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Home » हे रा म: दास्तान-ए-क़त्ल-ए-गांधी: कृष्ण कल्पित

हे रा म: दास्तान-ए-क़त्ल-ए-गांधी: कृष्ण कल्पित

राष्ट्रपिता गांधी की हत्या भारतीय सभ्यता का ऐसा घाव है जो अभी भी खुला हुआ है और दुखता रहता है. महात्मा गांधी की हत्या के कई संगठित प्रयास ३० जनवरी, १९४८ से पहले भी हुए थे, संयोगवश उनसे वह बच गये थे. गांधी-सप्ताह की दूसरी प्रस्तुति में कृष्ण कल्पित की यह काव्य-कथा प्रस्तुत है.

by arun dev
October 2, 2022
in विशेष
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हे रा म: दास्तान-ए-क़त्ल-ए-गांधी:  कृष्ण कल्पित
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काव्य-कथा
हे रा म: दास्तान-ए-क़त्ल-ए-गांधी 

कृष्ण कल्पित

 

जिससे उम्मीदें-ज़ीस्त थी बाँधी
ले उड़ी उसको मौत की आँधी
गालियाँ खाके गोलियाँ खाके
मर गये उफ़्फ़ ! महात्मा गांधी !

-रईस अमरोहवी

 

(१)

दिल्ली में वह मावठ का दिन था.

३० जनवरी, १९४८ को दोपहर ३ बजे के आसपास महात्मा गांधी हरिजन-बस्ती से लौटकर जब बिड़ला-हॉउस आये तब भी हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी.

लंगोटी वाला नंगा फ़क़ीर थोड़ा थक गया था इसलिये चरखा कातने बैठ गया थोड़ी देर बाद जब संध्या-प्रार्थना का समय हुआ तो गांधी प्रार्थना-स्थल की तरफ़ बढ़े.

कि अचानक उनके सामने हॉलीवुड सिनेमा के अभिनेता जैसा सुगठित-सुंदर एक युवक सामने आया जिसने पतलून और क़मीज़ पहन रखी थी.

नाथूराम गोडसे नामक उस युवक ने गांधी को नमस्कार किया प्रत्युत्तर में महात्मा गांधी अपने हाथ जोड़ ही रहे थे कि

उस सुदर्शन युवक ने विद्युत-गति से अपनी पतलून से Bereta M 1934 semi-automatic Pistol निकाली और

धाँय धाँय धाँय !

शाम के ५ बजकर १७ मिनट हुये थे नँगा-फ़क़ीर अब भू-लुंठित था हर तरफ़ हाहाकार कोलाहल कोहराम मच गया और हत्यारा दबोच लिया गया.

महात्मा की उस दिन की प्रार्थना अधूरी रही.

आज़ादी और बंटवारे के बाद मची मारकाट लूटपाट साम्प्रदायिक दंगों और नेहरू-जिन्ना-मण्डली की हरक़तों से महात्मा गांधी निराश हो चले थे.

क्या उस दिन वे ईश्वर से अपनी मृत्यु की प्रार्थना करने जा रहे थे जो प्रार्थना के पूर्व ही स्वीकार हो गयी थी !

 

(२)

दक्षिण अफ़्रीका से लौटकर आने के बाद भारतभूमि पर गांधी की हत्या की यह छठी कोशिश थी

हत्या की चौथी विफल कोशिश के बाद, जब उस रेलगाड़ी को उलटने की/क्षतिग्रस्त करने की साज़िश रची गई जब गांधी बंबई से पुणे जा रहे थे – महात्मा गांधी ने कहा था: मैं सात बार मारने के प्रयासों से बच गया हूं. मैं इस तरह मरने वाला नहीं हूं. मैं १२५ वर्ष जीने की आशा रखता हूं.

इस पर पुणे से निकलने वाले अख़बार ‘हिंदू राष्ट्र’ ने लिखा कि आपको इतने साल जीने कौन देगा ?

