लोक के जवाहर शुभनीत कौशिक |
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय लोकमानस ने महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह जैसे राष्ट्रनायकों की जीवंत और आत्मीय छवियाँ गढ़ीं. लोक ने इन राष्ट्रनायकों के त्याग, बलिदान और कुरबानी को अपने सिर-माथे से लगाया और उन नायकों की स्मृति में, उनके सम्मान में गीत, पँवाड़ा, आल्हा रचकर उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी तक याद किया. उल्लेखनीय है कि वीर कुँवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे, अमर सिंह सरीखे अठारह सौ सत्तावन की क्रांति के नायकों की स्मृतियों को भी लोकगीतों में भारतीय जनमानस ने ऐसे ही संजोया था. अंग्रेज़ी राज के दमन और अत्याचारों को धता बताते हुए.
भारतीय लोक के दिलो-दिमाग़ में गहरे रची-बसी राष्ट्रनायकों की इन वैविध्यपूर्ण छवियों पर नज़र डालें तो जवाहरलाल नेहरू एक आत्मीय जननायक के रूप में उभरकर सामने आते हैं. लोक के लिए नेहरू ‘जवाहर भइया’ हैं, उसके संगी-साथी हैं, दोस्त हैं, मीत हैं. यही लोक महात्मा गांधी, राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस के साथ नेहरू को आज़ादी की लड़ाई में ‘जोगी’ बने हुए देखता है. और वही भारतीय लोक जब अपने पूरे रंग में होता है, तो वह गांधी को दूल्हा और जवाहर को सहबाला बनाकर मय बारात लंदन रवाना कर देता है. स्वराज रूपी दुल्हन को लाने के लिए!
लोक द्वारा रचा गया जवाहरलाल नेहरू का यह रूप आज़ादी की लड़ाई के दौरान रचे गए भोजपुरी गीतों में और चटख रंगों में खिलकर हमारे सामने आता है. यही नहीं राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान अंग्रेज़ी राज द्वारा प्रतिबंधित कर दिए गए भोजपुरी साहित्य में भी जवाहरलाल नेहरू का ज़िक्र अन्य राष्ट्रीय नेताओं के साथ प्रमुखता से होता है. भोजपुरी की ऐसी ही प्रतिबंधित पुस्तिकाओं में से एक है पंडित रामकुमार वैद्य द्वारा लिखी किताब – राष्ट्रीय गीत (वैद्य का बिरहा). जो 1940 में जौनपुर के केशव प्रेस से छपी थी, मुद्रक थे किशोरी शरण त्रिपाठी. इस पुस्तिका में रामकुमार वैद्य ने भोजपुरी में ख़ुद के लिखे राष्ट्रीय गीतों को प्रकाशित किया था. इससे पूर्व वे ‘वैद्य की लाचारी’ नामक किताब भी लिख चुके थे. एक आने के मूल्य वाली इस पुस्तिका की कुल एक हज़ार प्रतियाँ तब छपी थीं, जिन्हें अंग्रेज़ी राज द्वारा ज़ब्त कर लिया गया था. इसी पुस्तिका में संकलित गीत में जनता के दर्द को अभिव्यक्त करते हुए कहा गया है:
सरबस बेंचि के लगान न दिआय हो
सारी चीजों पर कर लागल जियरा डेराय हो
गांधी और जवाहर कइलेनि तोहरि सहाय हो
पंत के मनाव ओनकरि आयू बढ़ि जाय हो.[1]
सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान लिखी गई भोजपुरी की एक अन्य प्रतिबंधित पुस्तिका ‘राष्ट्रीय आल्हा’ में भी नमक सत्याग्रह का वर्णन करते हुए जवाहरलाल नेहरू का ज़िक्र आया है. बलिया ज़िले के रसड़ा के रहने वाले राजबली वर्मा ने आल्हा-उदल की लोकगाथा को आधार बनाकर ‘राष्ट्रीय आल्हा’ लिखा था. उनकी पुस्तक का पहला भाग आज़मगढ़ से मार्च 1931 में छपा. जिसके पहले संस्करण की कुल एक हज़ार प्रतियाँ छपी थीं, जिन्हें अंग्रेज़ी राज ने प्रतिबंधित कर दिया था. आल्हा छंद में राजबली वर्मा ने राष्ट्रीय आंदोलन के तमाम नायकों का उल्लेख करते हुए और भारतीय जन का आह्वान करते हुए लिखा:
