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Home » बोधिसत्व की कविताएँ

बोधिसत्व की कविताएँ

हिंदी के सुपरिचित कवि बोधिसत्व की इन ग्यारह कविताओं में कविता की अपनी शक्ति तो दिखती ही है प्रतिरोध का उसका साहस भी प्रखरता से सामने आता है. प्रकृति, स्त्री, मिथक, गंगा-जमनी संस्कृति, गांधी, हिंसा, उन्मादी अतिरेक आदि किनारों के बीच कविता का जल बहता है, भिगोता है, उन्हें काटता और तोड़ता है. इसमें समय का कीचड़ है जो उसे धूसर बनाता है जो कि हमारे समय का आज प्रतिनिधि (बद)रंग है. कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
March 24, 2022
in कविता
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बोधिसत्व की कविताएँ
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बोधिसत्व की कविताएँ

1
करतोया

(वह पौराणिक नदी जो पार्वती के हाथों से निकली, आज बांग्लादेश में बहती है)

घोर शिव ने गहरे अंधकार में
उदास पार्वती का हाथ पकड़ा!

स्पर्श से टूट गया अबोला नव दंपति का!

शिव द्वारा पाणिग्रहण से कंपित हुईं
पर्वत तनया पार्वती
उनका मन पसीज गया
भीग गए गात
भीग गया माथ
भीग गए दोनों हाथ
पाकर शिव का साथ.

पार्वती की गदोरी से छूट कर बह गईं पसीने की बूंदें
मिल कर नदी हो गईं

उस अंधियारी उदासी में हाथ
थामे खड़े रहे अविचल हर
अकंप खड़ी रहीं गौरी

स्नेह से छूना भी नदी कर देना होना है
एक पर्वत सी स्त्री को जल में ढाल देना होता है!

 

2
सहधर्म!

कोई पत्ता अकेला नहीं गिरता कभी
हर पत्ते के साथ
टूट टूट कर गिरता रहता है पेड़ भी!

पत्तों का गिरना देखता है पेड़
पर पेड़ का गिरना नहीं दिखता
न पत्तों को न पंछियों को!

जब सारे पत्ते बिछुड़ जाते हैं
तब पत्र हीन पेड़
अपने पत्तों के स्मारक बन जाते हैं!

 

3
प्रायश्चित!

छोड़ कर गई पत्तियों और पंछियों को
कभी क्षमा नहीं करते पेड़!

पंछी तो खोज लेते हैं दूसरा वन
तीसरा पेड़ चौथे पहर तक
और भूल जाते हैं छोड़े पेड़ को!

किंतु पत्तियों को यह बात दुःखी करती है
कि पेड़ ने उनको
टूट जाने के पहले
उड़ना और जुड़ना क्यों नहीं सिखाया!

पत्ते मानते हैं कि पंछियों को पंख
पेड़ देते हैं
उनको उड़ना और जुड़ना भी सिखाते हैं
फिर भी देखो पंछी उनको छोड़ जाते हैं!

 

4
हिसाब!

पेड़ पृथ्वी से अपनी खोई हुई पत्तियों का
हिसाब मांगने के किए खड़े रहते हैं!

सारी बिछुड़ी पत्तियां मिल जाएं तो
पेड़ खुशी खुशी पृथ्वी छोड़ कर चले जाएं.

अगले बसंत में पिछले पतझर की उधारी
पेडों को कहीं और जाने से रोकती है
अपने पत्ते लेकर ही जाओ
पृथ्वी उनको टोकती है!

पतियों को यादकर गिनने में
घिस जाती हैं डालें
उत्तर जाती हैं छालें.

पृथ्वी रखती है उतरी छालों का हिसाब
कि कभी भी वापस मांग सकते हैं पेड़
पत्तियों के साथ!

 

5
राम की जल समाधि!