गांधी को नहीं जीने दिया गया. गांधी के हत्यारे और ‘हिंदू राष्ट्र’ के संपादक का एक ही नाम था: नाथूराम गोडसे !
गांधी की हत्या के देशव्यापी असर के बारे में एक अंग्रेज़ पत्रकार डेनिस डाल्टन ने लिखा: गांधी की हत्या ने विभाजन के बाद की सांप्रदायिक हिंसा का शमन करने का काम किया. गुस्से, डर और दुश्मनी से उन्मत्त भीड़ जहां थी वहीं ठिठक गई. अंधाधुंध हत्याओं का दौर थम गया. यह भारतीय जनता की गांधी को दी गई सबसे बड़ी और पवित्र श्रद्धांजलि थी !

(3)

१९३४ में हिंदुओं की राजधानी पुणे की नगरपालिका में गांधी का सम्मान समारोह आयोजित था. समारोह में जाते हुए गांधी की गाड़ी पर बम फेंका गया लेकिन संयोग से गांधी दूसरी गाड़ी में थे. बहुत लोग घायल हुए लेकिन गांधी बच गए.

१९१५ में भारत आने के बाद गांधी पर यह पहला हमला था.

अपने पुत्रवत सचिव महादेव देसाई और पत्नी कस्तूरबा की मृत्यु से गांधी विचलित थे. आगाखान महल से गांधी को जब लंबी कैद से रिहा किया गया तब वे बीमार और कमज़ोर थे. उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए पंचगनी ले जाया गया. वहां भी हिंदुत्ववादी नारेबाज़ी और प्रदर्शन करने लगे और एक दिन एक उग्र युवा छुरा लेकर गांधी की तरफ़ लपक/झपट रहा था कि भिसारे गुरुजी ने उस युवक को दबोच लिया.

गांधी ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाने से मना किया और उस युवक को कुछ दिन अपने साथ रहने का प्रस्ताव दिया जिससे वे जान सकें कि युवक उनसे क्यों नाराज़ है ?

लेकिन युवक भाग गया. इस युवक का नाम भी नाथूराम गोडसे था. यह गांधी की हत्या का भारत में दूसरा प्रयास था !

(4)

मोहनदास अब महात्मा था !

रेलगाड़ी के तीसरे-दर्ज़े से भारत-दर्शन के दौरान मोहनदास ने वस्त्र त्याग दिये थे.

अब मोहनदास सिर्फ़ लँगोटी वाला नँगा-फ़क़ीर था और मोहनदास को महात्मा पहली बार कवीन्द्र-रवींद्र ने कहा.

मोहनदास की हैसियत अब किसी सितारे-हिन्द जैसी थी और उसे सत्याग्रह, नमक बनाने, सविनय अवज्ञा, जेल जाने के अलावा पोस्टकार्ड लिखने, यंग-इंडिया अख़बार के लिये लेख-सम्पादकीय लिखने के साथ बकरी को चारा खिलाने, जूते गांठने जैसे अन्य काम भी करने होते थे.

राजनीति और धर्म के अलावा महात्मा को अब साहित्य-संगीत-संस्कृति के मामलों में भी हस्तक्षेप करना पड़ता था और इसी क्रम में वे बच्चन की ‘मधुशाला’, उग्र के उपन्यास ‘चॉकलेट’ को क्लीन-चिट दे चुके थे और निराला जैसे महारथी उन्हें ‘बापू, तुम यदि मुर्गी खाते’ जैसी कविताओं के जरिये उकसाने की असफल कोशिश कर चुके थे.

युवा सितार-वादक विलायत खान भी गांधी को अपना सितार सुनाना चाहते थे उन्होंने पत्र लिखा तो गांधी ने उन्हें सेवाग्राम बुलाया.

विलायत खान लम्बी यात्रा के बाद सेवाग्राम आश्रम पहुंचे तो देखा गांधी बकरियों को चारा खिला रहे थे यह सुबह की बात थी थोड़ी देर के बाद गांधी आश्रम के दालान में रखे चरखे पर बैठ गये और विलायत खान से कहा- सुनाओ.

गांधी चरखा चलाने लगे घरर घरर की ध्वनि वातावरण में गूंजने लगी.

युवा विलायत खान असमंजस में थे और सोच रहे थे कि इस महात्मा को संगीत सुनने की तमीज़ तक नहीं है.

फिर अनमने ढंग से सितार बजाने लगे महात्मा का चरखा भी चालू था घरर घरर घरर घरर

विलायत खान अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि थोड़ी देर बाद लगा जैसे महात्मा का चरखा मेरे सितार की संगत कर रहा है या मेरा सितार महात्मा के चरखे की संगत कर रहा है.

चरखा और सितार दोनों एकाकार थे और यह जुगलबंदी कोई एक घण्टा तक चली वातावरण स्तब्ध था और गांधीजी की बकरियाँ अपने कान हिला-हिला कर इस जुगलबन्दी का आनन्द ले रहीं थीं.

विलायत खान आगे लिखते हैं कि सितार और चरखे की वह जुगलबंदी एक दिव्य-अनुभूति थी और ऐसा लग रहा था जैसे सितार सूत कात रहा हो और चरखे से संगीत निसृत हो रहा हो !

(5)

जिस सुबह गांधी चरखा चलाते हुए युवा विलायत ख़ान का सितार वादन सुन रहे थे उसी दिन दोपहर उन्हें देश के सांप्रदायिक माहौल पर मुहम्मद अली जिन्ना से बात करने मोटरगाड़ी से बंबई जाना था.

कि अचानक वर्धा के सेवाग्राम आश्रम के द्वार पर हो-हल्ला होना शुरू हुआ. सावरकर टोली यहां भी आ पहुंची थी. गोलवलकर भी. वे नहीं चाहते थे कि गांधी और जिन्ना की मुलाक़ात हो. वे सेवाग्राम आश्रम के बाहर नारेबाज़ी करने लगे. पुलिस ने युवकों को गिरफ़्तार करके जब तलाशी ली तो ग. ल. थत्ते नामक युवक की जेब से एक बड़ा छुरा बरामद हुआ.

यह गांधी हत्या की तीसरी कोशिश थी. उनकी यही कोशिश थी कि जैसे भी हो गांधी को ख़त्म करो !

(6)

गांधी की वास्तविक हत्या से केवल दस दिन पूर्व गांधी को मारने की एक और विफल कोशिश हुई.

एक दिन पूर्व ही गांधी ने आमरण अनशन तोड़ा था. गांधी संध्या प्रार्थना कर रहे थे कि दीवार की ओट से मदनलाल पाहवा ने निशाना बांधकर बम फेंका लेकिन निशाना चूक गया. इसी अफरा तफरी में विनायक दामोदर सावरकर और उनके साथी को पिस्तौल से गांधी की हत्या करनी थी लेकिन वे भाग छूटे.

गांधी फिर बच गए. शरणार्थी मदनलाल पाहवा को पकड़ लिया गया लेकिन असली अपराधी गायब हो गए. वे मुंबई से सावरकर का आशीर्वाद लेकर रेलगाड़ी से दिल्ली आए थे और दिल्ली के मरीना होटल में रुके थे.

पाहवा से पुलिस ने पूछताछ की तो उसने चेतावनी देते हुए कहा था: वे फिर आयेंगे !

(7)

इस बार गोडसे अपने साथी आप्टे के साथ विमान से दिल्ली आया. सावरकर ने इस बार उन्हें वही बात कही जब १९०९ में लंदन में विली की हत्या से पहले धींगरा से कहे थे: इस बार भी यदि विफल रहे तो आगे मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना.

दिल्ली. बिड़ला हाउस. पांच बजकर सत्रह मिनट.

धांय धांय धायं !

गांधी मरते नहीं
लेकिन इस बार नाथूराम मोहनदास को मारने में सफल रहा !

(8)

भारत लौटने से पूर्व दक्षिण अफ़्रीका में भी गांधी को मारने की कोशिश हुई. जब कड़कड़ाती सर्दी में युवा मोहनदास को रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी के डब्बे से बाहर फेंका जाता है. यह भी हत्या का ही प्रयास था.

