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फागुन का रथ कोई रोके
(हिंदी कविता में वसंत और प्रेम की जुगलबंदी)
ओम निश्चल
भारत छह ऋतुओं का देश है. सभी ऋतुएं अपनी-अपनी तरह से महत्वपूर्ण होती हैं लेकिन कुछ ऋतुएं ऐसी होती हैं, जिनके आने की आहट ही जीवन की उदासियों में भी बॉंसुरी की फूँक भर देती हैं. वसंत ऐसी ही ऋतु है, जिसके आते ही न केवल पूरी वसुंधरा पुलकित हो उठती है, बल्कि मन की वसुंधरा भी उल्लसित हो उठती है. वसंत एक तरह से धरती का श्रृंगार है, यह प्रेम और अनुराग की ऋतु भी है. यदि बाहर के वसंत से भीतर का वसंत भी मिल जाए तो क्या कहना. हमारा काव्य वसंत और अनुराग के इस अहसास से भरा है. यही मौसम है, जब आमों में मंजरियॉं फूटती हैं, यही मौसम है, जब गुनगुनी धूप अच्छी लगने लगती है. इस मौसम के आते ही मन में भी गुनगुनाहट का संगीत गूँजने लगता है, मन में भी मंजरियॉं फूटने लगती हैं. ऐसे ही गुनगुने अहसास से भरकर गिरजा कुमार माथुर ने लिखा था : मेरे युवा आम में नया बौर आया हैख़ुशबू बहुत है क्योंकि तुमने लगाया है. यह ऋतु अनुरागी चित्त कवियों को विह्वल कर देती है. लेखनी की सॉंसों में जैसे वसंत उतर आता है. वसंत के दिन गुनगुने होते हैं तो रातें भी कम चंचल और उन्मन नहीं होतीं. वे भी वसंत के प्रभामंडल में सुहावनी हो उठती हें. वंशी और मादल के गीत में ठाकुर प्रसाद सिंह ने इन रातों की विह्वलता को कुछ यूँ याद किया है : वासंती रात के बेसुध पल आखिरीविह्वल पल आखिरीपर्वत के पार से बजाते तुम बॉंसुरीपांच जोड़ बॉंसुरी. बॉंसुरी का जिक्र छिड़ा तो शतदल के गीत का स्थायी होंठों पर आ ठिठका है: गंध ने छू लिया प्यार से क्या इन्हेंये अधर इस जनम तो हुए बॉंसुरी. और कहना न होगा कि बॉंसों की कोठ से भी वसंत और अनुराग के इस मौसम में बॉंसुरी की-सी मीठी, सुरीली सुरसुराहट सुनाई देती है.
पर देखिए न, वसंत की इस ऋतु के अनुरागमय उत्सव को हम भूल गए हैं. हमें अब संत वैलेंटाइन प्रेम करना सिखाते हैं. बाज़ार हमें बताता है कि हम अपना प्रेम कैसे प्रकट करें, किन शब्दों में, किन पदों में, किन छंदों में. शुभकामना कार्डों की तरह बाज़ार में प्रेम संदेसों के कार्ड भरे पड़े हैं. प्रेम जैसे कि भावनाओं का सहज अहसास न होकर प्रायोजित उद्गार में बदल गया है. वैलेंटाइन डे की ख़ुमारी में हम अपना वसंत खो बैठे हैं. कवियों ने वसंत और प्रेम के इतने गीत गाए हैं कि हिंदी कविता का पूरा आंचल ही वासंती हो उठे. ऐसे अनूठे बिंबों का सृजन कवियों ने किया है, जिनसे हिंदी कविता प्राणवान हुई है. गिरजा कुमार माथुरका ही गीत है : बन फुलवा फूलेसिंगार के मलिनियाएक हार गूँथ दे संवार के मलिनिया. फूलों से भरे वन-उपवन हों तो किसका मन न होगा कि वह मालिन से अपने लिए हार गूँथ देने का इसरार न करे. पर वसंत और प्रेम की इस उर्वर वसुंधरा में हमें आज बाज़ार सूचना देता है कि उठो और वैलेनटाइन डे पर अपने प्रिय से प्रेम का इज़हार करो. लोग भूल गए हैं कि फागुन आने के एक-डेढ़ महीने पहले से ही तन-मन फागुन-फागुन हो उठता है. शरद की शीतल हवा से वसंत की उष्ण सॉंसें टकराती हैं तो मौसम पर भी फागुन का उन्माद चढ़ जाता है.
