गो कि साफ़-साफ़ कही अपने दिल की बातअशोक कुमार पाण्डेय |
शमशेर की कविता नियम नहीं, अपवाद है. मुक्तिबोध की कविता भी अपवाद थी. महान कविता हमेशा अपवाद होती है. शमशेर का संसार एक तिलिस्म है, जिसे भेदना कठिन है. उसे भेदना, उसे नष्ट करना. नष्ट करने पर केवल खँडहर ही हाथ लगेंगे. शमशेर की कविता अपने अपरिभाषित रूप में ही सार्थक है. वह सम्मोहित करती है, बाँधती है, बुलाती और गिरफ्तार करती है.
श्रीकांत वर्मा [i]
शमशेर की कविता के एक पक्ष का स्वीकार और दूसरे पक्ष का अस्वीकार या एक पक्ष को अधिक महत्वपूर्ण और दूसरे यानि जिसमें शमशेर अधिक मुखर हैं, अपनी राजनीतिक पक्षधरता के प्रति उसे कमतर करके देखने की एक चतुराई हिन्दी आलोचना में लगातार बनी रही है….(शमशेर का) यह सारा का सारा कायिक संसार गंध, रस और ध्वनियों से बना हुआ है. रंगो को शब्द रंग में, दृश्यों को शब्द दृश्य में बदलता हुआ एक जादूगरी की तरह हमारी नसों में उतरता है. हमारी नसों को खोलता है जहाँ न अपनी सामाजिकता से पलायन है, न अपनी निजता से. न अपनी विशिष्टता से, न अपनी सामूहिकता से. यह तो सबको अपने ही रंग में समेटते जाने की कविता है. इसमें मार्मिक, इतिहासभेदी आद्वितीय दृष्टि है जो अत्यधिक निर्जन अधुनातन की सीमा भी है…यह कविता समय के चौराहों के चकित केन्द्रों से उद्भूत हुई है.
राजेश जोशी [ii]
(शमशेर) खुद अपनी कविता में जैसा धड़कता हुआ सक्रिय जीवन बोध और यथार्थ का खुरदुरा साक्षात्कार लाने की कोशिश कर सकते हैं, पर कला-चेतना की भीतरी जंजीरों में बंधे होने के कारण उसे कोई संगठित आकार नहीं दे सकते. वे जिस चीज़ की कामना करते हैं – और दूसरों की महानता की कसौटी भी उसी चीज़ को बनाते हैं – उसका खुद ही अपने लिए निषेध भी करते हैं. इस कशमकश से मुक्ति – इस कशमकश के दायित्व और उसके तनाव से मुक्ति के लिए वे नागार्जुन जैसे कवियों की, उस रंग की कविताओं की उन्मुक्त ढंग से प्रशंसा करते हैं जिनके सामने सामान्य रूप से काव्य कला की मांग रखना उनमें निहित जन भावनाओं के ज्वार को देखते हुए एक प्रकार की अभद्रता ही लगती है- यदि काव्य कला की मांग रखी भी जाय तो उससे मांग रखने वाले को अपने भीतर कुंठा का ही एहसास होगा. इस अप्रिय स्थति से बचने के लिए शमशेर जी ने अपने काव्य संबंधी आग्रहों की दो आचरण संहिताएं बना ली हैं. वे समझते हैं कि जिसे दूसरों पर लागू करके ‘महान’ का साक्षात्कार किया जाता है वह ज़रूरी नहीं कि खुद पर भी लागू किया जाय और अपनी आचरण संहिता सिर्फ अपने लिए है और उसे सामने रखकर अपने को भला-बुरा भी कहने में उन्हें कोई एतराज नहीं.
मलयज [iii]
दरअसल जब किसी भी बड़े कवि की कविताओं की सुचिंतित या अनजानी गलत व्याख्या होती है तो प्रकारांतर से वह उसके प्रति बहुत गहरे सम्मान और उसकी कविताओं के दहला देने वाले असर की ही परिचायक होती है. शमशेर इस मामले में हिन्दी के सबसे घातक और खतरनाक कवि हैं…शमशेर उन कुछ कवियों में से हैं जो आलोचकों के सामने एक चुनौती, एक संकट के रूप में सामने आते हैं. ऐसे कवियों के पास सतह पर कुछ नहीं मिलता और मिलता भी है तो अकसर वह भ्रामक होता है. उनमें गहराई में जाना होता है और वह गहराई किसी दर्शन, आध्यात्म या विचारधारा की उथली व्याख्या नहीं होती….शमशेर के शब्दों का इस्तेमाल सिर्फ उन्हीं के खिलाफ नहीं, बल्कि सारे सरोकार रखने वाले साहित्य के खिलाफ किया गया.
विष्णु खरे [iv]
शमशेर को लेकर ये उद्धरण मैंने जन्मशती वर्ष में उनके पूनर्मूल्यांकन के सिलसिले में चल रही बहस के पुराने सन्दर्भों को याद करने के लिए दिए हैं. इस रूप में शायद शमशेर हिन्दी के अकेले कवि हैं कि जिनकी कविता के वैचारिक स्रोतों को लेकर उनके जीवन काल से अब तक लगातार आलोचकों के बीच एक तनातनी चलती रही है. हिन्दी के दो वृहत्तर खेमों के बीच उन्हें अपना साबित करने की यह बहस आज की नहीं है. शमशेर पर केंद्रित पहले महत्वपूर्ण आलेख में विजयदेव नारायण साही ने उन्हें ‘विशुद्ध सौंदर्य’ का कवि कहा है और इस ‘विशुद्धता’ को स्पष्ट करते हुए वह कहते हैं कि प्रगतिवाद उनकी कविता के एक हाशिए पर है तो दूसरी तरफ के हाशिए पर है अतियथार्थवाद. एक धन पक्ष है तो दूसरा ऋण पक्ष इनके बीच साही उनकी कविता के मुख्य टेक्स्ट को ‘विशुद्ध सौंदर्य’ सौंदर्य कहते हैं.
साही इसके आगे जाकर मार्क्सवाद को उनका उनका समय के साथ छूटता दामन नहीं केंचुल कहते हैं. अज्ञेय इसके पहले कह चुके हैं कि ‘राजनीति की दृष्टि से बहुत ज़्यादा सक्रिय तो वह नहीं रहे और उनकी कविता में निहित जीवन मूल्य-दृष्टि में, और उनकी घोषित राजनीति में, राजनीतिक दृष्टि से लगातार एक विरोध रहा. वह प्रगतिवादी आंदोलन के साथ रहे लेकिन उसके सिद्धांतों का प्रतिपादन करने वाले कभी नहीं रहे. उन सिद्धांतों में उनका विश्वास कभी नहीं रहा.’ तो अभी इसी वर्ष अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में शमशेर पर आयोजित एक कार्यक्रम में अशोक वाजपेयी ने कहा कि ‘शमशेर मार्क्सवाद में विश्वास करते थे इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन वो मार्क्सवादी कवि नहीं थे’ और साथ ही जोड़ा कि ‘शमशेर की कविता बिलकुल अलग खड़ी कविता है, उसे आप प्रगतिशील ढांचे में रखकर देखेंगे तो समस्या होगी, गैर-प्रगतिशील ढांचे में रखकर देखा जायेगा तो भी समस्या होगी’. [v]
इन समस्याओं के स्रोत कहाँ हैं? एक कवि जिसे अशोक बाजपेयी या अज्ञेय या साही अ-मार्क्सवादी, प्रयोगवादी, विशुद्ध सौंदर्य का उपासक और प्रगतिवाद के सिद्धांतों में अविश्वास करने वाला बता रहे हैं उसे प्रगतिशील ढाँचे में रखकर देखने में उत्पन्न उनकी समस्या तो समझ आती है लेकिन ‘गैर-प्रगतिशील ढांचें’ में रखकर देखने की समस्या का सबब क्या है? ज़ाहिर है इस समस्या का सबब शमशेर का काव्य-व्यक्तित्व ही है. इस काव्य व्यक्तित्व की शायद सबसे अच्छी परख हिन्दी के एक और बड़े तथा खांचों में आसानी से सेट न हो पाने वाले कवि मुक्तिबोध ने की है.[vi] मुक्तिबोध कहते हैं – ‘शमशेर की मूल मनोवृत्ति एक इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार की है. इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार अपने चित्र में केवल उन अंशों को स्थान देगा जो उसके संवेदना ज्ञान की दृष्टि से प्रभावपूर्ण संकेत शक्ति रखते हैं…(वह) दृश्य के शेष अंशों को दर्शक की कल्पना के भरोसे छोड़ देगा. दूसरे शब्दों में वह द्रश्य के सर्वाधिक संवेद्नाघात करने वाले अंशों को प्रस्तुत करेगा और यह मानकर चलेगा कि यदि यह संवेदानाघात दर्शक के हृदय में पहुँच गया तो दर्शक अचित्रित शेष अंशों को अपनी सृजनशील कल्पना द्वारा भर लेगा.’
