• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » खोई हुई आज़ादी की तलाश में: धूमिल: शीतांशु » Page 7

खोई हुई आज़ादी की तलाश में: धूमिल: शीतांशु

हिंदी कविता में धूमिल भारतीय जनतंत्र के निर्मम आलोचकों में अन्यतम हैं, ख़ासकर अपनी भाषा को लेकर जो तीर की तरह चुभती है. कबीर की भाषा की ‘सुनो भाई साधो’ वाली रंगत धूमिल की कविताओं में खूब है. दोनों की भाषाओं में कई समानताएं आपको मिलेंगी. कुछ अर्थों में बनारस के धूमिल काशी के कबीर की भाषा के सच्चे वारिस हैं. शीतांशु ने विस्तार से धूमिल की कविताओं में आज़ादी के प्रश्नों को टटोला है और अपने मन्तव्य को धूमिल की कविताओं से पुष्ट भी किया है. यह एक मेहनत से लिखा गया विचारोत्तेजक आलेख है. प्रस्तुत है.

by arun dev
August 8, 2021
in आलोचना
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

 

धूमिल की कविता ऐसी है कि उसके शिल्प को समझने के लिए भी उनके समय और समाज पर पैनी नज़र रखने की जरूरत है. समाज जब अत्यंत विपरीत परिस्थितियों का शिकार होता है तब बुद्धिजीवियों और रचनाकारों में ऐसी भाषा और लहजे के तलाश की वृत्ति बढ़ जाती है जिससे उसकी अभिव्यक्ति और संप्रेषणीय हो जाए. कबीर के दोहों को ऐसे देखा जा सकता है. नागार्जुन के व्यंग्य की धार को भी इस तरह समझा जा सकता है और धूमिल के वनलाइनर्स और सूक्तियों को भी. धूमिल की राजनीतिक चेतना उन्हें अपने समय के संकट को पाठक तक सहजता और तीव्रता से पहुँचाने के लिए प्रेरित करती है. उनकी सूक्तियों को अक्सर उनकी गँवई संस्कृति के प्रभाव के रूप में देखा जाता है लेकिन शायद हम धूमिल की कविता के और निकट पहुँच पाएं अगर इन सूक्तियों को हम तद्युगीन सामाजिक-राजनीतिक परिवेश से उपजी परिस्थितियों के प्रभाव के रूप में भी देखें.

युगीन परिघटनाओं को कम शब्दों में बाँध लेने की जबर्दस्त कोशिश है धूमिल में. यह और भी जरूरी इसलिए हो गया था कि भाषा को गोल-गोल कर दूसरी दिशा में ले जाने वालों की संख्या ठीक-ठाक थी. इस तरह के लेखन के अपने खतरे हैं. सूक्तियों की अपनी समस्याएँ हैं. सरलीकरण की और सेल्फ-राइटियस होने की संभावना बढ़ जाती है. पर धूमिल इन्हें पनपने नहीं देते और बेजोड़ तरीके से सातवें दशक के मेनिफेस्टो के रूप में उभरते हैं. अशोक वाजपेयी की टिप्पणी है कि अक्सर ऐसी कविता के हीरोइक्स में फँस जाने का खतरा रहता है, लेकिन धूमिल के यहाँ किसी तरह की आत्मरति या अपने बारे में बड़बोलेपन का लटका ज्यादातर नहीं है. इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि उनका काव्य संसार सीमित या छद्म आभिजात्य का अप्रासंगिक हालांकि लुभावना संसार नहीं है जैसा कि अकवियों का है.[16] न वे अकविता का मुखपत्र बनते हैं न नक्सलबाड़ी का. उनकी कविता पूरे दशक को पहचानने का सार्थक माध्यम है.

धूमिल के शिल्प पर अशोक वाजपेयी की बारीक नज़र के कुछ अन्य उद्धरणों की चर्चा से हमारा काम काफी आसान हो जाता है. उन्होंने बहुत कम शब्दों में धूमिल के शिल्प के कई पहलुओं को उजागर किया है. अशोक जी को धूमिल बौखलाहट में संक्षिप्त एकालाप करने वाले कवि नहीं प्रतीत होते. ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी कविता ना तो भावुक प्रतिक्रिया भर है और ना ही उसमें कोई दीनता का भाव है. और इसलिए भी कि धूमिल सिर्फ अनुभूति के नहीं विचार के भी कभी कवि है.

