जाति जुलाहा मति का धीर
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कबीर के बारे में हम यह तो आसानी से मान लेते हैं कि वे पढ़े लिखे नहीं थे. केवल इसीलिए नहीं कि कबीर ने कहा है- ‘मसि कागद छुयो नहीं कलम गहयो नहि हाथ,’ बल्कि इसलिए भी कि हमें इस बात को मान लेने में सुकून मिलता है. क्यों मिलता है ? शायद इसलिए कि हमें इससे कबीर की धार कुन्द करने में मदद मिलती है. कबीर हाथ में लुआठा लिए बाजार में खड़े हैं, आवाज दे रहे हैं कि भाई अपना घर जलाओ और मेरे साथ चलो. अजीब बात है. कहाँ हम अपने घर में आराम से बैठे हैं सुकून से और यह आदमी घर जलाने की बात कर रहा है. घर में रहते हुए हम अपने लिए एक हद बना लेते हैं, स्वार्थों संकीर्णताओं और सुविधाओं की हद बना लेते हैं. हद के भीतर चाहे जितना कष्ट हो एक तरह का सुकून रहता है. हद के भीतर एक तरह की आश्वस्ति है, निश्चिन्तता है. बाहर निकलने में तो कष्ट ही कष्ट है. चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ है. अब कहाँ यह आदमी आकर खड़ा हो गया. यथास्थिति को झकझोरने. तोड़ने-फोड़ने. बेचैन करने. एक मामूली जुलाहा आ गया हडकम्प मचाने. हमारे वर्ण को, जाति को, पद को प्रतिष्ठा को चुनौती देने. इसलिए जाने अनजाने हमें यह मान लेने में सुकून मिलता है कि कबीर बेपढ़े लिखे थे. इसके बाद कुछ खास कहने की जरूरत नहीं रह जाती. मेरे जैसे साधारण अध्यापकों से लेकर हिन्दी के धीर-गम्भीर आलोचक इतिहासकार रामचन्द्र शुक्ल तक का यही हाल है.
कबीर के बारे में रामचन्द्र शुक्ल की धारणा बड़ी मनोरंजक है. वे एक तरफ तो उन्हें ज्ञानमार्गी और दूसरी ओर बेपढ़ा लिखा कहते हैं. उनकी वाणी में अज्ञान जनित उद्दण्डता भी देखते हैं. कबीर की उलटवाँसी याद आने लगती है. उलटवांसियों को पढ़ते हुए हम हमेशा किसी गूढ़ अर्थ के फिराक में रहते हैं. कई बार मुझे लगता है कि उलटवांसियों को सीधे-सीधे अभिधा में क्यों न लें. हमारे आसपास जीवन क्रम में इतना कुछ उलटा-पुलटा दिखाई पड़ता है- पर क्या है कि हम उसके अभ्यस्त हैं इसलिए उस पर नजर नहीं जाती. उलटवांसियों के माध्यम से कबीर शायद इसी तरफ इशारा करते हैं. एक अचम्भा देखा रे भाई ठाढ़ा सिंघ चरावे गाई. इस पंक्ति के कूट अर्थ को छोड़कर केवल अभिधार्थ को ही लें तो क्या हमारे समाज में ऐसी विसंगतिपूर्ण स्थितियाँ नहीं दिखाई देतीं ? बाघ जो गाय को खा सकता है गाय की रखवाली के लिए नियुक्त है. उलटबांसी यहाँ है. रक्षक कभी-कभी भक्षक बन बैठते हैं इसमें उलटबांसी नहीं है. यह एक विकृति है, गिरावट है, पतन है, यह स्थिति फिर भी कुछ ठीक है. रक्षा की थोड़ी बहुत गुन्जाइश है. भक्षक बन बैठे रक्षक की शिकायत की जा सकती है उसे अनैतिक या अवैध ठहराया जा सकता है. लेकिन जब भक्षक को ही रक्षक का दायित्व मिल जाय तब उलटबांसी घटित होती है. उसके खिलाफ शिकायत भी नहीं की जा सकती, उसे अवैध नहीं ठहराया जा सकता. वह विधि मान्य हो जाता है.