यही शमशेर के उस विशिष्ट शिल्प के मूल में है जिसके चलते उन्हें अकसर दुरूह कह कर बात खत्म कर ली जाती है. यहीं वह अपने काव्यव्यक्तित्व में छायावाद और उत्तर छायावाद से आगे निकलते हैं जिसकी सटीक पहचान करते हुए श्रीकांत वर्मा कहते हैं कि ‘अज्ञेय और उनके उत्तराधिकारी, जो कल तक अपनी इयत्ता की तलाश के नाम पर महादेवी के आँसुओं को नए नाम से, नया लेबल लगाकर बेच रहे थे, आज एक सर्वथा प्रतिकूल मुद्रा लेकर उपस्थिति हैं. आज उन्हें पढ़ने पर लगता है कि कल भी उनके पास एक कौशल को छोड कुछ भी नहीं था, आज भी उनके पास (भाषा के नाम पर) कुछ लटकों-झटकों के अलावा कुछ नहीं….शमशेर की कविता खरी है[vii]
मुक्तिबोध शमशेर की कविता के शिल्प पर और विस्तार से जाते हुए कहते हैं ‘लोगों को शमशेर का काव्य शिल्पग्रस्त प्रतीत होता है, तो इसका एक कारन शमशेर के कथ्य की नवीनता है. अभी तक पाठकों और आलोचकों की आत्मचेतना इतनी विकसित नहीं हुई कि वे अपने जीवन में प्राप्त विभिन्न भावना-प्रसंगों के अंतर्गत स्वयं भोगी हुई संवेदनाओं के विभिन्न उलझे हुए रूप, गुण और प्रभाव पहचान पायें.’ शिल्प से कथ्य की ओर बढते हुए मुक्तिबोध के इस आलेख की अंतिम पंक्तियाँ देख लेना बेहद उपयोगी होगा, ‘मैं यहाँ शमशेर की उन कविताओं को नहीं भूल सकता जिन्हें हम, व्यापक अर्थ में, सामाजिक और संकुचित अर्थ में राजनैतिक कह सकते हैं. मनोवैज्ञानिक वस्तुवादी कवि, जब सामाजिक भावनाओं तथा विश्वमैत्री का संवेदनाओं से आछन्न होकर, मानचित्र प्रस्तुत करता है, तब वह उसी प्रकार अनूठा और अद्वितीय हो उठता है– जैसे कि उसी क्षेत्र में भिन्न तथा अन्य कवि कदापि नहीं.
‘’शान्ति’’ पर लिखी शमशेर की कविता क्लासिकल ऊंचाइयों की उपलब्धियाँ कर चुकी है. इससे यह सिद्ध होता है कि शमशेर की वास्तवोन्मुखी दृष्टि और वास्तव प्राप्त संवेदनाएँ और भी अधिक साहित्यिक उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकती हैं.’ और ऐसा हुआ भी. शमशेर की इसी खूबी की पहचान करते हुए मंगलेश डबराल कहते हैं कि ‘शमशेर प्रेम की कविता को एक क्रांतिकारी की सी चेतना और आजादी के साथ लिखते हैं और क्रान्ति की कविता को एक प्रेमी के लगाव और आत्मीयता के साथ’[viii]
कथ्य के सवाल पर साही के लेख की विवेचना करते विष्णु खरे के लंबे आलेख से कुछ पंक्तियाँ मैंने ऊपर उद्धरित की हैं. यहाँ उस लेख में खरे जी की प्रस्थापनाओं को और विस्तार से देख लेना उचित होगा. विष्णु खरे साही के मिस्कोट्स का खुलासा करने के बाद शमशेर की एक अति प्रसिद्ध काव्यपंक्ति के सहारे उनके इर्द-गिर्द फैलाए गए कुहासे को भेदते हैं. वह काव्यपंक्ति है –
‘बात बोलेगी
हम नहीं
भेद खोलेगी
बात ही’
आमतौर पर इस कविता को इतना ही उद्धरित किया जाता है और इसके आधार पर शमशेर के मौन, उनकी तटस्थता, निर्लिप्तता आदि का प्रतीक वाक्य बना कर पेश कर दिया जाता है. खरे सवाल उठाते हैं ‘क्या वाकई इन पंक्तियों का इतना ही अर्थ है?’ और फिर वह बाद की पंक्तियों को उद्धरित करते हैं.