झूठ कहते हैं ग्रंथ कि
हजारों वर्ष अयोध्या में राज्य करने के बाद
राम ने ली थी सरयू में जल समाधि!

सरयू के जल में डूबने के
कई साल पहले ही
वे पुरुषोत्तम सीता के आंसुओं में
डूब कर मर गए थे!

जब अग्नि में जलाई गई तब
लंका में ही भस्म हो गए थे राम!
तब वे चक्रवर्ती सम्राट नहीं थे!

वनवास से अयोध्या सीता के साथ नहीं
उसकी राख और परछाई के साथ लौटे थे राम!

जिसे लखन के साथ वन भेजा अयोध्यानाथ ने
जो बिलखती धरती में समाई
जीवित कहां थी वह भूमिजा?
सदेह कहां थे उसके रघुराई?

रावण मारीच के कपट हरण ने नहीं
राम के छल ने
जानकी को मारा है
स्वयं जल में डूब कर आत्म घात करने वाले राम ने
भला कब किसे उबारा है?

(31 दिसंबर 2021)

 

6
एक दिन सम्राट का भौकाल गोबर की कंडी में सुलग गया!

प्रजा का जो जो दुःख था
सम्राट के लिए वह अवसर था सुख था!

पीड़ित लोगों के साथ फोटो खिंचवाने के शौक से
राजा हर शोक को उत्सव में बदल लेता था!

त्रासदी को यादगार बनाना
और समय समय पर
दुःख के मनोरम चित्र देखना दिखाना
इतना ही लोकतंत्र था शेष!

प्रजा का खून चूस कर
उसे नमक बांटना महान कृत्य था
और इसे इतिहास में दर्ज कराने के लिए
दिन रात जागता था मुखिया!

युग में जो जितना झूठा था
वो उतना अनूठा था!

पीड़ा छुपाने
और मुस्कराने में ही अपना
कुशल मानता था जनगण!

व्यथित मन से कह रहा हूं
मेरे इस लिखे को याद रखा जाए
गोबर रंग रंगा फोटो का युग था मेरा!

गोबर से उसे और उसके अपनों को बहुत प्रेम था
और एक दिन उसी गोबर की कंडी सुलग गई
उसी एक दिन राजा का भौकाल राख हो गया!

शासक ने सुलगती आग के साथ
कोई चित्र ना खिंचवाया
बच बचा कर निकल गया और
कोई संदेशा ना भिजवाया!

अब धुएं के पार से दिखता था मटमैला नया दिन
अब दुःख था दुःख जैसा व्यथित करता
अब सुख था सुख जैसा
बीते दुःख सा धुआं हो गए
राजा की याद दिलाता!

(24 फरवरी 2022)

 

7
अक्सर!

अक्सर
मुझे लगता है
जो हारा हुआ आदमी है
वह मैं ही हूं
वह जो भीड़ के बाहर कहीं छूट कर
भटक गया है
वह थका आदमी मैं ही हूं
वह जिसे एक निर्दय भीड़ पीट रही है
वह मारा जा रहा आदमी मैं ही हूं.

वह स्त्री जिसे उसके ही आंगन में
जीवित जलाया जा रहा है वह भी मैं ही हूं
वह लड़की जिसके शव को
तेल छिड़क कर
रात की चिता में सुलगाया जा रहा है
वह मैं ही हूं!

हर रुलाई मेरी है मेरी है हर चीख
हर टूटी पसली कटा हुआ शीश
पीठ पर रस्सी से बंधे हाथ
हर झुकाया हुआ लज्जित माथ
मेरा ही हैं!

हर रोती आंख मेरी है
हर जलता घर मेरा है.

अक्सर मुझे लगता है
घोसला बनाती चिड़िया
और खूंटे पर बंधी व्यथित गाय मैं ही हूं!

अक्सर मुझे लगता है
और मैं वेदना व्यथा से घिर जाता हूं
और अनेक बार अपनी ही दृष्टि में
गिर जाता हूं!

