अवधू बेगम देस हमारा(कबीर की कविता में घर और देश)
सदानन्द शाही |
कबीर की कविता में घर एक महत्वपूर्ण प्रतीक के रूप में हमारे सामने आता है. आम तौर पर कबीर के जिस घर से हमारा परिचय है, वह घर है जिस घर को वे जला देना चाहते हैं, जला देते हैं. वे केवल अपना घर ही नहीं जलाते हैं, बल्कि उसका घर भी जला देना चाहते हैं, जो उनके साथ चलना चाहता है. घर को जला देना कबीर के साथ चलने की पूर्व शर्त है. यदि आप कबीर के साथ चलना चाहते हैं तो पहले अपना घर जला दें. कबीर के साथ चलने का न्योता सिर्फ उसे ही मिलेगा, जिसने अपना घर जला दिया है-
कबिरा खड़ा बाजार में लिए मुराठा हाथ.
जो घर जारे आपना चले हमारे साथ..
इसे सिर्फ न्यौता ही न समझा जाय. यह इजाजत और अनुज्ञा का भी मामला है. कुछ लोग बिना न्यौते के भी चले आते हैं. माया और राम दोनों को एक साथ साध लेना चाहते हैं. अपना घर भी जोड़ लें और कबीर के साथ कुछ दूर चल कर देख भी लें कि वहाँ क्या मिल रहा है? कबीर ऐसे लोगों को न्योता भी देते हैं और चेताते भी हैं-
हम घर जारा आपना, लिया मुराड़ा हाथ.
अब घर जारौं तासु का, जो चलै हमारे साथ..
कबीर के घर की यह आम छवि है, जिसे हम जानते हैं. वे अपना घर जलाकर आ गये हैं. वे हर उस व्यक्ति का घर जला देने के लिए तत्पर हैं, जो उनके साथ चलने वाला है या चलना चाहता है. मजे की बात यह कि वे अकेले जाना भी नहीं चाहते. वे अपने साथ सबको ले जाना चाहते हैं. शर्त रख देते हैं कि अगर घर नहीं जला पा रहे हो, तो कोई बात नहीं. देख लो ! मेरे हाथ में लुआठा है. मेरे साथ चलोगे तो पहले तुम्हारा घर जलायेंगे, फिर आगे बढ़ेंगे. अपना घर जलाओ और मेरे साथ चलो. हम इसी कबीर को जानते हैं.
अब जो घर जोड़ने की माया में जुटे हैं, वे भला क्यों कबीर के पास आने लगे. घर कितनी मुश्किल से बनता है. उसे जलाना कहाँ की समझदारी है. इसीलिए जिनके पास घर है, वे प्रायः कबीर से परहेज करते हैं. कबीर की कविता से परहेज करते हैं. रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं-‘उनका (कबीर का) कोई साहित्यिक लक्ष्य नहीं था, वे पढ़े लिखे लोगों से दूर ही दूर अपना उपदेश सुनाया करते थे.’
कबीर के समय में पढ़े लिखे लोग कौन थे ? या कि जिन्हें पढ़ने लिखने की इजाजत थी. ये प्रायः वही लोग थे जो घर जोड़ने की माया में जुटे हुए थे. वे भला कबीर की सुनते ही क्यों ? और कबीर उन्हें सुनाने भी क्यों जाते ? घर जोड़ने की माया से बँधे हुए पढ़े लिखे लोगों के पास झख मारने कबीर क्यों जाते ? और इसका उलटा भी सच है ऐसे लोग घर जलाने की बात करने वाले कबीर के पास क्यों जाते?
