि का एक साथ उल्लेख जगद्व्यापार का रूपक है।
यह संक्षिप्त सारांश है। इसके सहारे पाठकों को कविता के बारीक शिल्प को आविष्कृत करने में सहायता हो तो अपने को कृतकृत्य मानूंगा।
प्रेम कविताएं
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उपरोक्त कविता और अंतिम कविता को छोड़कर बाकी कविताएं प्रेम कविताएं मालूम होती हैं। अब तक मैं अम्बर पांडेय की प्रेम कविताओं के बारे में कोई समझ नहीं बना पाया हूं।
यथासमय लिखेंगे।
क्या बात है. अद्भुत कविताएं.
अंबर पांडेय जानते हैं कि कविता को सिर्फ़ वे नहीं गढ़ते। कविता के भीतर उपस्थित हुए किसी मोड़ पर भाषा अचानक स्वयं कविता लिखती है।वह भाषा, जिसे हमने नहीं गढ़ा। वह भाषा जो उन्हीं के शब्दों में ‘ देर से आई है’ उनके पास! यह पंक्ति देखिए– “ वह चिंतना अनाम्नी है” या “ अगाध राशि स्वप्नों की ढेरियां” यह शब्द संकुल अचानक जन्मता है कविता के भीतर जो स्वयं कवि को और इसलिए हमें चकित करता है अपने विन्यास से☘️
अब इससे विपरीत जान पड़े, ऐसी बात यह कि बड़ी राहत होती है अंबर पांडेय की प्रेम कविताओं में उन्हीं– उन्हीं बेचैनियों, चंद्रमा आदि के बिंब को पा कर, कि चलो, दुनिया इतनी भी नहीं बदल गई☘️☘️☘️
अंबर पांडेय की कविताओं का इंतज़ार रहता है☘️