सत्य का मुख/झूठ की आँखें/क्या-देखें!/सत्य का रूख़/समय का रूख़ हैः/अभय जनता को/सत्य ही सुख है/सत्य ही सुख./दैन्य दानव; काल/भीषण; क्रूर/स्थिति; कंगाल/बुद्धि; घर मजूर./
सत्य का/क्या रंग है?-पूछो/एक संग./एक-जनता का/दुःख : एक./हवा में उड़ती पताकाएँ/अनेक./दैन्य दानव. क्रूर स्थिति./कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर./एक जनता का – अमर वर :/एकता का स्वर./-अन्यथा स्वातंत्र्य-इति.
इस तरह खरे साफ़ करते हैं कि यह ‘बात’ शब्द को उसके छिछले अर्थ में ग्रहण कर लेने और उसकी गहराई में उतरने से डरने वाले ‘काहिल और जाहिल’ समीक्षकों की नादानी से उपजी दिक्कत है जबकि ‘शमशेर का यहाँ ‘बात’ से अर्थ ‘घटना’, ‘वारदात’, ‘इतिहास’ और वह अमानुषिक स्थिति है जिसका वह आगे वर्णन कर रहे हैं’. ज़ाहिर है कि यह कविता शमशेर की जनपक्षधर प्रतिबद्धता से उपजी है और मौन नहीं विरोध का सन्देश देती है लेकिन ‘शमशेर के शब्दों का इस्तेमाल सिर्फ उन्हीं के खिलाफ नहीं, बल्कि सारे सरोकार रखने वाले साहित्य के खिलाफ किया गया’. और यह उनके साथ बार-बार हुआ.
(दो)
लहजे कुछ अटपटे-से हमारी जबां के है.
मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाये
रेखा
‘इप्टा’
नाटक…
जीवन लेखा
आज का उपहास्य
भूख का आलोच्य
आर्ट
तुम कल्पना के पुतले
नहीं हो
तुम कम्युनिस्ट पार्टी की ‘मशीन’
नहीं हो
(लोग ग़लत कहते हैं)
तुम कला का मौन
शांत
विवाह
संघर्ष के साथ-हो;
तुम कम्युनिस्ट हो,
यानी कलाकार
का कर्म
यानी भविष्य का
मर्मभाव
आज के नाटक के अंत में!
(तीन)
जो लोग शमशेर को कलावादी या फिर ‘हृदय से कलावादी लेकिन चेतना के स्तर पर वामपंथ के साथ’ जैसी उपमाओं से नवाजते हैं वे दरअसल उनके इसी गरिमामयी मौन का फायदा उठा रहे होते हैं. उनके काव्य में गर्जन-तर्जन नहीं है. उनका विरोध भी एक ख़ास तरह की काव्य गरिमा के साथ सामने आता है. उन्हें हर कविता में अपने ‘वामपंथी’ होने या फिर कविता से केवल ‘प्रत्यक्ष प्रतिरोध के हथियार’ का काम लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती. जब वह प्रेम पर लिख रहे होते हैं तो एक सहृदय और सहयात्री प्रेमी होते हैं, प्रकृति पर लिखते हुए वह प्रकृति के चितेरे हैं कला में डूबते हुए वह रंगो की दुनिया के वासी हैं जहां शब्द ऐसे बरते जाते हैं मानों मद्धिम रंग और यह सब करते हुए उनका मुक्तिकामी और प्रगतिशील कवि लगातार अपने समय के साथ लगातार संघर्षरत भी है. जिन कविताओं में वह मुखर तौर पर इन विसंगतियों पर बात करते हैं वे भी अपनी पूरी कलात्मकता के साथ आती हैं. यह आलोचकों का पूर्वाग्रह ही है कि अक्सर वे इन कविताओं को ‘अपेक्षाकृत कमज़ोर’ कहकर ख़ारिज़ करते हैं- मानो प्रेमगीत और रणभेरी में तुलना की जा सके, मानों पेंटिंग और पोस्टर में तुलना की जा सके, मानो इनमे से किसी एक को दूसरे से निरपेक्ष तौर पर बेहतर बताया जा सके!
उनकी एक कविता है ‘घिर गया है समय का रथ’ … यहां समय भी है और उसका अद्भुत कलात्मक चित्रण भी. कविता का आरंभ रात के चित्रण से होता है. लेकिन वह काली रात ‘मौन संध्या का दिये टीका’ आती है ‘चमकते तारे लजाते हैं’ और फिर
भेद ऊषा ने दिए सब खोल
हृदय के कुल भाव
रात्रि के अनमोल
दुख कढ़ता सजल, झलमल
आंख मलता पूर्व स्रोत
पुनः जगती जो.
आप देखें तो विष्णु खरे द्वारा रेखांकित कविता की ही तरह इस कविता का एक असावधान या अंतिम खण्ड को छोड़कर किया गया पाठ आपको ‘कला की मौन एकांतिक साधना सा कुछ’ लग सकता है. प्रकृति का कूचियों से किया चित्रण. लेकिन कविता जब आगे बढ़ती है और कहती है कि
घिर गया है समय का रथ कहीं
लालिमा से मढ़ गया है राग
भावना की तुंग लहरें
पंथ अपना, अंत अपना जान
रोलती हैं मुक्ति के उद्गार
तो यह एंटीक्लाईमेक्स नहीं कविता का सहज पाथेय है. कविता वहीं पहुंचती है जहां उसे पहुंचना था लेकिन अपनी ‘शमशेरियत’ के साथ, उस गरिमापूर्ण मौन के साथ जिससे संयुक्त एक गंभीर शब्द हज़ार-हज़ार नारों और भयावह गर्जन-तर्जन से अधिक प्रभावी है. जो ‘निर्वात में एकालाप’ की तरह नहीं बल्कि जुलूस में साथी की तरह आपके पास आता है, किसी कुमार गंधर्व की नाद की तरह आपके भीतर उतरता है और अपनी स्थाई जगह बना लेता है. ऐसे ही ग्वालियर में मज़दूरों की नृशंष हत्या के क्षोभ से उपजी उनकी कविता ‘ य’ शाम है’ ऐसी विषम परिस्थिति में न तो आपा खोकर विलाप करती है न ही असंतुलित क्रोध का प्रदर्शन. वह उस पूरे क्षोभ, उस पूरे क्रोध को एक परिपक्व कविता की शक़्ल में दर्ज़ करती है अपने परिवर्तनकामी सौंदर्यबोध के साथ-
‘ य’ शाम है
कि आसमान खेत है पके हुए अनाज़ का
लपक पड़ी लहू-भरी दरांतियां
कि आग है
धुआं-धुआं सुलग रहा
ग्वालियर के मज़ूर का हृदय’-
इस कविता में भी शोर नहीं है. इससे जो सामने आता है वह है उस जुलूस का दृश्य. कविता पढते हुए जैसे एक पूरी पेंटिंग आपकी नज़रों के सामने उपस्थित हो जाती है. और यह एक जीवित पेंटिंग है, अपनी पक्षधरता को स्पष्ट दर्ज करती हुई.
क्या एक कलाकार अपने प्रतिरोध को रंगो और गंध के साथ दर्ज़ नहीं कर सकता!
