‘लहू है कि तब भी गाता है’: एक अछूत परिवार की संघर्ष-गाथाशुभनीत कौशिक |
संविधान सभा में दिये गए अपने आख़िरी प्रसिद्ध भाषण में डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने भारत को ‘श्रेणीबद्ध असमानताओं का समाज’ बताते हुए कहा था कि
‘26 जनवरी 1950 के दिन हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीतिक तौर पर तो हम समान होंगे, पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता पहले की तरह ही मौजूद होगी. राजनीति में तो हम ‘एक व्यक्ति एक वोट, एक वोट एक मूल्य‘ के सिद्धांत को स्वीकार कर लेंगे. लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हिंदुस्तान की सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं के चलते ‘एक व्यक्ति एक मूल्य‘ के सिद्धांत को नकारते रहेंगे.’
अकारण नहीं कि संविधान सभा को स्पष्ट शब्दों में आगाह करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि जब तक राजनीतिक लोकतंत्र की बुनियाद में सामाजिक लोकतंत्र न स्थापित हो जाए, अकेले अपने दम पर राजनीतिक लोकतंत्र अधिक समय तक नहीं चल सकता.
स्वाधीन भारत में सामाजिक-आर्थिक स्तर पर हर कहीं दिखने वाले इन्हीं अंतर्विरोधों, असमानताओं की कहानी है सुजाता गिडला की किताब ‘एंट्स एमंग एलीफ़ेंट्स : एन अनटचेबल फ़ैमिली एंड द मेकिंग ऑफ मॉडर्न इंडिया’ (हार्पर कॉलिन्स, 2017). एक दलित परिवार के जीवन-संघर्षों को बयान करते हुए यह किताब आधुनिक भारत में दलित समुदाय की संघर्षों की गाथा बन जाती है. एक व्यक्ति, परिवार, समुदाय की इस कहानी को ऐतिहासिक संदर्भ में रखते हुए सुजाता उसे आधुनिक भारत के स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र-राज्य के रूप में उभरने की परिघटना से जोड़ देती हैं. इसी क्रम में वे जाति, धर्म, संपत्ति, सामाजिक हैसियत और जेंडर के अंतरसंबंधों की भी पड़ताल करती हैं.
आत्मकथात्मक भूमिका से शुरू होने वाली यह किताब दलित अनुभवों के कहानी बनने की प्रक्रिया की महत्ता को रेखांकित करती है. सुजाता के शब्दों में, ‘नए देश में आकर नए दोस्तों के साथ रहते हुए मुझे एहसास हुआ कि जो कुछ मेरे परिवार के साथ घटा, जो कुछ हमने किया. वह ऐसी कहानी है जो सुनाई जानी चाहिए, जो कि लिखी जानी चाहिए.’ इस वाक्य के पीछे वह साहस खड़ा है, जो अपनी जातिगत अस्मिता को लेकर अब कतई असहज नहीं. वह उसके प्रकट हो जाने को लेकर भय से ग्रस्त नहीं है. यह आत्म-सम्मान का वह गहरा एहसास है, जो अब अपने और अपने परिवार की कहानियों को शर्म की कहानी मानने से या उन्हें कहते हुए शर्माने से इंकार करता है. अपने अनुभवों को लिखने-सुनाने के इस साहस ने दलितों को अपना अतीत भूलने की बजाय, उसे याद करते हुए अपने वर्तमान अनुभवों के आलोक में एक बेहतर भविष्य रचने का जीवट दिया है. इसी जीवट की ओर इशारा करते हुए दया पवार ने अपनी आत्मकथा ‘अछूत’ में लिखा था :
‘मैंने भी भूतकाल को पूरी तरह भूल जाने की कोशिश की. पर क्या इतनी सहजता से भूतकाल पोंछा जा सकता है? कुछ दलितों को यह कूड़ा-करकट बाहर उलीचने जैसा लगता है. परंतु आदमी यदि अपना भूतकाल नहीं जानता तो वह अपना भविष्य भी तय नहीं कर सकता.’