गांधी जब गरज्यो दण्डी में, जागल सात लाख लों गांव II
एक ओर घूमै मोती जवाहिर, एक ओर तय्यब जी सरदार II
वल्लभ विट्ठल दोनो भइया, सेन गुप्त अरु वीर सुबासु II
जहं के बीर तहाँ उठीं गइलन, दै ललकार दिना अरु रात II
कि ख़बरदार रहिहों बीरों सब, नाहीं धरो पिछारू पाँव II[2]
उल्लेखनीय है कि अंग्रेज़ों द्वारा भारत को सिर्फ़ राजनीतिक रूप से ग़ुलाम ही नहीं बनाया गया था. बल्कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासनकाल के समय से ही भारत का आर्थिक दोहन भी जमकर किया जा रहा था. दादाभाई नौरोजी, रमेश चंद्र दत्त, महादेव गोविंद रानाडे सरीखे राष्ट्रवादियों ने आर्थिक शोषण और धन के बहिर्गमन की इस परिघटना को भी बख़ूबी समझा और समझाया था. हिंदी प्रदेश की बात करें तो सखाराम गणेश देउस्कर (‘देसेर कथा’ – हिंदी अनुवाद: ‘देश की बात’), राधामोहन गोकुल (‘देश का धन’) और सुंदरलाल (‘भारत में अंग्रेज़ी राज’) सरीखे लेखकों की कृतियों ने आर्थिक राष्ट्रवाद के विचार को आम लोगों तक पहुँचाया था.
अकारण नहीं कि भोजपुरी में रचे तमाम गीतों में आर्थिक राष्ट्रवाद की समझदारी बख़ूबी दिखाई पड़ती है. इस संदर्भ में असहयोग आंदोलन के दौरान मनोरंजनप्रसाद सिंह द्वारा लिखित ‘फिरंगिया’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है (सुंदर सुथर भूमि भारत के रहे रामा, आज इहे भइल मसान रे फिरंगिया…).[3] एक ऐसे ही भोजपुरी गीत में भारत की व्यथा को प्रकट करते हुए कहा गया:
होइ गइले कंगाल हो विदेसी तोरे रजवा मेंII टेक II
सोनवा के थाली जहवाँ जेवत रहली I
कठवा के डोकिया के होइ गइल मुहाल हो I विदेसी
भारत के लोग आज दाना बिना तरसे भइया I
लन्दन के कुत्ता उड़ावे माजा माल हो ॥२॥ विदेसी
आवे असोक, चन्द्रगुप्त हमरे देसवा में I
लोरवा बहावे देखि तोहरो हवाल होII ३॥ विदेसी
जुग जुग जीयसु हमार गाँधी, जवाहर I
जे दूर कइले मोर गरीबन के हाल हो ॥४॥ विदेसी [4]
‘जवाहर भइले जोगिया’ और ‘सतरंगी चुनरिया’
आज़ादी की लड़ाई से जुड़े भोजपुरी के तमाम गीतों में राष्ट्रीय आंदोलन के नायकों को स्वराज की साधना करने वाले ‘जोगी’ के रूप में देखा गया. मसलन, एक ऐसे ही भोजपुरी चैते में गांधी-नेहरू सरीखे राष्ट्रीय नेताओं को योगी के रूप में देखते हुए कहा गया:
रामा देस लागी गांधी जवाहर भइले जोगिया, हो रामा सुन गांधी
रामा नेता लोग धुइयाँ रमावे, हो रामा सुन गांधी I[5]
आज़ादी की लड़ाई के ये ऐसे बलिदानी योद्धा हैं, जो ग़ुलामी के ख़ात्मे के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हैं. उन्हें अपने जीवन की कोई परवाह नहीं. उनका एकमात्र लक्ष्य हिंदुस्तान की आज़ादी है. यह गीत आज़ादी के उन्हीं योद्धाओं को समर्पित है:
स्वतंत्रता के खातिर केतने जवनवाँ
अपने खुनवाँ से रंगवले कफनवाँ
देसवा के बदल गइल कुल्हि मौसमवा
नाही धूप-छाँव लागे गर्मी न तपनवा I
नेहरू पटेल आ सुबास भइले जोगिया
शेखर, भगत सिंह कइले मउवत के पयनवाँ
आइल छब्बीस जनवरी गाव मिलके गनवा
