कोई आपके लिये प्रेम संदेश छोड़ता है.
आप उस संदेश का सिरा पकड़कर उस तक पहुंचते हैं जिसने आपके ख़याल से यह संदेश लिखा होगा, उस तक नहीं जिसने वास्तव में लिखा.
वह जिसने नहीं लिखा संदेश वह उस संदेश का लक्ष्य पा लेती है – यानी आपको पा लेती है, आपके प्रेम को पा लेती है.
आप दोनों साथ रहने लगते हैं, विवाह करके.
आप यह सोचते हैं जिसने वह संदेश छोड़ा था आपके दरवाज़े के नीचे से वही आपकी जीवनसाथी है.
जिसने संदेश लिखा और छोड़ा था, जिसने आपसे सचमुच प्रेम किया था वह सुधा थी.
लेकिन अब जबकि उसके संदेशे के कारण आप दोनों प्रेम में, विवाह में हैं,
सुधा कहाँ है?
गौरव सोलंकी का लेखन कविता की नयी प्रजाति है. और वह कुछ-कुछ उतने ही रैडिकल अर्थ में एक नयी प्रजाति है जिस अर्थ में इससे पहले विनोद कुमार शुक्ल का लेखन हुआ था. ज्यादातर भाषा पहले से प्रोग्राम्ड, या पहले से गूंज रहे अर्थ/अर्थों से, बल्कि एक तरह की अर्थ-दिशा से संक्रमित रहती है – एक अर्थ में वह सदैव, पहले से (always, already)‘आईडियोलॉजिकल’ होती है, उसका संगठन उसे एक ख़ास तरह के अर्थ/अर्थापन की दिशा में अग्रसर करता है.
ऐसे लेखन में उसके वाँछित पठन प्रोग्राम्ड होते हैं – जिसका चरम परिणाम होता है वर्चस्वशाली सौंदर्यशास्त्र के सम्मुख परास्त हो जाना, वह लिखना जो अर्थ-स्थापित करने वाली सत्ताओं/एजेंसियों के डिक्टेट के मुताबिक आपको लिखना होता है ‘मान्यता’ पाने के लिये; समूचे भाषा व्यवहार का ‘रिव्यू-कांशस’ हो जाना, इधर तो ‘लाईक-कांशस’हो जाना – जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे!
जब यह ‘चरम’परिणति नहीं होती, उस ‘इनोसेंस’ में भी, ज्यादातर लेखन, अचेत ही सही, पर ऐसी ही प्री-प्रोग्रेम्ड अर्थ-दिशाओं में अग्रसर होता है.
क्या ऐसा नहीं होना चाहिये? क्या यह निबंध यह कहना चाह रहा है कि ऐसा नहीं होने में एक तरह की कलात्मक या नैतिक सुपीरियरिटी है?
नहीं.
यह निबंध तथ्य से विमोहित होना चाहता है, ‘सत्य’ से नहीं.
गौरव सोलंकी के लेखन में (उसके नाम से प्रकाशित कविताओं और कहानियों में कोई फ़र्क़ नहीं, विनोद कुमार शुक्ल की तरह, मलयज की तरह, मुक्तिबोध की तरह) ‘कविता’, ‘कहानी’ मुद्रण और जिल्द की औपचारिकताओं और विवशताओं के नाम हैं. मूलतः यह एक ही तरह का भाषा व्यवहार है, एक नयी प्रजाति की कविता है.
