धूमिल की स्त्री-दृष्टि का बचाव करने वाले आलोचकों ने उनकी गँवई चेतना को सेलिब्रेट किया है. इस आलेख में भी उनकी ग्रामीण चेतना की प्रशंसा है. गाँव के सेलिब्रेशन के साथ समस्या नहीं है. बस यह भूलना ठीक नहीं है कि जैसे शहर में समस्याएँ हैं वैसे ही गाँवों में भी हैं. गाँव में दलितों का जीवन कैसा रहा है यह बताने की जरूरत नहीं है. ग्रामीण समाज में जो सामंती तत्व हैं वही दलितों को शहर की ओर आकर्षित करते हैं. शहर में रह चुकी औरतें कितने दिनों तक सर में घूँघट काढ़ कर गाँवों में रहना पसंद करेंगी? इसलिए धूमिल की गँवई चेतना में सिर्फ किसानों की संघर्ष गाथा ढूंढना वाजिब नहीं, गाँवों की सामंती संस्कृति के उन तत्वों को भी ढूंढना चाहिए जो अनजाने उनके भीतर रह गए हैं. धूमिल भाषा को स्वस्थ और स्पष्ट बनाना चाहते थे और छद्म से मुक्त करना चाहते थे. धूमिल के आलोचक उनकी स्त्री-दृष्टि के बचाव के क्रम में भाषा की रात ही कायम करते दिखाई दे रहे हैं. वह भी एक ऐसे कवि के लिए जो घोर आत्मालोचन का कवि है, जो समाज में हो रही तमाम समस्याओं के लिए जैसे खुद को बराबर का जिम्मेदार पाता है.
धूमिल के बारे में अब हम उन एक-दो उदाहरणों को लें जिन्हें नवलजी ने गंभीर अध्ययन से ढूंढे गए अपने तमाम उदाहरणों में छोड़ दिया है. जैसे, कुछ जगहों पर ज़रायमपेशा औरतों के बारे में बात करते हुए धूमिल यह भूल जाते हैं कि इस पेशे में अधिकांश औरतें शौक से नहीं आतीं, मजबूरी में आती हैं. कितनी औरतों के पास तो बॉलीवुड की नारीवादियों द्वारा बहुतायत में प्रयुक्त च्वाएस शब्द की छूट ही नहीं होती. वे इसी पेशे में पैदा होती हैं इसी में मर जाती हैं. कई औरतें आय का दूसरा जरिया न होने के कारण आती हैं और खोखली सामाजिक चेतना के कारण इसमें फँसी रह जाती हैं. धूमिल जब लिखते हैं कि उन्होंने जनता और ज़रायमपेशा औरतों के बीच की सरल रेखा को काटकर स्वस्तिक चिह्न बना लिया है तो वे एक अपरिचय के साथ जरायमपेशा औरतों को देखते हैं, एक पुरुष की तरह. यहाँ कवि की संवेदना जनता और समाज के लिए तो दिखाई देती है पर जरायमपेशा औरतों के लिए नहीं.
इसी तरह मादा शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में उनके यहाँ मिलता है वह भारतीय मर्दवादी भाषा का महीन उदाहरण है. धूमिल के इस काव्यांश को देखें-
मैंने हर एक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार…मैंने जिसकी पूँछ
उठाई है उसको मादा पाया है.
अब धूमिल की काव्यभाषा के इस पहलू के बारे में उनकी स्त्री-दृष्टि में सिर्फ प्रगतिशीलता ढूंढने वाले आलोचकों से यह सवाल बनता है कि वे इस तरह के मुहावरे का कितना प्रयोग अपनी आलोचना या कविता में करते हैं या भविष्य में करना पसंद करेंगे!
इसी तरह हिजड़ा शब्द के प्रयोग को भी देखना चाहिए. पटकथा में एक काव्यांश है-
हर तरफ तरह-तरह के जन्तु हैं
श्रीमान् किन्तु हैं
मिस्टर परन्तु हैं
कुछ रोगी हैं
कुछ भोगी हैं
कुछ हिंजड़े हैं
कुछ जोगी हैं
तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं.
