Poetry is everywhere; it just needs editing.
James Tate
मैं और मेरी कविताएँ (५) : अम्बर पाण्डेय |
मैं कविताएँ क्यों लिखता हूँ
अम्बर पाण्डेय
मेरी कविताएँ फंतासियाँ हैं. जो भी संसार में मैं पा नहीं सका मेरी कविताएँ उनकी सृष्टि करने का प्रयास है. किसी महान आदर्श से संचालित न होकर मेरा काव्यसंसार रत्न, रेशम, मोरपंख, मसाले, ऊद-चन्दन से लदा एक जहाज है जो अतृप्ति के समुद्र पर यात्रा करता है. मेरे लिए सौंदर्य की सृष्टि ही जीवन और जगत में जो भी पाप उसका प्रतिकार है. इसे कोई अधीर पलायन कह सकता है किन्तु पुण्यश्लोक को खोजना प्रतिरोध के असंख्य प्रकारों में से एक ही तो है.
कविता विषय कषाय मन में ही हो सकती है. दूसरी और मैंने अपने जीवन का अधिकांश भाग वेदान्ताध्ययन, पूजापाठ, मंत्रों, निध्यासन और स्वयं को भाँति भाँति की यातनाएँ (sort of penances) देकर नष्ट करने के प्रयास में व्यतीत किया है.
छोटी वय में ही विभिन्न संघर्षों में डाल संसार ने मुझे जैसे बहिष्कृत कर दिया था किंतु जीवन के प्रति संसार के प्रति गाढ़ आसक्ति का बीज मैं अपने साथ ले आया.
उसी बीज से मैंने कविता में उस संसार उस जीवन की प्रतिकृति गढ़ ली- एक प्रकार का प्रतिसंसार. मेरा संसार काल्पनिक है. कुछ लोग, हिंदी भाषा के ही बहुत लोग; उसकी यह कहकर भर्त्सना भी करते है. (आपको तो ज्ञात है ही.)
यह संसार उसकी कल्पना है जो संसार में रहना चाहता था किंतु इस संसार ने ही उसे निष्कासित कर दिया- a type of unrequited love for the normal life which i couldn’t afford.
आश्चर्य नहीं कि मेरी कविताएँ और गद्य का बहुत सारा भाग अतीत में विचरण करता है क्योंकि मेरे लिए वर्तमान में कविता सम्भव ही नहीं. सूज़न हाउ ने हेनरी जेम्स के विषय में कहीं लिखा है,
“But Henry James is – profoundly so (comforting). Because he is tender. The tenderness is there in the structure of the sentence. He knows the way the poor and the dead are forgotten by the living, and he cannot allow that to happen. So he keeps on writing for them, for the dead, as if they were children to be sheltered and loved, never abandoned.”
मेरी कविताएँ भी मृतकों के लिए ही है. पढ़ते भले उसे जीवित हो मगर वह सम्बोधित उन्हें ही है जो लौटकर नहीं आ सकते, जो भुला दिए गए है. इस संवाद को सम्भव करने के लिए समकालीन भाषा मेरे बहुत काम की नहीं थी, मुझे उसे बहुत तोड़ना पड़ा. समकालीन भाषा की स्मृति बहुत कमज़ोर थी और स्वर्गीयों का स्मरण करने के लिए, उनसे संवाद के लिए स्मृति बहुत बलवान होनी चाहिए. मैं सिनेमा का विद्यार्थी रहा हूँ. पढ़ाई के बाद मैंने देखा कि सिनेमा बनाना बहुत महँगा काम है और जो बातें मुझे सिनेमा के माध्यम से कहना है उसके लिए मुझे बहुत पैसे की ज़रूरत होगी. तब मैंने लिखना शुरू किया. मैं बहुत देर से लेखक बना और विस्मृति के विरुद्ध जो भाषा मुझे चाहिए थी, वह भाषा मैंने साहित्य से अर्जित नहीं की बल्कि सिनेमा से की. यही कारण है कि विस्मृति के अंधे कुँए में मैं निर्भय भ्रमण करता हूँ.
भाषा और बोलियों के प्रति मेरे मन में लगभग ऐंद्रिक कामना है, मैं बहुत सी भाषाएँ, बोलियाँ, creole और लिपियाँ सीखता रहता हूँ, सीखना चाहता हूँ. क्लासिकल भाषा, स्थानीय बोलियाँ या राजभाषाओं में फ़र्क़ है, मेरे लिए कविता उस फ़र्क़ के अतिक्रमण का भी साधन रही है. देवताओं का creole में अचानक बोल पड़ना, subaltern का देवभाषा में संवाद करना या केवल भाषा का उपयोग करना भर मेरे लिए कविता है. मध्यकालीन केथोलिक दार्शनिकों की तरह मैं भाषा को ईश्वरप्रदत्त भेंट भी मानता हूँ और आधुनिकों की तरह सुदूर इतिहास से अब तक मनुष्यों द्वारा गढ़ा-उजाड़ा जाता अभिव्यक्ति का साधन, यह दोनों जिस गंगासागर में मिलते है वहीं कविता है.
