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Home » खोई हुई आज़ादी की तलाश में: धूमिल: शीतांशु

खोई हुई आज़ादी की तलाश में: धूमिल: शीतांशु

हिंदी कविता में धूमिल भारतीय जनतंत्र के निर्मम आलोचकों में अन्यतम हैं, ख़ासकर अपनी भाषा को लेकर जो तीर की तरह चुभती है. कबीर की भाषा की ‘सुनो भाई साधो’ वाली रंगत धूमिल की कविताओं में खूब है. दोनों की भाषाओं में कई समानताएं आपको मिलेंगी. कुछ अर्थों में बनारस के धूमिल काशी के कबीर की भाषा के सच्चे वारिस हैं. शीतांशु ने विस्तार से धूमिल की कविताओं में आज़ादी के प्रश्नों को टटोला है और अपने मन्तव्य को धूमिल की कविताओं से पुष्ट भी किया है. यह एक मेहनत से लिखा गया विचारोत्तेजक आलेख है. प्रस्तुत है.

by arun dev
August 8, 2021
in आलोचना
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खोई हुई आज़ादी की तलाश में: धूमिल: शीतांशु

dhumil

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धूमिल
खोई हुई आज़ादी की तलाश में 

शीतांशु

धूमिल की कविता जब चर्चित होनी शुरू होती है उसके पन्द्रह वर्ष पहले ही अनेक कुर्बानियों के बाद हमारा देश आजाद हुआ था. आजाद भारत का सपना जिन उद्देश्यों के लिए देखा गया था उन्हें हासिल करने की दिशा में इसके बाद प्रयास किए गए लेकिन अंततः वह उस रूप में हासिल न हो सका जैसी हमारी आकांक्षा थी. कविता में ऐसे स्वरों का उठना लाजमी था जो इस नए यथार्थ को बताए. क्रमशः इस सपने के बिखरने का भाव और प्रबल होता गया जिसने सातवें दशक में कविता की शक्ल बदल दी और वह अलग रूपों में मुखरित हुई. सातवें दशक में जब धूमिल एक कवि के रूप में उभरते हैं और इन अधूरे सपनों के निरंतर बिखरते जाने की स्पष्टवादी निर्ममता से भरी अभिव्यक्ति करते हैं तो उसे इस दौर की एक इतर काव्य धारा के प्रभाव में अराजकतावाद और दिशाहारा कविता का तमगा दिया जाने लगता है. लेकिन धूमिल की कविता इससे अलग थी.

वस्तुतः, इस दौर में व्यवस्था की कमियों का समाधान किसी के पास नहीं था, युद्ध की विभीषिका देश झेल चुका था, सांप्रदायिक दंगों का घाव अभी भी भरा नहीं था, किसी परिवर्तनकामी जन-आंदोलन की सफल रूपरेखा तैयार नहीं हो सकी थी, और बाद में नक्सलबाड़ी आन्दोलन की रूमानी तीव्रता का भी पूरी शक्ति से दमन कर दिया गया था- इन परिस्थितियों में धूमिल की कविता में आलोचकों की एक धारा अराजकता ढूंढ कर उसे नकारती है तो दूसरी धारा समाजवादी संघर्ष की ऊँचाई न पाकर उसकी अवहेलना करती है.

जबकि इन परिस्थितियों में हमें धूमिल की कविता में कुछ ढूंढना भी था तो यह कि इस दौर की समस्याएँ क्या हैं, चिन्ताएँ क्या हैं, देश और समाज की स्थिति और दिशा क्या है और कविता उसे किस तरह के शिल्प में प्रस्तुत कर रही है. हमें अपनी कमियों की शिनाख्त के लिए धूमिल के पास जाना था लेकिन सपनों की दुनिया में बसे और यथार्थ लोक से कटे कुछ आलोचक किसी और उद्देश्य से उनके पास गए. हालांकि, धूमिल की कविता के परिप्रेक्ष्य को यथोचित दिशा में ले जाने के सार्थक प्रयास भी सातवें दशक में ही शुरू हो गए.

संपूर्णता में देखें तो नामवरजी और अशोकजी जैसे आलोचकों की इसमें सार्थक भूमिका ही रही. इसके बाद तो धूमिल की कविता को शिवकुमार मिश्र, विद्यानिवास मिश्र, नन्दकिशोर नवल, मैनेजर पाण्डेय, राजेश जोशी जैसे प्रतिष्ठित आलोचकों-रचनाकारों का सान्निध्य मिला. इन आलोचकों ने, विशेषकर नन्दकिशोर नवल ने, धूमिल की कविता के विभिन्न आयामों को बहुत ही सारगर्भित ढंग से उद्घाटित किया है. इस आलेख में यह कोशिश की गई है कि उनके दोहराव से बचा जाए और कुछ ऐसी बातें रखी जाएँ जो समय के बदलने के साथ पुनर्विचार की माँग करती हैं.