और शमशेर की ऐसी कवितायें ढूंढ़ने के लिये उनके जीवनकाल में प्रकाशित किसी भी कविता संकलन में विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता- हां उनके बाद प्रकाशित संकलनों में आपको मुश्किल हो सकती है. उदाहरण के लिये रंजना अरगड़े द्वारा संपादित संकलन ‘कहीं दूर से सुन रहा हूं’ ( राधाकृष्ण प्रकाशन, 1995) में 1938-39 से 1992 की उनकी अंतिम कविता लिखे जाने के लंबे या लगभग संपूर्ण रचनाकाल से संकलित उनकी कविताओं में न ‘काल तुझसे होड़ मेरी है’ है, न ‘लेनिनग्राद’, न ‘अफ्रीका’ और न ‘बात बोलेगी’ – पूर्वोद्धृत कविताओं को तो जाने ही दें. यही नहीं, शमशेर ने अपने तमाम समकालीनों पर जो कवितायें लिखीं हैं उनमें से भी सिर्फ़ एक का चयन किया गया है- अज्ञेय का! वह भी ‘अज्ञेय से’ नहीं जहां वह मौज़ में कहते हैं- ‘जो नहीं है/जैसे कि सुरुचि/उसका ग़म क्या? वह नहीं है’ अपितु वहां है- ‘सादर अज्ञेय के जन्मदिवस पर समर्पित’ कविता है! ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’, त्रिलोचन के लिये लिखी ‘सारनाथ की एक शाम’, नागार्जुन के लिये लिखी कवितायें न देकर सिर्फ़ अज्ञेय को सम्मान देने की यह कहानी उस शमशेर से उसकी शमशेरियत छीन लेने का प्रयास है जो कहता है कि
क्रांतियां, कम्यून
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं
और ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ कविता का यह अंश उनके ‘युवपन के वामपंथी ज्वर’ का असर नहीं है- यह कविता अस्सी के दशक में लिखी गयी थी, उनके जीवन के उत्तरार्ध में. इकहत्तर साल की उम्र में वह कह रहे थे- ”राह तो एक थी हम दोनों की:आप किधर से आए-गए!- हम जो लुट गए पिट गए, आप जो, राजभवन में पाए गए!” और यह भी कि इसी दौर में वह प्रेम और सौंदर्य की अप्रतिम कवितायें भी रच रहे थे. कोई संकलन जिससे ‘एक ठोस बदन अष्टधातु का’ जैसी उनकी सारी प्रेम कवितायें बहिष्कृत कर दी जायें वह भी उतना ही एकांगी और बेईमान होगा.
(चार)
शमशेर मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल और बाबा नागार्जुन के साथ स्वातत्रयोंत्तर हिन्दी कविता की जनपक्षधर धारा को कम्पलीट करते हैं. इन चारों का नाम साथ लेने की वज़ह स्पष्ट है. इनमें जो चीज़ कामन है वह है इनकी सहज ‘जनपक्षधरता’ लेकिन इस एक समान प्रत्यय के साथ इनकी रचनाशीलता में जो अपार विविधता है वह हिन्दी के कविता संसार को वह समृद्ध आधार देती है जिसके ऊपर इसका बहुरंगी और बहुआयामी विकास हो सकता था और एक हद तक हुआ भी. मुक्तिबोध जहां अपने समय के वैचारिक संघर्ष में अपनी फैंटेसी के माध्यम से हस्तक्षेप करते हैं, नागार्जुन और केदार जी अपनी पूरी ताक़त से अभिधा में सीधे-सीधे टकराते हुए कविता और ज़रूरी नारे रचते हैं शमशेर अपने विशिष्ट कलाबोध से मनुष्यता के पक्ष में एक बेहतर प्रतिसंसार रचते हैं. वह कला और संगीत के उपकरणों से सिंफनियां रचते हैं और इस प्रकार उस राजनैतिक लड़ाई के सांस्कृतिक पक्ष में अपना अवदान देते हैं. उनका लेखन कला के लिये कला नहीं है. वह कला का उन्नयन है, कला का परिष्कार है, कला का शोधन है. अपने पूर्वोद्धरित आलेख में मंगलेश डबराल बर्तोल्त ब्रेख्त के बारे में वाल्टर बेंजामिन का एक कथन उद्धरित करते हैं – ‘ब्रेख्त का महत्व मार्क्सवादी होने में नहीं है बल्कि इसमें है कि वे अपनी रचनाओं में हर बार मार्क्सवाद का नए ढंग से आविष्कार करते हुए चलते हैं’, मंगलेश कहते हैं कि ‘एक दूसरे ढंग से शमशेर के यहाँ भी हम मार्क्सवाद और सौंदर्यबोध, दोनों की परिचित शक्लों से अलग होने की विशिष्टता देख सकते हैं’. अपने आरंभिक काल से लेकर अंत तक उनकी कविता में मनुष्य तथा उसके संघर्षों का प्रवेश कभी बाधित नहीं होता. हां वह मूलतः वैसी राजनैतिक कविताओं के ही कवि नहीं है जैसे कि केदार जी, बाबा नागार्जुन या मुक्तिबोध हैं.
(पाँच)
अंत में बस इतना कि जन्म शताब्दी और मृत्यु का अठारहवां साल किसी कवि के बारे में एक तार्किक, समेकित और ईमानदार दृष्टि बना लेने के लिये काफी होने चाहिये थे. ख़ासतौर पर वह कवि जो अपने जीवनकाल मे ही इन सांचों से आजिज आ चुका हो-
‘लेखक (और लेखक ही क्यों)
– एक सांचा है,
उस सांचे में आप फिट हो जाइये
– हर एक के पास एक सांचा है. राजनीतिज्ञ,
प्रकाशक,…शिक्षा संस्थानों के
गुरु लोगों के पास्. …यह लाबी,वो लाबी.