प्राचीन वैयाकरणों ने शब्दब्रह्म के विवर्त को संसार माना, मेरे निकट कविता आधी शब्दब्रह्म में और आधी विवर्त में है. फिर मोन्तें भी लिखने को बहुत (या केवल) गम्भीरता लेने पर चेताता है,
“’Our life consists partly in madness, partly in wisdom,’” he wrote. ‘Whoever writes about it merely respectfully and by rule leaves more than half of it behind.’ Michel de Montaigne.
जो रचा गया है वह टेक्स्ट तो केवल दीये की तरह है- सोने का हो, मिट्टी का, नया हो या अनेक वर्षों के उपयोग के कारण एकदम काला पड़ गया हो, क्या अंतर पड़ता है क्योंकि जब वह जलाया जाता है तब दृष्टि की ज्योति के अनुरूप ही उससे सब अपना अपना आलोक ग्रहण करते है.
वसन्त की रातें
दर्शन पढ़ने से अच्छा है कि दर्शन हो तुम्हारे; वसन्त
की इन ऊष्ण होती रातों को. मन में लिए लिए सृष्टि
भटकना ही तुषारपात है. कवि वह कितना अकेला
है, जिसका मन कविता
हो गया है और विषय भी
भीतर है. बाहर न ब्रह्म न बन्धु कोई. तुम्हें देखकर
प्रथम बार मैंने जाना फाल्गुन पंचांग का अंतिम
महीना नहीं, सच में आता है.
दुनिया ढोते मन का भार
उतरा. पत्र पुरातन झड़ गए. कोंपलों से भर
गए पोर पोर. एक से दो हुए. ख़ुद को बाँटकर दो में,
फिर फिर एक होना ही वसन्त है, शहद का छत्ता
है; हाथ तक आता और है
भ्रमरों की भरमार आँखों के
आसपास. डंक मारेंगे यह, इसकी सम्भावना भी.
आसापुरा के आगे खेत और वन दोनों है
धूप बेर के झाड़ों के नीचे सोने के
रंग की नहीं हुई है अभी तक. बेर-बरन
छाँह छाँह बीच सो रही. तिथि से तो नींबू
को पक जाना था अब तक. पर्व से धूप को
नींबू के छिलके की तरह भरना था गन्ध
और स्वाद से. दूर से देखने पर नदी
दर्पण सी चमकती है मगर निकट से नदी
शीतल और शान्त बह रही है. सोने के
गहनों सी सूखी डालें झुकी जल पर, गन्ध
से भरी है हवा; तराशे स्फटिक के बरन-
वाली. धूप सी खालवाले मृग धूप को
खाल समझ ओढ़े हैं. चिड़ी कुतरती नींबू.
इच्छुक
इच्छा का विभुवन औंधा है .
भोगायतन दीवट की भाँति
जर्जर होता गया पर ज्योत
इच्छा की जगमग रहती है.
दीवट घोड़े की लीद छबा.
दीपक भी है टूटाफूटा,
कज्जल से कालू. बाती ली
माढ़ फटी कछनी के सूतों
से फिर भी उजियाला जगमग,
जागरित, जी जोड़नेवाला
ही होता है. इच्छा के इस
संदीप का उजेला है यह
जगत. बुढ़ाती देह कामना
वैसी ही है ताजा-तरुणी
आखेट की फिराक में तरुण-
ताजा की. अन्धेर भले हो
बाहर, भीतर दीवट जर्जर.
उज्जवल है तब भी कामना
का कोना.
हाँ, मेरा-उसका लफड़ा था
गंध जापानी चेरी के फूलों जैसी आती है उसकी पीठ की
त्वचा से. कारोबार है बहुराष्ट्रीय इस समय
के. दूर निशिनोमरो वन से बनकर आई है उसके
तरल साबुन की शीशी.
व्यायामशाला में बना हुआ
मेरा शरीर वह अपनी खिड़की से देखती रहती है
“क्या अवसन रहने का प्रण लिया है अवसान
तक तुमने?” कवि को प्रेम
करते उसका विनोद हो गया इतना भाषिक. टीशर्ट
उतारकर गेंद बना मैं उसकी खिड़की में फेंक
देता हूँ. गंध उस टीशर्ट में जापानी चेरी की नहीं, गन्ध
है पसीने की और छेद जिन्हें उसने उँगली डाल
जानबूझकर बड़ा कर दिया था. हृदय नहीं त्वचा है
शरीर का सबसे बड़ा अंग और इसी के कारण
सम्भव है प्रेम. तलवों की मृदुल और कसी हुई त्वचा
से स्तनों की त्वचा कितनी भिन्न और तुम्हारी कॉलर
की हड्डियों पर चढ़ी त्वचा कैसे मुड़ती है कंधों में खोती
हुई जैसे अनारफल का छिलका रंग बदलता
जाता है जो हाथों में लेकर उसे घुमाओ तब. सबसे है
कोमल त्रिवली, तुम्हारे कामुक होने का पता मुझे
यही देती है ज्यों लता पर बंधूक खिल जाता है. त्वचा में
तीर के धँसने या चाक़ू घोंपने के अनेक चित्र है
दुनिया के अजायबघरों में मगर अब तक किसी ने
देर तक हृदय स्थान की इसी त्वचा को चूसने के
बाद पड़े धब्बे का चित्र न बनाया, क्या बेधना ही सबसे
सुन्दर जैसे उन्हें बस भीतर तक धँसनेवाला
प्रेम ही श्रेय है जैसे कि स्त्री
और पुरुष के मध्य केवल कामुकता अनैतिक है.