अब जब तृतीय लिंगी विमर्श ने जोर पकड़ा है तो नवल जी से अलग जाकर यह सवाल तो बनता है कि यहाँ हिंजड़े शब्द के प्रयोग का क्या औचित्य है. क्या यह प्रचलित मर्दवादी भाषा का नमूना नहीं है. यह काव्यांश क्या यह नहीं बताता कि यह निश्चय ही उनके अधिकारों और समाज मे झेली जा रही गैर-बराबरी को सूचित करने के लिए तो प्रयुक्त नहीं हुआ है. क्या यहाँ धूमिल की कविता कमजोर नहीं पड़ती. धूमिल के संदर्भ में यह ध्यान रखने की जरूरत है कि स्त्री को सम्मान देना उसे बराबरी देना नहीं है. धूमिल ने अगर ऐसी स्त्रियों की छवियाँ गढ़ी हैं जहाँ वे उसके वजूद को कमजोर नहीं मानते तो उसकी तारीफ की जानी चाहिए लेकिन समानान्तर अगर लैंगिक रूप से विभाजित इस समाज में व्याप्त मर्दवादी भाषा और संस्कृति से फैली आबो-हवा का कुछ असर अगर कहीं उनकी कविता में दिखाई पड़ जाए, तो उस पर टीका-टिप्पणी भी जरूरी है.
धूमिल से अलग हटकर यहाँ एक बात रखनी जरूरी है. कई विद्वान इस तरह की भाषा के पक्ष में समाज में प्रचलित भाषा को लाते हैं. ऐसे तर्क के एक पक्ष से सहमति रखी जा सकती है कि गालियों के प्रयोग को साहित्य में अश्लील नहीं माना जाना चाहिए. पर यह सतर्कता बनी रहनी चाहिए कि वे अश्लील तभी तक नहीं मानी जानी चाहिए जब तक वे अश्लीलता को बढ़ाने का माध्यम नहीं बन रही हैं. अगर रचना ऐसी हो जो इन गालियों का उत्सव मनाने लग जाए और उसका उद्देश्य पाठकों की जबान पर इन गालियों से युक्त सूक्तियों को बिठाना हो जाए तो, स्वीकार्य बनाना हो जाए, तो समस्या होनी चाहिए. मिर्जापुर और आधा गाँव में कुछ तो फर्क रहेगा न! गालियाँ दोनों में हैं, पर दोनों में गालियाँ होने के कारण भिन्न-भिन्न हैं. बनारस की संस्कृति के नाम पर जो रचनाकार गालियों के प्रचार-प्रसार में लगे रहते हैं उन्हें यह भूलना नहीं चाहिए कि इसी बनारस में उनसे पहले तुलसीदास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, त्रिलोचन ने भी अपनी रचनाधर्मिता को पल्लवित किया था, जिनसे भाषा सीखी है हिन्दुस्तान के लोगों ने. किसी इलाके की संस्कृति के नाम पर ऐसी रचनाओं को स्वीकार्य नहीं बनाया जा सकता जो स्त्रियों को बराबरी में बैठने से ही वंचित कर दें. अगर हर स्पेस में स्त्रियों के लिए जगह बनानी है तो अश्लीलता की परिभाषा देते वक्त इन बारीकियों को भी समझना होगा.