आगे अशोक जी चिह्नित करते हैं कि भाषा और शिल्प के प्रति जो गंभीर सतर्कता धूमिल में है वह उस समय के युवा कवियों में नहीं दिखाई देती. असल में उत्तरदायी होने के साथ धूमिल में गहरा आत्मविश्वास भी है जो रचनात्मक उत्तेजना और समझ के घुले-मिले रहने से आता है और जिसके रहते वे रचनात्मक सामग्री का स्फूर्त लेकिन सार्थक नियंत्रण कर पाते हैं.[17] इसी तरह उन्होंने यह भी पहचान की कि धूमिल की केन्द्रीय काव्य-मुद्रा संबोधन की है, उनके सुन्दर बिंब भी विचलित कर देते हैं, और चालू मुहावरे और रेटरिक से अगर बच सके तो धूमिल की कविता हमारे समय की एक युवा और विश्वसनीय पहचान का दस्तावेज है.[18]

सातवें दशक में अपनी कविता के लिए जिस तरह के थीमों का चुनाव किया धूमिल ने उसकी अशोकजी जम कर  तारीफ करते हैं- यह दुनिया जीवित और पहचाने जा सकनेवाले समकालीन मानव चरित्रों की दुनिया है जो अपने ठोस रूप-रंगों और अपने चारित्रिक मुहावरों में धूमिल के यहाँ उजागर होती है. धूमिल का काव्य संसार अकवियों की तरह कल्पना-विलास से रचाया गया ऐसा संदर्भच्युत लोक नहीं है जिसकी हमारे रोजमर्रा के जीने से संगति और जीवित प्रासंगिकता स्पष्ट न हो, और जिसमें कोई गहरी पहचान या खोज तो न उभरती हो लेकिन कवि के आत्म प्रदर्शन और आत्मस्फीति के लिए अवकाश खूब हो. धूमिल की दुनिया जितनी ठोस है उतनी है ठेठ और बेबाक भी.[19] वस्तुतः धूमिल अपने रुचि के विषयों पर उस गहराई से बातचीत करना चाहते हैं जैसे बनारस के किसी घाट पर बैठकर दो अंतरंग मित्र करते हैं, बिना लागलपेट के. वे इस तरह बातचीत करना चाहते हैं जैसे मोचीराम. जैसा लगे बस बता दो. उनके गँवई संस्कारों से उनका शिल्प इस लिहाज से भी प्रभावित हुआ है.

उनके कई प्रतीक और उपमाएँ तो जीवन की ऐसी स्थितियों से उठाए हुए हैं कि आश्चर्य होता है कि इधर भी किसी कवि की नज़र जा सकती है. और ये प्रतीक संघर्षरत मनुष्यों की संवेदनाओं के इतने करीब हैं कि धूमिल अपने युग के कवियों में अलग से दिखाई देते हैं. प्यार के बारे में धूमिल कहते हैं कि

प्यार घनी आबादी वाली बस्तियों में
मकान की तलाश है.

समय ने जिनकी संवेदनाओं को क्रूर बना दिया है उनका वर्णन कुछ यूं है-

जिनका आधे से ज्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है.

नागरिकों में पालतू और समझौतापरस्त होने की वृत्ति को कुछ ऐसे बयान किया है उन्होंने-

नगरपालिका ने मुझे
बाएँ रहना सिखलाया है.

और इस पालतूपन से पैदा हुए लिजलिजेपन का चित्रण कवि 1970 में कुछ ऐसे है-

आपके मुँह में जितनी तारीफ है
उससे अधिक पीक है.

मकान कविता का एक प्रतीक तो पूरे निम्न मध्यवर्ग और खस्ता हालत में जी रहे बाकी हिन्दुस्तान को खाका खींच देती है-

जिनके आंगन में धूप कभी नहीं जाती
संडासघरों में खाँसी
किवाड़ों का काम करती है.

और यह सब दिखाई देने के साथ वह स्वर भी धूमिल की कविता में दिखाई देता है जो अपराजित होने की प्रेरणा देता है-

तनो
अकड़ो
अमरबेलि की तरह मत जियो.

धूमिल की भाषा इतनी सहज है कि वह गाँधी वाली हिन्दुस्तानी के नज़दीक पहुँच गई है. धूमिल की भाषा बताती है कि हिन्दी में प्रशिक्षित न जाने कितने कवि कितनी विशाल शब्द संपदा का प्रयोग ही नहीं करते जबकि एक ग्रामीण पृष्ठभूमि का व्यक्ति उर्दू की टोकरी में डाल दिए गए शब्दों को इतनी सहजता से अपनी भाषा में लाता है कि अलग से लोगों का ध्यान ही इस पर नहीं जाता. यह खूबी प्रेमचंद में भी थी. कहीं भी सप्रयास एक भी शब्द नहीं दिखता और ऐसा भी कोई शब्द नहीं दिखता जो एक सामान्य पढ़ा लिखा व्यक्ति न समझ सके.

