फैज़ अहमद फैज़ : शब और सहर का शायर
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“उन्होंने परम्परा से केवल उतना ही हटाने की कोशिश की है जितना अपने विचारों को प्रकट करने के लिए आवश्यक समझा है”.
सैयद एहतेशाम हुसैन
फैज़ एशिया के प्रतिनिधि कवि हैं, अपने देश और अन्य देशों की जन-विरोधी सत्ता का विरोधी एक निर्वासित कवि. भाषा के घर में रहने वाला एक यायावर. एक ऐसा प्रगतिशील शायर जिसने कविता के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह अपनी आखिरी पंक्ति तक किया. उसके मेयार और हुस्न का आशिक. फैज़ की काव्य-यात्रा उपनिवेश और नवजागरण की संधि वेला से प्रारम्भ होती है. यह निशीथ और अरुणोदय का समय एक साथ है. शब साम्राजवाद और परम्परा की रूढ़ियों का, सहर नई चेतना और स्वाधीनता की आकांक्षा का.
उर्दू कविता अपने आभिजात्य और अंदाज़े-बयां के लिए जानी जाती है. उसकी प्रतीकात्मकता और सम्बोधन की क्षमता ने उसे मकबूल बनाया है. आशिक और महबूब की शीरीं गुफ्तगू में ज़ाहिर है आपबीती अधिक है. जगबीती कहीं है भी तो आपबीती के ही संदर्भ में. इस गुफ्तगू का केन्द्र इश्क है– सूफियाना, रहस्यवादी इश्क. जहां वस्ल से अधिक हिज्र को तरजीह दी जाती है. प्रसिद्ध आलोचक कलीमुद्दीन अहमद ने, ‘उर्दू –शायरी पर एक नज़र’ में लिखा है-
“हाँ, यदि कुछ कमी (उर्दू –शायरी) है भी तो संसार-निरीक्षण की. उनकी आँखें दिल की ओर देखती हैं, वे सदा दिली जज्बात वो भावों की सैर में निमग्न रहती हैं. यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे संसार की बहुरंगी से नितान्त अनभिज्ञ हैं; किन्तु इतनी बात अवश्य है कि इस बहुरंगी की ओर उनका ध्यान नहीं है”.
फैज़ इश्क और हुस्न को उसकी शास्त्रीयता में देखते जरूर हैं पर उसे रहस्यवादी रूमानियत से निकाल कर रोज़-ब-रोज़ के जीवन से जोड़ देते हैं. यह इश्क इंसानी है- शरीरी और ऐन्द्रिक. यह आदम का वह प्रेम है जिसके दीगर मसाइल भी हैं. गमें-जाना के साथ ही साथ गमें-रोज़गार भी है. जा-ब-जा बिकते हुए ज़िस्म औ जाँ पर उसकी सोचती हुई नज़र ठहर जाती है. जुल्म और सितम उसे कुछ और सोचने पर विवश करते हैं. वस्ल की राहत के सिवा वह कहीं और भी राहत ढूंढता है. यह वह नवजागरणकालीन नवयुवक है जो समय और समाज में हो रहे परिवर्तन से अपने को जोड़ने की कोशिश कर रहा है. यहाँ इश्क की हेठी नहीं है, न महबूब का तिरस्कार. उसका हुस्न अभी भी दिलकश है और उसकी आँखों के सिवाय दुनिया में कुछ रखा नहीं है. वह बहुत कुछ है पर सब कुछ नहीं.
हुस्न और इश्क उसे समाज से काटते नहीं, जोड़ते हैं. उसकी संवेदनशीलता में इज़ाफा करते हैं. जिस पेशानी, रुखसार, होंठ पर कभी वह जिंदगी लुटाने की बात कहता था वहीं से अब वह सर्द-आहों और जर्द-चेहरों के मानी तलाशता है. अब उसे बाज़ार में बिकते हुए मजदूरों के गोश्त दिखते हैं और राजपथ पर बहता हुआ गरीबों का लहू. फैज़ की शायरी नातवानों के निवालों पर झपटने वाले उकाब से उलझती है. स्त्री–पुरुष के रिश्ते आशिक और महबूब के रिश्तों की कैद से बाहर भी निकलते हैं. वस्ल और फिराक से परे भी इनके बीच कुछ है. बराबरी पर एक दोस्ती का पता मिलता है इन गज़लों में. मर्द-औरत की रवायती समझ से आगे की राह है फैज़ में.
फैज़ ने १९२९ से ही नज्म लिखना शुरू कर दिया था. उनका पहला कविता संग्रह ‘नक्शे–फरियादी १९४१ में प्रकाशित हुआ. इस संग्रह में उनकी एक नज्म का शीर्षक है– मौज़ू-ए-सुखन’. इसमें कविता सम्बन्धी उनके विचार हैं. देश की आज़ादी से पहले फैज़ की शायरी में रवायत और नवजागरणकालीन विचारों का समन्वय हैं.
अपने अफकार की अशआर की दुनिया है यही
जान-ए-मजूमूँ है यही शाहिद-ए-माना है यही.
इस संग्रह में हुस्न की वही धज है. वही ख्वाबीदा सी आँखें, संदली हाथ और हिना की तहरीर, उस शोख के आहिस्ता से खुलते हुए होंट और ज़िस्म के दिल-आवेज़ खुतूत. गरज़ की परम्परा से प्राप्त वह सारी चीजें यहाँ हैं पर यह अजब ढंग से औपनिवेशिक हिंदुस्तान में परवरिश पा रहे उस युवा को तन्हा कर देती हैं. यह एकांत विरह में करवट बदलने वाला एकांत न होकर सोच और समझ की जमीन तैयार करने की भूमिका है. फैज़ जब कहते हैं-
ढल चुकी रात,बिखरने लगा तारों का गुब्बार
लड़खड़ाने लगे एवानो में ख्वाबीदा चिराग.
तो बरबस उस मध्यकालीन संस्कृति की याद आती है जिसके लौट आने की न संभावना है न चाहत ही. ग़ालिब जहां इस तहजीब के पतन की विवशता और बेफिक्री के शायर हैं वही फैज़ के यहाँ विकल्प की उम्मीद है. ज़ुल्म की छांव के ढलने का यहाँ सिर्फ इंतज़ार नहीं उसके ढल जाने का विश्वास भी है. परम्परा से प्राप्त गज़ल के सौंदर्य और उसकी रसास्वादन करने की क्षमता से फैज़ बखूबी परिचित हैं, और उनका इस पर इख़्तियार भी है पर उसकी भूमिका को लेकर एक उधेड़ बुन उनके यहाँ है.
अभिव्यक्ति की आज़ादी का नजदीकी रिश्ता स्वाधीनता की चेतना से है. जन-विरोधी सत्ताएं सोच और अभिव्यक्ति को नियन्त्रित करके ही शासन कर पाती हैं. तरह-तरह के हथकंडे इस्तेमाल कर स्मृतियों को विकृत कर उसे नष्ट करना चाहती हैं. स्मृति से ही गरिमा और स्वाधीनता के फूल खिलते हैं. यह अकारण नहीं है कि नवजागरणकालीन साहित्य में अतीत की पुनर्व्याख्या है वह चाहे मैथिलीशरण गुप्त हों, रवीन्द्रनाथ टैगोर हो या फिर हाली. फैज़ की नज्मों के लब आज़ाद हैं,शब्द देखते-देखते लोहार की भट्टी में तपते लोहे में बदल जाते हैं जिनसे ज़ुल्म की जंजीरे कटनी है.
आज़ादी के बाद फैज़ ने पाकिस्तान रहना शुरू किया. इस राजनीतिक आज़ादी से आगे अभी सामाजिक और सांस्कृतिक आजादी की जंग बाकी थी. इस आज़ादी को वह अधूरा समझते हैं- शबगज़ीदा सहर. एक ऐसी सुबह जिस पर रात का साया हो. इस रास्ते पर दुश्वारियां थीं.1951 और 1958 में उन्हें जेल में डाल दिया गया. इल्जाम था देशद्रोह.
फैज़ उनको है तकाज़ा-ए-वफा हमसे जिन्हें
आशना के नाम से प्यारा है बेगाने का नाम.
फैज़ को पहली बार अपनी कविता से असंतोष हुआ. वह साहित्य की भूमिका के बारे में सचेत हुए. उर्दू शायरी, परम्परा की आत्ममुग्धतता से टकरा कर आत्मालोचन के लिए विवश हुई. अब ऐसे गीत, जिनमें आबशारों और चमनजारों का जिक्र रहता था और जहां गुलची के लिए झुक जाते थे खुद शाख-ए-गुलाब, शीरीं न रहे, दुःख का मदावा न थे.
फैज़ ने उर्दू कविता का मुहावरा बदल दिया. इस दौर की उनकी नज्में की प्रकृति सामुदायिक है और उनमें सम्बोधन का साहस है. अब यह एकांत व्यापार नहीं है जिसका लहजा गुफ्तगू सा था. यह ललकार है. उनके सामने जुल्म और सितम से पिसती वह जनता है जिसके संघर्ष और उम्मीद को वाणी देना है.
ऐ खाक-नशीनों उठ बैठो, वो वक्त करीब आ पहुंचा है
ब तख्त गिराये जायेंगे, जब ताज उछाले जायेंगे
कटते भी चलो, बढते भी चलो, बाजू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चलते भी चलो के, अब डेरे मंजिल ही पे डाले जायेंगे
यह वह समय है जब फैज़ के अल्फाज़ तल्ख हो गये पर नाउम्मीद नहीं. निराशा की सख्त सुनसान घड़ी में भी फैज़ उम्मीद और हिम्मत का दमन नहीं छोड़ते. अँधेरा जितना गाढ़ा होता जाता उम्मीद की तलाश भी उतनी ही तेज़ होती जाती. फैज़ तो कई बार वहम की शर्त पर भी उम्मीद की तलाश करते हैं.-
मुमकिन है कोई वहम था, मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का इक आख़िरी फेरा
जो कविता महबूब के पेंचो ख़म में गुम थीं उसमें इन्कलाब के शोले भर गए. फैज़ ने इन्कलाब का मानवीकरण कर दिया. वह महबूब की ही तरह दिलकश है. विश्व की पीड़ित मानवता का दर्द उनकी शायरी में मुखर हुआ. आज़ादी के लिए संघर्षरत ईरानी छात्रों के समर्थन में कविता लिखी. अफ्रीका और फिलिस्तीन के संघर्ष से अपने को जोड़ा. फैज़ प्रगतिशील आंदोलन से आजीवन जुड़े रहे. उनकी कविताओं में जो धार और वैचारिक परिपक्वता है उसका आधार यही है. इसके साथ ही उन्होंने उर्दू कविता की कलात्मक शास्त्रीयता की भी रक्षा की और उसमें इज़ाफा भी किया है. फैज़ ने मजाज़ के बारे में लिख है कि- ‘मजाज़ इन्कलाब का ढिंढोरची नहीं, इन्कलाब का मुतरिब है’. यही बात फैज़ के लिए भी सही है.
फैज़ ने कुछ मीठे गीत लिख हैं. इन गीतों की चर्चा नहीं होती. एक बड़ा कवि अपनी प्रतिभा से ख्याल के हर गोशे को कैसे रौशन कर देता है देखना हो तो फैज़ के गीत देखने चाहिए. लोकगीत के कंठ से फैज़ के अल्फाज़ जैसे लोरी में बदल गये हों. नदी की तरह धीरे-धीरे बहती इस सुरा का रस देर तक घुलता रहता है. इन गीतों में सखियाँ काली रात में कहीं दिया जलाने की बात करती हैं तो कहीं पक्षिओं और भंवरो और जुगनुओं से बात करती हैं.
प्रेम कथा का अन्त न: कोई
कितनी बार उसे दोहरायें
प्रीत की रीत अनोखी साजन
कुछ नहीं मांगे सब कुछ पायें
फैज़ उनसे क्या बात छुपी है
हम कुछ कहकर क्यूँ पछताएं.
भाषा की दीवार ढह गई है– न उर्दू न हिंदी. मादरीज़बान. बोलिओं की ओर झुकता हुआ हिन्दुस्तानी. हिन्दुस्तानी का यह वह भूला पथ है- खुसरों ने जिसकी राह बनाई थी. खुसरो को समर्पित एक कविता में फैज़ उन्हें मददगार पीर कहते हैं.
कितनी सदियाँ बीत गई हैं
अब जा कर ये भेद खुला है
जिस को तुम ने अर्ज़ गुज़ारी
जो था हाथ पकड़ने वाला
जिस जा लागी नाव तुम्हारी
जिस से दुख का दारू माँगा
तोरे मंदिर में जो नहीं आया
वो तो तुम्हीं थे
‘वो तो तुम्हीं थे’ यह सदियाँ ‘भाषा’ से बहिष्कृत उस संवेदना की सदियाँ हैं. जिसे पाने की हसरत आज भी हर कवि को है. और फैज़ के इस शताब्दी वर्ष से क्यों न इसकी शुरुआत की जाए.
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अरुण देव
devarun72@gmail.com