 

8
ऐसे ही!

मछलियों और चिडियों के भटकने का कोई एक रास्ता नहीं होता!
मछलियां पानी से और चिड़ियां हवा से एक ही जैसी शत्रुता नहीं करती!
हर मछली पेड़ों पर घोंसले बनाने का सपना देखती तैरती रहती है अंतिम सांस तक
और पंछी केवल बूंदों को चुग कर लौट आते हैं पेड़ तक!

ऐसे ही बूंदों के झरने का एक ही तरीका नहीं होता
ऐसे है फूलों के खिलने और मुरझाने का एक ही ढंग नहीं होता.

वे बड़े क्रूर होते हैं जो दुनिया को एक ही तरह के फूलों से भर देना चाहते हैं!

ऐसे ही कविता एक ही तरह से नहीं खिलती
शब्दों के बंधने का एक ही तरीका नहीं होता
ऐसे ही प्रेम होने और खोने का एक ही ढंग नहीं होता!

ऐसे ही याद रखने और भूल जाने की नीति एक ही नहीं होती!

जो प्यार करते हैं वे ही क्षमा करते हैं
वे ही घाव भरने के लिए अक्सर मात्रा से थोड़ा अधिक लगा देते हैं दवा!

लेकिन सब कुछ एक जैसा नहीं होता

वे ही रोते हैं दुःख में जो जानते हैं कि चंद्रमा भले ही कम दिख रहा है लेकिन वह पूरा मौजूद है अंधेरे शून्य में!

लेकिन अदृश्य चंद्रमा सबके लिए एक जैसा ओझल उजागर नहीं होता

ऐसे ही आधा तीहा क्षोभ
पूरा पूरा लोभ भी निष्कपट होने से बचाता है!

लेकिन सब कुछ एक जैसा नहीं होता

ऐसे ही चिड़ियां और मछली जाल में आते हैं!
लेकिन एक जैसे नहीं होता फँसना और उलझना
और निकल जाना!

 

painting/Anjolie Ela Menon/Rafiya Manzil

9
ताजिए की लकड़ी मैं!

(आज के इस उन्माद के वातावरण में यह कविता किसी काम की है क्या?)

हमारे बाग से कट कर गई
ताजिए की लकड़ी हूं.

ताजिए में जुड़ कर इस्लाम हो गया मैं
मेरी कहानी मुहम्मद साहब के नवासों से गुथ गई
हसन हुसैन मेरे हो गए
मैं उनका हो गया
रात की रात मैं ताजिया हो गया.

वैसे बहुत दूर है मक्का मदीना
बहुत दूर है आमना का आंगन.
वो चरवाहों की बस्ती
वो पानी के लिए हुआ खून खच्चर
वो सलीबें धूप में सूखती लाशें
हसन हुसैन के बाग में पता नहीं
महुए के बिरिछ होते हैं कि नहीं!

पहले मैं एक पंडित का पेड़ था
एक पंडित के बाग में
पंडित को देता फूल फल पत्ते छाया!

अब जब पुराना हो जाएगा ताजिया
सब चमकदार नक्काशियां जब उतर जाएंगी
एक ढांचा भर रह जाएगा ताजिया

मैं ताजिए से फिर काठ हो जाऊंगा
फिर पता नहीं कहां जाऊंगा.

कितनी प्रतीक्षा करनी होगी
कहीं और जुड़ने जुड़ाने में

पंडित के बाग के सब पेड़ अब भी पंडित हैं
सारे फल सारे फूल सारे पात
सारी जड़ें
सब पेड़ो की परछाइयां भी
मैं भी पंडित हूं
ताजिए में जुड़ा पंडित का पेड़ हूं
जो हसन हुसैन के आंगन की छाया है अब!
भदोही के एक गांव में.