रूस के पीछे-पीछे. नहीं अमरीका के.
नहीं चीन के. अजी नहीं,अपने घर के
बाबाजी के.इस झंडे के,उस झंडे के
(डायरी,1978)
इन अठारह सालों में शमशेर को उन सांचो से मुक्त कर उनके पूरे कवि को उसके विशिष्ट सौंदर्यबोध तथा समझौताहीन प्रतिबद्धता के साथ देख पाने लायक नज़र विकसित करने भर का बालिग तो हिन्दी आलोचना को हो ही जाना चाहिये था. लेकिन अपने-अपने पक्ष में उन्हें खींचने की ज़िद में हिन्दी साहित्य के दोनों खेमों की हास्यास्पद कोशिशों ने उन्हें त्रिशंकु बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. एक तरफ कलावादी खेमा उनकी उन कविताओं को जिन्हें मुक्तिबोध ‘संकुचित अर्थों में राजनीतिक और व्यापक अर्थों में सामाजिक’ कहते हैं, जबरन किसी नैतिक दबाव में लिखी बताकर कमतर साबित कर खारिज करता है तो दूसरी तरफ जनपक्षधर कहे जाने वाले कुछ अतिवादी लोगों ने उनकी गहन प्रेम तथा सौन्दर्यानूभूति की कविताओं को नज़रअंदाज करने तथा उनका माखौल उड़ाने की कम कोशिश नहीं की है. मलयज ने अपने संस्मरण में उन दिनों का ज़िक्र किया है जब शमशेर कम्यून में रहा करते थे और पार्टी से जुड़े कई महत्वपूर्ण लोग उनकी ऎसी कविताओं का मजाक उडाया करते थे. कहना न होगा कि इस ‘उत्पीडन’ ने इस प्रतिबद्ध कवि के न केवल पार्टी से अलग होने में अपनी भूमिका निभाई बल्कि उनके संवेदनशील काव्य व्यक्तित्व को भी ठेस पहुंचाई. अंततः उन्हें अपने कवि के हक में फैसला लेकर पार्टी से अलग होना पड़ा जो उनसे अधिक पार्टी की क्षति थी. आज भी नागार्जुन और केदार की तुलना में उन्हें कमतर प्रतिबद्ध करने की कोशिशें कम नहीं हो रहीं. लेकिन शमशेर की कविता खुद उनकी गवाही है और यह उनके लगातार हिन्दी की मुख्यधारा में महत्वपूर्ण कवि के रूप में बने रहने से सिद्ध भी होता है.
उम्मीद की जानी चाहिये कि इस साल हो रहे तमाम आयोजनों की मज़बूरी में किये जा रहे उनके पुनर्ध्ययनों के दौरान हमारे आलोचक बंधुओं को पूरा शमशेर दिखाई दे और वे हक़ीक़त को तखैयुल से बाहर लाने का मुश्किल लेकिन ज़रूरी काम कर सकें.
अशोक कुमार पाण्डेय
ई मेल– ashokk34@gmail.com
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संदर्भ
[i] रचना समय का शमशेर विशेषांक, २०१०, संपादक- बोधिसत्व, पेज- ३९ से
[ii] वही, पेज १०६-१०८
[iii] एक शमशेर भी है, संपादक – दूधनाथ सिंह, पेज -३६-३७
[iv] पूर्वग्रह के शमशेर विशेषांक से रचना समय के पूर्वोद्धरित विशेषांक में पुनर्प्रस्तुत, पेज ६८-६९
[v] देखें अरुण देव के समालोचन में http://samalochan.blogspot.com/2011/06/blog-post_08.html
[vi] मुक्तिबोध रचनावली, राजकमल प्रकाशन, खंड ५ का पेज ४३२
[vii] श्रीकांत वर्मा के पूर्वोद्धरित आलेख से, पेज- ३८
[viii] रचना समय का शमशेर विशेषांक, पेज-११२[ix] दूसरा सप्तक, संपादक – अज्ञेय, सातवाँ संस्करण, भारतीय ज्ञानपीठ, पेज- ८५-८९
[x] एक शमशेर भी है, संपादक-दूधनाथ सिंह, राजकमल प्रकाशन