यह वसंत का ही ठाठ है कि बालमुकुंद गुप्त लिखते हैं : पेड़ बुलाते हैं तुझको टहनियॉं हिलाके बड़े प्रेम से टेर रहे हैं हाथ उठाके. वसंत की अगवानी में निराला जी की लेखनी भी उल्लसित हो उठी थी : सखि, वसंत आयाभरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया. उनके अवलोकन इतने अचूक और सौंदर्यग्राही हैं कि वे किसलस वसना, नव वय लतिका और प्रिय उर तरु पतिका के बीच वृंदगान करते मधुप और नभ को गुंजार कर देने वाली कोयलों के स्वर की मादकता में खो जाते हैं. प्रकृति के सुकुमार कवि पंतने अपनी कविताओं में खेतों में दूर तलक फैली मख़मल की कोमल हरियाली चित्रित की है तो गीतों की पिकबैनी कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा अपने गीत वासंती ऋतु में कितनी सुंदर कल्पना करती हैं :
फिर नई उमंगें लहकीं, फिर मीठी चाहें चहकीं
फिर मन की राहें महकीं, फिर भोली साधें बहकीं
फिर सरिता के सूखे तट को चूमने लहर उठ धायी
फिर वासंती ऋतु आई
प्रकृति के बीच ही रमने वाले और बेतवा नदी के कछारों से कविता की प्रेरणा लेने वाले केदारनाथ अग्रवाल ने तो जैसे मानवीकरण के माध्यम से बसंती हवा की चपलता, उत्सवता, सौष्ठवता, निडरता,सजीवता और अल्हड़ता का इतिवृत्त लिख दिया है आज भी उनका नाम आते ही स्मृति में टँका उनका गीत हवा हूँ, हवा हूँ, बसंती हवा हूँ, तिर उठता है. नागार्जुन को तो ऐसा लगता है मानो बॉंसुरी मुखर हो गई हो, उंगलियॉं थिरकने लगी हों और पिचके गालों तक पर कुमकुम न्योछावर दिखता हो. उन्हें चिंता होती है सहजन की कि तुनुकमिज़ाज टहनियॉं मधुमक्खी के छत्तों से मुरक न जाएं. वसंत के ठीक बाद आने वाले फागुन की आभा प्रभाकर माचवे के गीत ‘वसंतागम’ में रच-बस गई है. तभी वे इस आह्वान से आसमान को गुंजा देना चाहते हैं कि गा रे गा हरवाहे, दिल चाहे वही तान : खेतों में पका धानमंजरियों में फैला आमों का गंध-ध्यानआज बने हैं कल के ज्यों निशानफूलों में फलने के हैं प्रमाण……. गा रे गा हरवाहे, छेड़ मनचाहे राग—–खेतों में मचा फाग. गिरजा कुमार माथुर का मालवी मन फागुन में पीली कली सा खिल उठता है, जो माथुर के संग्रहों ‘धूप के धान’, मंजीर, भीतरी नदी की यात्रा और छाया मत छूना मन से गुज़रे हैं, उन्हें वह गीत ‘आज हैं केसर रंग रंगे वन’ बख़ूबी याद होगा, जिसका आखिरी पद कितना रससिक्त है :
जीवन में फिर लौटी मिठास है
गीत की आखिरी मीठी लकीर सी
प्यार भी डूबेगा गोरी-सी बॉंहों में
होंठों में, आंखों में
फूलों में डूबे ज्यों
फूल की रेशमी-रेशमी छाहें.
एक ज़माने में बनारस में सूर्य प्रताप सिंह एक अच्छे कवि हुआ करते थे. केदारनाथ सिंह के लगभग समवयस् . महज़ 26 साल की अवस्था में ही वे इस दुनिया से चले गए लेकिन उन्होंने अपने इस अल्प जीवन में भी कुछ बहुत अच्छे गीत और कविताएं लिखी हैं. फागुन की दोपहरी पर एक बड़ा ही मनोहारी चित्र उन्होंने एक कविता में खींचा है :
फागुन की वय: संधि,
उतर गए पातों के पीले पर्दे
नंगी शीशम डालों पर घिर आया कुछ खोयापन—-
अलसाई खेतों मे दोपहरी,
रेतीली वायु उड़ी,
दरवाज़े का पल्ला धड़क उठा
इन सूनी घडि़यों के
मन की
बनकर धड़कन.
कविता मन के सूनेपन का उपचार भी है और इसमें मौसम की भी थोड़ी अपनी भूमिका हो तो चित्त को एक अपूर्व सुख मिलता है. जैसे मन की वैसे मौसम की भी एक अपनी धड़कन होती है, जिसे कोई कवि हृदय ही सुन सकता है. ऐसे ही फगुनाए दिनों में कभी केदारनाथ सिंह ने ‘गीतों से भरे दिन फागुन के ये’ लिखा होगा. और केदारनाथ अग्रवाल ने बेतवा के किनारे यह गाया होगा : माझी न बजाओ वंशी, मेरा मन डोलता हैजैसे जल डोलता . ऐसे में गिरिजा कुमार माथुर का एक वह गीत भी याद आता है जो वसंत और फागुन की आभा से मंडित है : कितने मीठे बोल हैं इस गीत के : पिया आया वसंतफूल रस के भरेदेह कुसुमित मृणाल जैसे गेहूँ की बालजैसे उचकौंहे बौरों से—रोमिल रसालकिशमिशी चंद्र लटकसमसे उर प्रियालआई फागुन की रातहाथ हल्दी रचेचांद की छाप ख़ामोश अधरों धरेफूल रस के भरे.