धूमिल की खासियत यह है कि धूमिल अतिरिक्त रूप से पॉलिटिकली करेक्ट होने की कोई कोशिश नहीं करते. बचबचा कर बात करने की प्रवृत्ति उनमें नहीं है. इसका एक नुकसान यह होता है कि कुछ इनकरेक्ट कहीं-कहीं दृष्टिगोचर होता है और फायदा यह मिलता है कि उनकी ऐसी सीमाओं को सहज रेखांकित किया जा सकता है. ग्रामीण समाज में स्त्री और पुरुष की बैठकों का जो फासला होता है वह उनकी कविता में भी दिखाई देता है. उनकी कविता में स्त्रियाँ बैठक से थोड़ी बाहर दिखाई देती हैं. गँवई समाज स्त्रियों को इसी तरह दूसरे दर्जे पर धकेल देता है जैसे कि उनकी उपस्थिति से व्यवस्था के प्रवाह में कुछ दिक्कत आ रही है. वहाँ सम्मान समस्या नहीं है, अस्तित्व की असमानता समस्या है. इसीलिए नामवरजी जिन चित्रों को ढूंढते हैं वहाँ उनकी सीमाएँ नहीं पहचान में आतीं.
लेकिन इन बातों के बावजूद धूमिल से सहानुभूति इसलिए बनती जाती है क्योंकि वे लगातार अपने देश की और अपनी सीमाओं को पहचानने की कोशिश कर रहे थे. इस पर और अध्ययन होना चाहिए कि इस सीमा के पीछे उनकी गँवई पृष्ठभूमि है, बनारस में गालियों का महिमामण्डन है या फिर उनकी राजनीतिक चेतना का अधूरापन, या यह सब कुछ. नामवरजी कहते हैं कि 68 के बाद उन्होंने ऐसे शब्दों का प्रयोग कम कर दिया था. इस पर भी अध्ययन होना चाहिए कि उनमें कितना परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है. धूमिल की कविता पढ़ते वक्त मुझे यह बोध होता है कि अगर स्त्री-दृष्टि के संदर्भ में उन्हें और परिपक्व परिवेश और राजनीतिक चेतना प्राप्त हुई होती तो वे समानता के मूल्यों को अर्जित करने के लिए वैसे ही आत्मालोचन करते जैसे दूसरे प्रसंगों में करते हैं. इसका एक प्रमाण है उनका स्त्रियों के प्रति व्यवहार. काशीनाथ जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि जब कोई पुरुष रास्ते में स्त्रियों को घूरते दीख जाता तो धूमिल कितने कुपित होते थे. धूमिल की कविता में जो सामंती अवशेष दिखाई देते हैं वह उनके इलाके में आज भी वैसे ही बने हुए हैं. इस दृष्टि से देखने पर भी यही लगता है कि धूमिल की दुनिया की यह सीमा उनके सामर्थ्यों की तरह ही आज की दुनिया में और भी सघन हो गई है.
धूमिल के बारे में इस उम्मीद का एक कारण यह भी है कि वे संस्कार की दक्षिणपंथी परिभाषाओं को तोड़ने के आकांक्षी थे. जब वे कहते हैं कि
मैंने सोचा
और संस्कार के वर्जित इलाकों में
अपनी आदतों का शिकार
होने से पहले ही
बाहर चला आया
तो वे उस विचारधारा की जकड़न को ही तोड़ रहे होते हैं जिसकी आड़ में सामंती मूल्यों का पोषण होता है. त्याग, तपस्या, बलिदान, संघर्ष, निःस्वार्थ सेवा की ऐसी दुर्व्याख्याएँ की जाती हैं कि युवा मन सांस्कृतिक अतीत की विकृत समझदारी में कैद हो जाता है. यह वही अतीत है जिसमें त्याग, तपस्या, बलिदान का दायित्व सिर्फ औरतों पर है, संघर्ष का आदिवासियों पर और निःस्वार्थ सेवा का दलितों पर. किसी कवि को अगर संस्कार के ऐसे रूप से ऊब हो जाए तो इसे विकास के रूप में देखना चाहिए. धूमिल संस्कार के वर्जित इलाकों में इसी लहजे से जाते हैं. सवाल यह है कि कहाँ तक वे इस प्रयास में सफल होते हैं. कहाँ तक वे खुद इन सीमाओं को तोड़ पाते हैं. आत्मालोचन के इतने गहरे कवि में भी कहीं इन संस्कारों को तोड़ने के क्रम में कुछ छूटा तो नहीं रह जाता. इसमें संदेह नहीं कि उनकी स्त्री-दृष्टि में कुछ न कुछ जरूर छूट जाता है.