किसी कविता की दीर्घकालिकता इस बात में निहित होती है कि क्या वह ऐसे मूल्यों और संवेदनाओं को आत्मसात किए हुए है जो समय-समय पर प्रासंगिक होती रहेंगी. धूमिल की कविता ने बीसवीं सदी के एक दौर में अपने लिए खास जगह बनाई थी, लेकिन ठीक पचास साल बाद इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में उनकी कविता फिर से पाठकों- बौद्धिकों का दरवाजा खटखटा रही है. रोचक बात यह है कि सातवें दशक में धूमिल की जो पंक्तियाँ चर्चित हुईं वे आज भी चर्चित हैं, पर इसके साथ उनकी कविता की कुछ ऐसी पंक्तियाँ हैं जो उस दौर में लोगों की नज़र पर उतनी नहीं चढ़ीं लेकिन अब इन बदली हुई परिस्थितियों में उनका अर्थ उभर कर सामने आ रहा है. नए अर्थ संप्रेषित करती ये पंक्तियाँ आज निस्संदेह महत्वपूर्ण हो गई हैं. स्वातंत्र्योत्तर कवियों में पुनर्पाठ की उपयोगिता आज धूमिल की कविता में अत्यधिक है- पाठ के हिसाब से भी और समकालीन परिस्थितियों के हिसाब से भी. उन्होंने उन विषयों से सर्वाधिक मुठभेड़ किया है जिनको संभालने और बचाने की जद्दोजहद में बुद्धिजीवी कैद हो चुके हैं.

पूंजीवादी दौर में व्यवस्था समय-समय पर ऐसी दुरावस्थाएँ पैदा करती जाती है कि संवेदनशील मानस के लिए स्थितियाँ विकट हो जाती हैं. पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह सत्ता और पूँजी का गठजोड़ कायम हुआ है और राज्य मुट्ठी भर पूंजीपतियों के हाथ का खिलौना बन गया है, पुनः आलोचकों-रचनाकारों के लिए रास्ता तलाशना कठिन होता जा रहा है. इसी से वह ऊब की मानसिकता पैदा होती है, वह विवशता का बोध पैदा होता है जो धूमिल की कविता में सर्वत्र व्याप्त है. लेकिन यह ऊब और विवशता धूमिल का प्रेय नहीं है, बल्कि धूमिल की कविता इस ऊब की एक जाग्रत अपराजित संघर्षोन्मुख काव्यात्मक अभिव्यक्ति है. वे ऊब चुके हैं दिखावे से, धोखाधड़ी से, झूठे नारों से, वादों से, संविधान के पालन के स्थान पर उसके महिमामण्डन से, धर्म की ठेकेदारी से, जनतंत्र का चुनावी ढोल पीटे जाने से, आम लोगों की तटस्थता से. उनकी ऊब का कारण है कि जनतंत्र की जो वास्तविक चिन्ताएँ होनी चाहिए, संसद की जो भूमिका होनी चाहिए वह नदारद है, विपक्ष सुविधाभोगी और समझौतापरस्त है, बुद्धिजीवियों की भाषा में छल है और आम आदमी घुटना टेक कर बैठ चुका है सत्तानशीनों के सामने.

यह उन्हें सातवें दशक में लग रहा था. आज धूमिल की कविता का स्वर कैसा होता यह इतिहास का थोड़ा-सा जानकार भी समझ सकता है. इस ऊब की अत्यधिक अभिव्यक्ति देखकर कुछ लोग उसमें अराजकता ढूंढने लगते हैं लेकिन सचेत पाठ से बोध होता है कि यह ऊब यथार्थ के प्रति सजग करती है, पतनशील स्थितियों में बह जाने को नहीं कहती. धूमिल की कविता असमर्थताओं और चुप्पियों को दिखाती है, लेकिन उसे बढ़ावा नहीं देती. उनकी कविता बताती है कि कोई रास्ता न देखकर यह ऊब, खामोशी, अकेलापन, शर्म, चुप्पी, पस्ती बढ़ रही है. इसी यथास्थिति को तोड़ने के लिए बेचैन करने का प्रयास है धूमिल की कविता.