१८९६ को जब गांधी छह महीने के प्रवास के बाद जहाज से अफ्रीका लौट रहे थे तो वहां के अख़बारों ने गांधी के विचारों को तोड़ मरोड़ कर प्रकाशित किया जिससे वहां के गोरे भड़क उठे. जब गांधी का जहाज अन्य यात्रियों के साथ डरबन पहुंचा तो प्रशासन ने यात्रियों को तीन सप्ताह तक जहाज से उतरने की इज़ाजत नहीं दी. बाहर उग्र भीड़ गांधी की प्रतीक्षा में थी.

जहाज के कप्तान ने गांधी को कहा: आपके उतरने के बाद बंदरगाह पर खड़े गोरे आप पर हमला कर देंगे तो आपकी अहिंसा का क्या होगा ?

गांधी ने कहा : मैं उन्हें क्षमा कर दूंगा. अज्ञानवश उत्तेजित लोगों से मेरे नाराज़ होने का कोई कारण नहीं.

आखिरकार कई दिनों के बाद यात्रियों को जहाज से उतरने की इज़ाजत मिली. गांधी को कहा गया कि वे अंधेरा होने पर जहाज से निकलें लेकिन गांधी ने इस तरह चोरी छिपे उतरने से इंकार कर दिया और दोपहर को जहाज से निडरता से निकले. भीड़ ‘बदमाश गांधी’ को पहचान गई और लोग गांधी को पीटने लगे. इतना पीटा कि गांधी बेहोश हो गए.

बड़ी मुश्किल से तब उधर से गुज़र रही डरबन पुलिस अधिकारी की पत्नी ज़ेन एलेक्जेंडर ने बचाया !

और इससे पूर्व जब गांधी पहली बार अफ़्रीका में जेल से बाहर आए और एक मस्जिद में भारतीयों की एक सभा को संबोधित कर रहे थे तब मीर आलम ने पूछा कि असहयोग के बीच सहयोग कहां से आ गया. उसने गांधी पर आरोप लगाया कि १५ हज़ार पाउंड की घूस लेकर गांधी सरकार के हाथों बिक गया है. यह कहकर उसने गांधी के सर पर ज़ोर से डंडे से वार किया. गांधी बेहोश हो गए. मीर आलम और उसके साथी उस दिन गांधी को मार देना चाहते थे लेकिन गांधी किसी तरह बच गए.

गांधी जब होश में आए तो पूछा: मीर आलम कहां है ? जब पता चला कि उसे पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है तो गांधी बोले: यह तो ठीक नहीं हुआ. उन सबको छुड़ाना होगा.

जब मीर आलम जेल से बाहर आया तो उसे अपनी गलती का अहसास हो चुका था. बाक़ी ज़िंदगी मीर आलम ने गांधी के सच्चे सिपाही की तरह बिताई !

(9)

‘जिस तरह हिंसक लड़ाई में दूसरों की जान लेने का प्रशिक्षण देना पड़ता है उसी तरह अहिंसक लड़ाई में ख़ुद की जान देने के लिए ख़ुद को प्रशिक्षित करना होता है!’

महात्मा गांधी की हत्या
शहादत थी या आत्म-बलिदान या आत्मोत्सर्ग था
या महात्मा की मृत्यु
सत्य का अंतिम प्रयोग था

या फिर सत्य, अहिंसा और स्वराज के लिए
दी हुई निस्वार्थ कुर्बानी !

(१0)

वास्तविक हत्या के दस दिन पूर्व बम हमले में बच जाने पर गांधी को दुनिया भर से बधाई संदेश मिल रहे थे. लेडी माउंटबेटन ने तार में लिखा: आप की जान बच गई आप बहादुर हैं.

गांधी ने माउंटबेटन के तार का उत्तर दिया: यह बहादुरी नहीं थी. मुझे कहां पता था कि कोई जानलेवा हमला होने वाला है. बहादुरी तो तब कहलाएगी जब कोई सामने से गोली मारे और फिर भी मेरे चेहरे पर मुस्कान हो और मुंह में राम का नाम हो !