भाषा में अर्थ की प्रीप्रोग्रेमिंग इसलिये संभव होती है कि वह अस्तित्व की सामान्य (चिकित्साशास्त्रीय अर्थ में) अवस्था की भाषा है. वह ‘सामान्य’ भाषा है जिसमें शब्द, वाक्यसंरचना और अर्थ का संबंध ऋजु है, ‘सामान्य’ है. विनोद कुमार शुक्ल पर मेरे एक अप्रकाशित लेख*में मेरी पढ़त यह है कि उनके लेखन में भाषा की ‘सामान्य’ नहीं,स्किट्जोफ्रिनिकअवस्थाहैजिसमेंशब्दऔरअर्थकीसंगति, वाक्यसंरचनाकीसंगति, वाक्योंकीक्रमिकसंगतिअनुपस्थितहै कुछइसतरहकि शायद उसे एक‘कूट व्याख्या’/’चिकित्सा’ द्वाराहीएक‘सामान्य’, संगतविवरणमेंपुनरूप्लब्धकियाजासकताहै.
गौरव सोलंकी के लेखन में सिनटेक्स के स्तर पर यह नहीं हुआ है लेकिन उनके लेखन में अर्थगत/ रूपकात्मक विचलनों के कई अवसर हैं जो भाषा की सामान्यावस्था को अस्थिर करते हैं. ‘सुधा कहाँ है’ वो पहला पाठ था जिससे मेरा गौरव के लेखन से परिचय हुआ और उसमें इस लेखन की सभी अभिक्षण मौजूद है**.
सुधा कहाँ हैः उद्धरण
शर्ट को उतारकर फेंका गया तो उसकी सलवटें भी उसके साथ नीचे गिर गईं.
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यदि उस समय कोई ततैया नीलम के पहने हुए कपड़ों पर बैठने का सपना पालकर उस कमरे में घुसता तो उसे हताश होकर शराब पीकर ही अपने घर लौटना पड़ता.
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डबली नाम के दो गाँव थे, डबली राठान और डबली कलाँ. ऐसा लगता था कि एक नाम के दो व्यक्ति हों और गोत्र अलग अलग हो. अपने गोत्र में विवाह वर्जित थे इसलिए डबली राठान का भालगढ़ राठान से विवाह नहीं हो सकता होगा चाहे दोनों कितना भी प्रेम करते रहे हों. समान गोत्र के कारण डबली बहन होगी और भालगढ़ भाई.
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उस कमरे में इतना सामान था कि कमरा भी एक बड़ा सा सामान लगता था. ऐसा लगता था कि कमरा भी किसी बड़े गत्ते के डिब्बे में बंद करके लाया गया होगा, जिस पर लिखा होगा- Handle with Care. डिब्बे के अन्दर कमरे के कोनों पर बाहर की तरफ़ थर्मोकोल के टुकड़े रखे होंगे. कमरा लाने के लिए ट्रक लाया गया होगा. ट्रक के पीछे होरन ओके प्लीज लिखा होगा. कमरे को ट्रक में लादने के बाद ड्राइवर ने जल्दी में चाय ख़त्म करके ट्रक स्टार्ट किया होगा.
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शर्ट पर लिखा था कि उस पर इस्तरी की जा सकती है.
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उन्हें चलते चलते कुएँ में गिर जाने वाला या दौड़ते दौड़ते आसमान में उड़ जाने वाला सपना भी ओमपाल की घरवाली के नाम से दिखता था.
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पहला चौकीदार जब दिन भर की ड्यूटी के बाद घर जाता होगा तो वह घर में भी रात भर चौकीदार होने की मन:स्थिति में ही रहता होगा. उसकी बेटी हिन्दी की किताब से जोर जोर से कविता पढ़ती होगी, “नर हो न निराश करो मन को…”, तो वह गुस्से में कहता होगा, “आवाज़ कम कर लीजिए मैडम.” उसकी पत्नी चाय लाती होगी तो चाय लेने के लिए खड़ा हो जाता होगा. उसकी पत्नी मुड़ती होगी तो उसके बालों में लगे फूल को देखकर पूछता होगा कि यह फूल कहाँ से तोड़ा? फिर घर के सारे गमलों के फूल गिनता होगा और टोपी लगाए हुए ही चाय पीता होगा. उसने घर के दरवाजे पर एक शिकायत पेटी भी लगा रखी होगी, जिस पर लाल अक्षरों में लिखा होगा- अपनी शिकायत लिखकर इस बॉक्स में डालें, और कोई सनकी आदमी उसमें कुछ डालना चाहता होगा तो उसका दिल काँप जाता होगा.
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उसने कहा कि इसीलिए जंगलों को देखकर उनके जंगल होने का पता नहीं चलता. हम उन्हें दो गाँवों के बीच खड़े पेड़ समझते रहते हैं. कोई हमसे पूछता है तो हम कहते हैं कि ये पाँच हज़ार पेड़ हैं क्योंकि उनकी अलग अलग गिनती हुई है और उन पर नम्बर लगाकर सफेदी भी पोत दी गई है. हम कभी यह नहीं कहते कि यह एक जंगल है, जिसका नाम चम्पकवन या सुन्दरवन है.
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हमने छूने का एक खेल खेला, शायद लूडो, छूने की लूडो. उसने मुझसे पूछा कि मुझे कौनसे रंग की टिक्कियाँ पसन्द हैं? मैंने पूछा, “कौनसी टिक्कियाँ?” उसने कहा कि लूडो खेलने वाली. मैंने लाल रंग चुना. हम कभी किले तक नहीं पहुँचे. पहुँचने वाले होते तो जानबूझकर हार जाते थे और फिर से शुरु करते थे.
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सुधा चींटी अनार की तीसरी जड़ वाली गली में रहती थी. पाँचवीं जड़ वाली सड़क पर एक होमसाइंस कॉलेज था जहाँ चींटियों को अच्छी गृहणियाँ बनना सिखाया जाता था. अच्छी गृहणियाँ सिलाई, कढ़ाई और बुनाई जानती थीं, शक्कर को सर्दियों तक सुरक्षित रखना जानती थीं, पति चींटियों को प्रसन्न रखने के तरीके जानती थीं. अच्छी गृहणियाँ महिला चींटियों की मासिक पत्रिका बिलशोभा पढ़ती थीं.
यह है वह नयी प्रजाति की कविता जो गौरव सोलंकी के लेखन में घटित हो रही है. ऐसा लगता है उनके बाद के लेखन में वाक्य भंग होगा, अभी हम स्किजोफ्रीनिया के संकेत पढ़ सकते हैं.
मध्यांतर
क्या आप जानते हैं डबली कलाँ और डबली राठान कहाँ हैं?
यह लेखन कविता कैसे होता है?
गौरव के सारे लेखन में जो आख्याता स्वर है किसका है? क्या यह डबली कलाँ और डबली राठान जैसे भूदृश्यों में संस्थापित, विस्थापित कोई आवाज़ है, क्या यह बीसवीं शताब्दी के अंत में छोटे शहरों कस्बों में वयस्क होने की पुरूष आवाज़ है? क्या इस आवाज़ में वह है जो इस लेखन को कविता बनाता है?
तापमान?
अचानक यह शब्द कौंधता है. तापमान कोई आलोचकीय पद या श्रेणी नहीं है. लेकिन यह इस आख्याता
का आस्तित्विक तापमान ही है जो इस लेखन को कविता बनाता है.
कविताओं और कहानियों के भारहीन साईन बोर्ड्स से विभाजित यह लेखन (जो उचित ही एक वर्चुअल ठिकाने पर एक \’किताब\’ में एक साथ है) इस तापमान से सुलगता है. कोई आतंरिक ऊर्जा है जो जितनी शारीरिक है उतनी ही शाब्दिक भी, जो जितनी कर्म (एक्शन) है उतनी ही उदासी (कंडीशन) भी.
यह जीवन के मंडेन का तापमान है (इस लेखन में केवल और केवल मंडेन ही व्याप्त है पर इसमें मंडेन के मंडेन होने की थकान नहीं, वह किसी हायरार्की में निचले पायदान पर नहीं) – असाधारण और असामान्य हरकतें भी इसके इर्दगिर्द ऐसे होती हैं मानो वे मंडेन का एक और आकार हों.
मंडेन का यह आस्तित्विक तापमान जिस क्षण अवास्तविक को, असाधारण और असामान्य हरकतों को छूता है, यह भाषा को भी अपनी गिरफ़्त में ले लेता है, एक सिमेंटिक विचलन में मंडेन आख्यान को अपने ताप से जलाने लगता है: यह इसके कविता हो जाने का क्षण है.
गौरव सोलंकी ने जब लिखना शुरू किया तो उसके पास प्रभावी साहित्यिक स्मृति नहीं थी. गौरव के लेखन में, बिल्कुल वाक्य जैसी बेसिक ईकाई तक में, पूर्व-ज्ञान (साहित्यिक, वैचारिक, ऐतिहासिक, विचारधारात्मक) का ऐसा अ-भाव है कि उसे पढ़कर आपको अर्थ-उत्पन्न करने की पूर्व-परिचित प्रणालियाँ याद नहीं आती.
ऐसा लगता है शताब्दी बदलने के आर पार, एक नये देश में, एक नयी विश्व व्यवस्था में वयस्क होने की प्रक्रिया ने संसार के इस कोने में अपने लिये एक वाक्य, एक भाषा ईज़ाद की है जो ज्यादातर पुरूष सुनाई पड़ती है लेकिन है स्त्रीत्व से भीगी हुई.
राजस्थान का पानी वाला, नहरी इलाका (गंगानगर-हनुमानगढ़) राजस्थान नहीं है पर वह ठीक से पंजाब भी नहीं है. उसका दुचित्तापन, उसकी हरियाली, उसकी जिंदादिली, उसका रूमान और सोज़, उसकी मसखरी क्रूरता, उसका पूर्णतः पंजाब होने का सपना, उसकी अंशतः राजस्थान बने रहने की जिद, उसकी कम विज्ञापित गरीबी, उसकी दिखावेबाज समृद्धि, उसकी बेशुमार अश्लीलताएँ इस लेखन में बोलती हैं. यह डबली कलाँ और डबली राठान जैसी दोहरी पहचानों में विभक्त एक जगह की आवाज़ है जो इस लेखन में बोलती है.
यह निजी रूप से मेरे लिये जीवन के सबसे आज़ाद और खुश चार सालों की, दस दिन जीने लायक पैसे में महीने भर जीने के हुनरमंद चार सालों के इलाके की, इश्क और उदासी के कारोबार में तापमान से परिचय कराने वाली जमीन की आवाज़ है.
बाद के लेखन में यह आवाज़ दूसरी जगहों में भी चली गई लेकिन अपना तापमान साथ ले गई है.
7
आप चाहें तो मध्यांतर से पहले के हिस्से को ज्ञानी लोगों के लिये छोड़ सकते हैं और ज्ञानी लोग चाहें तो मध्यांतर के बाद के हिस्से को प्रेमी लोगों के लिये छोड़ सकते हैं.
।। समाप्त ।।
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* यह लेख विनोद कुमार शुक्ल पर ‘पाखी’ के आगामी विशेषांक (अक्टूबर 2013) में प्रकाश्य है।
** जैसे कहा जाता है, ‘सुधा कहाँ है’ मेरी ‘प्रिय’ कहानियों में है. ये प्रिय लेखकों लेखनों के बार में बताने वाले अप्रिय लेखकों लेखनों के बारे में क्यों नहीं बताते, भला.
कवि – आलोचक
पहला कविता संग्रह \’शामिल बाजा\’ \’दखल प्रकाशन\’ से शीघ्र प्रकाश्य
Founder & Editor, Pratilipi, Founder & MD, Pratilipi Books. Creative Director, Samanvay. Founder-Coordinator, Kavita Samay.