आज के दौर में देशद्रोह का खिताब पाने के लिए जिन-जिन बातों की जरूरत है, धूमिल की कविता की आधारभूमि ठीक-ठीक वही बातें हैं. पैराडाइम शिफ्ट हो चुका है और बहस के मुद्दे बदल चुके हैं. लोकतंत्र की संरचना बदल चुकी है और जिसे हम सच मानते हैं उसकी अभिव्यक्ति का तरीका और अभिग्रहण भी.

सातवें-आठवें दशक में धूमिल की कविता के संदर्भ में इस पर बहुत बहस हो चुका कि धूमिल पर अकविता का कितना प्रभाव था, या एक खास तरह की अभिव्यक्ति शैली में वे किस तरह जकड़ गए थे, या उनकी कविता कितनी अराजकतावादी थी और कितनी प्रगतिशील. जो नई परिस्थितियाँ आज काबिज़ हैं उनमें धूमिल की कविता की केन्द्रीय चिन्ताएँ तीव्रता के साथ महत्वपूर्ण हो गई हैं, उक्त जिज्ञासाएँ पीछे छूट गई हैं. अब वास्तविक मुद्दा यह है कि जिस धूमिल ने देश की व्यवस्था की कमजोरियों और नागरिकों से उसकी दूरी को इतना नंगा किया, उस देश में धूमिल जैसे स्वर के लिए कितनी जगह बची है. धूमिल आज जीवित होते तो क्या वह सब लिख पाते जो उन्होंने आज से चालीस-पचास वर्ष पूर्व लिख लिया. पिछले कुछ वर्षों में मीडिया ने, दक्षिणपंथी नेताओं ने देश के एक बहुत ही बड़े तबके को जिस तरह देशद्रोही के खिताब से नवाजा है, मूलतः उनमें से ज्यादातर वैसी ही बातें कह रहे थे जो धूमिल आज से इतने दशकों पहले कह रहे थे.

बीस साल बाद कविता में जिस तरह के प्रयोग हैं वह धूमिल को, उनके देशप्रेमी मन को समझने में असफल और कविता की संवेदनशील दुनिया में प्रवेश करने में असमर्थ भीड़ का शिकार बना देने के लिए पर्याप्त है. फैज़ की कविता ने तो दुर्व्याख्या का मौका भी नहीं दिया था, तब इतना हो-हल्ला मचाया गया. धूमिल तो सीधे-सीधे हत्यारों को आमंत्रण देते हैं. बीस साल बाद कविता आज़ादी के बीस साल बाद की स्थितियों का जितना सटीक बयान थी, आज अपने लिखे जाने के पचास साल बाद वह एक दस्तावेज बन गई है. यह पंक्ति कि-

हवा से फड़फड़ाते हुए हिन्दुस्तान के नक्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है

सातवें दशक में सिर्फ हिन्दुस्तान के क्रमशः असहाय स्थितियों में प्रवेश करते जाने को इंगित कर रही थी. लेकिन आज गाय और गोबर वही अर्थ नहीं दे रहे जो तब दे रहे थे. आज यह पंक्ति इस कविता का इस रूप में अर्थविस्तार कर रही है जिसका संबंध युगीन सांप्रदायिक परिस्थितियों और उसकी गंदगी में कैद हिन्दुस्तान की दुरावस्था से है. जब गोबर कागज के टुकड़े पर गिर जाए तो उसका फड़फड़ाना बंद हो जाता है. कागज का जो हिस्सा गोबर के नीचे पड़ा है उसकी हालत ही आज के हिन्दुस्तान की हालत है. इसी कविता में धूमिल आगे लिखते हैं कि-

क्या आज़ादी तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई ख़ास मतलब होता है?

यह पढ़कर आज के दक्षिणपंथी धुरंधर धूमिल से पूछते कि जब सैंतालिस में आज़ादी मिल गई थी तो इन पंक्तियों का क्या मतलब है. आज़ादी को एक तारीख और एक घटना के रूप में वही लोग देखते हैं जिनकी इसमें कोई हिस्सेदारी नहीं थी, इसके संवेदनात्मक उद्वेलनों से कोई संपर्क नहीं था, समझौतापरस्ती और समर्पण जिनकी क्षुद्र रणनीति थी और वास्तव में जिनके लिए वह सिर्फ एक तारीख और घटना ही थी. जिन्होंने कुर्बानी दी है या उन कुर्बानियों को अपनी विरासत समझते हैं, उन्हें ही यह चिन्ता सताती है कि क्या इसी आज़ादी के लिए हमने इतने विभूतियों को खो दिया. जिनका इस भावना से परिचय नहीं है, निकट के संघर्षों से जिनका संबंध नहीं है, बस वे ही अनूठे ढंग से अतीत का राग अलापते हैं और पुनरुत्थान के सुख में कैद रहते हैं. लेकिन जो जिम्मेदार हैं, परिवर्तनकामी हैं, वे अतीतोन्मुख नहीं प्रगतिशील होते हैं. अतीत भी उनके लिए प्रगति का माध्यम होती है. धूमिल की थकान को पढ़ने का तरीका यह होना चाहिए. धूमिल को अपने देश से इतना प्रेम था कि देशद्रोही समझे जाने का खतरा उनके लिए कोई मायने नहीं रखता. देश के झंडे को, तिरंगे को इस तरह देखना आज के युग में कवियों को कटघरे में ला खड़ा करेगा. इस कटघरे के लिए धूमिल आज से पचास साल पहले ही प्रस्तुत थे.

धूमिल को तभी यह लगने लगा था कि आज़ादी, जनतंत्र और गांधी मुहावरों में तबदील हो चुके हैं, जिसपर एक वर्ग और सत्ता तथा उसके चाटुकार अपनी रोटी सेक रहे हैं. इन शब्दों का गूढ़ार्थ नष्ट कर दिया गया है और एक भाव मात्र इसलिए बनाए रखा जा रहा है कि सवाल पूछने की हिमाकत न करें लोग, शासन के खिलाफ आवाज न उठाएँ, अपनी भूख का हल पूछने न आएँ. गांधी अभी मात्र एक तस्वीर हैं जिनके साथ अपनी तस्वीर खींच कर राजनीति के व्यापार में अपने लिए वैधता हासिल करने का प्रयास किया जाता है. उनका चश्मा, उनकी लाठी, उनके कपड़े, उनका हाव-भाव, उनके राम- ये सभी अब राजनीतिक बाजार के बिकाऊ उत्पाद हैं जिनका जगह-जगह प्रतीकात्मक उपयोग गांधी के मूल्यों के लिए नहीं, निजी स्वार्थों के लिए किया जाता है. चूँकि गांधी जैसा जीवन जीना इस प्रजाति के लिए संभव नहीं, यह गांधी के बाह्य रूप और आध्यात्मिकता का दुरुपयोग अपनी एक छवि गढ़ने के लिए करती है.अकाल दर्शन कविता की पंक्तियाँ हैं-

और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है.

सारी चीजों को धकेलकर फिरसे दशकों पहले की स्थिति में पहुँचा दिया गया है. युद्धोन्मादियों ने हमारी आज़ादी के मायनों को बहुत जल्दी ही नष्ट कर दिया. धूमिल और हमारे समय में अंतर यही है कि धूमिल के वक्त अभी आज़ादी मिली ही थी, इसलिए आज़ादी माँगने का स्वर वहाँ नहीं है, वे इस आज़ादी के स्वरूप से चिंतित, परेशान और उद्विग्न हैं. हालात पर तरह-तरह से विचार करते रहते हैं. पचास सालों की दूरी तय करने के बाद अब आज़ादी का नारा फिर से लोकप्रिय होने का कारण यही है कि जो कुछ हासिल किया गया उसे नए हुक्मरानों ने लगभग छीन लिया है. अब उस आज़ादी की स्पष्ट माँग भास्वर हो चुकी है जिसके न मिलने पर धूमिल परेशान थे. अपने निहितार्थों से दूर खड़ी इस आज़ादी को समय-समय पर युद्धोन्माद की भावनाओं से उकसाकर नागरिकों को फिरसे पटरी पर लाया जाता है-

कबूतर का  पर लगाकर
विदेशी युद्ध प्रेक्षकों ने
आज़ादी की बिगड़ी हुई मशीन को
ठीक कर दिया है.
वह फिर हवा देने लगी है. (शान्ति पाठ)

कविता में संदर्भ तो सातवें दशक के युद्धोन्माद का है लेकिन धूमिल का स्थिर और क्षुब्ध स्वर इसकी ताकीद करता जाता है. इन न सुधरने वाली स्थितियों ने ही सचेत नागरिकों को भी अपनी दुनिया में कैद कर दिया है जिससे बाहर वे निकल नहीं पा रहे और भीतर वे घुटते जा रहे हैं. मकान कविता में धूमिल लिखते हैं-

मैंने अपने बेलगाम मित्रों को बतलाया है
कि किस तरह इस षड्यन्त्र की शुरुआत
उसी वक्त हो जाती है जब आदमी
आज़ादी और वक्त से ऊबकर
अपनी देशी आदतों और सस्ती क़िताबों के साथ
16 x 12 फुट का एक खूबसूरत कमरा हो जाता है.

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Tags: धूमिल
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Comments 6

  1. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    शीतांशु जी का विवेचन सचमुच बहुत गहरा और लगभग सर्वांगीण है। कविता को बुद्धिगम्य बनाने का काम ही शायद आलोचना का काम है। उससे परे अपना काम कविता ख़ुद ही करती है। उस ठौर पर कोई भी कविता ,किसी भी पाठक या आलोचक के लिए ,मात्र उतनी ही पहुंच पाती है जितनी ग्रहणशीलता उस व्यक्ति के भीतर हो।कविता या कला मात्र का यह अजीब विपर्यास है।ऐन वही तर्क,जो धूमिल की भावनात्मक और वैचारिक व्याकुलता को, और उसके फलस्वरूप एक लगभग आदर्श समाज एवं जीवन की परिकल्पना को उद्घाटित और प्रतिपादित करते हैं–वे ही तर्क उन शक्तियों और व्यक्तियों को कितने नागवार लगेंगे,उनको, जिन्होंने जीवन-विश्व को “नरक”बना रखा है! कला विमर्श के भीतर से झलकने वाले कितने सारे ऐसे मुद्दे हैं जो किसी भी तरह के प्रतिपादन को, खंडन और मंडन को “सार्वभौम”होने ही नहीं देते! शशांक जी ने बहुत वस्तुनिष्ठता से धूमिल की केंद्रीयता आज के संदर्भ में पुष्ट की है।आशा करें कि अब जब हम धूमिल के पास जाएंगे, तो उनकी कविता से कुछ अधिक सम्रद्धि बटोर पाएंगे। हालांकि जिन्हें समता न्याय सहज भाईचारा सिरे से नापसंद है,वे…?

    Reply
  2. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    शीतांशु जी। टाइप की भूल क्षमा!

    Reply
  3. Gc Bagri says:
    4 years ago

    ऐसा लगता है जैसे बहुत सी कविताएं पिछले पांच वर्षों में ही लिखी गई हों। सही समय पर जरूरी आलेख। शीतांशु जी और समालोचन बधाई के पात्र हैं

    Reply
  4. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    अपनी रचनाओं में छिटपुट स्त्रीवादी विचारों को लेकर कबीर,तुलसी और धूमिल- तीनों कवियों की आलोचना होती रही है। पर इससे उनके समस्त रचना संसार और उनके अवदान को खारिज नहीं किया जा सकता।धूमिल के रचना लोक के केंद्र में एक गुस्साये हुए आदमी की अभावों से भरी जिंदगी की व्यथा है । आजादी के बाद एक उम्मीद से भरे हुए आदमी का लोकतंत्र से मोहभंग और उसके टूटे हुए सपनों का आक्रोश इन कविताओं में पूरे आवेग से फूटते देखा जा सकता है। यह नाराज़गी सबसे अधिक व्यवस्था और संसदीय लोकतंत्र से है। इसकी हीं पराकाष्ठा हमें घोर अनास्था के रूप में नक्सलवाड़ी आंदोलनों में दीखती है। लेकिन तब से आधी सदी बीतने के बाद भी धूमिल की कविताएँ आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक होती गयी हैं।जाहिर है, हालात बदतर होते गये हैं क्योंकि जिस शोषण की बुनियाद पर व्यवस्था टिकी है उसकी जड़ें और भी गहरी होती गयी हैं। इतने विस्तार से शीतांशु का यह आलेख हमें धूमिल को आज के संदर्भ में समझने की एक आलोचना दृष्टि देता है।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. शीतांशु says:
    4 years ago

    धन्यवाद आप सभी को इन सारगर्भित टिप्पणियों के लिए।

    Reply
  6. गंगाधर ढोके says:
    2 years ago

    धूमिल जी की कविताओं में स्त्री पक्ष को लेकर जो मलाल रहा, वह शीतांशु जी की समालोचना के बाद धूल गया है । आज के परिप्रेक्ष्य को धूमिल जी कविताओं के साथ पढ़ने को प्रेरित करता है यह आलेख ।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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