मरने के बाद भी गांधी को मारने की कोशिशें जारी हैं
लेकिन गांधी मरते नहीं
वे जीवित रहते हैं
जो मृत्यु से डरते नहीं

हे राम !
____________

 

Gandhi-assassination



कृष्ण कल्पित
30–10–1957, फतेहपुर (राजस्‍थान) 

भीड़ से गुज़रते हुए (1980), बढ़ई का बेटा (1990), कोई अछूता सबद (2003), एक शराबी की सूक्तियाँ (2006), बाग़-ए-बेदिल (2012), हिन्दनामा (२०१९), रेख्ते़ के बीज और अन्य कविताएँ (2022)  आदि कविता संग्रह प्रकाशित
एक पेड़ की कहानी : ऋत्विक घटक के जीवन पर वृत्तचित्र का निर्माण

K 701, महिमा पैनोरमा,जगतपुरा,
जयपुर 302017
krishnakalpit@gmail.com

Tags: 20222022 विशेषकविताकृष्ण कल्पितगांधी की हत्या की कहानीगांधी सप्ताहगाँधी-हत्या
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Comments 17

  1. Pushpa Tiwari says:
    6 months ago

    कल्पित जी जानलेवा ( जानदेवा ) लिखते हैं एक सांस में तो नहीं एक सिटिंग में पढ़ गई। थोड़ा-बहुत ज्ञान भी बढ़ा और यही लगता है मुझे जब से गांधी को पढ़ा समझा कि जिस देश में गांधी सुरक्षित नहीं वहां बाकी क्या चाहें ।

    Reply
  2. Sadanand Shahi says:
    6 months ago

    मार्मिक,जीवंत और आवश्यक।

    Reply
  3. Hardeep Singh says:
    6 months ago

    सत्य, अहिंसा और स्वराज के लिए
    दी हुई निस्वार्थ कुर्बानी
    कृष्ण कल्पित जी इस मार्मिक आलेख के लिए आभार

    Reply
  4. कुमार अम्बुज says:
    6 months ago

    दिलचस्प, पठनीय और व्यंजक संक्षेप।

    Reply
  5. विनोद मिश्र says:
    6 months ago

    बा की छवि के बाद कृष्ण कल्पित की इस काव्य कथा को पढ़ना बहुत अच्छा लगा। कृष्ण कल्पित उन कवियों में से हैं जो पाठक से संवाद कर लेने की सामर्थ्य रखते हैं।

    Reply
  6. Daya Shanker Sharan says:
    6 months ago

    बहुत प्रभावी इतिवृतात्मक काव्यात्मक आख्यान।सबकुछ आँखों के सामने किसी फ्लैशबैक की तरह घटित।लेकिन अमरोहवी की उद्धृत नज्म उतनी संवेदित नहीं करती।इनमें तुकबंदी (एवं रूपवाद) है।कृष्ण कल्पित जी एवं समालोचन को साधुवाद!

    Reply
  7. Devi Prasad Mishra says:
    6 months ago

    बिना रोये इस गांधी वृत्त को कैसे पढ पाएँ, क्या बताएंगे, कल्पित जी!

    Reply
  8. राजेन्द्र दानी says:
    6 months ago

    कृष्ण कल्पित ने बहुत मार्मिकता से इतिहास को दुबारा लिख दिया । बेहद पठनीय ।

    Reply
  9. नेहल शाह says:
    6 months ago

    जिन्होंने गांधी-वध की साज़िश रची और उसको अंजाम दिया उन्होंने दरअसल अपनी अज्ञानतावश गांधी जी को उनके बाद की पीढ़ी में हमेशा के सिद्धांत के रूप में स्थापित कर दिया।
    कृष्ण कल्पित Sir से हाल ही में मुलाकात हुई थी। जितना सरल वे लिखते हैं वे उतने सरल व्यक्तित्व भी हैं। बहुत ही भावपूर्ण काव्य- कथा। हर शब्द दृश्य की तरह घटित हुआ।
    समालोचन को इस श्रृंखला के लिए बधाई एवं शुभकामनाएं! आगे की प्रस्तुति का भी इंतजार है।

    Reply
  10. Mangal Murty says:
    6 months ago

    अकेला सच ही होता है जिसको मारने की कोशिश बराबर ज़ारी रहती है, क्योंकि वह किसी तरह, कभी नहीं मरता!

