सदानंद शाही की कविताएँ |
घास छीलती औरतें
आजकल जिस मैदान में टहलने जाता हूँ
वहाँ कुछ औरतें घास छीलने आती हैं
वे प्राय: आसपास ही रहती हैं
ताकि काम भी होता रहे
और टोले मुहल्ले का हाल चाल भी
जितनी तेज़ी से चलता है उनका हाथ
उतनी ही तेज़ी से चलती रहती है
उनकी ज़ुबान भी
कथनी और करनी की ऐसी जुगलबंदी कम दिखाई देती है
मुझे कुतूहल रहता है कि
वे क्या बातें करती होंगी
विकास के बारे में
महँगाई के बारे में
या पड़ोसन के घर में आ जमें
घर जमाई के बारे में
या फिर वे भी पढ़े लिखे
कलमघिस्सुओं की तरह
पकाती होंगी ख़याली पुलाव
क्या वे कुंठित कुमारों की तरह
मशगूल रहती होंगी
निंदा पुराण में
अनुमान के अलावा
उनकी बातों को जानने का
कोई और उपाय नहीं है
कभी प्रेमचन्द ने ऐसी ही घसियारिनों से बात की थी
जिसे छुप छुपाकर सुन रहे थे फ़िराक़
फ़िराक़ के हवाले से
हम जो जान पाते हैं
वह बस इतना ही कि प्रेमचन्द
घसियारिनों की अर्थव्यवस्था के बारे में
जानकारी ले रहे थे
कि वे कैसे रहती हैं
आमदनी का ज़रिया क्या है
कि घर में कौन कौन है
कैसे चलता है गुजर बसर
फ़िराक़ की तफ़सील से
बिल्कुल पता नहीं चलता
कि
वे घसियारिनें आपस में क्या बात करती हैं
संभव है
वे उन अनबोलता चउवों के बारे में बात करती हों
जिनके पालन पोषण की ज़िम्मेदारी उनके माथे पर है
संभव है वे अपने अनबोलता गदेलों के बारे में बात करती हों
जिनके पालन पोषण की ज़िम्मेदारी उनके माथे पर है
और जिन्हें वे सोता हुआ छोड़ कर चली आई हैं
वे बच्चों की भाषा तो जानती ही हैं
कभी कभी लगता है
वे मवेशियों की भाषा भी जानती हैं
जिसे जानते थे प्रेमचन्द
और लिख सकते थे
दो बैलों की कथा
कुछ औरतें घास छीलनें आती हैं
और मैदान को बदल देती हैं
अमृता शेरगिल की पेंटिंग में.
प्रार्थना के शिल्प में
मेरे शरीर पर उतनी ही चर्बी देना
जितना ज़रूरी हो
अतिरिक्त बिल्कुल नहीं
मुझे उतना ही अन्न देना
जितना ज़रूरी हो
अतिरिक्त बिल्कुल नहीं
जल और हवा
आकाश और धरती
और अग्नि भी
उतनी ही देना
जितनी ज़रूरी हो
अतिरिक्त बिल्कुल नहीं
मुझे उतना ही पुरुष (या स्त्री)
बनाना
जितना ज़रूरी हो
अतिरिक्त बिल्कुल नहीं
मुझे उतना ही हिन्दू बने रहने देना
जितना मैं जन्म से हूँ
अतिरिक्त बिल्कुल नहीं
मुझे उतना ही और वैसा ही
भारतीय बने रहने देना
जितना हिमालय ने रचा है
और गंगा की लहरों ने गढ़ा है
अलग-अलग पर्वतमालाओं ने
जैसा आकार दिया है
हज़ारों हज़ार नदियों ने
जैसा गुना है
बिल्कुल वैसा ही
अतिरिक्त बिल्कुल नहीं
मुझे उतना ही और वैसा ही
वैश्विक बने रहने देना
जितना सूरज बनाता है
और चाँद सजाता है
अतिरिक्त बिल्कुल नहीं
यह जो अतिरिक्त की चाह है
वह जाने कब से
मेरे अन्तस को
रिक्त करती आई है
जैसे दीमकें कर देतीं हैं
खोखला
हे मेरे प्रभु!
मैं इक्कीसवीं सदी का मनुष्य हूँ
अतिरिक्त का बोझ ढोते ढोते
थक गया हूँ
मुझे न सींग चाहिए
न पूँछ
मैं मनुष्य ही बना रहना चाहता हूँ
मेरा ख़याल था कि मैं एक भला आदमी हूँ
मैंने चाटुकारिता नहीं की किसी की
और न ही
काम निकल जाने पर गाली दी किसी को
मैंने पूरी ईमानदारी से यक़ीन किया
कि सत्य की विजय होगी
और हारने के बाद भी सत्य का पल्लू नहीं छोड़ा
मैंने काम निकालने के लिए
कभी किसी मूर्ख को वृहस्पति नहीं कहा
और न ही किसी मूर्ख को ख़ुश करने के लिए
वृहस्पति
मैंने तुलसीदास की इस बात पर
हमेशा यक़ीन किया कि
परहित सरिस धरम नहीं भाई
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई
नरसी मेहता को
बराबर सही मानता रहा
और ताजिन्दगी
उनकी बात दुहराता रहा
वैष्णव जन तैणे कहिए जे पीर पराई जाणै रे
देखता रहा सबमें अच्छाई
यह सब करते हुए
मेरा ख़याल था कि
मैं एक भला आदमी हूँ
मैंने जीवन को ईर्ष्या का पर्याय नहीं बनाया
मैंने अपने निन्दकों तक को बेरोज़गार
नहीं होने दिया
यह सब करते हुए
यह ख़्याल पाले रहा
कि मैं एक भला आदमी हूँ
हालाँकि मेरे इस ख़याल से
कभी किसी ने
इत्तफ़ाक़ नहीं किया.
पीठासीन अधिकारी का चेहरा
पीठासीन अधिकारी का चेहरा तब देखिए
जब वह पीठ पर बैठा हुआ
पक्ष और विपक्ष को सुनते हुए
निष्पक्ष होने का अभिनय करने की कोशिश में लगा रहता है
पक्ष को सुनते हुए उसका चेहरा गुलाब होता है
विपक्ष को सुनते हुए लाल हो जाता है
पीठासीन अधिकारी का लाल-गुलाब होता चेहरा
उसकी निष्पक्षता की गवाही देता है
विपक्ष जब ज़्यादा हमलावर होता है
पीठासीन अधिकारी सजग हो जाता है
चेहरा लाल हो
पर ज़्यादा लाल न होने पाये
उसकी जतन से ओढ़ी गयी निष्पक्षता
शर्मसार न होने पाये
इसके लिए वह लाल होते चेहरे को ज़ोर से मींजता है
सीमा से अधिक मींजने पर
पीठासीन अधिकारी का लाल होता चेहरा
काला पड़ जाता है
पीठासीन अधिकारी का मुँह काला देख
सहानुभूति से दिल भर जाता है
इससे तो अच्छा है कि उसका चेहरा लाल रहे
और सबसे अच्छा तो तब हो
जब पीठासीन अधिकारी का चेहरा गुलाब बना रहे.
नाग पंचमी पर
धरती पर
और धरती के गर्भ में
बसने वाले
नदी में
सरोवर में
समुद्र में
आकाश मंडल में
दसों दिशाओं में
बसने वाले
नाग देवता
प्रसन्न रहें
और हमारे ऊपर कृपा करें
जो आस्तीनों में छुपे रहते हैं
वे नाग देवता भी
प्रसन्न रहें
और हमारे ऊपर कृपा करें
भांति-भांति के नाग देवता
जो हमारे मन में
छुपे रहते हैं
हमारी इच्छाओं में
उतरते हैं
चाहतों में फुफकारते हैं
हृदय में
जीवन में
समाज में
जहर घोलते हैं
वे भी
हमारी पूजा से
प्रसन्न रहें
हम पर कृपा करें
अपना जहर
अपने पास रखें!
सज़ा का विधान
सुंदर को सुंदर कह दो
सजा हो जायेगी
असुंदर को असुंदर कह दो
सजा हो जायेगी
ईमानदार को ईमानदार कह दो
सजा हो जायेगी
चोर को चोर कह दो
सजा हो जायेगी
दो गुणे दो बराबर चार कहोगे
इसकी भी सजा है
दो धन दो बराबर चार कहोगे
इसकी भी सजा है
वैसे
दो गुणे दो या दो धन दो
बराबर तीन या पाँच
तुम कहोगे ही नहीं
लेकिन कह कर देखो
इसकी भी सजा है
तो भाइयों और बहनों !
गुजिश्ता ज़माने से चल रहा है
यह सिलसिला
इज़हार ए नफ़रत पर
हो न हो
इज़हार ए इश्क़ पर
मुकम्मल सज़ा का विधान है.
ऋणी हूँ
ऋणी हूँ
गोरख का
कबीर का
प्रेमचंद का
आते और जाते हुए
चरथ भिक्खवे का
संदेश देने वाले
बुद्ध का
ऋणी हूँ
गुरुओं का
मित्रों का
छात्रों का
जिनकी संगति में जाना
जीवन क्या है
ऋणी हूँ
उन निन्दकों का
जिन्होंने दिन रात निन्दा की
निन्दा लेख छपवाये
और बांटे
फेसबुक पर पोस्ट लिखे
और बताया कि
मैं उतना तुच्छ नहीं हूँ
कि उपेक्षित पड़ा रहूँ
ऋणी हूँ
उन महापुरुषों का
जिन्होंने
तरह-तरह की साजिशों में
दिन रात एक कर दिया
और
मुझे बाहर का रास्ता दिखाया
ऋणी हूँ
राप्ती की लहरों का
रामगढ़ ताल का
कुसुम्ही जंगल का
हरियाली का
और
उन धूल भरी
सड़कों का
जिन पर सीखा चलना
कट गये
इमली के पेड़ों का
ढह गये भवनों का
पहले उस प्रेम का
ऋणी हूँ…ऋणी हूँ…ऋणी हूँ…
(अमर उजाला के सम्पादक कवि मित्र अरुण आदित्य और प्रमोद कुमार के लिए.)
सदानन्द शाही असीम कुछ भी नहीं, सुख एक बासी चीज है, माटी-पानी (कविता संग्रह) स्वयम्भू, परम्परा और प्रतिरोध, हरिऔध रचनावली, मुक्तिबोध: आत्मा के शिल्पी, गोदान को फिर से पढ़ते हुए, मेरे राम का रंग मजीठ है आदि पुस्तकों का प्रकाशन. sadanandshahi@gmail.com |
शाही जी बहुविध प्रतिभा के धनी हैं! ये कविताएं भी उनकी चौकसनिगाही की गवाही दे रही हैं।
तंज के साथ जीवन की कठोर विडंबनापूर्ण सच्चाइयों को उकेरती कविता का विलोम हैं सदानंद शाही जी की ये कविताएं। इतनी सघन संवेदना के साथ उनके मर्म के भीतर उतरना और अपनी मनुष्यता को अक्षुण्ण रख कर वापस लौट आना विस्मित करता है। प्रेम, जिजीविषा और सह-अस्तित्व की स्निग्धता है जो निस्सीम शांति का रूप धर कर भीतर तक पैठ जाती है। लय, सौंदर्य और आनंद से पगी इन कविताओं के लिए कवि और समालोचन का आभार।
आप की टिप्पणियों से लिखते रहने का हौसला बना रहता है । आभार ।
आज सुबह सुबह ही शाही जी की इन कविताओं से रूबरू हुई- मन को छूने वाली , सहज सरल भी, धीर-गंभीर भी- अलग अलग रंग की कविताएँ! ऐसा लगता है बस यूँ कलम उठी हो और चल पड़ी हो काग़ज़ पर- अनायास! इसी को तो कवि होना कहते हैं! समालोचन को भी बहुत बधाई!
सदानंद जी की कविता अपना ही मुहावरा लेकर सामने आती और अलग प्रभाव छोड़ती है. इंट्रो में आपने सही लिखा है, उनकी बहुस्तरीय सक्रियता हमारी भाषा के लिए संजीवनी है!
इन कविताओं को पढ़ते हुए एक ऐसे मनुष्य की आकृति उभरती है जिसने बुद्धत्व को गहराई से आत्मसात किया हुआ है। वह इस पृथ्वी को कौतूहल से देखता ही है, और घास छीलती स्त्रियों को अमृता शेरगिल के रूप में कल्पना
करता है, उन स्त्रियों का घास छीलना धरती को किसी कलाकृति में बदल रहा है, यह अनोखा बिंब है और इस बिंब के विस्तार में जीवन के संघर्ष और उनके सुख , दुख, उनकी अभिव्यक्तियां चाक्षुस सुनाई देती हैं। कृतज्ञता ज्ञापित करते समय कवि मनुष्यगत संबंधों तक ही सीमित नही है बल्कि इस सृष्टि की विभिन्न अस्तित्वगत उपस्थिति के प्रति कृतज्ञ है, यह प्रकृति के साथ एकात्म होने की खूबसूरत कोशिश है❤️। यायावर कविमित्र, संपादक, आलोचक प्रोफेसर सदानंद साही जी को हार्दिक बधाई, शुभकामनाएं मेरी🌹
सुंदर कविताएं
आत्मालोचन का अभाव, सपाट शब्दों में हिन्दी कविता की प्रचलित स्वीकारोक्तियों का दोहराव, सघन अवलोकन की अनुपस्थिति, परंपरा को रीतिगत खिराज…
इन कविताओं की यही विशेषताएँ हैं.
कविता होने की कोशिश करती कविताएँ हैं ये. पहले सदानंद जी की बेहतर कविताएँ पढ़ी हैं, अतः संभावना को बचाने की ख़ातिर सख़्त आलोचना ज़रूरी लगी.
साधुवाद इस टिप्पणी के लिए ।
शाही जी की कविताओं की सबसे बड़ी खासियत है उनका रचाव। प्रथम दृष्टया ऊपर – ऊपर से देखने पर उनकी कविताएं अत्यंत सपाट वर्णन लग सकती हैं । पर अपने समूचे असर में ये कविताएं कलात्मक और कवित्तपूर्ण हैं । जो वस्तुएं और चित्र औरों की संवेदना को अछूता छोड़ सकती हैं वही शाही जी की कविताओं की रचना भूमि है। साधारण से साधारण घटना, रोजमर्रा का जीवन उसके खट्टे मीठे अनुभव किसी भी विषय को वे अपनी कविता में जगह देते हुए विशिष्टता के आग्रह से सदैव मुक्त रहते हैं। बिना किसी नाटकीयता,बिना चीख पुकार मचाए ईमानदारी से जीवन की सच्चाई को देखती परखती कविताएं शाही जी की पहचान है । कहना न होगा कि उनकी काव्यात्मक संवेदना व्यापक स्तर पर मानवीय संवेदना में रूपांतरित हो जाती है।
अनुभूत भावों की सघनता के साथ भाषा की सहजता का सुंदर संगुंफन। “घास छीलती औरतें” और “नापंचमी पर” बेहद प्रभावी लगी।
शाही जी की इन कविताओं पर पद्मसंभवा की टिप्पणी की इस पंक्ति से अपनी बात रख रहा हूं कि कविता होने की कोशिश करती कविताएं. ….. प्रश्न यह है कि कविताएं हो तो गई, न ?
आपकी एक कविता है : कभी किसी यात्रा से लौटिए, यह कविता इन शब्दों के साथ आगे बढ़ती है — तो लगता है आप वही नहीं लौटे हैं/ जो गए थे. …..
दो साल पहले उनकी गांधी पर कविताओं के बाद ये कविताएं पढ़ने पर लगा कि सदानंद शाही जी तो जबर्दस्त रूप में लौटे हैं.
दरअसल रचना यात्रा का नैरंतर्य एक समय बाद अपने वक्त की कविता या कहानी के साथ वक्त की आलोचना को भी खासी जगह देने लगता है. यह है कलमकार का उसके असर में रहने वाली > आती हुई पीढ़ी को छाया देने, प्रश्रय देने का मरहला. शाही जी बिल्कुल अब उस मुकाम पर हैं.
प्रेमचंद के जमाने से घास छीलती औरतों की दशा आज तक नहीं बदली, अतिरिक्त की चाह वाली आदम प्यास अब भी मनुष्यता को मार रही है, भला आदमी होने का ख़्याल कितना अर्थहीन, विधायिका में पीठासीन अधिकारी का निस्तेज निष्प्राण हो जाना और विधान का विवेक शून्य बन जाना — इन विषयों को जितने मर्म स्पर्शी और मारक अंदाज़ में शाही जी अपनी कविता बनाते हैं, वह उन्हीं का बूता है.