लेकिन कबीर के साथ चलने के लिए बहुत से लोग तैयार रहते हैं. अपना घर जलाने और कबीर के साथ चल पड़ने वाले लोगों की कमी नहीं हैं. प्रेमचन्द के घीसू और माधव को हम जानते है. माया जब मुँह बिराती है, वे कबीर के पास जाते हैं. घीसू माधव को हम इसलिए जान पाये क्योंकि प्रेमचन्द उनका पता देते हैं. ऐसे लाखों लोग हैं जो कबीर के साथ चलते हैं चलना चाहते हैं. अमरीका के एक कवि है राबर्ट ब्लाई. उनकी कबीर से भेट रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुवाद के माध्यम से हुई. उन्हें टैगोर का विक्टोरियन अंग्रेजी में किया अनुवाद पुराना लगा. राबर्ट ब्लाई ने स्वयं कबीर के पचास पदों का अनुवाद किया. अब वे अपनी कविताएँ नहीं सुनाते. जहाँ जाना होता है, वे कबीर की कविताएँ ही सुनाते हैं. इस तरह देखें तो घीसू माधव से लेकर राबर्ट ब्लाई तक कबीर के साथ चलने को तैयार लोगों का रेंज बहुत व्यापक है. ऐसे लोगों को कबीर कहाँ ले जाना चाहते हैं, कहाँ ले जाते है? इसी के साथ सवाल यह भी है कि कबीर के साथ जाने के लिए लोग क्यों तैयार हैं. आखिर कबीर कहाँ ले जा रहे हैं? वह कौन सी जगह है, जहाँ जाने के लिए लोग घर-बार तक जलाने पर आमादा हैं.
कबीर के यहाँ घर के और भी रूप हैं. थोड़ा उसे भी देख लें. एक तरफ तो घर में ‘झगरा भारी’ है. वे इस झगरे को सुलझाते हैं. इस भारी झगरे से मुक्ति दिलाने की बात करते हैं. ‘मैं कहता आँखिन की देखी तू कहता कागज भी लेखी. मैं कहता सुरझावनहारी तू राखे अरुझाई रे.’1
घर से आदमी का बड़ा पुराना नाता है. घर के बिना आदमी का काम नहीं चलने वाला. घर जलाने वाले के रूप में मशहूर कबीर का भी. वे केवल घर जलाते नहीं है, घर बनाते भी हैं. ‘अवधू गगन मंडल घर कीजै, अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंकनालि रस पीजै.’2 इत्यादि-इत्यादि.यानी घर से अमृत बरसे और सुख मिलता रहे तो कबीर को घर करने में एतराज नहीं है. घर की प्रकृति भिन्न है. घर का स्वरूप भिन्न है. अमृत बरसता हो, निरन्तर सुख उपजता हो तो कबीर घर की रखवाली के लिए भी प्रस्तुत हैं. वे केवल घर जलाने के लिए हाँका ही नहीं लगाते वे घर की रक्षा के लिए भी आवाज लगाते हैं-
मन रे जागत रहिए भाई.
गाफिल होई वस्तु मति खोवै, चोर मुसै घर जाई..3
घर जलाने के लिए प्रसिद्ध कबीर इसके लिए सचेत कर रहे हैं कि कहीं घर में चोर न घुस जाये, इसलिए- ‘जागत रहिए भाई.’
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है-
मैंने जब-जब सिर उठाया अपने ही चैकठ से टकराया
सिर झुका आओ बोली भीतर की दीवारे
सिर झुका आओ बोला बाहर का आसमान
दोनों ने मुझे छोटा करना चाहा.
बुरा किया मैंने जो ये घर बनाया.
घर का एक रूप जो आदमी को छोटा बनाता है, छोटा बनाना चाहता है छोटा बना देता है, आदमी को छोटा कर देता है. कबीर दास उसे ही जलाने की बात करते हैं. वह इसी तरह का घर है. जो आदमी को छोटा कर दे, ऐसा घर कबीर को कुबूल नहीं है. कबीर ऐसे ही घर को जलाने की बात करते हैं. घर जलाकर और जलवाकर कबीर हमें कहाँ ले जाना चाहते हैं? इस घर जलाने वाले संत के प्रति सैकड़ों वर्षों से लोगों के मन में इतना आकर्षण क्यों हैं? वह कौन सी जगह है, जहाँ जाने के लोभ में लोग घर जलाने को तैयार हो जाते हैं?
इसका उत्तर मुझे रैदास को पढ़ते हुए मिला. रैदास का प्रसिद्ध पद है, सबने पढ़ा होगा. बेगमपुरा शहर को नाऊँ.4 इस पद में रैदास कहते हैं.- मेरे शहर का नाम बेगमपुर है. जहाँ दुःख और अन्देशे के लिए कोई जगह नहीं है. वे आगे कहते हैं- हमें खूब अच्छा वतन/घर मिल गया है. अब हम खूब वतन घर पाया. वहाँ न तो माल है न लगान देने की चिन्ता. किसी तरह का खौफ नहीं है, भूल या गलती नहीं है, पतन का डर नहीं है. मेरे भाई, मैंने ऐसा खूबसूरत वतन पा लिया है जहाँ सदैव खैरियत ही रहती है. वहाँ की बादशाहत/शासन व्यवस्था दृढ़ और स्थायी है. वहाँ दूसरा या तीसरा कोई नहीं है. यह शहर दाना-पानी, रोजी रोजगार के लिए मशहूर है. धनी मानी और सज्जन लोगों से यह शहर भरा है. जिसको जहाँ भावे वहाँ आ जा सकता है. कहीं कोई रोक टोक नहीं करता. हर तरह के बंधनों से मुक्त रैदास कहते हैं-जो मेरे इस शहर में रहने वाला है, वही मेरा मित्र है. यह अद्भुत शहर कहाँ है?
कबीर और रैदास दोनों बनारस के हैं. दोनों समकालीन हैं. दोनों मिलकर एक नया शहर बसा रहे हैं. रैदास के भक्तों की संख्या पंजाब में बहुत है. पंजाब से बनारस आने वाली एक ट्रेन का नाम है-बेगमपुरा एक्सप्रेस. एक बार मुझ से किसी ने पूछा था-बेगमपुर कहाँ है ? सहसा तो मुझे पूछने वाले पर हँसी आयी. लेकिन भोलेपन से पूछा गया वह प्रश्न मन में कहीं अटक गया. मुझे लगा कि इस बेगमपुर का पता लगाना चाहिए. मैंने पाया कि यह बेगमपुर और कहीं नहीं कबीर और रैदास की कविता में है. यह कबीर और रैदास की कल्पना का शहर है.
कबीर कहते हैं-‘अवधू बेगम देस हमारा.’5 कबीर राजा रंक फकीर बादशाह सबसे पुकार-पुकार कर कहते हैं कि अगर तुम्हें परम पद चाहिए तो हमारे इस देश में बसो. इस देश में सत्त धर्म की महता हैं. केवल संत धर्म है.
यही बेगम देश है, जिसे कबीर अमरपुर भी कहते हैं. वे सजना से अमरपुर ले चलने के लिए कहते हैं. अमरपुर में बाजार लगी हुई है. वहाँ सौदा करना है. उसी अमरपुर में संत रहते हैं. संत समाज सभा जहॅ बैठी वहीं पुरुष है अपना.6
कबीर क्या कह रहे हैं. इसे ध्यान पूर्वक कर सुनने की जरूरत हैं. संत समाज सभा जहॅ बैठी वहीं पुरुष है अपना. यह संतों का समाज संतों की सभा अमरपुर में है. यानी संतों की सभा जहाँ है-वहीं अमरपुरी है. वही बेगमपुर है. इसी के साथ कबीर दास का एक और पद पढ़ लीजिए-
चलन चलन सब कोई कहत है, ना जानौं बैकुण्ठ कहाँ है. जोजन एक प्रमिति नहीं जाने/बातन ही बैकुण्ठ बखाने. एक जोजन आगे का हाल जिन्हें नहीं मालूम वे बैकुण्ठ का बखान करते रहते हैं. जब तक आप स्वयं वहाँ नहीं जाते/स्वयं नहीं देख पाते-तब तक बैकुण्ठ पर भरोसा नहीं किया जा सकता. अन्त में कबीर कहते हैं कि और कुछ नहीं साधु की संगति ही बैकुण्ठ है.7
यह साधु कौन है ? जो अमरपुर में रहता है वही साधु है, वही संत है. वही बेगमपुरा का नागरिक है. इस बेगमपुर की नागरिकता की क्या शर्तें हैं? यह किस भूगोल में पाया जाता है. इसकी क्या विशेषता है? कबीर इसकी विशेषताएँ बताते हैं-
जहवां से आयो अमर वह देसवा.