फिर मैंने पाया हमारे
पंडित जी ने ताजिया उठाया जिनका मैं पेड़ था
उन्होंने मुझे कांधा लगाया
करबला पहुंचाया
हसन हुसैन की याद में आंसू बहाया
भदोही के एक गांव में.

ताजिया हमारे बाग की बगल से गुजरा
कुछ दूसरे पेड़ो की छाया में सुस्ताए
ताजिए दार
और बाग के बगल वाले करबला में मुकाम पाया.

कई बार सोचता हूं तो रुंध जाता है गला
मन धुआं धुआं हो उठता है कि
अगर मैं कभी गलती से भी जला
तो पंडित का पेड़ जलेगा या ताजिया की लकड़ी?

 

10
मस्जिदों से एक अपील!

ओ भारत की मस्जिदों
तुम स्टेशनों से हट कर कहीं चली जाओ
आखिर तुमको कहीं जाना नहीं है तो स्टेशनों पर क्यों खड़ी हो?

लोग स्टेशन आते हैं तो
ऐसा लगता है मस्जिद आए हैं.

मैं बांद्रा आता हूं तो लगता है
मस्जिद आया हूं!
तुम्हारी जगह मंदिर होते तो यह डर न होता!

लोगों के लिए सुविधा होती
दर्शन करके यात्रा आरंभ करते!
जैसे दादर स्वामी नारायण का मंदिर है
वहां भीड़ लगे तो अच्छा लगता है!

भीड़ केवल मस्जिद के सामने डराती है
भीड़ केवल शाहीन बाग में डराती है!
भीड़ केवल जमात की डराती है!

बाकी सब जगह की भीड़ ठीक है!

अभी तुम कहीं और चली जाओ!
स्टेशनों से हट जाओ
रास्तों से हट जाओ
चौराहों से हट जाओ
बस अड्डों से हट जाओ
हवाई अड्डों से हट जाओ
ओ मस्जिदों!

तुम कहीं छिप जाओ!
समेट लो खुद को!
तुम दिखती क्यों हो
तुम्हारी मीनारे भी दूर से दिख जाती हैं!
और अज़ान कितनी दूर तक सुनाई देती है

सबको छिपा लो
चुप हो जाओ
और कहीं चली जाओ!

 

Painting/Krishen Khanna/ News of Gandhiji’s Death

11.
गांधी की कराह!

आज सुबह प्रार्थना भवन के अंदर
लहूलुहान गांधी मिले
कराहते हुए बोले-

“मेरी पसली में अटकी ये गोडसे की गोली
निकाल दो
बहुत तकलीफ में हूं!”

मैंने देखा हड्डी में अटकी थी एक गोली जंग खाई
आस पास उनके विचार वाला कोई ना था
ना नेहरू, पटेल, कस्तूरबा ना महादेव भाई
हजारों गोडसे से घिरे थे गांधी
भीड़ में किसी गोडसे को
बिलखते गांधी पर ना दया आई!

मैं डरा हुआ उनको वहीं छोड़ कर
बढ़ गया आगे
गांधी के लिए गोडसे के मुंह कौन लगे?

घर पहुंच कर एक गोली मैंने
अपनी पसली में धंसी पाया
गांधी के लहू से भीगा हुआ खुद को पाया!
बाहर सड़क दफ्तर खलिहानों और मकानों में
लाखों गोडसे लगा रहे थे गांधी का जयकारा
और पूछते थे एक दूसरे से
गांधी को किसने मारा?

कराह रहे हैं गांधी
उनकी पसली में धंसी है गोली
देश बोल रहा है
घायल गांधी से गोडसे की बोली!

अपनी पसली में धंसी गोली से
रिस रहा है निरंतर रक्त
अपनी यातना से आहत
मैं गांधी को भूल जाना चाहता हूं
क्यों याद रखूं उनका होना
उनकी पसली उनकी हत्या!

बार बार खुद से पूछता हूं कौन गांधी?
कोई उत्तर नहीं देता भाई
बस दिशा दिशा से गांधी की
जयकार से घिरी कराह
देती है सुनाई!

8 मार्च 22

बोधिसत्व
11 दिसम्बर 1968 को भदोही (उत्तर प्रदेश)  

प्रकाशन- सिर्फ कवि नहीं (1991), हम जो नदियों का संगम हैं (2000), दुख तंत्र ( 2004), खत्म नहीं होती बात(2010) ये चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं. लंबी कहानी वृषोत्सर्ग (2005) तारसप्तक कवियों के काव्य सिद्धांत ( शोध प्रबंध) ( 2016) 

संपादन- गुरवै नम: (2002), भारत में अपहरण का इतिहास (2005) रचना समय के शमशेर जन्म शती विशेषांक का संपादन(2010).

शिखर (2005), धर्म( 2006) जैसी फिल्मों और दर्जनों टीवी धारावाहिकों का लेखन. जिनमें आम्रपाली (2001), 1857 क्रांति(2002), महारथी कर्ण (2003), रेत ( 2005) कहानी हमारे महाभारत की (2008), देवों के देव महादेव (2011-14), जोधा अकबर ( 2013-15) चंद्र नंदिनी (2017) जैसे बड़े धारावाहिकों के शोध कर्ता और सलाहकार रहे. इन दिनों रामायण पर बन रही एक फिल्म के मुख्य सलाहकार और शोधकर्ता हैं. साथ ही अनेक ओटीटी प्लेट फॉर्म के पौराणिक धारावाहिकों के मुख्य शोधकर्ता और सलाहकार हैं.अभी हाल ही में स्टार प्लस चैनल पर एक धारावाहिक विद्रोही का निर्माण किया.

सम्मान- कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल सम्मान(1999), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान (2001), संस्कृति सम्मान (2001), हेमंत स्मृति सम्मान (2002), फिराक गोरखपुरी सम्मान (2013) और शमशेर सम्मान (2014) प्राप्त है जिसे वापस कर दिया.

कुछ कविताएँ देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित हैं. कुछ कविताएँ मास्को विश्वविद्यालय के स्नातक के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है. दो कविताएँ गोवा विश्व विद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल थीं.

फिलहाल- पिछले 21 साल से मुंबई में बसेरा है. सिनेमा, टेलीविजन और पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखाई का काम.

abodham@gmail.com/मोबाइल-0-9820212573

Tags: 20222022 कविताएँबोधिसत्व
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Comments 13

  1. दयाशंकर शरण says:
    3 years ago

    बोधिसत्व की कविताओ से आज दिन की शुरुआत बहुत सुंदर रही। ये कविताएँ हमारे अंतर्मन की घनीभूत पीड़ा और उसकी सघन अनुभूति की कविताएँ हैं। अपनी प्रकृति से सहज और निर्द्वन्द्व इन कविताओ में जहाँ एक तरफ एक आध्यात्मिक मिठास है वहीं दूसरी तरफ एक गहरा अंतर्विरोध भी जो दुर्भाग्य से हमारे समकालीन जीवन का यथार्थ है।बोधिसत्व एवं समालोचन को बधाई एवं शुभकामनाएँ !

    Reply
  2. शेषनाथ says:
    3 years ago

    उम्दा कविताएँ। बधाई बोधी भइया को।

    Reply
  3. Deepak Sharma says:
    3 years ago

    Congratulations Bodhisattva ji for these layered poems,the most remarkable being – the one addressed to MASJIDS
    Thank you,Arun Deb ji for posting them on your Samalochan.
    Regards
    Deepak Sharma

    Reply
  4. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    3 years ago

    अच्छी कविताओं को पढ़ने का सुख दुर्लभ होता जा रहा है लेकिन बोधिसत्व की कविताएं पढ़ कर लगा कि अब भी अच्छी कविताएं हमारे बीच मौजूद है सभी कविताएं अच्छी हैं लेकिन सहकर्म, हिसाब ,अक्सर ,राम जी जल समाधि लाजबाब है । ताजिये की लकड़ी जैसी कविता लिखने के लिए हिम्मत चाहिए । इतनी अच्छी कविताएं एक साथ पढ़ने को मिली । आप दोनों को साधुवाद ।

    Reply
  5. Anonymous says:
    3 years ago

    बेहतरीन कविताएं।

    Reply
  6. हीरालाल नगर says:
    3 years ago

    बोधिसत्व की कविताओं का जल्वा रहा है-एक समय ।
    मुम्बई जाने के बाद उनकी चेतना पर कई चीजों का प्रभाव पड़ा है एक साथ। पर उनका भदोही मन नहीं। बल्कि एक कड़कपन आया है उनके स्वभाव में। वर्तमान की स्थतियों से बेशक बहुत क्षुब्ध हैं। राजनीति का गोरखधंधा करनेवालों पर उनके तेवर उग्र हैं। भविष्य के प्रति आश्वसत नहीं हैं। गहरी आशंका से घिरे हैं। हिंन्दू-मुस्लिम का कुफ्र टूटनेवाला है जैसे। इस बिना पर वे राम को भी नहीं बख़्शते। भीतर दुख का सैलाब है और बाहर क्षुब्ध मन। प्रतिरोध की भाषा पहले भी थी और आज भी है।
    उन्होंने अपनी जगह मुकम्मल की है और उसका विस्तार हुआ है।

    Reply
  7. कैलाश मनहर says:
    3 years ago

    बोधिसत्व की कविताओं में तार्किक संवेदना और मानवीय प्रतिबध्दता स्पष्ट दिखती है | ये कवितायें प्रचलित रूढ़ियों का विरोध करती हैं | बोधिसत्व मौलिक प्रतीकात्मकता से अपने मुहावरे स्वयं गढ़ते हैं | समालोचन को ये कवितायें साझा करने हेतु साधुवाद |

    Reply
  8. Baabusha Kohli says:
    3 years ago

    अच्छी कविताएँ हमारे भीतर एक अच्छाई, एक संकोची भलाई बन कर गूँजती हैं। ऐसी ही भली ये सारी कविताएँ। एक से अधिक कविताओं में पेड़ और पत्तियों का प्रतीक उपस्थित है, तब भी कहीं दोहराव नहीं लगा। जैसे नदी में पानी होता है, होता तो पानी ही है पर हर घाट पर नदी नयी हो जाती है।

    ‘ऐसे ही’ कविता बहुत अच्छी लगी।
    ‘ताजिए की लकड़ी’ भी।

    Reply
  9. Anonymous says:
    3 years ago

    सुख मिला इन कविताओं को पढ़कर ।

    Reply
  10. Naveen Joshi says:
    3 years ago

    स्नेह से छूना भी नदी कर देना होता है
    पर्वत सी नदी को जल में ढाल देना होता है
    – बहुत प्यारी कविताएँ हैं।

    Reply
  11. Anonymous says:
    3 years ago

    बहुत अच्छी कविताएं,,, कि जैसे सारा कुछ आंखों के सामने घटित हुई हों, सभी कविताएँ अच्छी हैं,
    राम की जल समाधि, और मस्जिदों से एक अपील बेहद अच्छी हैं साधुवाद

    Reply
  12. Anonymous says:
    3 years ago

    बेहद अच्छी कविताएँ…. पेड़, पत्तियाँ और पृथ्वी की तरह

    Reply
  13. अरुण सातले, खण्डवा says:
    2 years ago

    स्नेह से छूना भी नदी कर जाता है,,,प्रकृति के साथ संवाद करती और मनुष्य को मनुष्य बने रहने के साथ घनीभूत संवेदना की सुंदर कविताएं -अरुण सातले, खण्डवा.

    Reply

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