तुक मिलाने की जो बात धूमिल के बारे में कही जाती है उसे भी समझने की जरूरत है. अपने रचनात्मक जीवन के एक पड़ाव पर तुकों की सीमा को तोड़ने के प्रति वे गहराई से सोच रहे थे. लेकिन सवाल तो यह है कि जो तुक उन्होंने मिलाए क्या उससे उनकी अभिव्यक्ति और संप्रेषण में कोई बाधा पहुँची, क्या कहीं ऐसे तुक दिखते हैं जो उनकी काव्य संवेदना के बाहर जाकर बैठ जाते हैं या जिससे उनकी वैचारिक सजगता या कविता की अभिव्यक्ति क्षमता को क्षति पहुँचती हो? तुकों से मुक्ति की उनकी आकांक्षा शिल्प के पुनरावृत्ति से जुड़ी थी, एक कवि के रूप में कुछ नए तरह से सामने आने की आकांक्षा से जुड़ी थी, अन्यथा इस दृष्टि से धूमिल कमजोर नहीं दिखते. अपने शिल्प के लिए अपनी संवेदना को उन्होंने ताक पर नहीं रख दिया था- यानी निष्ठा का तुक विष्ठा से मिलाने में उनकी रुचि नहीं थी. कवि 1970 में वे बड़े ही रोचक ढंग से कहते हैं-

उसके बीवी है बच्चे हैं
घर है
अपने हिस्से का देश
ईश्वर की दी हुई गरीबी है (यह बीवी का तुक नहीं है)
और सही शब्द चुनने का डर है.

कहना न होगा कि क्रांतिकारियों और अराजकतावादियों में उम्मीद और संघर्ष का फर्क होता है. जब एक उद्देश्य के लिए संघर्ष हो तो कविता दिशाहारा नहीं होती. धूमिल के पास ऐसी कविताएँ हैं जहाँ वे संघर्ष से मुँह नहीं चुराते, कविताओं को बचाने की बात करते हैं, संवेदनाओं को सहेजने की बात करते हैं, पूँजीवादी जनतंत्र का विकल्प तलाशते हैं, समाज की विकृतियों पर प्रहार करते हैं. वे अपने वक्त में अपनी जनता को शिरकत करते देखना चाहते हैं. जब और कहीं कोई प्रयास नहीं दिख रहा है, धूमिल अपनी कविता की ओर जाते हैं. जो समझते हैं कि धूमिल की कविता में सिर्फ अराजकता और निराशा है उन्हें पटकथा का यह अंश पढ़ना चाहिए-

और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का
हिस्सा बन गई है
इसे झटककर अलग करो
अपनी आदतों में
फूलों की जगह पत्थर भरो
मासूमियत के हर तकाजे को
ठोकर मार दो
अब वक्त आ गया है कि तुम उठो
और अपनी
ऊब को आकार दो.

धूमिल हमेशा एक आम आदमी के रूप में बात करते हैं जो बहुत संवेदनशील है और चाहता है कि उसके आस-पास सब कुछ खूबसूरत हो. वह तब तक खुश नहीं हो सकता जब तक वह सबके हिस्से कुछ खुशियाँ नहीं देख लेता. वह पूँजीवादी स्वार्थपरता, वर्गीय दूरियों, संकुचित विलासिता, अकेलेपन और अजनबीयत के खिलाफ खड़ा आदमी है जो जूते की मरम्मत करना तो चाहता है पर उसके पास औज़ार नहीं हैं. इसी औज़ार की कमी कवि को वह सब कहने को मजबूर करती है जो कविता की दुनिया को स्वायत्त समझने वालों को नागवार गुजरता है.

संदर्भ

[1] अशोक वाजपेयी, कवि कह गया है, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, संस्करण- 2000, पृ.139
[2] वही, पृ.140
[3] राजेश जोशी, एक कवि की नोटबुक, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004, पृ.171
[4] समीक्षा ठाकुर (सं), कहना न होगा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1994, पृ.267
[5] वही, पृ.267
[6] अशोक वाजपेयी, वही, पृ.137
[7] राजेश जोशी, वही, पृ.171
[8] समीक्षा ठाकुर (सं), वही, पृ.255
[9] वही, पृ.256
[10] वही, पृ.256
[11] वही, पृ.266
[12] वही, पृ.266
[13] वही, पृ.268
[14] नन्दकिशोर नवल, समकालीन काव्य यात्रा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004, पृ.260
[15] शंभु गुप्त, लेख,धूमिल और स्त्रीः अर्थात् वक्त की चौकी पर बैठा एक अधेड़ मुंशी, हिन्दी समय.कॉम, म.गाँ.अं.हिं.विश्वविद्यालय, वर्धा
[16] अशोक वाजपेयी, वही, पृ.136
[17] वही, पृ.136
[18] वही, पृ.142
[19] वही, पृ.136