पानी न पौन न धरती अकसवा, चाँद सूर न रैन दिवसवा.
ब्राह्मन, छत्री न सूद्र वैसवा, मुगलि पठान न सैयद सेखवा.
आदि जोति नहिं गौर गनेसवा, ब्रह्मा विस्नु महेस न सेसवा.
जोगी न जंगम मुनि दरवेसवा, आदि न अंत न काल कलेसवा.
दास कबीर ले आये संदेसवा, सार सब्द गहि चलै वहि देसवा.
रैदास के पद के साथ एक बार इस पद को मिला कर देखें. साथ-साथ पढ़ कर देखें. नागरिकता की शर्त एक ही है. भेद बुद्धि का अभाव. किसी तरह की कोई भेदबुद्धि नहीं है. ऊँचनीच की भावना नहीं है. न कोई ब्राह्मण है, न कोई शूद्र. न कोई मुगल है न पठान. ब्रह्मा, विष्णु, गौरी, गणेश कुछ भी नहीं. भेद बुद्धि का पूर्ण अभाव. इसे जो समझ लेता है उसे ही निर्वाण मिलता है.8
यह बेगमपुर ऐसा वतन घर है जहाँ मनुष्य को छोटा करने वाली हर तरह की भेद बुद्धि का अभाव है. हर वो चीज जो मनुष्य को मनुष्य से बाँटती है, भिन्न होने का, ‘द अदर’ होने का भाव पैदा करती है-अमरपुर में उसकी समायी नहीं है. बेगमपुर का वीजा पासपोर्ट उसे नहीं मिलेगा. कबीर का एक और प्रसिद्ध दोहा याद आ रहा है-
कबीरा यह घर प्रेम का खाला का घर नाहिं.
सीस उतारे भुँई धरे तब पइसे घर माँहि..
अहंकार का भेद बुद्धि का सिर उतारकर बाहर रख देना है, तब प्रेम के घर में प्रवेश हो पायेगा. प्रेम का घर ऐसा है जिसमें अपना सब कुछ देकर सबकुछ को दाँव पर लगाकर ही प्रवेश हो सकता है. कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. फिर प्रेम तो सर्वोत्तम है. सर्वोत्तम पाने के लिए सर्वोत्तम देना होगा.9 सबसे कठिन है सर्वोत्तम को देना. हमारी मुश्किल है कि हम पाना तो चाहते हैं सब कुछ लेकिन उसके लिए कुछ भी छोड़ने को तैयार नहीं हैं. इसी पर तंज कसते हुए कबीर कहते हैं-
जन कबीर का सिषर घर, बाट सिलैली गैल.
पाँव न टिकै पिपीलिका, लोगन लादै बैल..
कबीर हमें प्रेम के घर में ले जाना चाहते है. यह प्रेम का घर ही रैदास का बेगमपुर है. बेगम देस का नागरिक बनने के लिए हमें बहुत कुछ छोड़ कर आना होगा. इसीलिए कभी-कभी मुझे लगता है कि कबीर की कविता हमें बहुत कुछ छोड़ने के लिए कहती है, बहुत कुछ अनसीखा करने के लिए कहती है. बहुतेरे अवरोध हैं, जिन्हें दूर करने के लिए कहती है.
बेगमदेस पर विचार करते हुए हमारा ध्यान अचानक तुलसीदास के राम राज्य की ओर चला जाता है. बेगमदेस और रामराज्य में बड़ी समानताएँ हैं. तुलसी के रामराज्य10 की कल्पना की हिन्दी में बहुत सराहना हुई है. तुलसीदास हिन्दी के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं. इसके मूल में उनके द्वारा रचित रामराज्य का यूटोपिया भी है, लेकिन बेगमपुर और अमरपुर की यूटोपिया रचने वाले रैदास और कबीर को सिर्फ खण्डन मण्डन करने वाला मान कर अवमानित किया जाता रहा है. बहस होती है कि वे कवि हैं भी या नहीं.
कबीर और रैदास दोनों ही तुलसी से कम से कम सौ वर्ष पहले हुए हैं. उनका बेगमपुर या बेगम देस तुलसी के रामराज्य की कल्पना से कम से कम सौ वर्ष पहले की कल्पना है. तुलसीदास ने थोड़े हेर फेर के साथ बेगमपुर की कल्पना को रामराज्य के रूप में प्रस्तुत कर दिया है. तुलसी के रामराज्य और बेगम देस को आमने-सामने रख कर देखिए. दोनों में ज्यादा भेद नहीं है. रामराज्य की कल्पना में तुलसीदास ने वर्णाश्रम धर्म को ‘एडजस्ट’ कर दिया है. ‘सत्त धर्म’ की जगह तुलसीदास ने ‘निज-निज धरम की भेद बुद्धि के लिए जगह बना दी है. रामचन्द्र शुक्ल तुलसीदास की जिस प्रतिभा के सबसे बड़े कायल हैं, वह यही है. शुक्ल जी लिखते हैं- ‘सगुण धारा के भारतीय पद्धति के भक्तों में कबीर, दादू आदि के लोकधर्म विरोधी स्वरूप को यदि किसी ने पहचाना तो तुलसीदास ने.’ शुक्ल जी कह चुके हैं कि कबीर, रैदास, दादू आदि का प्रवेश पढ़े लिखे लोगों में नहीं, बल्कि बे-पढ़ी लिखी जनता में था. विडंबना देखिए कि जिनका प्रवेश बे पढ़े लिखे लोगों में था वे कवि लोक धर्म विरोधी हो गये. अस्ल में रामचन्द्र शुक्ल के लोकधर्म की बुनियाद वर्ण व्यवस्था और आश्रम पद्धति ही है. इसीलिए वर्ण व्यवस्था और आश्रम धर्म का विरोध करने वाले कबीर आदि संत लोकधर्म विरोधी हो जाते हैं और वर्णाश्रम धर्म को पुनरस्थापित करने के कारण ही तुलसी दास लोकवादी और हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि हो जाते हैं. जबकि वर्णाश्रम रहित लोकधर्म के प्रवर्तक कबीर और रैदास कवि भी हैं या नहीं इस पर बहस हो रही है. यह भी हिन्दी साहित्य की अनेक उलटवासियों में से एक है.
बहरहाल कबीर का यह बेगमदेस यूटोपिया है. एक प्रति संसार की कल्पना है. मौजूदा संसार जटिल संसार, उलटवासिायों से भरे संसार के बरक्स एक मानवीय और समुन्नत संसार की कल्पना है- जिसमें सत-संगति है. सत्त की संगति है. अभेद ही जिसका संविधान है.ऐसी उदात्त यूटोपिया की रचना करने वाले कबीर को विश्वकवि रवीन्द्रनाथ कवि मानते हैं और ‘‘Hundred poems of Kabir’’ नाम से कबीर की सौ कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद करके दुनिया के सामने प्रस्तुत करते हैं. और इधर हिन्दी के विद्वान आचार्य और आलोचक बहस कर रहे हैं कि कबीर कवि हैं या नहीं. शायद ऐसी ही बहसों के लिए कबीर ने कहा था- बोलना का कहिए रे भाई, बोलत-बोलत तत्त नसाई.11
(महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा, के कोलकाता केन्द्र तथा केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद के हिन्दी विभाग में दिये व्याख्यान का सम्पादित रूप. व्याख्यान के आयोजक श्री कृपाशंकर चैबे तथा प्रो0 आलोक पाण्डेय के प्रति आभार.)
_________
सन्दर्भ
1. मेरा तेरा मनुआं कैसे इक होइ रे.
मैं कहता हौं आंखिन देखी, तू कागद की लेखी रे.
मैं कहता सुरझावनहारी, तूं राख्यो अरुझाइ रे..
मैं कहता तू जागत रहियो, तूं रहता है सोइ रे.
मैं कहता तूं निर्मोही रहियो, तूं जाता है मोहि रे.
जुगन-जुगन समझावत हारा, कहा र मानत कोइ रे.
तू तो रंडी फिरे बिंहडी, सब धन डागर्या खोइ रे..
सतगुरु- धारा निरमल बोहे, वा में काया धोइ रे.
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तबही वैसा होई रे..
2. अवधू गगन मंडल घर कीजै
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नालि रस पीजै.. टेक..
मूल बाँधि सर गगन समाँनाँ, सुखमन यों तन लागी.
काम क्रोध दोउ भया पलीता, तहाँ जोगनी जागी.
मनवाँ जाइ दरीचै बैठा, मगन भया रसि लागा.
कहै कबीर जिय संसा नांही, सबद अनाहद बागा.
3. मन रे जागत रहिए भाई.
गाफिल होइ बस्तु मति खोवै, चोर मुसै घर जाई.. टेक..
षट चक्र की कनक कोठड़ी, बस्त भाव है सोई.
ताला कूँची कुलफ के लागे, उघड़त बार न होई..
पंच पहरवा सोइ गए हैं, बसतैं जागन लागीं.
जरा मरण व्यापै कछु नाहीं, गगन मंडल लै लागी.
करत बिचार मनही मन उपजी, नां कहीं गया न आया.
कहै कबीर संसा सब छूटा, राँम रतन धन पाया..
4. बेगमपुरा सहर का नाऊँ, दुखु अन्दोह नहिं तिहि ठाऊँ.
ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफ न खता न तरसु जवालु.
अब मोहि खूब वतन गह पाई,
ऊहां खैरि सदा मेरे भाई..
कायम दायम सदा पातिसाही, दोम न सेम एक सो आही.
आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहिं मामूर..
तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै हरम महल न को अटकावै.
कहि रैदास खलास चमारा, जो हम सहरी सु-मीतु हमारा..
5. अवधू बेगम देस हमारा.
राजा-रंक-फकीर-बादसा, सबसे कहौ पुकारा..
जो तुम चाहो परम पद को, बसिहो देस हमारा..
जो तुम आये झीने होके, तजो मन की भारा..
धरन अकास गगन कछु नाहीं, नहीं चन्द्र नहिं तारा..
सत्त धर्म की हैं महताबे, साहेब के दरबारा..
कहै कबीर सुनो हो प्यारे, सत्त धर्म है सारा..
6. अमरपुर ले चलु हो सजना.
अमरपुरी की सॅकरी गलियाँ, अड़बड़ है चढना.
ठोकर लगी गुरु-ज्ञान शब्द की, उधर गये झपना.
वोहि रे अमरपुर लागि बजरिया, सौदा है करना.
वोहि के अमरपुर संत बसतु है, दरसन है लहना.
संत समाज सभा जहँ बैठी, वहीं पुरुष अपना.
कहत कबीर सुनो भाई साधो, भवसागर है तरना.
7. चलन चलन सब कोई कहत है, नाॅ जानो बैकुंठ कहाँ है.
जोजन एक प्रमिति नहिं जाने, बातनि ही बैकुंठ बखानै
जब लगि है बैकुण्ठ की आसा, तब लग नहिं हरिचरन निवासा.
कहै सुनै कइसे पतिअइहे, जब लगि तहाँ आप नहिं जइहे..
कहै कबीर यहु कहिए काहि, साधो संगति बैकुण्ठहि आहि.
8. सखि वह घर सबसे न्यारा, जहाँ पूरन पुरुष हमारा.
जहाँ न सुखदुख साच-झूठ नहि पाप न पुन्न पसारा..
नहि दिन रैन चंद नहिं सूरज, बिना ज्योति उजियारा.
नहिं तह ग्यान ध्यान नहि जप तप बेद-कितेब न बानी.
करनी धरनी रहनी गहनी ये सब उहाँ हेरानी..
धर नहि अधर न बाहर भीतर, पिंड ब्रह्माण्ड कहु नाहीं..
पाँच तत्र गुन तीन नहीं तहँ, साखी सब्द न ताहीं..
मूल न फूल बेल नहिं बीजा, बिना वृक्ष फल सोहै..
ओहं सोहं अध उरध नहिं, स्वासा लेखन को है..
नहिं निरगुन नहिं अविगति भाई, नहि सूछम-अस्थूल..
नहि अच्छर नहि अवगत भाई, ये सब जब के मूल..
जहाँ पुरुष तहँवा कुछ नाहीं कह कबीर हम जाना..
हमरी सैन लखे जो कोई, पावै पद निरवाना..
9. कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध.
सीस उतारि पगतलि धरै, तब निकसै प्रेम का स्वाद..
प्रेम न खेती नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय.
राजा-परजा जिस रुचै सिर दे सो ले जाय.
10. रामराज बैठे त्रैलोका. हरषित भये गए सबसोका.
बयरु न कर काहू सन कोई. राम प्रताप विषमता खोई.
बरनाश्रम निजनिज धरम निरत वेद पथ लोग .
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं, नहि भय सोक न रोग..
दैहिक दैविक भौतिक तापा. राम राज नहिं काहुहि व्यापा.
सब नर करहिं परस्पर प्रीती. चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती.
चारिउ चरन धर्म जग माही. पूरि रहा सपनेहुँ अध नाहीं.
रामभगति रत नर अरु नारी. सकल परमगति के अधिकारी.
अल्पमृत्यु नहिं कबनिउ पीरा. सब सुन्द सब विरुज सरीरा.
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना. नहि कोउ अबुध न लच्छन हीना.
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी. नर अरु नारि चतुर सब गुनी.
सब गुनमय पंडित सब ग्यानी. सब कतग्य नहिं कपट सयानी..
11. बोलनां का कहिए रे भाई.
बोलत बोलत तत्त नसाई.. टेक..
बोलत बोलत बढ़ै बिकारा, बिनु बोले क्या करहि बिचारा.
संत मिलहिं कुछ सुनिए कहिए, मिलहिं असंत मस्टि करि रहिए.
ग्यांनीं सौं बोलें उपकारी, मूरिख सौं बोलें झखमारी.
कहैं कबीर आधा घट बोलै, भरा होइ तौ कबहुँ न बोलै.
सदानन्द शाही
7 अगस्त 1958,कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)
असीम कुछ भी नहीं, सुख एक बासी चीज है, माटी-पानी (कविता संग्रह)
स्वयम्भू, परम्परा और प्रतिरोध, हरिऔध रचनावली, मुक्तिबोध: आत्मा के शिल्पी, गोदान को फिर से पढ़ते हुए, आदि का प्रकाशन.
आचार्य
काशी हिन्दू विश्वविधालय
sadanandshahi@gmail.com
|