    Reply
  11. डॉ. भूपेंद्र बिष्ट says:
    6 months ago

    कृष्ण कल्पित की यह काव्य कथा इतिहास के कुछ अदेखे पन्नों को समकाल की फाइल में नत्थी करने का ज़रूरी काम करती लगी. गांधी जी की करुणा, सदाशयता और मानवीयता को जिस तरह संध्या – प्रार्थना के उनके नियम और चरखे को लेकर उनकी प्रतिबद्धता के साथ एक लय में पिरोया गया है, उससे गांधीपन विराट होता गया है और सारे हत्यारे कातर, लघु बनते चले गए हैं.

    कृष्ण कल्पित दुखद वृतांतों को पुनर्वार सामने रखने में तब जो कमी रह गई हो, उसका परिमार्जन सा करने में निष्णात हैं : गर्मियों में मुक्तिबोध की मृत्यु हुई/ मैं दाह-संस्कार में गया था/ जीते-जी मुक्तिबोध की एक भी किताब नहीं छपी/ बहुत उपेक्षा हुई/ वह महान कवि था/ मुझे लगा/ मुझे भी कुछ छोड़ना चाहिए/ और मैंने वहीं घाट पर जूते छोड़ दिए. ….
    (बाग़-ए-बेदिल).

    Reply
  12. Farid Khan says:
    6 months ago

    गांधी हत्या पर इतनी मार्मिक कविता जैसी कहानी या कहानी जैसी कविता पहली बार पढ़ी है. और भी कई बार पढ़ूँगा.

    Reply
  13. Richa Pathak says:
    6 months ago

    आपका शोध हतप्रभ करने वाला है। ये वाकई बिलकुल नयी जानकारी है। हम नयी पीढ़ी को गाँधी जी को जानने की कोशिश दे सकें, ये अभी का बहुत जरूरी काम तर गाँधी जी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

    Reply
  14. Krishna kalpit says:
    6 months ago

    Kalbe Kabir जी 🙏 नमस्कार करता हु अपको! आपके विचार भाव और लेखिनी में जो सुरीलापन है, उसके साथ साथ मैं पढ़ते हुए एक लय का अनुभव करता है। सुर भी आपका, लय भी आपकी ! दोनो के एकवाक्यता आपके निश्छल गांधी प्रेम का प्रमाण मैं मानता हूं. अन्यथा अलग अलग प्रसागो के बीच ऐसे लय बद्ध , सुरीला सहज बहाव नही अनुभव किया जा सकता ! अनेक साधुवाद ! याद करने के लिए विशेष आभारी हूं।

    यह विख्यात गांधीवादी राजीव वोरा की टिप्पणी है ।

    Reply
  15. dilip tanwar says:
    6 months ago

    आपकी लेखनी में जो पैनापन है,कलेजा काट देता है, साधुवाद

    Reply
  16. Sadashiv Shrotriya says:
    6 months ago

    कृष्ण कल्पित सचमुच एक बड़े कवि हैं क्योंकि वे बहुत सी भिन्न और असमान सी लगने वाली घटनाओं में भी समानता ढूंढ लेते हैं । उस्ताद विलायत खां वाले प्रसंग को भी इस संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए । अहिंसा की साधना करना चाहने वालों के लिए भी वे कुछ महत्वपूर्ण गाइड लाइन्स छोड़ते हैं और अमरत्व को नये ढंग से परिभाषित करते हैं । उनके इस लेखन में गद्य और पद्य भी अविभाज्य रूप से घुल-मिल गए हैं । उनके कवि को सलाम !

    Reply
  17. Niwas Chandra Thakur says:
    6 months ago

    वाह। गांधी मरते नहीं

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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