मुक्तिबोध के पीछे सीबीआई
तुम तो बड़े कवि थे मैं हूँ छोटा आदमी
किन्तु हम दोनों डरते रहे देखकर पुलिस.
कविता, दस इंच बाय सात इंच की किताब
में जो लिखी थी हमने अँधेरे के विरोध
में, देखो, वही अँधेरे की बेलें बनकर
फैल गई भीतर. भागते है देख वर्दी.
डिटर्जेंट, मार्क्स, सच से भी हम वर्दी
धो नहीं पाए है. पहना है जो आदमी
इसे, जो इसे देता है- सुथरा है. बनकर
घूम रहा शाह, वज़ीर, मुंसिफ, अफसर, पुलिस
हमलोग चूहे बन गए है अपने विरोध
से खुद ही डरे हुए. क्या कर लेगी किताब!
रोज़ा लक्सम्बुर्ग का शव
“Freiheit ist immer die Freiheit des Andersdenkenden”
(Rosa Luxumburg born: 05/03/1871 Death: 15/01/1919)
भौंहों के बीचोंबीच बंदूक़ की गोली से हुए छिद्र से पानी
टपकता है कवियों के लिए सबसे सुन्दर दृश्य.
फिर कोई विदेशी इतना विदेशी नहीं होता कि उसके
विचार से प्रेम न किया जा सके. चार मास पुराने
शव की नदी से होती वह भव्य लड़ाइयाँ इतिहास के
विषय और कविता की निराशा ही नहीं है. (पंक्तियाँ
यहाँ की कवि से खो गई है,
यों कवि ने बताया.) मछलियों
ने प्रेम किया चार मास रोज़ा लक्सम्बुर्ग के शव से
नदी में. उस शव को एक दिन अचानक मनुष्य आए
निकाल ले गए. स्वतंत्र चेता मनुष्य का माँस छह
हाथ के गड्डे में ठूँसकर क्या मिलेगा, मछलियाँ सोचती
रही. विचित्र है मनुष्यों की रीतियाँ. अपने सबसे
प्रिय मनुष्यों को बक्सों में क्यों रखते है या किताबों में दोनों
को जबकि नष्ट किया जा सकता है. रोज़ा लक्सम्बुर्ग
को खा अपना भाग बनाया जा सकता था. शून्य से भी कम
तापमान में दिनों तक रोज़ा लक्सम्बुर्ग नदी में खो
चुकी कितनी सुन्दर देती थी दिखाई. राइफ़ल की नली
माथे पर मारने पर विचार नष्ट नहीं होता है.
आँखों के बीच गोली चला भी विचार नष्ट नहीं कर सके
होंगे वह. शव को नदी में ज़ोर से फेंक देने पर
भी विचार बचा रह गया मगर याद रखो विचार है
सबसे कोमल संसार में, प्यार में पड़ी धोबन की
हथेलियों से भी कोमल है.
(२०१९ को रोज़ा लक्सम्बुर्ग की मृत्यु को सौ वर्ष पूरे हो गए.)
पीछा करना
बीतने दो कुछ वर्ष फिर उसके पीछे पीछे भटकने
की बात याद कर तुम लजाओगे या हँसोगे खूब.
कैसे उसके पीछे मुड़ने पर सिनेमा के अभिनेताओं
की तरह तुम जूते के फ़ीते बाँधने लगते.
पीछे
सौंदर्य के नष्ट हो जाने में कितना सौंदर्य है यह तुम
मन ही मन जानते हो पर किसी से कहोगे नहीं.
तल्ला कई बार बदला है; उन्हीं जूतों में चल सको पर
फ़ीते धागा धागा हो गए.
धूप में तेज चलना अब
सम्भव नहीं. पीछे पलट वह देखे अचानक फ़्लमिंगो
की तरह तो तुम मुड़
नहीं पाते उतनी जल्दी न
नाटक कर पाते हो उसे न देखने का. पुतलियाँ फँस
रह जाती है सुन्दरता पर, डुलती नहीं,
अकड़ूँ
हो गई है. सौन्दर्य उसका
वैसा ही रहा जैसे कवियों के
मन में चन्द्र की उपमा
रह गई, अब भी नवीन,
अब भी कौंधनेवाली मन में. अंधा करनेवाली उसकी
सुन्दरता, आँखें चौंधिया जाती और कुछ दिखाई न
देता. फ़्लमिंगो जैसे कभी भी उसका पीछे देखने लगना
वैसा का वैसा रहा और नहीं बदली चौराहों पर
बने फ़व्वारों का गंदा पानी पीने की उसकी आदत, वैसी
ही रही प्यास, वैसी ही है ओक से पानी पीने की रीति.
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