आचार्य शुक्ल एक ओर कबीर को ज्ञान मार्गी शाखा में रखते हैं और दूसरी ओर उन्हें बेपढ़ा लिखा मानते हैं. कबीर के बारे में उनकी राय है कि सत्संग से ही उन्हें ज्ञान हुआ था जिससे वे छोटे वर्ग के लोगों को प्रभावित करते थे. कबीर ही क्यों रामचन्द्र शुक्ल के सभी ज्ञानमार्गी बेपढ़े लिखे हैं. कबीर आदि को ज्ञानमार्गी कहने के पीछे शुक्ल जी की क्या मजबूरी थी ? कुछ और कह सकते थे, कोई और कोटि बना सकते थे. कोटि बनाते समय ज्ञानमार्गी और व्याख्या करते समय अपढ़ गंवार उद्दण्ड. लेकिन इस उलटबांसी की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता. क्योंकि यह उलटवांसी विधि मान्य हो गयी है.
कबीर को बेपढ़ा लिखा तो मान लिया जाता है पर वही कबीर जब कहते हैं-‘जाति जुलाहा मति का धीर’ तो इसे मानने में हमें कठिनाई होती है. एक बेपढ़ा अवर्ण जुलाहा धीर मति कैसे हो सकता है.
हमारे यहाँ धीर मति की बड़ी उदात्त परिभाषा है. गीता में स्थित प्रज्ञ की परिभाषा बताई गई है. अर्जुन के पूछने पर कृष्ण ने विस्तार से स्थित प्रज्ञ के लक्षण बताये हैं, तो कहाँ स्थित प्रज्ञ की उदात्त अवधारणा, महाभारत की शानदार पृष्ठभूमि. निर्णायक युद्ध के लिए दोनों सेनायें आमने-सामने खड़ी हैं और युद्ध के, इतिहास के नियन्ताओं को स्थित प्रज्ञ की परिभाषा करते देख रही हैं और कहाँ यह काशी का जुलाहा, अपने को धीर मति कह रहा है. पूरा पद इस प्रकार है-
निरमल निरमल हरि गुन गावै. सो भाई मेरे मनि भावै..
जो जन लेहि खसम का नांउं, तिनके मैं बलिहारे जांउं.
जिहि घटि रांम रहा भरपूरि, तिनकी पद पंकज हंम धूरि.
जाति जुलाहा मति का धीर, सहजि सहजि गुन रमैं कबीर.. 1
इस पद में कहीं कोई जटिलता नहीं है. कोई उलटवांसी नहीं है कोई रहस्य नहीं हैं – जो निरमल मन से हरि का निरमल गुन गाये वह मुझे प्रिय है. जो जन खसम का, प्रिय का नाम लेता है, मैं उसकी बलिहारी जाता हूँ. जिस घट में राम भरपूर हैं उसके चरण कमल की धूल हूँ. जाति का जुलाहा हूँ (इसलिए) मति का धीर हूँ. मैं इन सहज गुनों पर सहज भाव से रम जाता हूँ.’ लेकिन हम इस पद को सहजता से नहीं पढ़ पाते. हमारे जाति के, वर्ण के, शिक्षा के संस्कार आड़े आ जाते हैं. इसलिए सहज अर्थ से हमारा काम नहीं चलता. हम कोई गूढ़ अर्थ खोजने निकल पड़ते हैं. ऐसा अर्थ जो हमें स्वीकार्य हो. जाति जुलाहा मति का धीर. यही पंक्ति पचती नहीं है. हमारी मुश्किल यह है कि पचे न पचे, समझ में आये न आये अर्थ बताना हमारी मजबूरी है. तो हम अर्थ बताते हैं- काफी कुछ पचा लेते हैं, काफी कुछ बचा लेते हैं और कुछ चबा भी लेते हैं- और एक सहज बोधगम्य अर्थ बता देते हैं. यहाँ बोधगम्य का अर्थ समझ में आने वाला ही नहीं स्वीकार्य भी है. अगर स्वीकार्य ही नहीं है तो बोधगम्य कैसे होगा ?