सहीदन के वतन है, अब उनहीं के प्रनमवा II
भोजपुरी के इन गीतों में उन महिलाओं का स्वर भी शामिल है, जो आज़ादी की इस लड़ाई में भागीदार थीं. उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में बड़े पैमाने पर भारतीय महिलाओं ने भी राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी की थी. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान शहादत देने वालों में, पुलिस की लाठियाँ और गोलियाँ खाने वालों में महिलाएँ भी किसी से पीछे न थीं. उन्हीं महिलाओं की आकांक्षाओं और उनके देशप्रेम को इस गीत में अभिव्यक्ति मिली है:
सतरंगी चुनरिया रंगा द बलमू,
अब हमरा के I
सगरे किनरिया पर चित्र भारत माता के,
बीचवा में गाँधी छपा द,
अब हमरा के I
चारु कोने भगत सिंह सुभाष छपसु,
भीतरा मे नेहरू, राजेन्द्र के छपा द,
अब हमरा के I
सतरंगी ———
देशप्रेम में सराबोर इस सतरंगी राष्ट्रीय चुनरी में गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, राजेंद्र प्रसाद और भगत सिंह सरीखे राष्ट्रनायकों के रंग शामिल हैं. इसी क्रम में यह गीत भी देखें:
रातो दिन तड़पे नजरिया,
रंगा दे सतरंगी चुनरिया I
श्वेत में बाबू सुभाष रंगइह
पीला में पटेल के रंगइह
तबे आवे देइबि संवरिया,
रंगा द सतरंगी चुनरिया II
नीला में नेहरू के रंगइह
मत अउरी नेतवन के भुलइह
चलबि बलम कल शहरिया,
रंगा द सतरंगी चुनरिया.[6]
भारत मइया के विपति के जलवा कि काटि देहु हो: नेहरू और भारत माता
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में भारतमाता की संकल्पना को बड़ी ख़ूबसूरती से जवाहरलाल नेहरू ने परिभाषित किया है. भारतीय राष्ट्रवाद की यह एक ऐसी सर्वसमावेशी संकल्पना है, जो हरेक हिंदुस्तानी को भारतमाता का अंश मानती है. नेहरू जनसभाओं में आम लोगों से मुख़ातिब होकर उनसे कहते कि वे सभी भारतमाता के अंश हैं. आम जनता को भारत माता का अंश बताने वाले नेहरू को भला जनता उन गीतों में जगह कैसे न देती, जिसे उसने भारत माता को ही समर्पित किया था. एक ऐसे ही गीत में जनता जब हाथी पर चढ़कर भारत माता और डोली में स्वराज (सुराज) को आते हुए देखती है तो वहीं घोड़े पर जवाहरलाल भी हैं और पैदल मार्च करते हुए ‘गांधी महराज’ भी हैं.
भारत में आइल सुराज
चलू रे सखी, देखन को I
काहि चढ़ि आव भारतमाता ?
काहि चढ़ि आवे सुराज ?
चलू रे सखी, देखन को
हाथी पर चढ़ि आवे भारत माता,
डोली में आवे सुराज,
चलू रे सखी देखन को I
घोड़ा चढ़ि आवे वीर जवाहर
पैदल गाँधी महराज
चलू रे सखि देखन को.[7]
एक अन्य गीत में भारत की महिलाओं से विपत्तियों में घिरी भारत माता को मुक्त करने का आह्वान करते हुए गांधी, सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू को एक साथ कुछ इस तरह याद किया गया है:
गुनि गनि बिहरति छतिया कि देखि लेइ हो I
गांधी, सुभास ओ जवाहर भइले जोगिया, कि देस लागि हो I
सखिया तू बनहू जोगिनिया कि देस लागि हो I
काटि देहू, काटि देहू, काटि देहू बहिनो कि काटि देहू होII
भारत मइया के विपति के जलवा कि काटि देहु हो I[8]
एक अन्य गीत में भारत के रथ पर अर्जुन के रूप में नेहरू को सवार दिखाया गया है और इस रथ के सारथी स्वयं महात्मा गांधी हैं.
धनि धनि भारत बीर हमार हो I टेक I
वीर जवाहिर अरजुन बनलै हो-
भारथ रथ पर भइले असवार हो,
धनि धनि भारत वीर-
पवन समान भागै रथ के बाँका घोड़वा हो-
आवे लगमियाँ न तनिकों सम्हार हो,
धनि धनि भारत बीर-
रथवान गांधी बाबा मनवाँ बिहँसले हो
निरखत रथवा के सब सँवसार हो,
धनि धनि भारत बीर–
एक ऐसे ही भोजपुरी गीत में एक स्त्री अपनी ननद से अपने मन की लालसा प्रकट करते हुए कहती है:
भारत माता के खजनवां, लेके खेलवती ननदी I
गाँधी सम त्यागी, बैरागी, नेहरू सा मां सेवी I
देखि देखि मुख चूमित, हरसित होती जननी देवी I
पावन सुमन-सा होत नमवा, लेके खेलवती ननदी II
गांधी बाबा दुलहा बनले, नेहरू बने सहबलिया
उत्सवप्रिय भारतीय लोकमानस ने आज़ादी की लड़ाई को भी शादी-बारात के उत्सवी माहौल से जोड़ लिया. मसलन, एक दिलचस्प भोजपुरी गीत में आज़ादी की लड़ाई की कल्पना एक बारात से की गई. जिसमें आज़ादी दुल्हन है, गांधी दुल्हा हैं और नेहरू सहबाला. और इन दोनों के नेतृत्व में समूचे भारतवासी आज़ादी की दुल्हन को लाने इंग्लैंड जा रहे हैं:
बान्हि के खदर के पगरिया, गांधी ससुररिया चलले ना I
गांधी बाबा दुलहा बनले, नेहरू बने सहबलिया,
भारतबासी बने बाराती, लंदन के नगरिया ना I
गांधी ससुररिया चलले ना.[9]
एक अन्य गीत में फ़िरंगी राज के नाश की कामना प्रकट करते हुए गांधी और नेहरू के साथ प्रख्यात समाजवादी नेता व विचारक जयप्रकाश नारायण को भी कुछ इस तरह याद किया गया है:
मइया भारती के आरती सजाव खेलब हरि झूमरी I
गाँधी बनिहे बबुआ जवाहर बनिहें भइया हरि झूमरी
गाँव गाई गरजिहे जयप्रकाश खेलब हरि झूमरी
देशवा के भाग फूटल आइल गोरा पलटन हरि झूमरी I
आगि लागी जब फिरंगिया के राज खेलब हरि झूमरी II[10]
एक ऐसे ही भोजपुरी गीत में महिलाएं अपने परिवार के सदस्यों का आह्वान कर रही हैं कि वे राष्ट्रीय आंदोलन में डटकर हिस्सा लें, गांधी-नेहरू के नेतृत्व में चल रहे अंग्रेज़ों के विरुद्ध इस संघर्ष में बढ़-चढ़कर भागीदार बनें:
गांधी के आइल जमाना, देवर जेलखाना अब गइले
जब से तपे सरकार बहादुर, भारत मारे बिनुदाना I
हाथ हथकड़िया, गोड़वा में बेड़िया, देसवा भरि हो गइल दिवाना I
गांधी जवाहर काम कइले मरदाना, देवर जेलखाना अब गइले I[11]
भारत छोड़ो आंदोलन की यादें और बलिया में जवाहरलाल नेहरू
भोजपुरीभाषी जनता ने ही नेहरू को नहीं चाहा था, बल्कि नेहरू ने भी भोजपुरी प्रदेश के लोगों को उसी शिद्दत से चाहा था, उनकी कुरबानियों के सामने अपना सिर नवाया था. अकारण नहीं कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान लगभग तीन साल जेल में बिताने के बाद 1945 में जब जवाहरलाल नेहरू रिहा हुए, तो उन्होंने युक्त प्रांत (यू.पी.) के कई ज़िलों मसलन, आजमगढ़, गाजीपुर और बलिया का दौरा किया था. 12 अक्तूबर 1945 को नेहरू ने बलिया जिले के बैरिया और रसड़ा में आयोजित सभाओं को संबोधित करते हुए दो भाषण दिए थे.
बैरिया में दिए भाषण में नेहरू ने पहले उन लोगों को श्रद्धांजलि दी, जो अगस्त क्रांति के दौरान शहीद हुए थे. नेहरू ने अपना भाषण शुरू करते हुए कहा: ‘बलिया के बहादुर मर्दो और औरतो! मैं आपके संघर्ष को सलाम करता हूँ. आपको मुबारकबाद देता हूँ कि आज आपकी बहादुरी के किस्से पूरे हिंदुस्तान में सुने जा रहे हैं. आपकी इसी ख्याति ने मुझे आपकी ओर खींच लाया है.’ नेहरू ने बलिया की जनता के जीवट को सराहते हुए कहा कि नौकरशाही और अंग्रेज़ी शासन द्वारा की गई जुल्म-ज़्यादती भी आपको डिगा नहीं सकी. हिंदुस्तान की जनता कभी भी बलिया के बहादुर लोगों, किसानों और युवाओं के बलिदान और संघर्षों को भुला नहीं सकेगी.
बलिया की जनता से मुखातिब होकर नेहरू ने कहा कि
“अपने संघर्ष और त्याग से आज आप सबने वह ताकत हासिल कर ली है कि दुनिया की कोई भी शक्ति अब आपको अधिक दिनों तक स्वतन्त्रता से वंचित नहीं रख सकती.’ भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जनता पर अंग्रेज़ अधिकारियों और पुलिस द्वारा की गई बर्बरता पर टिप्पणी करते हुए नेहरू ने कहा कि हम प्रतिशोध नहीं चाहते. लेकिन जिन अंग्रेज़ या भारतीय अधिकारियों ने ये क्रूरताएँ की हैं, उन पर क़ानूनी कार्रवाई ज़रूर होनी चाहिए और उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए.”[12]
नेहरू ने अपने भाषण में बैरिया के शहीद कौशिला कुमार को भी याद किया, जिन्हें 17 अगस्त 1942 को बैरिया थाने पर राष्ट्रीय झण्डा फहराते समय गोली मार दी गई थी. नेहरू ने कहा कि उस युवा शहीद के बलिदान को हिंदुस्तान कभी भुला नहीं सकेगा.
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बलिया के रसड़ा में उत्तेजित भीड़ ने रेलवे स्टेशन को फूँक दिया था और सरकारी गोदाम पर धावा बोलते समय लोगों ने पुलिस की गोलियां भी खाईं थीं. अक्तूबर 1945 में रसड़ा में आयोजित सभा में नेहरू ने कहा कि अगस्त क्रांति सच्चे अर्थों में आज़ादी और प्रजा राज के लिए जनता का आंदोलन थी, जिसमें हिन्दू-मुस्लिम और दूसरे सभी समुदायों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. नेहरू ने कहा कि उन्होंने लोगों में जो उत्साह और संघर्षशीलता देखी है, उससे साफ हो जाता है कि अब लोगों को और अधिक समय तक आज़ादी से वंचित नहीं किया जा सकता.
ऐसी जनसभाओं में नेहरू की कही बातों का, उनके बोले हुए शब्दों का का जनमानस पर कितना गहरा असर होता था, वह इस गीत से भी स्पष्ट होता है:
देसवा में हलचल मचाय दियो रे नेहरू जी के बतिआ I
सोने के थाली में जेवना परोसली,
बनले जेवनवाँ हराम कइली हो नेहरू जी के बतिआ I
झझरे गेडुअवाँ गंगाजल पानी I
भरल गेडुअवा हराम कइले हो नेहरू जी के बतिआ I
लवंगा खिलिअ खिलि बीड़ा लगवलीं,
लागल विड़उवा हराम कइले हो नेहरू जी के बतिआ I
फूलों हजारों के सेज लगवली,
लगलो सेजिया हराम कइले हो नेहरू जी के बतिआ I
नेहरू के बलिया आगमन के अवसर पर बलिया के स्वतन्त्रता सेनानी और भोजपुरी के कवि प्रसिद्ध नारायण सिंह ने ‘जवाहर स्वागत’ नामक कविता लिखी थी. इस कविता में वे लिखते हैं:
दुखिया बलिया के वीर भूमि
तोहरा चरनवा के चूमि-चूमि,
मानति बा आपन अहो भागि
गावत नर-नारी झूमि-झूमि,
हमके दुरलभ दरसन तोहार I
निरबल, निरधन, निरगुन, गँवार
अलगा आपन बोली विचार,
कन-कन में जेकरा क्रान्ति बीज
अइसन भोजपुर टप्पा हमार,
इतिहास कहत पन्ना पसार.[13]
प्रसिद्ध नारायण सिंह ने अगस्त क्रांति के दौरान अंग्रेजों द्वारा किए गए अत्याचारों का वर्णन भी किया है. इसी कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं:
गाँवन पर दगलनि गन मशीन, बेंतन सन मरलनि बीन बीन
बैठाई डार पर नीचे से, जालिम भोकलन खच खच संगीन I
बहि चलल ख़ून के तेज धार I
घर घर से निकलल त्राहि त्राहि, कोना कोना से आहि आहि
गाँवन गाँवन में लूट फूँक, मारल, काटल, भागल, पराहि॥
फिर कौन सुने केकर गुहार I
भइया जवाहर हो, कइसे होई भारत के भलाई
अगस्त 1947 में हिंदुस्तान को आज़ादी मिली और जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने. अब जनता ने नेहरू के कंधे पर हिंदुस्तान की बागडोर सौंपी. पंद्रह अगस्त के उस स्वर्णिम दिन को जनता ने भारत माता की बेड़ियों को टूटते हुए देखा. हर्ष के उस क्षण में जनता नेहरू पटेल और महात्मा गांधी के साथ-साथ भगत सिंह, तिलक, मालवीय सरीखे दिवंगत राष्ट्रनायकों को याद करना नहीं भूली और उसने कहा:
पन्द्रह अगस्त के दिन
सचिऊं सोने को भैया
जोई जननी के पावन की
बेड़ी कटवैया I
भगत सिंह ने जइको लहती
फांसी के मिचकइया I
तिलक पटेल, मालवी ने
जइके लाने तन गारो,
गाँधी जी ने जइके लाने
सत्त शान्त व्रत धारो,
वीर जवाहर जइकौ छोड़ी
फूलन की सुख सैया I
कहना न होगा कि नेहरू के लिए यह काँटों से भरा ताज था. विभाजन की त्रासदी, बड़े पैमाने पर हुए विस्थापन व शरणार्थियों की समस्याएँ और अंग्रेज़ों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति से उपजे साम्प्रदायिक तनाव और बड़े पैमाने पर हुई साम्प्रदायिक हिंसा की तल्ख़ हक़ीक़त से भी जनता वाकिफ़ थी. इसीलिए जनता ने कहा:
सिर पर लिहल अजादी गगरिया I
डगरिया सम्हरि के चलिह ना I
एक कुंअना पर दुई पनिहारिनि,
एके लागल रसरिया I
एक ओर खीचे हिन्दुस्तानी,
एक ओर पाकिस्तानी,
डगरिया सम्हरि के चलिह ना.[14]
राष्ट्रीय जीवन में पैठ बनाती साम्प्रदायिकता की विषबेल, अलगाववादी राजनीति के ख़तरे और इस स्थिति को और भयावह बनाने में अंग्रेज़ों और मुहम्मद अली जिन्ना की भूमिका को लेकर भी जनता सतर्क थी. इसीलिए उसने नेहरू को चेताया:
कवना सइतिया पर लिहल सासन भार,
भइया जवाहर हो I
एक त दुश्मन ललका बानर,
दूजे मिस्टर जीना, लीगिन के सरदार
भइया जवाहर हो I
भाई-भाई, हित-नात में घर-घर होत लड़ाई
कइसे होई भारत के भलाई, भइया जवाहर हो.[15]
बापू कइले सुरपुर के पयनवा
भारत को आज़ादी मिले अभी छह महीने भी न बीते थे कि 30 जनवरी 1948 की शाम को धर्मांध हिंदू नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या कर दी. दुःख की उस घड़ी में राष्ट्र के नाम आकाशवाणी से प्रसारित संदेश में जवाहरलाल नेहरू ने शोक में आकंठ डूबे हुए देशवासियों को ढाँढस बंधाते हुए कहा था कि:
आज हमारी ज़िंदगियों से रोशनी चली गई है और चारों तरफ अंधेरा है. मैं नहीं जानता कि आप सबसे क्या कहूँ और कैसे कहूँ? हमारे प्यारे नेता, हम सबके बापू, अब नहीं रहे. हम अब उन्हें वैसे नहीं देख पाएँगे, जैसे बरसों से देखते आ रहे थे. सलाह लेने के लिए और सांत्वना पाने के लिए हम अब उनके पास नहीं जा सकेंगे. यह एक त्रासदी है, केवल मेरे लिए नहीं, इस मुल्क के लाखों-करोड़ों लोगों के लिए भी. और इस त्रासदी के झटके को किसी सलाह से कम नहीं किया जा सकता.[16]
नेहरू ने हिंदुस्तान के लोगों को याद दिलाया कि गांधी आने वाली सदियों में एक प्रेरणादीप की तरह हिंदुस्तान ही नहीं दुनिया भर को राह दिखाते रहेंगे. इस अवसर पर नेहरू ने लोगों से साम्प्रदायिक सोच से मज़बूती के साथ लड़ने, हर तरह की साम्प्रदायिकता का डटकर मुक़ाबला करने और राष्ट्रीय एकता को सुनिश्चित करने का भी आह्वान किया. नेहरू ने कहा:
“मैंने अभी कहा कि हमारी ज़िंदगी से रोशनी चली गई है. मगर मैं ग़लत था. क्योंकि वह रोशनी कोई आम रोशनी नहीं थी. उस रोशनी ने इस मुल्क में बरसों तक उजाला किया था और आने वाले बरसों में भी इस मुल्क में उजाला करती रहेगी. हज़ार सालों बाद भी इस मुल्क में और समूची दुनिया में वह रोशनी अपना प्रकाश बिखेरती रहेगी और असंख्य दिलों को सांत्वना देती रहेगी. क्योंकि वह रोशनी शाश्वत सच्चाई का प्रतीक थी, जो हमें सही राह दिखाती है, वह रोशनी इस पुराने मुल्क को ग़लतियों से बचाकर आज़ादी की राह दिखाने वाली रोशनी है. “
एक आततायी द्वारा गांधी की हत्या और गांधी का न रहना नेहरू के लिए कितना बड़ा आघात था, इससे भी जनता भलीभाँति अवगत थी. इसीलिए उसने अपने ‘भइया जवाहर’ के कंधे पर दुख की इस घड़ी में संवेदना का हाथ धरकर कहा:
दियवा बुझवलसि पपिया सारा हिन्दुस्तान के,
बापू कइले सुरपुर के पयनवा,
भइया जवाहर आ राजेन्द्र के संगिया,
रोई उठल सगरो जहनवां, आरे भगवनवा
बापू के रहिया चली, यादि बनवले रहबि,
अंसुवन से करब तरपनवा, आरे भगवनवा I[17]
चाचा नेहरू से मुख़ातिब
आज़ादी के कई दशक बीतने के बाद देश की दुर्दशा, आम लोगों की बेकारी और लाचारी को देखते हुए भी भोजपुरी कवियों ने जवाहरलाल नेहरू को याद किया. भोजपुरी के चर्चित कवि विनय राय (बबुरंग) अपने कविता संग्रह ‘बिहान होई कहिया’ में संकलित एक कविता में नेहरू को सम्बोधित करते हैं और उन्हें देश के हालात बताते हैं. ‘चाचा नेहरू’ शीर्षक वाली इस कविता में एक ओर विनय राय नेहरू की योजनाओं, उनकी नीतियों, उनके स्वप्नों की चर्चा करते हैं. इस क्रम में वे राष्ट्रीय एकता, पंचशील, आर्थिक योजनाओं का उल्लेख प्रमुखता से करते हैं. वहीं दूसरी ओर वे मौजूदा हिंदुस्तान की वस्तुस्थिति, उसके कटु सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ का बयान भी करते हैं.
चालू लोग लूटेला बहार चाचा नेहरू I
भइल दीन-हीन बा लाचार चाचा नेहरू II
एकता के पठिया तूं हमके पढ़वलs-
नारा पंचसील के तू जग में लगवलs-
तबो उठे देखs हथियार चाचा नेहरू,
भइल दीन-हीन बा लाचार चाचा नेहरू II
जेने देखs ओनिये बेकार चाचा नेहरू,
भइल दीन-हीन बा लाचार चाचा नेहरू II
राजनीति झूलति बाटे मतलब के पलवा –
देसवा भइल जइसे खेलि के खेलनवा –
कइसे होई देस के उद्धार चाचा नेहरू,
भइल दीन-हीन बा लाचार चाचा नेहरू ||[18]
भोजपुरी के लोकमानस में बसे इन गीतों को पढ़ते हुए यह अंदाज़ा होता है कि रामधारीसिंह ‘दिनकर’ ने जवाहरलाल नेहरू को ‘लोकदेव’ बिलकुल ठीक कहा था. नेहरू के विषय में दिनकर ने ठीक ही लिखा है कि वे ‘सचमुच ही, भारतीय जनता के देवता थे.’[19] कहना न होगा कि राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान रचे गए, गाये गए भोजपुरी के ये तमाम गीत इस बात की बानगी देते हैं.
[1] रामकुमार वैद्य, राष्ट्रीय गीत [वैद्य का बिरहा] (जौनपुर: श्री केशव प्रेस, 1940), पृ. 5. [राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली]
[2] राजबली वर्मा, राष्ट्रीय आल्हा, पहला भाग (आज़मगढ़: विश्वनाथ प्रेस, 1931), पृ. 16 [राष्ट्रीय अभिलेखागार].
[3] दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह, भोजपुरी के कवि और काव्य (पटना: बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, 1958), पृ. 243-44.
[4] राजेश्वरी शांडिल्य व इन्दु प्रभा शांडिल्य, भोजपुरी लोकगीतों में गांधी चर्चा (लखनऊ: नंदन प्रकाशन, 1996), पृ. 50
[5]श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोकसाहित्य: सांस्कृतिक अध्ययन, (इलाहाबाद: हिंदुस्तानी एकेडेमी, 1971), पृ. 206 पर उद्धृत; साथ ही देखें, श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोक गीतों के विविध रूप, पृ. 145-46.
[6] राजेश्वरी शांडिल्य व इन्दु प्रभा शांडिल्य, भोजपुरी लोकगीतों में गांधी चर्चा, पृ. 112.
[7] राजेश्वरी शांडिल्य व इन्दु प्रभा शांडिल्य, भोजपुरी लोकगीतों में गांधी चर्चा, पृ. 79-80
[8] वही, पृ. 49.
[9] श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोक गीतों के विविध रूप, पृ. 167.
[10] राजेश्वरी शांडिल्य व इन्दु प्रभा शांडिल्य, भोजपुरी लोकगीतों में गांधी चर्चा, पृ. 151.
[11] श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोक गीतों के विविध रूप, पृ. 147.
[12] एस. गोपाल (संपा.), सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू, प्रथम सीरीज़, खंड 14 (नई दिल्ली: जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड, 1981), पृ. 217-221.
[13] राहुल सांकृत्यायन व कृष्णदेव उपाध्याय (संपा.), हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास: हिंदी का लोकसाहित्य, षोडश भाग (काशी: नागरीप्रचारिणी सभा, 1960).
[14] श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोकसाहित्य, पृ. 214 पर उद्धृत.
[15] श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोक गीतों के विविध रूप, पृ. 151.
[16] एस. गोपाल (संपा.), सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, द्वितीय सीरीज़, खंड 05 (नई दिल्ली: जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड, 1987), पृ.35.
[17] श्रीधर मिश्र, भोजपुरी लोक गीतों के विविध रूप, पृ. 171.
[18] विनय राय, बिहान होई कहिया (पटना: समकालीन प्रकाशन, 1994), पृ. 36.
[19] रामधारीसिंह दिनकर, लोकदेव नेहरू (पटना: उदयाचल, 1969).
शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं. हाल ही में जवाहरलाल नेहरू और उनके अवदान पर केंद्रित पुस्तक ‘नेहरू का भारत: राज्य, संस्कृति और राष्ट्र-निर्माण’ (संवाद प्रकाशन, 2024) का सह-सम्पादन. |
नेहरु की छवि की लोक_ मीमांसा करते हुए , “गांधी बाबा बनले दुलहा, नेहरू बने सहबलिया” से लेकर ” चालू लोग लूटेला बहार चाचा नेहरू , भइल दीन-हीन बा लाचार चाचा नेहरू” तक , मतलब नेहरू के लोक में महानायक बनने से लेकर उनके प्रति गाए गए शिकायती गीतों तक एक मुकम्मल तस्वीर बना दी है शुभनीत भाई ने। शानदार काम ।
दो नेहरू हैं। एक दिल्ली वाले नेहरू, एक पूरे देश के-जनता के नेहरू।
इस लेख में जनता के नेहरू के बारे में शुभनीत कौशिक ने लिखा है कि किस प्रकार वे लोकगीतों में शामिल हो गए थे। लोकगीतों में शामिल होना मामूली बात नहीं है। इसके लिए नेता को जनता की चित्त में समाहित होना पड़ता है। नेहरू अपने जीवनकाल में ही लोगों के जीवन में समाहित हो गए थे। इसके साथ ही आज़ादी का आंदोलन एक सामूहिक आंदोलन था।
शुभनीत का यह लेख उस सामूहिकता के लोकपक्ष को बहुत ही मार्मिकता के साथ पेश करता है।
शुभनीत जी को इस अलग क़िस्म के लेख के लिए बधाई
एक ऐसे समय में जबकि नेहरू को विस्मृत कराने की कोशिशें तेज़ हो, उस दौर में इस लेख की अहमियत बढ़ जाती है