शीतांशु जी का विवेचन सचमुच बहुत गहरा और लगभग सर्वांगीण है। कविता को बुद्धिगम्य बनाने का काम ही शायद आलोचना का काम है। उससे परे अपना काम कविता ख़ुद ही करती है। उस ठौर पर कोई भी कविता ,किसी भी पाठक या आलोचक के लिए ,मात्र उतनी ही पहुंच पाती है जितनी ग्रहणशीलता उस व्यक्ति के भीतर हो।कविता या कला मात्र का यह अजीब विपर्यास है।ऐन वही तर्क,जो धूमिल की भावनात्मक और वैचारिक व्याकुलता को, और उसके फलस्वरूप एक लगभग आदर्श समाज एवं जीवन की परिकल्पना को उद्घाटित और प्रतिपादित करते हैं–वे ही तर्क उन शक्तियों और व्यक्तियों को कितने नागवार लगेंगे,उनको, जिन्होंने जीवन-विश्व को “नरक”बना रखा है! कला विमर्श के भीतर से झलकने वाले कितने सारे ऐसे मुद्दे हैं जो किसी भी तरह के प्रतिपादन को, खंडन और मंडन को “सार्वभौम”होने ही नहीं देते! शशांक जी ने बहुत वस्तुनिष्ठता से धूमिल की केंद्रीयता आज के संदर्भ में पुष्ट की है।आशा करें कि अब जब हम धूमिल के पास जाएंगे, तो उनकी कविता से कुछ अधिक सम्रद्धि बटोर पाएंगे। हालांकि जिन्हें समता न्याय सहज भाईचारा सिरे से नापसंद है,वे…?
शीतांशु जी। टाइप की भूल क्षमा!
ऐसा लगता है जैसे बहुत सी कविताएं पिछले पांच वर्षों में ही लिखी गई हों। सही समय पर जरूरी आलेख। शीतांशु जी और समालोचन बधाई के पात्र हैं
अपनी रचनाओं में छिटपुट स्त्रीवादी विचारों को लेकर कबीर,तुलसी और धूमिल- तीनों कवियों की आलोचना होती रही है। पर इससे उनके समस्त रचना संसार और उनके अवदान को खारिज नहीं किया जा सकता।धूमिल के रचना लोक के केंद्र में एक गुस्साये हुए आदमी की अभावों से भरी जिंदगी की व्यथा है । आजादी के बाद एक उम्मीद से भरे हुए आदमी का लोकतंत्र से मोहभंग और उसके टूटे हुए सपनों का आक्रोश इन कविताओं में पूरे आवेग से फूटते देखा जा सकता है। यह नाराज़गी सबसे अधिक व्यवस्था और संसदीय लोकतंत्र से है। इसकी हीं पराकाष्ठा हमें घोर अनास्था के रूप में नक्सलवाड़ी आंदोलनों में दीखती है। लेकिन तब से आधी सदी बीतने के बाद भी धूमिल की कविताएँ आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक होती गयी हैं।जाहिर है, हालात बदतर होते गये हैं क्योंकि जिस शोषण की बुनियाद पर व्यवस्था टिकी है उसकी जड़ें और भी गहरी होती गयी हैं। इतने विस्तार से शीतांशु का यह आलेख हमें धूमिल को आज के संदर्भ में समझने की एक आलोचना दृष्टि देता है।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !
धन्यवाद आप सभी को इन सारगर्भित टिप्पणियों के लिए।
धूमिल जी की कविताओं में स्त्री पक्ष को लेकर जो मलाल रहा, वह शीतांशु जी की समालोचना के बाद धूल गया है । आज के परिप्रेक्ष्य को धूमिल जी कविताओं के साथ पढ़ने को प्रेरित करता है यह आलेख ।