हिंदी गीतों की दुनिया जहां प्रकृति के सौंदर्य से भरी है, वसंत और फागुनी अहसास के गीत भी प्रभूत संख्या में लिखे गए हैं. निराला जी ने लिखा था: ‘अट नहीं रही हैआभा फागुन की तन-सट नहीं रही है.‘ वसंत का मौसम शुष्क हृदय में भी अनुराग की छुवन भर देता है. जिस तरह ग़ज़ल को स्त्री के सौंदर्य के बखान की विधा माना जाता रहा है, गीत अपनी प्रकृति में ही रोमैंटिक होते हैं. गीत लिखने का एक अपना रोमांच होता है. एक रोमांच मौसम का भी. दोनों अगर एक साथ हो जाएं तो अनूठे गीत की सृष्टि होती है. बच्चन से लेकर यश मालवीय तक गीतकारों ने वसंत की मादक अनुभूतियों के साथ साथ प्रेम और अनुरागमयी गीतों की रचना की है जिनका पद लालित्य देखते ही बनता है. यों तो गीतों का स्वर्णयुग बीत गया. अब उनकी यादें ही शेष हैं. पर क्या बात थी कि पुरवैया ज़रा जोर से बहती तो मन का आकाश उड़ने लगता था. ये शंभूनाथ सिंह थे जिनके गीत कभी कवि सम्मेलनों की शोभा हुआ करते थे. गीत से होकर नवगीत तक के सफर के सहभागी रहे. नई कविता के सहयात्री होकर भी उनहोंने गीतों का पथ प्रशस्त किया और नवगीत दशक से लेकर नवगीत अर्धशती तक बेहतरीन संचयन तैयार किए. ‘पांच जोड़ बांसुरी‘ के बाद वह पहला बड़ा प्रयास था गीतों के संचयन की दिशा में. बाद में कन्हैयालाल नंदन ने भी साहित्य अकादेमी के लिए एक गीत चयन तैयार किया पर उनकी सुचिंतित भूमिका के बावजूद गीत का वह मानक चयन न बन सका.
नई कविता के पाठकों को याद होगी केदारनाथ सिंह की वह कविता : उसका हाथ मैने अपने हाथो में लेते हुए सोचा दुनिया को उसकी हथेलियों की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए. बात इशारों में कही गयी है पर दूर तक हथेलियों की गरमाई और उसकी छुवन के अहसास को जिंदा रखती है. बाबा नागार्जुन ने भी अपने युवा काल में लिखा था: झुकी पीठ को मिला किसी हथेली का स्पर्श तन गई रीढ़. पूरा का पूरा गीत नई बंदिश में चित्त में एक रोमानी सिहरन भर देता है. शिवमंगल सिंह सुमन ने एक जमाने में तमाम अच्छे गीत लिखे. हालांकि उन्हें लोग ‘मैं नही आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था—गीत से ज्यादा पहचानते हैं. पर उनके गीतों से जैसे आवेगमयी गंगा झर झर बहती हों. तभी तो उन्हें फागुन में सावन की झनकार सुनाई देती है. इसी संदर्भ का एक गीत है उनका, जिसमें क्या चित्र आंका है उन्होंने: हरियाली का स्वप्न थिरकने लगा उंगलियों में अलियों का उन्माद कि शोखी आई कलियों में. उंगलियों में हरियाली के स्वप्न का थिरकना नए अर्थ का उद्भावक है.
देवेंद्र कुमारबाद में भले ही नई कविता के पाले में चले गए हों, पर उनकी बुनियादी पहचान गीतों से ही बनी. गीतों में अत्यंत आधुनिक बोध के साथ वे प्रकृति का ऐसा मनोहारी चित्र खींचते थे कि चित्त उनमें बिलम-सा जाता था. एक ऐसा ही गीत उनका बेहद लोकप्रिय हुआ. एक पेड़ चांदनी लगाया है आंगने फूले तो आ जाना एक फूल मांगने. चांदनी का पेड़ लगाने की यह कल्पना कितनी अनूठी है यह किसीसे छिपा नहीं है. एक दौर में अक्सर उनके गीत धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में छपते. इसी दौर का लिखा उनका एक गीत है. फागुन का रथ कोई रोके. टूटी शाखें पतियाने लगींघेर-घेर कर बतियाने लगीं ऐसे में कौन इन्हें टोके. भला फागुन का रथ भी कोई रोक सका है. वसंत से लेकर फागुन का रसभीना मौसम कवियों के लिए कितना उर्वर रहा है. उधर पेड़-पल्लव सब शरद की ठिठुरन से मुक्ति पाकर जैसे ही धूप की चढ़ती गुनगुनाहट में पतियाने लगते, कवियों के भीतर भी जैसे कविता की वसुंधरा उर्वर हो उठती. मुझे लगता है यों तो प्रेम हर मौसम में सदाबहार होता है, पर वसंत और फागुन की जुगलबंदी में प्रेम कविताएं कुछ ज्यादा लिखी जाती हैं ; प्रेमपत्र भी. तभी तो शलभश्रीराम सिंह ने एक गीत में लिखा: खत लिखना फागुनी बतास जब खुले. हॉं, लिखना, दूध में गुलाल जब घुले. लिखना जी, फूले जब हरसिंगार. प्रवासी कवयित्री शैल अग्रवाल कहती हैं: हवाओं का यह महकता अहसास जाते शिशिर की तसल्ली हैकुछ चीजें नम अंधेरों से ही तो उग पाती हैं. एक अन्य कविता में वे कहती हैं: ‘अब बेचैनी नहीं एक संतुष्ट मुस्कान थी शिथिल पड़ते होठों पर क्योंकि पता है उसे भी, जैसे कि पता है उस उदास तने को – इन्ही जड़ो में तो सिमट जाएगी उसकी मिट्टी भी एक दिन और तब फिर से खिलखिलाएगा वह इन्ही शाखों पर अगले बसंत में…‘ अइहैं फेरि वसंत ऋतु इन डारिन वे फूल. तब रेशमी अहसास भरा-पूरा जीवन जैसे हर वक्त किसी अगले वसंत के इंतजार में ही रहता है.
कम लिखना और कविता को पूरे आवेग व मस्ती से जीना नरेश सक्सेना की विशेषता रही है. उन्होंने गीत लिखे तो हाथो हाथ लिए गए. एक जमाने में ‘फूले फूल बबूल कौन सुख अनफूले कचनार‘ ‘तनिक देर को छत पर हो आओ चॉंद तुम्हारे घर के पिछवारे निकला है.‘ तथा ‘सूनी संझा, झॉंके चाँदमुड़ेर पकड़ कर आँगना हमें, कसम से नहीं सुहाता—रात-रात भर जागना’ जैसी नेह-पगी पदावलियों के कवि नरेश सक्सेना का यह संग्रह उस वक्त आया है जब कविता में शब्दों की स्फीति सर चढ़ कर बोल रही है. उनके गीतों का आधुनिकताबोध बताता था कि यह कवि औरो से अलग है. वह गीत को कविता से अविच्छिन्न नही मानता. गीत में समाई न रही तो नरेश सक्सेना भी कविता की ओर मुड़े तथा बरसों तक वे अपनी मस्ती से लिखते रहे और छपने से छिपाते रहे. पर कविता और प्रेम की सुगंध भला कहॉं छिपने वाली है . वह सार्वजनिक हुई और नरेश जी की कविताओं ने मन मोह लिया. अभी हाल ही में प्रकाशित उनके कविता संग्रह ‘सुनो चारुशीला‘ की आखिरी पंक्तियॉं हैं: क्या कोई बता सकता है कि तुम्हारे बिन मेरी एक वसंत ऋतु कितने फूलों से बन सकती है और अगर तुम हो तो क्या मैं बना नहीं सकता एक तारे से अपना आकाश. –ऐसी सघन सांद्र संवेदना वाले नरेश से आज विजय जी भले ही ओझल हों,उनकी कविताओं के रेशे- रेशे में उनका प्यार-दुलार बोलता है. एक शिशु-सी सरलता और जल की तरह मित्रों में घुल-मिल जाने वाली तरलता लिए नरेश जी की कविताओं से एक ऐसी अनिंद्य अनुगूँज आती सुन पड़ती है जो मिट्टी में खिलौनों, खिलौनों में बच्चों और बच्चों में सपनों की ख्वाहिशों से भरी है.
केदारनाथ सिंह ने गीत के बारे में लिखा है कि गीत कविता का सबसे मुश्किल माध्यम है. सब कुछ कह लेने के बाद कवि के मन में जो एक भाषातीत गूँज बच जाती है, गीत की शुरुआत ठीक वहीं से होती है, और उसकी सफलता इसी में है कि उस भाषातीत गूँज को भाषा के संपर्क से कम से कम, विकृत या दूषित किया जाए. कोई गीत पढ़ने के बाद देर तक उसकी अनुगूँज में हम खोए रहते हैं, गीत की यही सफलता है. कभी कभी औचक यह गूँज हमारी स्मृतियों में दस्तक देती है . इस तरह गीत हमारे मन के किसी कोने में अपनी एक स्थायी जगह बना लेते हैं जो अवसर पाकर हौले से कानों में जैसे गूँजने लगते हैं. प्रेम क्या है. क्या वह केवल स्थूल इकाइयों का मिलन-भर है, क्या प्रेम उस गंध में नहीं है जिसकी उम्र बहुत लंबी होती है. क्या वही गंध, वही ऑंच नहीं है, जिसकी ओर गिरिजा कुमार माथुर ने भी इशारा किया है: इतना मत दूर रहो गंध कहीं खो जाए आने दो आंच रोशनी न मंद हो जाए. जैसे प्रेम में यह गंध खोनी नही चाहिए. गंध जितनी दूर और देर तक स्थायी रह सके, प्रेम की उम्र उतनी ही लंबी होती है. जैसे भाषातीत गूँज किसी गीत की जितनी दूर और देर तक हमारा पीछा करती है, गीत की उम्र उतनी ही लंबी होती है.
कविता और कलाओं पर यथार्थ का दबाव होता है. तब भी जीवन के सांचे में प्रेम की अपनी जगह है. वह यथार्थ और समय के दबावों के बावजूद होठों पर आ धमकता है. चाहतें प्रेम के रूपकों में ढल जाती हैं. एक वृहत्तर अर्थ में तो हर कविता प्रेम की कविता है. क्योंकि वह मनुष्य के हित में संभव होती है. हर कविता मनुष्य के अस्तित्व से जुड़ी है. तब भी प्रेम कविता का ताना बाना कुछ अलग ही होता है. वह दुर्वह समय में भी जीवन को जीने-योग्य बनाता है. ‘अकेली खुशी‘ में कुँवर नारायण की पंक्तियां हैं:
जी चाहता है तुम मेरे पास होतीं,
मेरे सिरहाने एक सह-अनुभूति -एक पहचानी हुई आवाज़
और हम स्वीकारते अनुगृहीत
इस प्रसन्न वनश्री का खुला हुआ आमंत्रण.
प्रेम सिरहाने एक सह अनुभूति की तरह उपस्थित हो, यह कितना सांकेतिक, कितना संवेदी है और सामने वनश्री का सौंदर्य मुखरित हो आमंत्रण देता हुआ हो तो फिर कहना ही क्या. कुंवर जी ने ऐसे और भी कितनी ही कविताएं लिखी हैं जिनमें समाहित संवेदना की सांद्रता इतनी घनीभूत है कि वह कविता के सौंदर्य को एक नई ऊँचाई देती है. रात के मौन की भी अपनी भाषा होती है. तभी तो कवि कहता है: रात मीठी चांदनी हैमौन की चादर तनी है. इस गीत का आखिरी अंश है: एक मुझमें रागिनी है जो कि तुमसे जागनी है. आलंबन और उद्दीपन का अन्योन्याश्रित रिश्ता. ऐसी ही एक कविता उन्होंने ‘परिवेश: हम तुम‘ में नीली आंखों के वैभव पर लिखी है: दो नीली ऑंखें.
दो खुश नीली आंखों में
एक अजीब चहल पहल उत्सव–
जैसे सबेरे सबेरे नीलाकाश में
झुंड की झुंडचिड़ियों का कलरव….
बस, इसी तरह याद है
दो नीली आंखों का अथाह वैभव.
राजेश जोशी ने ‘मिट्टी का चेहरा‘ में एक बहुत ही सुंदर कविता लिखी है. यों वे सामान्यत: प्रेम के कवि नहीं है पर ‘उसके स्वप्न में जाने का यात्रा वृत्तांत‘ शीर्षक यह कविता एक फंतासी की तरह घटित होती है. वसंत एक प्रतीक्षा का नाम भी है. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना वसंत-स्मृति कविता में एक पीली तितली को अपने कमरे में आया देख एक नायाब-सी कल्पना करते हैं. मानों तितली का आना बसंत का आना हो. वे कहते हैं: पहली बार मुझे लग रहा है कि दीवारें भी हिल सकती हैं और वसंत मेरे कमरे में भी आ सकता है. पर तितली और वसंत की प्रतीक्षा तो बहाना है. असल बात उस मधुर स्मृति की है जो इस अहसास से ही कहीं अधिक घनीभूत होकर उभर आई है:
कितनी मधुर है तुम्हारी स्मृति!
लेकिन कितना करुण है उसका
इन दीवारों में भटकना!
फिर भी कितना साहस है मुझमें, कि मैं बैठा
बसंत की प्रतीक्षा कर रहा हूँ.
वसंत विजयदेव नारायण साही के यहां भी जैसे प्राण को सींचने के निमित्त आता है. कुहराये शीत और उष्णवायु आतप के बीचोबीच कसे इस गुलाबी मौसम के बारे में उनकी यह कामना कितने औदात्य से भरी है: बीच का बसन्त यह वैभव है अद्वितीय डूब डूब जीना इसे मन में सँजोना यहीं लौट लौट आना, बह जाना, सींच देना प्राण इतना कि रग-रग में ममता-सा बस जाय! यह वसंत वैभव कहां नहीं है. मुझे अक्सर लगता है यदि इस प्रकृति के वैभव को, प्रेम के वैभव को हिंदी कविता से निकाल दिया जाय तो वह विपन्न हो जाएगी. यह प्रेम ही है, लालित्य ही है जो ‘शुष्कं वृक्षं तिष्ठत्यग्रे‘ को ‘नीरसतरुरिह विलसति पुरत:‘कहलवाता है और तब लगता है भीतर जब प्रेम भरा होता है तो जीवन छंदमय हो उठता है. वह किसी ठूँठ को भी एक हरियल प्रभामंडल में बदल देता है. तभी देखिए एक प्रेम कविता में हिंदी के सुपरिचित कवि मंगलेश डबराल क्या कहते हैं:
तुम्हारे लिए आता हूँ मैं इस रास्ते
मेरे रास्ते में हैं तुम्हारे खेत
मेरे खेत में उगी है तुम्हारी हरियाली
मेरी हरियाली पर उगे हैं तुम्हारे फूल
मेरे फूलों पर मँडराती है तुम्हारी आंखें
मेरी आंखों में ठहरी हुई तुम.
‘नख शिख‘ अज्ञेय की सुपरिचित कविता है. वैसे तो उन्होंने प्रेम की सैकड़ों कविताएं लिखी हैं. पर इसकी आभा ही अलग है. यह इस अर्थ में अनूठी है कि अज्ञेय केवल प्रयोगवादी कवि ही नहीं बल्कि उनकी प्रेम कविताओं का स्वरूप भी आधुनिक है. परंपरागत प्रतिमानों,उपमान और उपमेय को नए ढंग से बरतने का;और अज्ञेय यह काम सलीके से करते हैं: तुम्हारी देह मुझको कनक-चम्पे की कली है दूर से ही स्मरण में भी गंध देती है (रूप स्पर्शातीत वह जिसकी लुनाई कुहासे-सी चेतना को मोह ले) और इसे ही अज्ञेय की उत्तरवर्ती पीढ़ी के कवि विनय दुबे यों कहते है: मैंने तुम्हें छुआ तुम्हें क्या एक पत्ती को छुआ थरथराने लगा नीम धरती और आकाश के बीच.(जैसे मैं कहूँ वैसे कहे नीम) और हाथो मे हाथ हो तो प्रयाग शुक्ल की कल्पना भी ऊँची उड़ान भरती है: बहुत दूर था चंद्रमा उसकी आभा थी पास एक हाथ था मेरे हाथ में धमनियों में बह रही थी पृथ्वी.(यह जो हरा है) ‘कागज, कलम और स्याही‘ में कुंवर नारायण ने एक अनूठी कामना की थी कि फिर कभी कागज़ हुआ तो चेष्टा करूँगा कि जिंदगी किसी ऐसे खत का इंतजार हो जिसे कोई प्यार से लिखे, संभाल कर लिफाफे में रखे और होठों से चिपका कर देर तक सोचे कि उसे भेजे या न भेजे. ऐसी ही एक कामना अरुण कमल की है जब वे ‘नए इलाके में‘ की ‘अभिसार‘ कविता के अंत में कहते हैं:
चाहता हूँ कि एक शाम जब सॉंकल पीटूँ
तो बहुत फुल्के कोई कुंडी खोले
और देखूँ सामने वृंत पर वही
जिसकी इतने दिन से गंध लग रही थी.
उदासियों के बीच भी प्रेम पनपता है. कम से कम नंद किशोर आचार्यकी कविताएं तो यही बताती हैं. ‘उदास कविताऍं‘ की पंक्तियां देखें: ” ‘इतनी उदास क्यों हैं कविताएं तुम्हारी‘पूछा उसने देखते हुए मेरी ओरऔर देख कर मुस्कान फीकीदेखने लगी दूसरी ओर–लरजती उंगलियों से सहलाती कविता संग्रह मेरा.” एक दूसरी कविता में वे एक सॉंवली खामोशी से बतियाते हैं: ‘एक सांवली खामोशी मेंडूबा है जंगल मुझको अब कहां जाना है जब लय हो गए हैं उसमें सबरंगीन मेरे सुर.‘
हिंदी कवियों की वरिष्ठ पीढ़ी में शुमार किए जाने वाले ज्ञानेंद्रपति का अभी हाल ही प्रेम कविताओं का ही संकलन आया है: मनु को बनाती मनई. कभी उनकी लिखी कविता: ट्राम में एक याद को प्रेम कविता का सिग्नेचर ट्यून माना गया था, उसके लंबे अरसे बाद ज्ञानेन्द्रपति अपनी कोमल चित्त की कविताओं के साथ फिर उपस्थित हुए हैं. प्रेम कविताओं के संदर्भ में हमारे समक्ष जो दो बड़े उदाहरण मौजूद हैं, वे अज्ञेय और शमशेर की प्रेम कविताओं के हैं. अज्ञेय में व्यक्तिवाद प्रबल है तो शमशेर की कविताओं की ऐंद्रिय शक्ति लाजवाब है. कविता में देह का वर्चस्व दिखते ही लोग नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं, पर यह दैहिकता अज्ञेय में थोड़ी क्षीण है, पर है, शमशेर में भी है बेधक–कहीं कहीं उद्दाम आवेग की वल्गाएं जैसे भुजपाश में न समाती हों और अशोक वाजपेयी में तो खैर कूट कूट कर भरी है. केदारनाथ अग्रवाल की प्रेम कविताओं की उच्छल जलधि तरंग दाम्पत्य के रस से सिक्त है.
इस कसौटी पर ज्ञानेन्द्रपति के यहॉं अनुराग और प्रीति व्यक्त करने का सलीका ज़रा शालीन है. गोकि प्रेम हो और दैहिकता न हो, ऐसा कम हो पाता है. ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं में भी देह है,अनुराग और प्रीतिकर क्षणों में भीगता भिगोता हुआ मन भी. पर चालित वे अपने ही विवेक से होते हैं. सौंदर्य के अवगाहन अवलोकन एवं भोग के क्षणों में भी उनका समाजोन्मुख कवि जागता रहता है. वह प्रेमिका के सौंदर्य से प्रतिकृत होता है और भावविभोर होते हुए यह कहने में संकोच नहीं करता कि ‘तुम्हीं हो आदिम प्रकृति-पुरुषप्रिया तुम्हारे उदर पर सिर रख कर जब जब मैंने मरना चाहा हैमेरी धमनियों में जीवन की गति तेज़ हो गयी है.‘वह जॉंघों के बीच बहती अछोर सदानीरा का जिक्र करता है जो सदा अपने पर झुके कंठ को तृप्त करती आई है. वह नि:संकोच कहता है: ‘बड़ा प्यार उमड़ता है तुम्हारे चश्मे पर.‘ वह कहता है: ‘मेरे-तुम्हारे बीच एक किताब खुली हैहाइफन-सी साइफन-सी बॉंटती नहीं, जोड़ती पुलिनों को पुल-सा पाटती.‘ इस कवि का काव्यानुशासन बताता है कि वह न तो सौंदर्य का बखान करने से चूकना चाहता है न काव्य-सौंदर्य को श्रीहत करने का जोखिम मोल लेना चाहता है. वह स्त्री सौंदर्य के बखान में उसकी शील-रक्षा के साथ अपनी कविता की शील-रक्षा भी करना जानता है. लिहाजा वह गोलाइयों,अमृत कुंभ और अधरामृत, शुभ्र सुडौल रसगर देह की थाह लेता हुआ भी अंतत: आवाज़ और खुशबुओं की खनक से ही प्रेम के महाभाव से भर उठता है. पेड़ और एक गिलहरी के प्राकृतिक रोमांच को जीता हुआ वह उस पल की कल्पना करता है जब गिलहरी के जड़ों से फुनगी तक की दौड़ उसके वल्कल को रेशमी आभा में बदल देगी.