‘एंट्स एमंग एलीफ़ेंट्स’ अवमानना के उन अनुभवों की कहानी है, जिनसे हर दलित अपने जीवन में दो-चार होता है. अवमानना की वे जगहें गाँव, शहर, शिक्षण संस्थान, कार्य-स्थल कुछ भी हो सकते हैं. आईआईटी, मद्रास जैसे उत्कृष्ट संस्थान में पढ़ते हुए भी सुजाता को अवमानना के इन अनुभवों से गुजरना पड़ा. उल्लेखनीय है कि अभी कुछ वर्षों पहले ही जब आईआईटी, मद्रास में छात्रों द्वारा चलाए जा रहे ‘आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल’ पर बगैर किसी कारण के प्रतिबंध लगा दिया था. तब आंबेडकरवादी छात्रों ने इस संस्थान के सवर्ण चेहरे को उजागर करते हुए इसे ‘अय्यर-आयंगर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ कहा था. पचास के दशक के आख़िरी वर्षों में सुजाता की माँ मंजुला को बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते हुए भी कुछ ऐसे ही पीड़ादायी अनुभवों से गुजरना पड़ा था. अतीत के उन पीड़ादायी अनुभवों को याद करते हुए, उन्हें लिखते हुए व्यक्ति फिर से उन अनुभवों को जीता है, उनकी त्रासद पीड़ा से होकर गुजरता है. पीड़ा के इस दोहरे अनुभव के बारे में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा ‘जूठन’ में ठीक ही लिखा था :
‘एक लंबी जद्दोजहद के बाद, मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरू किया. तमाम कष्टों, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा. उस दौरान मैंने गहरी मानसिक यंत्रणाएँ भोगीं. स्वयं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए कई बार लगा- कितना दुखदायी है यह सब.’
सुजाता के अनुसार, अवमानना की यह प्रक्रिया पड़ोस से ही शुरू हो जाती है, जहाँ एक सवर्ण हिन्दू अपने दलित पड़ोसी की उपस्थिति को स्वीकार करने से इंकार देता है, वह उसकी मौजूदगी को दर्ज़ ही नहीं करता. यह बाबूराव बागुल जैसे दलित चिंतकों का अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि उन्होंने अवमानना के अनुभवों और उससे जुड़ी धारणाओं से गुजरते हुए सृजनात्मकता के सूत्र तलाशने की कोशिश की. बाबूराव बागुल ने अवमानना को ऐसी चेतना के रूप में देखा, जिसकी धार तलवार जैसी तीक्ष्ण और प्रखर है. राजनीतिविज्ञानी गोपाल गुरु बागुल की इसी सृजनात्मक पहल के बारे में अपने लेख
‘अवमानना के आयाम’ में लिखते हैं ‘बागुल के लिए अछूत, मृत्यु, पंच महाभूत अथवा अग्नि की तरह है जिनका आलिंगन नहीं किया जा सकता. बागुल की दुनिया में अवमानना एक पवित्र आग की तरह क्रांतिकारी-चेतना के कुंड में दहकती रहती है. उसी से उत्पीड़क के खिलाफ़ प्रतिरोध और विद्रोही स्मृति का जन्म होता है.’
सुजाता गिडला श्रेणीबद्ध असमानता के प्रति भी सजग हैं और इस क्रम में आंध्र के दलित समुदायों की बात करते हुए वे माला समुदाय के लोगों द्वारा ख़ुद को मदिगा आदि दूसरी दलित जातियों से श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति को भी दर्शाती हैं. वे जातिगत विषमता और अवमानना के साथ जेंडर आधारित असमानता, घरेलू हिंसा का विवरण भी देती हैं. यह लैंगिक असमानता एक ओर सत्यमूर्ति द्वारा राजनीतिक सक्रियता के चलते अपनी पत्नी के प्रति घोर उदासीनता और अपने पारिवारिक दायित्वों की सिरे-से उपेक्षा करने में, प्रसन्ना राव द्वारा अपनी पत्नी और तीन बच्चों को वर्षों के लिए अकेले और बेसहारा छोड़ जाने में सामने आती हैं. वहीं दूसरी ओर, यह घरेलू हिंसा के उस वातावरण के रूप में भी प्रकट होती है, जिसमें सुजाता की माँ मंजुला अपने पति प्रभाकर राव द्वारा मानसिक और शारीरिक रूप से लगातार प्रताड़ित की जाती है.