कबीर का साहित्य पढ़ने के लिए कई किताबों का सहारा लेना पड़ता है. मुझे जो किताब सबसे उपयोगी लगती है वह है कबीर वाङमय. साखी सबद और रमैनी पर तीन खण्डों में व्याख्या की गई है. व्याख्या की है संगीत के, कलाओं के, दर्शन के, भाषा के, मर्मज्ञ ठाकुर जयदेव सिंह ने. बनारस में रहते थे. कबीर के लिए भरपूर श्रद्धा भी थी उनके मन में. जाति जुलाहा मति का धीर सहजि सहजि गुन रमै कबीर की व्याख्या जयदेव सिंह ने कबीर वाङमय में इस प्रकार की है- ‘कबीर कहते हैं कि यद्यपि मैं जाति का जुलाहा हूँ तथापि मेरी प्रज्ञा में ‘धी’ (बुद्धि) स्थित हो गई है अर्थात् मैं वस्तुतत्व अथवा निश्चयवती बुद्धि में स्थित हूँ और सहज भाव से परम तत्व में रम रहा हूँ’.2
अब इस वाक्य रचना पर ध्यान दीजिए- यद्यपि मैं जाति का जुलाहा हूँ तथापि मेरी प्रज्ञा में धी (बुद्धि) स्थित हो गई है. जाति जुलाहा मति का धीर में यद्यपि और तथापि कहाँ से आ गया. यह यद्यपि कबीर का नहीं है. जुलाहा होने को लेकर कबीर के मन में कोई ग्लानि नहीं है. यह बात सहज बोध की तरह हमारे मन में बैठी हुई है कि भाई धीर मति तो अर्जुन हो सकते हैं, कृष्ण हो सकते हैं- एक जुलाहा कैसे, धीर मति होगा. कोई ब्रह्मज्ञानी यह दावा करे तो हमें यद्यपि और तथापि लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. लेकिन एक जुलाहा यह दावा करता है तो हम अनायास ही यद्यपि और तथापि लगा देते हैं. ठाकुर जयदेव सिंह जैसे मर्मज्ञ व्यक्ति के यहाँ यह व्याख्या हो जाती है तो औरों की बात ही क्या करें.
यह धीर मति क्या है ? उसका जुलाहा होने से क्या सम्बन्ध है. इस पर थोड़ा विचार करें. सुखिया सब संसार है खावे और सोवे. दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे. वह कौन सी चुनौती है जिसके लिए कबीर जग रहे हैं और रो रहे हैं ! क्या उन्हें केवल खण्डन मण्डन करना था. केवल घर जलाना था. नहीं. ‘कबिरा खड़ा बजार में लिए लुआठा हाथ/ जो घर जारे आपना चले हमारे साथ’ कहने वाले कबीर यहीं नहीं रुक जाते. उन्हें बेगमपुर3 की रचना करनी थी. एक ऐसी दुनिया रचनी थी जो बे-गम हो. वहाँ दुख और अन्दोह न हो. ऐसी दुनिया रचने के लिए जो गड़बड़ है उसे मिटाना पड़ेगा साफ करना पड़ेगा. जो भारी भ्रम है, बिगूचन है उसे दूर करना पड़ेगा. इस बिगूचन को, असत्य को दूर करने के बाद ही नये का सृजन संभव है. केवल सफाई करके छोड़ दीजिए- नया सृजन मत करिये, नयी चीज न लगाइए तो फिर से झाड़ झंखाड़ उग आयेगा. जो लोग समझते हैं कि कबीर केवल खण्डन मण्डन जानते हैं-वे भ्रम में हैं. कबीर रचना जानते हैं. उनके पास रचने की पूरी योजना है. एक मुकम्मल दर्शन है जो उन्हें धीर मति बनाता है. कबीर अपने बेगमपुर की चर्चा करते हैं-
अवधू बेगम देस हमारा.
राजा-रंक फकीर-बादसा, सबसे कहौं पुकारा.
जो तुम चाहौ परम-पद को, बसिहौ देस हमारा..4
इस बेगम देश से कबीर राजा और रंक फकीर और बादशाह सबको एक साथ पुकारते हैं. जिन्हें परम पद चाहिए वे इस देश में बसने के लिए आयें. कबीर के बेगम देश में सबके लिए जगह है. केवल रंक और फकीर को ही नहीं वे राजा और बादशाह को भी पुकारते हैं. इस बे-गम देश के नागरिकता की शर्त सिर्फ इतनी है कि मन में जो भेद बुद्धि है उसे त्याग दो. कबीर का सारा खण्डन मण्डन, सारा आक्रोश बे-गम देश की रचना के लिए है. ऐसा देश जिसमें सबके लिए जगह हो, सबके लिए गुन्जाइश हो ऐसे देश की रचना करनी है. जाति जुलाहा मति का धीर का अर्थ यहाँ से समझने की कोशिश करें तब मर्म की बात समझ में आयेगी.
जाति का जुलाहा हूँ इसलिए मति का धीर हूँ. धीर का अर्थ धीरज भी हैं. जिसे रचना है, बुनना है सृजन करना है उसके लिए धीरज अनिवार्य है. रचने या बुनने के लिए पर्याप्त धीरज की जरूरत है, साहस की जरूरत है! बुनने की क्रिया का सम्बन्ध धीरज और साहस से है. बुनने की क्रिया में जो भी लगा है उसके पास साहस होगा. धीरज होगा. कबीर के पहले भी ऐसे जुलाहे कवि हुए हैं जिन्होंने साहस का परिचय दिया है. राजा भोज के राज्य में सबके लिए कविता करना अनिवार्य था. कहते हैं कविता न करने के आरोप में कभी राजा भोज के दरबार में कबीर के पूर्वज एक बुनकर जुलाहे को पकड़कर ले जाया गया था. राजा के प्रश्न पूछने पर कि कविता करते हो – वह जवाब देता है- हाँ! कविता करता हूँ पर बहुत अच्छी कविता नहीं कर पाता. यत्न से करूँ तो अच्छी कविता कर सकता हूँ. हे महाराजाधिराज मैं कविता करता हूँ, बुनाई करता हूँ और अब जाता हूँ. न राजा से पुरस्कार की अपेक्षा, न दण्ड का भय. भाव यह कि दरबार में आने से बुनने का समय ही जाया नहीं हुआ, कविता का छन्द भंग भी हुआ. अप्रभ्रंश के कवि अब्दुलरहमान याद आते हैं. वे भी जुलाहा है. वे अपने छोटे से काव्यग्रंथ सन्देश रासक के पहले प्रक्रम में विशिष्ट को चुनौती देते हैं, किसी भी तरह के विशेषाधिकार को चुनौती देते हैं यदि तीनों लोकों में अपने प्रभाव के लिए प्रसिद्ध नदी गंगा सागर की ओर बहती है तो क्या दूसरी नदियाँ न बहे? यदि सूर्य के उदित होने पर विमल सरोवर में कमलिनी खिलती है तो क्या बाड़ी में लगी हुई तुंबी या लौकी न फूले ? यदि भरतमुनि द्वारा निर्दिष्ट भावों और छन्दों के अनुसार, नव-यौवन के सौन्दर्य से पूर्ण तरुणी नाचती है तो क्या गाँव की गहेलरी ताली बजाकर न नाचे ? यदि (किसी अमीर के घर) दूध वाली खीर उबल रही है तो क्या (किसी गरीब के घर) खिचड़ी न दड़बड़ाए ? अब्दुल रहमान ऐसे तर्कों की शृंखला रख देने के बाद आखिर में कहते हैं-
जा जस्स कव्वसत्ति सा तेण अलज्जिरेण भणियव्वा.
जइ चउमुहेण भणियं ता सेसा मा भणिज्जंतु..5
जिसके पास जितनी काव्य शक्ति हो, उसको उसी के अनुसार निस्संकोच भाव से कविता करनी चाहिए. यह कहते हुए अब्दुल रहमान एक और सवाल पूछ देते हैं- यदि चतुर्मुख ने कविता की तो क्या अन्य कवि कविता न करें ? अभिप्राय यह कि यह जुलाहा कवि किसी भी क्षेत्र में कैसे भी विशेषाधिकार को चुनौती देता है. चारण काव्य के दौर में इस जुलाहे कवि के यहाँ लोकतान्त्रिक आग्रह का विरल साहस दिखाई पड़ता है.
कबीर के साहस से हम परिचित ही हैं. इस साहस का सम्बन्ध बुनने की प्रक्रिया से है, रचने की क्षमता से है. यह धीरता और साहस उत्पादन की प्रक्रिया में होने से आता है. उद्यम और कौशल से आता है. एक रमैनी में कबीर जुलाहे का मर्म बताते हैं-
अस जोलहा का मरम न जाना, जिन जग आया पसारिन्हि ताना.
महि अकास दुइ गाड़ खँदाया, चाँद सुरुज दुइ नरी बनाया.
सहस तार लै पूरिन पूरी, अजहुँ विनव कठिन है दूरी.
कहहि कबीर करम सो जोरी, सूत-कुसूत बिनै भल कोरी.. 6
इसमें ईश्वर को जुलाहे के रूप में चित्रित किया गया है. ईश्वर को जुलाहे की तरह कुशल बताना खास बात है. कुशल जुलाहा सूत और कुसूत दोनों से बुनाई कर लेता है. यह जुलाहे का कौशल है. यही कुशलता ईश्वर में भी है.
जीव परमात्मा का अंश है यह कहना आसान है पर इसे बरतना मुश्किल. कबीर के इस रूपक में ईश्वर जुलाहा है और जुलाहा ईश्वर. ईश्वर और जुलाहे का भेद मिट गया है. जीवात्मा ओर परमात्मा का भेद मिट गया है. इस अभेद के बाद ईश्वर जुलाहे को जुलाहा ईश्वर को बुनता है इस प्रक्रिया में एक विलक्षण तादात्म्य स्थापित हुआ है. धागा जुड़ गया है. यह जुड़ा हुआ धागा टूटने न पाये. धागा टूट गया तो मिलना कठिन हो जायेगा, सब कुछ उलझ जायेगा और तब जुलाहा विवश हो जायेगा, लाचार हो जायेगा. यदि किसी परिस्थिति में ऐसा हो भी गया धागा टूट ही गया तो मन में धीरज रखने की जरूरत है. टूटे हुए धागे को धैर्यपूर्वक जोड़ने की जरूरत है. धागा ज्यों टूटे उसे जोड़ लीजिए. बुनाई का क्रम फिर शुरू हो जायेगा. धागा जुड़ जाने के बाद बुनने में देर नहीं लगेगी. 7
इसी धीरज और आत्म विश्वास के साथ कबीर जब बुनने पर आते हैं तो उनकी लय ही बदल जाती है-
झीनी झीनी बीनी चदरिया
काहै क ताना काहै क भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया.
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साई को सीयत मास दस लागे, ठोक ठोक के बीनी चदरिया. 8
कबीर के साईं चादर बुनते हैं- पूरे विवेक के साथ बुनते हैं. किसका ताना, किसकी भरनी, कौन सा तार लगाना है. यह विवेक है, कोई हड़बड़ी नहीं है कोई जादू नहीं कर देता ईश्वर. वह पूरे मनोयोग से दस महीने बुनने में लगा देता है. इत्मीनान से बुनता है. इस इत्मीनान से बुनने के लिए धीरज चाहिए, जतन चाहिए, कौशल चाहिए, साहस चाहिए. और यह सब है तो चादर बुनने में क्या है कबीर अपने चरखे पर सब कुछ बुन लेंगे. जो कुछ उन्हें चाहिए. यहाँ तक कि अपने हरि को भी-
जोलहा बीनहु हो हरिनामा, जाके सुर नर मुनि धरै ध्याना ..
ताना तनै को अहुठा लीन्हा, चरखी चारिउ वेदा ..
सरखुटी एक राम नरायन, पूरन प्रगटे भेदा ..
भवसागर एक कठवत कीन्हा, तामें माँड़ी साना ..
माड़ी का तन माडि रहो है, माँड़ी बिरलै जाना ..
चाँद सुरुज दुइ गोड़ा कीन्हा, माँझदीप माँझा कीन्हा ..