हाल ही के अपने संग्रह ‘जितने लोग उतने प्रेम‘ में लीलाधर जगूड़ी ने प्रेम की स्थानीयता, प्रेम, प्रेम और समय प्रबंधन, ओ मेरी वृद्ध प्रिय, प्रेम को प्रेम तक, प्रेम में निवेश, प्रेम का दखल, प प्रेम में, प्रेम के फेरे, प्रेम किया मैंने और जितने लोग उतने प्रेम जैसी कई कविताएं लिखी हैं. केवल युवा प्रेम पर ही नहीं, उत्तर जीवन के प्रेम को भी कवि ने अपने ध्यान में रखा है. एक जगह वह कहता है, उधड़ी सीवनों का जिक्र न करोआज भी धागे जैसा पड़ा हुआ हूँ तुम्हारी सुई में. यह वही जगूड़ी हैं जिन्होंने कहा कभी कहा था, प्यार में प्रत्येक प्रश्न अनिवार्य है.
स्त्री की सजल और मार्मिक छवियों ने चंद्रकांत देवताले के भीतर स्त्री संसार का एक विपुल कोना रच रखा है जिसकी तहें उलटते हुए लगा कि उनकी तमाम कविताएं प्रेम के उद्दीप्त आलोक में रची गयी है. एक कवि के भीतर जैसे समूची मानवता का वास होता है,वैसी ही उसकी संवेदना की मखमली उपत्यका में स्त्रियों का वास होता है. उनकी कविताओं में आई स्त्रियों से उनके कई तरह के रिश्ते हैं, कहीं उनमे बेटियों की आभा है, कहीं पत्नी की,कहीं अंतश्चेतना को प्रेम की उद्दीप्त ऑंच से पिघलाती हुई प्रेमिका की—यानी कवि ने सब कुछ उसी भाव से रचा है जैसे बच्चन कह गए हैं: मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता……………..
युवा कवियों का अपना वसंत होता है. प्रेम की अपनी दुनिया होती है. उसके कहने का सलीका भी अलग ही. इस वक्त लिख रहे युवा कवियों में गीत चतुर्वेदी, अरुण देव,प्रेमरंजन अनिमेष,एकांत श्रीवास्तव,यतींद्र मिश्र,जितेन्द्र श्रीवास्तव,पुष्पिता अवस्थी,सविता भार्गव,नीलेश रघुवंशी,रंजना श्रीवास्तव,रंजना जायसवाल, ज्योति चावला,बाबुशा कोहली के यहां प्रेम की पुलकित व्यंजनाएं मौजूद हैं. ‘आलाप में गिरह‘ में गीत चतुर्वेदी ने अनेक जगह अपनी रागात्मक चेतना के प्रमाण दिए हैं. उसके बाद भी उनकी कई कविताओं, यथा चंपा के फूल,समकोण, तुम्हारा शुक्रवार,शुक्रवार,मनमाना,शुक्रवार,मनमाना,चोरी,शुक्रवार,मनमाना,चोरी,पर्णवृंत आदि में प्रेम के अनेक रंग खिलते हुए दिखते हैं. हालांकि वे बेशक कहें कि बचना प्रेम कथाओं का किरदार बनने सेवरना सब तुम्हारे प्रेम पर तरस खाएंगे. किन्तु कवि तो ऐसी आचार संहिताएं तोड़ने के लिए ही पैदा होता है. वह अगली ही कविता में कहता है: ‘तुम आओ और मेरे पैरों में पहिया बन जाओ जाओइस मंथरता से थक चुका हूँ मैं थकने के लिए मुझे अब गति चाहिए.‘(मंथरता से थकान) ‘चंपा के फूल‘ में वे लिखते हैं: ‘स्वप्न में हुए एक सुंदर प्रणय को उचक कर छू लेना चाहता हूँ लेकिन मेरी चंपा उचक से परे खिलती है मैं उसकी छांव में बैठा उसके झरने की प्रतीक्षा करता हूँ.‘ गीत चतुर्वेदी की कविताओं में प्रेम की अनन्यता दृष्टिगत होती है. जैसे उनकी कविता ‘असंबद्ध‘ जो छोटी होते हुए भी एक संक्रामक प्रभाव डालती है, जब वे कहते है, किसी का माथा चूमना उसकी आत्मा को चूमने जैसा है.