माला समुदाय की सामाजिक पृष्ठभूमि की बात करते हुए सुजाता उस ऐतिहासिक प्रक्रिया का विवरण देती हैं. जिसके अंतर्गत जंगलों में रहने वाला एक ख़ानाबदोश समुदाय ब्रिटिश नीतियों के चलते एक जगह बसने और खेती करने को विवश हुआ. यहीं से आधुनिक भारत में उसके पराभव, विस्थापन और उत्पीड़न की कहानी भी शुरू होती है. जहाँ उसके द्वारा साफ की गई बंजर जमीन, उसकी बरसों की मेहनत से तैयार हुए उपजाऊ खेत धीरे-धीरे उसके हाथों से निकलकर एक-एक कर सवर्ण जमींदारों और महाजनों के हाथ में चले जाते हैं. वह पहले घुमंतू और ख़ानाबदोश से किसान बनता है और अंततः एक भूमिहीन मजदूर में तब्दील हो जाता है. हिन्दू समाज उसे अछूत का दर्जा देता है और इस तरह उसे उसकी स्मृतियों, विश्वासों, मिथकों और किंवदंतियों से भी वंचित कर देता है.
औपनिवेशिक नीतियों ने सदियों तक पारंपरिक हिन्दू समाज की सीमाओं से परे रहने समुदायों को नए क़ानूनों और बदलावों की जद में लाया. इसकी बानगी देते हुए सुजाता यनाडी आदिवासियों का उदाहरण देती हैं, जो निजी संपत्ति की धारणा के विरुद्ध थे. इसी कारण वे धनी लोगों के घरों में चोरी करना अपना कर्तव्य समझते थे. ब्रिटिश राज ने संपत्ति और स्वामित्व संबंधी अपनी मान्यताओं के प्रतिकूल व्यवहार करने वाले यनाडी जनजाति जैसे समुदायों को ‘क्रिमिनल ट्राइब’ घोषित कर दिया था. 1871 में पहले-पहल ब्रिटिश सरकार ने उत्तर भारत में ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ लागू कर अनेक आदिवासी और घुमंतू जतियों को ‘आपराधिक जाति’ घोषित किया. इसके ठीक चालीस साल बाद ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ मद्रास प्रेसीडेंसी में भी लागू हुआ, जिसके तहत येरुकुल, कोरावा, कोराचा जैसी दक्षिण भारत की जनजातियों को अपराधी करार दे दिया गया.
समाजशास्त्री मीना राधाकृष्णन ने घुमंतू जातियों और ब्रिटिश राज के बीच होने वाली मुठभेड़, ‘क्रिमिनल ट्राइब’ की नई श्रेणी (कैटेगरी) की निर्मिति, औपनिवेशिक सरकार द्वारा ऐसे समुदायों की पहचान के लिए अपनाई गई पद्धतियों और सर्विलांस के तरीकों का गहन अध्ययन अपनी किताब ‘डिसऑनर्ड बाय हिस्ट्री : “क्रिमिनल ट्राइब्स” एंड ब्रिटिश कॉलोनियल पॉलिसी’ में किया है. इस संदर्भ में, इतिहासकार भांग्या भुक्या की पुस्तक ‘सब्जुगेटेड नोमैड्स’ भी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जोकि हैदराबाद में निज़ामशाही के काल में तेलंगाना क्षेत्र की एक ऐसी ही घुमंतू जनजाति लंबाड़ा के ऐतिहासिक अनुभवों को दर्ज़ करती है.