त्रिभुवननाथ जो माँजन लागे, स्याम मरोरिया दीन्हा ..
पाई करि जब भरना लीन्हो, बै बाँधन को रामा ..
बै भरा तिहु लोकहिं बाँधै कोई न रहत उबाना ..
तीनो लोक एक करिगह कीन्हो, दिगमग कीन्हों ताना ..
आदि पुरुष बैठावन बैठे, कबिरा जोति समाना .. 9
यह धीर मति जुलाहा अपने हरि को ही बुन लेता हैं. उसी करघे और चरखे पर जिस पर कपड़े बुनता रहा है. उन्हीं उपकरणों से अब हरि की बुनाई होने लगती है जिनसे कपड़ो की बुनाई हो रही थी. जिस निर्गुण ब्रह्म को हमारे सगुण भक्त कवि अगम और अगोचर बताते हैं उसे कबीर अपने करघे और चरखे पर बुनकर रख देते हैं. यह बुना गया ईश्वर कहीं ज्यादा अपना लगता है. रैदास कहते हैं- मन चंगा तो कठौती में गंगा. रैदास यह भी कहते हैं- जह जह डोलऊं सोइ परिकरमा जो कुछ करौं सो पूजा. कबीर इस प्राक्कल्पना को प्रयोग के धरातल पर उतारते हैं और सिद्ध करते हैं. वे कपड़े की बुनाई और ईश्वर की बुनाई को एक कर देते हैं. र्साईं कबीर को बुनते हैं और कबीर साईं को. यह बुनाई निरन्तर चलती रहती है. इस तरह जो ईश्वर उपलब्ध होता है वह उतना ही परिचित है, मूर्त है, आत्मीय है, जितना कि बुना गया कपड़ा. एकदम हस्तामलक.
जाति का जुलाहा कबीर इसलिए धीर मति है. तर्क से, अनुभव से, भाव भगति से उसने ईश्वर को कर्म में उपलब्ध कर लिया है.
इसीलिए कबीर की कविता उस आदमी तक बहुत आसानी से पहुँच जाती है- जिसे हम बेपढ़ा लिखा कहते हैं. पढ़ा लिखा आदमी कबीर तक क्यों नहीं पहुँच पाता ? कबीर स्वयं इसका उत्तर देते हैं- ‘थोरी भगति बहुत अंहकारा .’ 10
पढ़े लिखे होने का अहंकार, पद प्रतिष्ठा का अहंकार, और कुछ नहीं तो भक्ति का ही अहंकार आड़े आ जाता है. एक बार फिर अब्दुल रहमान याद आते हैं-
संपडिउ जु सिक्खइ कुइ समत्थु
तस कहउ विबुह संगहवि हत्थु
पंडित्तंह मुक्खह मुणहि भेउ
तिहि पुरउ पढिव्वउ णहु वि एउ .. 11
यदि मेरी कविता किसी समर्थ व्यक्ति के हाथ लग जाती है तो मैं उससे आग्रह पूर्वक कहूँगा कि जो पंडित और मूर्ख का भेद करते हैं उनके सामने इसे मत पढ़ो. अरसिक जनों को कविता सुनाने से मना किया गया है. पर यह जुलाहा कवि एक नयी बात कहता है. भेद बुद्धि रखने वाले के सामने मेरी कविता न पढ़ो. हमारी मुश्किल यह है कि हमने पढ़ लिखकर इतना कुछ सीख लिया है कि हमारे और कबीर के बीच बहुत बाधाँए आ गई हैं. जरूरत है कि हमने पढ़ाई लिखाई से, परिवारिक पृष्ठभूमि से, जाति से, वर्ण से, जन्म से जो संस्कार अर्जित किये हैं, जो भेद बुद्धि अर्जित की है उसे अनसीखा करने की, उससे मुक्त होने की उपर उठने की! तब हम कबीर के मति की धीरता को समझ पायेंगे और उनकी कविता के मर्म तक पहुँच सकेंगे.
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संदर्भ-
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प्रो. सदानन्द शाही बी.एच.यू में हिंदी के प्रोफेसर हैं
sadanandshahi@gmail.com