अरुण देव ‘कोई तो जगह हो’ की चाहत रखने वाले कवि हैं. जीवन का राग उनके यहॉं निश्शेष ही नहीं, बल्कि वह प्रभूत मात्रा में पसरा है. उनके यहां प्रेम की सारी अभिव्यक्तियॉं, कल्पना और यथार्थ के रसायन में स्वाभाविक-सी जान पड़ती हैं. कहना न होगा कि इस युवा उम्र में अक्सर ऐसी ही प्रेम कविताऍं लिखी जाती हैं. बल्कि कहूँ तो उनका संग्रह ‘कोई तो जगह हो‘ प्रीति और अनुराग से भीगा है. एकांत श्रीवास्तव लोक और प्रकृति की सत्ता को बखानने वाले कवि रहे हैं. लोक का रोमान और यथार्थ दोनों उनकी कविताओं की अस्थिमज्जा में अनुस्यूत है. पर बीच बीच में उनके यहां भी प्रेम की भावभीनी व्यंजनाएं कौंध जाती हैं. जितेंद्र श्रीवास्तव के आए लगभग सभी संग्रहों का अंत:संसार प्रेम की अनुभूतियों से ही बना बुना है. पर अपने पहले ही संग्रह से जिस तरह नीलेश रघुवंशी ने अपनी छाप छोड़ी थी, जिस तरह अपने पहले ही संग्रह से ज्योति चावला और सविता भार्गव ने कविताओं में अपने अनुरागी चित्त की काव्यमयता का प्रदर्शन किया है, वह कम युवा कवियों में देखा जाता है. ज्योति चावला मातृत्व को जीवन में तमाम रंगों का आगम मानती हुई कहती हैं: ‘’इन दिनों रंगों का संगमन है मेरे आंगन में…हर चीज़ मुझे सुंदर दिखती है इन दिनों.‘’
कुछ कवयित्रियों ने कविता में वसंत और प्रेम के फूल ही फूल खिलाए हैं. अक्षत, तुम हो मुझमें, तथा शैल प्रतिमाओ से तथा ‘शब्दों में रहती है वह‘ से होता हुआ पुष्पिता अवस्थी का कविता संसार इसकी जीवंत गवाही देता है. वे प्रिय की आंखों के खलिहान से सपनों के अनाज चुनती हैं. ‘पीतांबरी शगुन‘ में वे लिखती हैं:
अपनी गंगा में जीती हूँ तुम्हारी यमुना जैसेअपने कृष्ण मेंतुम मेरी राधा
तुम्हारे शब्दों मेंछूती हूँ मैंतुम्हारे ग्लेशियर खंड
तुम्हारे शब्द-प्यास मेंबुझाती हूँ अपनी मन-प्यास
और सौंपती हूँ अक्षय तृष्णा
तुम्हारे शब्दों की नाव सेमैं पहुँचती हूँतुम्हारे मन की यमुनोत्री तक
सेमल के फूल के रंग मेंछिप होते हैं रेशमी फाहे
और फूली हुई सरसों कापीताम्बरी शगुनवसंत ऋतु से पहलेवसंत के लिए.
–प्रेम के लिए ऐसा उछाह मन में हो तो वह तर्कातीत होता है. कवयित्री का यह कहना कि प्रेम मेरा घर हैबचा रहेगा मेरे बाद भी मेरे नाम का संग्रहालय बन कर–प्रेम की चिरन्तनता का ही प्रमाण है.
सविता भार्गव की कविताओं में एक स्त्री की सहज प्रेमानुभूति का बखान दिखता है. शायद कविता ही वह कोना होता है जहॉं कवि अपने दिल की हर बात खुल कर कहता है. सविता अपनी प्रेमानुभूति को परचम की तरह आकाश में लहराती है. उनके अनुभव के आकाश का अपना चांद है, उसे चाहने और ‘मुझे चॉंद चाहिए‘कहने का अपना सलीका भी. कहीं कहीं बेलगाम आवेग इतना कि प्रणयी वल्गाओं को कौन थामे! तभी टेसुओं में देह की आग दहकती है और नीले वसन से बादलों के टुकड़े झाँकते हैं. इसी उन्माद के वशीभूत हो कवयित्री कह उठती है: ‘प्यार तराशो मुझे जैसे कोई हुनरमंद कारीगार तराशता है हीरे को.‘ उसकी उनींदी ऑंखों में उतरती हुई धूप की तरह प्रिय के पदचाप की आहट सुनाई देती है और होठों से यह धीमी बुदबुदाहट: ‘डूब रही है मेरी नींद तुम्हारे भीतरधीरे से.‘ मोहन कुमार डहेरिया ने ‘न लौटै फिर कोई इस तरह‘ संग्रह को पूरी तरह प्रेम की ही भावभूमि पर रचा है. प्रेम में होने का ही परिचय देते हुए वे कहते हैं, ‘इन दिनों लग रहा है हर ऋतु के होते हैं अपने अपने वाद्ययंत्र नदी, पेड़ तथा पहाड़भी बदलते हैं दिन में कई बार अपने वस्त्र सूर्य चंद्रमा और नक्षत्र भी जीते हैं एक लयवद्ध ढंग से अपना अपना जीवन.‘ ये दिन भला और कौन से हो सकते हैं. वसंत के सिवाय. बल्कि कहा जा सकता है कि प्रेम की हर ऋतु वसंत और फागुन की ही ऋतु होती है. केवल मौसम से ही नहीं,प्रेम की भी अपनी ऋतु होती है. प्रेम हर ऋतु को वासंती आभा में बदल देता है.
वसंत और फागुन की जुगलबंदी हो तो रससिक्त कविताएं ही मन में फूटती हैं. यथार्थ की पथरीली धरती भी ऐसे मौसम में नम हो उठती है. कवियों का चित्त चंचल हो उठता है. उन्हें तो जैसे यह मौसम कविता करने के लिए न्योतता-सा प्रतीत होता है और यह कहता हुआ भी कि : खेतो की हरियाली बंट गयी फसलें सोना होकर कट गयीं घर ले जाऊँ किस पर ढो के फागुन का रथ कोई रोके. पर फागुन का रथ भी कोई रोक सका है क्या. हां हम उन क्षणों को शब्दों में, प्रीतिकर अहसासों में संजो कर रख सकते हैं. कवियों ने यही किया है. उनके कोठार में हर मौसम और मिजाज की कविताएं होंगी पर उनमें भी वसंत,फागुन और प्रेम की कविताऍं अलग से ही दिखती होंगी— हमारी नींदों में स्वप्न की तरह खनकती हुई.
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डॉ. ओम निश्चल
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