हिन्दू समाज के पूर्वाग्रहों और औपनिवेशिक नीतियों का शिकार बने एक ऐसे ही घुमंतू समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लक्ष्मण गायकवाड़ ने अपनी प्रसिद्ध आत्मकथा ‘उचल्या’ (हिंदी में ‘उठाईगीर’/ ‘उचक्का’ शीर्षक से प्रकाशित) में लिखा था :
‘जिस समाज में मैं जन्मा उसे यहाँ की वर्ण-व्यवस्था और समाज-व्यवस्था ने नकारा है. सैकड़ों नहीं हजारों वर्षों से मनुष्य के रूप में इस व्यवस्था द्वारा नकारा गया मेरा यह समाज पशुवत जीवन जीने के लिए मजबूर किया गया. अंग्रेज़ सरकार ने तो ‘गुनहगार’ का ठप्पा ही हमारे समाज पर लगा दिया और सबने हमारी ओर गुनहगार के रूप में ही देखा और आज भी उसी रूप में देख रहे हैं. रोजी-रोटी के सभी साधन और सभी मार्ग हमारे लिए बंद कर दिए गए और इस कारण चोरी करके जीना यही एक मात्र पर्याय हमारे सम्मुख शेष रह गया. संभवतः विश्वभर में हमारी एकमात्र जाति होगी जिसे जन्म से ही गुनहगार घोषित किया गया है, जिनके माथे पर जन्म से ही ‘अपराधी’ की मुहर लगाई गई है.’
सुजाता गिडला की यह किताब एक दलित परिवार के टूटने-बिखरने, बिखरकर एकजुट होने की साहसिक गाथा है. इस कहानी में जहाँ एक ओर सुजाता की माँ मंजुला के खम्माम परिवार की दास्तान है, जिसमें मंजुला के दो भाई सत्यम यानी के.जी. सत्यमूर्ति और कैरी के साथ-साथ मंजुला के माता-पिता मरयम्मा और प्रसन्ना राव की जीवनगाथाएँ भी गूँथी हुई हैं. तो वहीं ख़ुद सुजाता के अपने माता-पिता मंजुला और प्रभाकर राव के तनावपूर्ण संबंधों की कहानी भी है. एक दलित परिवार की यह कहानी आंध्र प्रदेश के गाँवों से होते हुए विज़ाग, गुंटूर, वारंगल जैसे शहरों की ओर जाती है और कई बार फिर गाँव की ओर भी लौटती है. लेकिन इस पूरे सफर में कहीं भी दलित होने के अभिशाप से उनका पीछा नहीं छूटता.
सुजाता एक ऐसा आख्यान रचती हैं, जिसमें एक परिवार राष्ट्र के स्वाधीन होने, औपनिवेशिक दासता से मुक्ति पाने का न सिर्फ साक्षी बनता है. बल्कि वह उत्तर-औपनिवेशिक राज्य की दमनकारी नीतियों का भुक्तभोगी भी बनता है. लेकिन इस समूची किताब में केंद्रीय भूमिका में हैं सत्यम यानी आंध्र प्रदेश के चर्चित साम्यवादी नेता और कवि के.जी. सत्यमूर्ति (1931-2012). राष्ट्र और परिवार के इस अंतर्गुंफित आख्यान की परतें के.जी. सत्यमूर्ति के जीवन-यात्रा के पड़ावों के रूप में एक-एक कर खुलती हैं.
सत्यमूर्ति, बीसवीं सदी के चौथे दशक में अपने छात्र जीवन में ही राजनीतिक रूप से सक्रिय हो उठते हैं. ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान वह कांग्रेस की ओर आकर्षित होते हैं. वे महज चौदह साल की उम्र में ही गुडीवाड़ा यूथ कांग्रेस के पदाधिकारी बन जाते हैं. गुंटूर के आंध्र क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ते हुए सत्यमूर्ति के राजनीतिक विचारों में धीरे-धीरे परिपक्वता आती है. यहीं एक ओर सत्यमूर्ति की दोस्ती कुछ साम्यवादी युवकों से होती है और सत्यमूर्ति का रुझान साम्यवादी दल और विचारों की ओर गहरा होता चला जाता है. और दूसरी ओर, साहित्य के प्रति सत्यमूर्ति का गहरा आकर्षण उन्हें तेलुगु में नवलेखन की ताजी बयार लाने वाले ‘नव्य साहित्यं’ के पैरोकार साहित्यकारों की कृतियों से परिचित कराता है. विशेषकर तेलुगु के महाकवि श्री श्री की रचनाएँ सत्यमूर्ति के मन पर गहरी छाप छोड़ती हैं और वे ख़ुद भी ‘शिवसागर’ नाम से वैसी ही सामाजिक सरोकारों से जुड़ी क्रांतिकारी कविताएं लिखने की ओर प्रवृत्त होते हैं. सत्यमूर्ति पर श्री श्री के प्रभाव की बानगी इस बात से भी मिलती है कि वे अपने युवा साथियों से कहते कि ‘लिखो श्री श्री की तरह और लड़ो लेनिन की तरह’!
कॉलेज हॉस्टल की फीस न चुका न पाने की वजह से भूखे रहने को मजबूर सत्यमूर्ति के अनुभवों के बारे में सुजाता लिखती हैं कि ‘गुडीवाड़ा में दूसरे माला परिवारों और सत्यम के परिवार के बीच फर्क बहुत कम था. वे सभी चीटियाँ थीं. लेकिन ए.सी. कॉलेज में सत्यम हाथियों के बीच एक चींटी था.’ आज़ादी के कुछ महीनों बाद इसी कॉलेज में हुए छात्रों के प्रदर्शन के दौरान पुलिस द्वारा किए गए लाठी चार्ज के दौरान सत्यमूर्ति को इस बात का एहसास हुआ कि देश भले आज़ाद हुआ हो लेकिन राज्य की नीतियों और उसके चरित्र में कोई अंतर नहीं आया है. यहीं से कांग्रेस और जवाहरलाल नेहरू के प्रति भी सत्यमूर्ति का मोहभंग होता है. यह मोहभंग तेलंगाना आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों पर मालाबार पुलिस की बर्बरता, आंध्र राज्य की मांग को लेकर हुए आंदोलन पर भारतीय राज्य द्वारा की गई दमनात्मक कार्यवाहियों से और गहरा होता चला गया.
उन्हीं दिनों में कुंदुर्ति आंजनेयुलु और जी. वेंकटेश्वर राव सरीखे तेलुगु के दिग्गज कवियों ने ‘तेलंगाना’ और ‘उदयिनी’ सरीखे काव्य-ग्रंथ लिखकर तेलंगाना आंदोलन को अमर कर दिया था. यही वह समय था जब सत्यनारायण और वासिरेड्डी भास्करराव ने संयुक्त रूप से ‘मा भूमि’ (‘जमीन हमारी’) शीर्षक से एक क्रांतिकारी नाटक लिखा और तेलंगाना में जोतने वाले को जमीन की मांग कर रहे किसानों को एक नया नारा दिया. उस समय तेलुगु में लिखे गए अनेक प्रसिद्ध काव्य-ग्रन्थों के शीर्षक भी उनके क्रांतिकारी और विद्रोही तेवर का आभास देते हैं. मसलन, ‘अग्नि वीणा’, ‘रुद्र वीणा’, ‘अग्निधारा’, ‘वज्रायुधम’, ‘संघर्षण’ आदि. (देखें, बालशौरि रेड्डी, ‘तेलुगु वांगमय : विविध विधाएँ’).
सत्यमूर्ति की राजनीतिक सक्रियता के साथ-साथ सुजाता गिडला सांस्कृतिक मोर्चे पर उनकी पहलकदमियों से भी हमें वाबस्ता कराती हैं. मसलन, सत्यमूर्ति द्वारा गुडीवाड़ा में जन नाट्य मंच के रूप में ‘गुडीवाड़ा कल्चरल फोरम’ की स्थापना. सत्यमूर्ति द्वारा चलाए गए इस नाट्य समूह के अधिकांश सदस्य दलित ही थे. कॉलेज में रहते हुए सत्यमूर्ति ने ‘केका’ पत्रिका का सम्पादन किया, जो कुछ अंकों के बाद ही बंद हो गई थी. लेकिन आगे चलकर उनके ये शुरुआती अनुभव उन्हें तब काम आए, जब उन्होंने ‘युवजन’ सरीखी पत्रिका का सम्पादन शुरू किया. कॉलेज के दिनों में में ही सत्यमूर्ति का परिचय प्रगतिशील तेलुगु साहित्यकारों के संगठन ‘अभ्युदय लेखक संघ’ और उसकी पत्रिका ‘अभ्युदय’ से हुआ था और वे उससे भी गहरे प्रभावित हुए थे.
बाद में, वारंगल में रहते हुए सत्यमूर्ति ने अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर शुरू हुए आंदोलन का भी नेतृत्व किया. सत्यमूर्ति का कहना था कि यह आंदोलन ‘आंध्र बनाम तेलंगाना’ का आंदोलन नहीं है, बल्कि शोषकों के विरुद्ध शोषितों का आंदोलन है. असमानता के विरुद्ध लड़ते हुए, जोतने वाले को जमीन की नीति पर अमल की मांग करते हुए साठ के दशक के आख़िरी वर्षों में सत्यमूर्ति साम्यवादी दल की ढुलमुल नीतियों से असंतुष्ट होकर नक्सलवादी विचारधारा की ओर आकृष्ट हुए. 1967 में ही चारु मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल के नेतृत्व में बंगाल में नक्सल आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी. इसी दौरान सत्यमूर्ति रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी से भी जुड़े. तीन साल बाद नक्सलवादी आंदोलन का समर्थन करते हुए सत्यमूर्ति ने के. सीतारामय्या आदि के साथ मिलकर ‘विप्लव रचयितल संघम’ (क्रांतिकारी लेखक संघ) की भी स्थापना की. 1980 में सत्यमूर्ति ने ‘पीपुल्स वार ग्रुप’ की स्थापना में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सत्यमूर्ति की इस राजनीतिक-वैचारिक यात्रा का दिलचस्प विवरण भी सुजाता गिडला अपनी किताब में बख़ूबी देती हैं.
अस्सी के दशक में सत्यमूर्ति ने असमानता के विरुद्ध लड़ने का दावा करने वाले साम्यवादी और नक्सलवादी दलों के नेतृत्व में व्याप्त असमानता और जातिगत पूर्वाग्रहों के प्रति आवाज़ उठाने का साहस किया. सत्यमूर्ति लंबे समय से इस असमानता को देख रहे थे, पर वे संघर्ष और क्रांति को प्राथमिकता देते चले जा रहे थे. लेकिन जब उनके युवा साथियों ने इस बाबत सत्यमूर्ति से बात की, तो सत्यमूर्ति ने जातिगत भेदभाव पर अब एक क्षण भी चुप रहना ठीक नहीं समझा. पार्टी के बैठक में उन्होंने मुखर होकर जातिगत भेदभाव की समस्या को उठाया, जिसमें उन्हें दलित युवाओं का पूरा समर्थन भी मिला. इस साहस की बड़ी क़ीमत भी सत्यमूर्ति ने चुकाई, जब उन्हें जातिगत भेदभाव का सवाल उठाने के लिए पार्टी से निकाल दिया गया. लेकिन इसके बावज़ूद भी सत्यमूर्ति असमानता के विरुद्ध लड़ाई लड़ने की प्रतिबद्धता और अपने सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से रत्ती भर भी नहीं डिगे. उन्होंने दलितों को क्रांति के हिरावल दस्ते के रूप में संगठित करना शुरू किया. सुजाता गिडला सत्यमूर्ति के राजनीतिक और संगठनात्मक विचारों में आए इस क्रांतिकारी बदलाव को भी रेखांकित करती हैं.
सत्यमूर्ति की अटूट प्रतिबद्धता, समतामूलक समाज की स्थापना हेतु उनके अनवरत संघर्ष और उनकी अडिग निष्ठा राहुल सांकृत्यायन के उस आदर्श की भी याद दिलाती है, जिसकी प्रेरणा उन्हें भगवान बुद्ध से मिली थी. बुद्ध ने कहा था :
‘बेड़े की तरह पार उतरने के लिए मैंने विचारों को स्वीकार किया, नकि सिर पर उठाए-उठाए फिरने के लिए.’
सुजाता गिडला ने अपनी इस किताब की भूमिका 15 अप्रैल, 2012 को लिखकर ख़त्म की और उसके ठीक दो दिन बाद ही विद्रोही नेता सत्यमूर्ति का निधन हो गया. सत्यमूर्ति जैसे प्रतिबद्ध लोगों के लिए ही कवि पाश ने लिखा होगा कि :
जो मौत के किनारे जीते हैं
उनकी मौत से ज़िंदगी का सफ़र शुरू होता है
जिनका लहू और पसीना मिट्टी में गिर जाता है
वे मिट्टी में दबकर उग आते हैं.
शुभनीत कौशिक इतिहास और साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते हैं और बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. |