___

शीतांशु,
एसोसिएट प्रोफेसर,
हिन्दी विभाग,
असम विश्वविद्यालय, दीफू परिसर,दीफू, कार्बी आंग्लांग, असम
ईमेल- sheetanshukumar@gmail.com 

Page 7 of 7
Prev1...67
Tags: धूमिल
ShareTweetSend
Previous Post

क़यास के बारे में कुछ क़यास: ख़ालिद जावेद

Next Post

अष्टभुजा शुक्ल की कविताओं में दाम्पत्य प्रेम:  सदाशिव श्रोत्रिय        

Related Posts

समीक्षा

हमारे समय में धूमिल: ओम निश्‍चल

Comments 6

  1. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    शीतांशु जी का विवेचन सचमुच बहुत गहरा और लगभग सर्वांगीण है। कविता को बुद्धिगम्य बनाने का काम ही शायद आलोचना का काम है। उससे परे अपना काम कविता ख़ुद ही करती है। उस ठौर पर कोई भी कविता ,किसी भी पाठक या आलोचक के लिए ,मात्र उतनी ही पहुंच पाती है जितनी ग्रहणशीलता उस व्यक्ति के भीतर हो।कविता या कला मात्र का यह अजीब विपर्यास है।ऐन वही तर्क,जो धूमिल की भावनात्मक और वैचारिक व्याकुलता को, और उसके फलस्वरूप एक लगभग आदर्श समाज एवं जीवन की परिकल्पना को उद्घाटित और प्रतिपादित करते हैं–वे ही तर्क उन शक्तियों और व्यक्तियों को कितने नागवार लगेंगे,उनको, जिन्होंने जीवन-विश्व को “नरक”बना रखा है! कला विमर्श के भीतर से झलकने वाले कितने सारे ऐसे मुद्दे हैं जो किसी भी तरह के प्रतिपादन को, खंडन और मंडन को “सार्वभौम”होने ही नहीं देते! शशांक जी ने बहुत वस्तुनिष्ठता से धूमिल की केंद्रीयता आज के संदर्भ में पुष्ट की है।आशा करें कि अब जब हम धूमिल के पास जाएंगे, तो उनकी कविता से कुछ अधिक सम्रद्धि बटोर पाएंगे। हालांकि जिन्हें समता न्याय सहज भाईचारा सिरे से नापसंद है,वे…?

    Reply
  2. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    शीतांशु जी। टाइप की भूल क्षमा!

    Reply
  3. Gc Bagri says:
    4 years ago

    ऐसा लगता है जैसे बहुत सी कविताएं पिछले पांच वर्षों में ही लिखी गई हों। सही समय पर जरूरी आलेख। शीतांशु जी और समालोचन बधाई के पात्र हैं

    Reply
  4. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    अपनी रचनाओं में छिटपुट स्त्रीवादी विचारों को लेकर कबीर,तुलसी और धूमिल- तीनों कवियों की आलोचना होती रही है। पर इससे उनके समस्त रचना संसार और उनके अवदान को खारिज नहीं किया जा सकता।धूमिल के रचना लोक के केंद्र में एक गुस्साये हुए आदमी की अभावों से भरी जिंदगी की व्यथा है । आजादी के बाद एक उम्मीद से भरे हुए आदमी का लोकतंत्र से मोहभंग और उसके टूटे हुए सपनों का आक्रोश इन कविताओं में पूरे आवेग से फूटते देखा जा सकता है। यह नाराज़गी सबसे अधिक व्यवस्था और संसदीय लोकतंत्र से है। इसकी हीं पराकाष्ठा हमें घोर अनास्था के रूप में नक्सलवाड़ी आंदोलनों में दीखती है। लेकिन तब से आधी सदी बीतने के बाद भी धूमिल की कविताएँ आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक होती गयी हैं।जाहिर है, हालात बदतर होते गये हैं क्योंकि जिस शोषण की बुनियाद पर व्यवस्था टिकी है उसकी जड़ें और भी गहरी होती गयी हैं। इतने विस्तार से शीतांशु का यह आलेख हमें धूमिल को आज के संदर्भ में समझने की एक आलोचना दृष्टि देता है।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. शीतांशु says:
    4 years ago

    धन्यवाद आप सभी को इन सारगर्भित टिप्पणियों के लिए।

    Reply
  6. गंगाधर ढोके says:
    2 years ago

    धूमिल जी की कविताओं में स्त्री पक्ष को लेकर जो मलाल रहा, वह शीतांशु जी की समालोचना के बाद धूल गया है । आज के परिप्रेक्ष्य को धूमिल जी कविताओं के साथ पढ़ने को प्रेरित करता है यह आलेख ।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक