कृष्णा सोबती का लेखकीय व्यक्तित्व : सुकृता पॉल कुमारअंग्रेजी से अनुवाद: रेखा सेठी |
पिछले तीन सालों में कृष्णा सोबती से मेरी बातचीत पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गई थी. हमारे बीच काफी गहन-गंभीर चर्चाएँ होतीं. समय की इस अवधि में, अपने स्वास्थ्य के चलते वे बार-बार अस्पताल जाती-आती रहतीं. उनके भीतर यह बेचैनी बढ़ने लगी कि समय बीत रहा है और अपने जीवन व लेखन को लेकर अभी बहुत कुछ समेटना-संभालना बाकी है. असंख्य स्मृतियों में बसे जीवन–अनुभवों को कागज़ पर उतारना है. अपनी बीमारी को लेकर कुछ भी साझा करना उन्हें पसंद नहीं था. इस विषय में बात करने से वे सदा झिझकती थीं और उनकी साथी केयरटेकर विमलेश ही मना मना कर उनकी दैहिक सुविधाओं का खयाल करती लेकिन मन से वे अत्यंत सजग थीं. अपने विचारों को साझा करने की ज़रूरत पहले की अपेक्षा अधिक महसूस होने लगी थी. अपने समय और समाज पर प्रतिक्रिया करने तथा अतीत के अपने अनुभवों को लेकर वे अब अधिक मुखर होने लगीं. बीतते समय तथा बढ़ती आयु के एहसास से संभवत उन्होंने अपने भीतर और भी शक्ति अर्जित कर ली थीं जिससे यादों के गलियारों में झांककर वे राजनीतिक परिवेश और उसके सामाजिक प्रभाव के प्रति सजग हो सकें.
घटना-प्रसंग सुनाने का कृष्ण जी का अपना खास अंदाज़ था. सुनते हुए कभी नहीं लगा कि वह सत्तर साल या उससे भी पुरानी बात बता रहीं हैं, क्योंकि सुनाने की प्रक्रिया में वे उस पल को ऐसे जीती थीं जैसे वह अभी घट रहा हो. उनकी आँखों की चमक और गालों पर खिलने वाली दबी-सी हँसी मानो कहती हो कि कहानी में कोई ट्विस्ट है और फिर वह किस्सा आगे बढ़ता, जिसमें किसी ऐसी शैतानी का स्वीकार होता जो अब तक उनकी यादों की परतों में छिपा रहा. ऐसा ही एक किस्सा 1943 में उनकी घुड़सवारी को लेकर है. अट्ठारह वर्ष की आयु में, बिना अपनी माँ को बताए, उन्होंने घोड़ेवाले नवाब बाबू को मना लिया और ‘यंग लेडी’ की तरह घोड़े पर सवार हो गईं. उनकी आँखों में हँसी की लहर दौड़ जाती…जब वे बतातीं कि कैसे ताल पर घोड़ी को पानी पीते देख वह घोड़ा मचल गया और वे गिर पड़ीं जिससे उनकी टखने की हड्डी टूट गई. बहुत बाद तक भी यह बात उन्होंने अपनी माँ को नहीं बताई.
ऐसी गज़ब की कहानीकार और क़िस्सागो कृष्णा जी की यही खासियत थी कि वे अपनी स्मृति की परतों में इतना कुछ संभाले रहीं और उसका उपयोग जब-तब अपने रचनात्मक साहित्य में करती रहीं. रात-दर-रात, अँधेरे में वे कई घंटे अकेले अपने साथ बितातीं और उन सभी कहानियों को आकार देतीं जिन्हें वे लिखना चाहती थीं. उनकी बातों से पता चलता कि उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य तथा विश्व साहित्य के लगभग सभी क्लासिक्स पढ़ रखे थे. समसामयिक हिंदी लेखकों तथा उनकी रचनाओं की भी पूरी जानकारी उन्हें रहती थी. उन्होंने बताया कि अपने जीवन में जो पहली किताब उन्होंने पढ़ी, वह नेपोलियन बोनापार्ट की पत्नी पर थी और उसके बाद नेपोलियन के संस्मरण पढ़े. ना जाने किस कारण से, लेकिन उन्होंने माना कि युद्ध आधारित उपन्यासों को वे बड़े शौक से पढ़ती थीं. शायद,विश्व में युद्ध की संरचना जिस तरह की दुरभिसंधियों या षड्यंत्रों से होती है वह उन्हें आकृष्ट करता. बहुत बार वे जेम्स बाल्डविन के उपन्यास ‘अनदर कंट्री’ का उल्लेख बड़ी गर्मजोशी से करतीं और उसकी अनुशंसा आधुनिक क्लासिक के रूप में करतीं.
अन्य रचनाकारों के लेखन पर उनकी टिप्पणियाँ बहुत रोचक होतीं. एक बार जब नामवर सिंह ने स्वदेश दीपक के उपन्यास ‘मैंने माँडू नहीं देखा’ पर उन्हें टिप्पणी करने को कहा, तो वे बोलीं ‘यह एक बीमार व्यक्ति की सबसे स्वस्थ किताब है.’ मेरा सौभाग्य है कि कृष्णा जी से अनौपचारिक बातों में, मुझे समय के उस दौर पर चर्चा करने का सुअवसर हुआ जब आधुनिक हिंदी साहित्य अपने पूर्ण उत्कर्ष पर था. वे बहुत विस्तार से साहित्य के दिग्गजों से अपने पारस्परिक संबंधों के विषय में बतातीं, जैसा कि कोई कहानीकार ही कर सकता है. उस समय वे सब स्वातंत्र्योत्तर संवेदनशीलता के साथ जिस तरह कथा साहित्य की रचना कर रहे थे उसमें पूरा एक इतिहास रचा जा रहा था. हिंदी की पत्र-पत्रिकाएँ अपनी उसमें अपनी जगह बना रहीं थीं. कृष्णा जी के किस्से सुनाते हुए मेरी आँखों के सामने अज्ञेय, निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, भीष्म साहनी, कमलेश्वर और उस समय के सभी बड़े लेखकों की तस्वीर सजीव हो जाती, जिनसे उनके लेखन को समझने की अंतर्दृष्टि मिलती. इन्हीं में से कुछ हिस्से ‘हम हशमत’ के रेखाचित्रों में दर्ज हैं.
अपने समकालीनों पर लिखते हुए कृष्णा सोबती ने ‘हम हशमत’ में एक अलग स्वर और शैली अपनाई. ‘हम हशमत’ के रेखाचित्र लेखक की सजगता व सूक्ष्म दृष्टि के साक्षी हैं जिससे वह अपने आसपास के लोगों तथा परिवेश को पहचानती हैं. अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बात करते हुए, साहित्यिक महफिलों व बैठकों के अपने अनुभवों को याद करते हुए, इस रचना में उन्होंने एक भिन्न स्वर तथा भिन्न लेखन शैली को अपनाया. उन्होंने इस श्रृंखला को पुरुष स्वर में लिखने का निर्णय लिया. इसे उन्होंने एक रचनात्मक युक्ति की तरह ग्रहण किया, जिससे वह अपने लेखन को लैंगिक प्रभाव एवं झुकाव से मुक्त रख सकें. जैसे ही वे हशमत की भूमिका ग्रहण करतीं उनका व्यक्तित्व ही बदल जाता और वे बिल्कुल अलग शैली में लिखने लगती. यह बताना भी उपयुक्त होगा कि कृष्णा जी अक्सर वर्जीनिया वुल्फ द्वारा निर्दिष्ट, ‘लेखक के लिए उभयलिंगी होने की अनिवार्यता’, पर बात किया करती थीं. बतौर लेखक उनकी इच्छा कभी नहीं रही कि उनको मात्र स्त्री रचनाकार के रूप में पढ़ा जाए.
‘हम हशमत’ श्रृंखला के ही अंतर्गत पिछले कुछ सालों में कृष्णा जी ने कपिला वात्स्यायन पर रेखाचित्र लिखने की गहरी इच्छा जताई. मैं इस बात की साक्षी हूँ कि कैसे अपनी समकालीन, कपिला जी के प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के प्रति वे स्वयं आकर्षित महसूस करती थीं. ‘हम हशमत’ का चौथा भाग उनकी मृत्यु से एक महीना पहले ही प्रकाशित हुआ किंतु तब भी वे कपिला जी पर नहीं लिख पाईं. उनके विषय में पूरा शोध न कर पाने की पीड़ा उन्हें सालती रही.
दो साल से कुछ कम अरसा हुआ होगा जब मैं कपिला वात्स्यायन को कृष्णा सोबती के मयूर विहार वाले फ्लैट पर लेकर गई. जिस असाधारण शक्ति/ अंतर्दृष्टि से दोनों अपने समय को लेकर सोच रहीं थीं और जिस गर्मजोशी से उनके बीच संवाद हुआ उसकी असाधारणता ने मुझे बेहद प्रभावित किया. दोनों जब वर्तमान के विषय में बात कर रहीं थीं तो उसमें अतीत की समृद्ध अंतर्धारा शामिल थी लेकिन कहीं भी अतीत में डूबे होने का भाव नहीं था और ना ही भविष्य की स्वप्न जीविता! वे उत्साहपूर्वक समय और स्थान के वर्तमान से जुड़ी होना चाहती थीं. करीब एक घंटे की यह आत्मीय बातचीत भी कृष्णा जी द्वारा कपिला वात्सायन पर रेखाचित्र लिख पाने के लिए काफी नहीं थी.
मैं उनके लिए ज्योति सब्बरवाल की किताब ‘कपिला वात्स्यायन: ए कॉग्निटिव बायोग्राफी‘ लेकर आई. उन्होंने पूरी किताब को एक नज़र देखा किंतु फिर भी कपिला जी पर लिखने के लिए लेखक के रूप में वह जो ढूँढ रहीं थीं वह उन्हें नहीं मिला और जीवन के अंतिम समय तक वे कपिला वात्सायन पर नहीं लिख सकी. निश्चय ही इसका संबंध लेखक की उस रचनात्मक आकांक्षा से हैं जिसके दबाव से लेखक किसी पात्र अथवा जीवन-स्थिति पर लिखने को विवश होता है. फिर चाहे वह लेखन पूरे उपन्यास का हो, या रेखाचित्रों की किताब का एक हिस्सा ही क्यों ना हो.
लिखने की बेचैनी के बावजूद कृष्णा सोबती ऐसी लेखक नहीं थीं जो किसी उपन्यास या कहानी को लिखते ही उसके प्रकाशन के लिए अधीर होने लगें. प्रस्तुति के लिए तैयार होने के लिए, ईंटों की ही तरह शब्दों का भी भट्टी में रहना आवश्यक है. जैसा वे मुझे बताती थीं कि हर उपन्यास को प्रकाशन के लिए भेजने से पहले वे उसके कम से कम तीन ड्राफ्ट बनातीं. अक्सर दूसरे ड्राफ्ट में आमूल परिवर्तन हो जाता और वह कुछ और ही बनने लगता लेकिन तीसरे ड्राफ्ट में फिर पहला रूप लौट आता. जो भी हो पांडुलिपि के प्रति लेखकीय संतुष्टि की दृष्टि से उनके लिए इस प्रक्रिया से गुज़रना आवश्यक था, प्रकाशन की जल्दी उन्होंने कभी नहीं की.
उनके पहले उपन्यास ‘चन्ना’ के लिए ऐसा संभव नहीं हो पाया. विडंबना यह रही कि वही उनका अंतिम प्रकाशित उपन्यास भी बना. जनवरी 2019 में, उनके जीवन के बिल्कुल अंतिम दिनों में, जब वे अस्पताल में थीं यह उपन्यास प्रकाशित हुआ. इसका लेखन छह दशक पहले हुआ था लेकिन जब उन्हें पता चला कि संपादक में उपन्यास की भाषा में यहाँ- वहाँ फेरबदल कर दिया है तो उन्होंने प्रकाशक से सभी प्रतियाँ खरीद कर उन्हें जला दिया और मूल पांडुलिपि को कई दशकों तक ट्रंक में बंद कर दिया. उसके बाद उन्होंने कई कृतियाँ लिखीं जो बीते वर्षों में प्रकाशित भी होती रहीं लेकिन ‘चन्ना’ का पुन: प्रकाशन संभव नहीं हुआ.
वे हमेशा चाहती थीं कि नए सिरे से सुधारकर वे ‘चन्ना’ को किसी नए प्रकाशक को देंगी. नहीं चाहती थी कि वह उसी रूप में प्रकाशित हो जाए. एक परफेक्शनिस्ट के रूप में अपने ही लेखन की वे सबसे धैर्यवान पाठक तथा संपादक थीं. पिछले वर्ष जब वे अस्पताल में थीं तब उन्हें मनाना पड़ा कि वह उस कृति को ट्रंक से निकालें. इससे पहले कोई भी यह हिम्मत नहीं कर सकता था कि उनके लेखकीय निर्णय को किसी भी प्रकार चुनौती दे सके, यहाँ तक कि स्वयं उनका निजी व्यक्तित्व उनके लेखकीय व्यक्तित्व में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था. ‘चन्ना’ के मुखपृष्ठ को देखकर की गई उनकी टिप्पणी को याद करना प्रासंगिक होगा जब उन्होंने कहा था कि ‘उपन्यास के कवर पर अमृता शेरगिल की पेंटिंग, जिल्द के भीतर के उपन्यास से अधिक खूबसूरत लग रही है.‘ मेरे ख्याल से इस टिप्पणी में हल्की-सी नाखुशी भी छिपी हुई थी क्योंकि वे प्रकाशन से पूर्व उपन्यास को उस तरह नहीं सुधार पाई थीं जैसा वे चाहती थीं. अंत में उन्हें हथियार डाल देने पड़े…
यहाँ ध्यान देने की बात है कि यह किस्सा मैंने उपन्यास पर किसी प्रकार का निर्णय देने के लिए नहीं बताया बल्कि पांडुलिपि के प्रति एक परफेक्क्शनिस्ट लेखक की प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए बताया है. इस समय तक वे काफी कमज़ोर हो चुकी थीं और उस स्थिति में उपन्यास का संशोधन एक बड़ा काम था तो अपने मूल स्वभाव के विरुद्ध जाकर भी इस पुस्तक के प्रकाशन के व्यावहारिक निर्णय को उन्हें स्वीकार करना पड़ा.
अपने जीवन में जिस स्वाधीनता की आकांक्षा कृष्णा जी ने की वही उनके पात्रों में भी प्रतिबिंबित होती है. उनके उपन्यासों के जीवंत पात्र यह अपेक्षा करते हैं कि उनके स्वत्व की गरिमा बनी रहे वैसे ही जैसा वह अपने जीवन में चाहती थीं. चाहे वह ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रो हो या ‘दिलो दानिश’ की महक और कुटुंब या फिर ‘ए लड़की’ की माँ और बेटी तथा ऐसी ही अन्य अनेक पात्र, सब अपनी एक स्वतंत्र पहचान हासिल करती हैं. इनमें से हर एक, अपनी इच्छा-आकांक्षा को महत्व देते हुए अपना जीवन स्वयं गढ़ रही है. यहाँ तक कि ‘ए लड़की’ उपन्यास में पूरी कथा माँ और बेटी के बीच संवाद के रूप में घटित होती है लेकिन दोनों का अपना-अपना निजी स्वर है. जहाँ तक लेखिका के अपने स्वर की बात आती है तो जैसा वे अक्सर कहा करती थीं कि लिखने के लिए उन्हें लगातार अपने भीतर की आवाज़ को ध्यान से सुनना पड़ता है, जिसे वे अक्सर पूरी स्पष्टता के साथ रात के अँधेरे में ही सुन पाती हैं. वे सारा दिन सोती थीं जिससे कि रात को पूरी तरह जाग सकें और अपने अंतर की आवाज़ को बारीकी से पकड़ सकें. कृष्णा सोबती अपनी रातें अपने पढ़ने की मेज़ पर ही गुज़ारती थीं जो उनके लिए किसी धर्म-स्थल की दहलीज़ से कम न थी.
कृष्णा जी का कहना था कि ‘किसी सौभाग्यशाली क्षण में सृजनात्मकता लेखक के अंतरतम पर दस्तक देती है… एक लेखक की अंतर्दृष्टि इस संसार के अनंत में मानवीय अस्तित्व की अमरता ढूँढती है.‘ कृष्णा सोबती की आवाज़ अनुभव के किसी गहरे कुएँ से आती हुई सुनाई देती. वे ऐसी शब्दकार थीं जो शब्दों को इतनी कुशलता से बुनती कि उपन्यास और कहानी में उभरता सच, जीवन के यथार्थ से अधिक सत्य जान पड़ता. भाषिक मुहावरे के साथ-साथ, शब्दों की ध्वनि पर भी वे इतना विचार करतीं कि उनके सभी उपन्यास अपने आप में पूरी सृष्टि के समान लगते हैं.
‘ज़िन्दगीनामा’ उनकी महान कलाकृति है जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. एक महाख्यानात्मक गाथा के रूप में यह उपन्यास पूरे युग की कथा कहता है जिसमें भारतीय उपमहाद्वीप में पनपने वाली सामासिक संस्कृति को अपने उत्कर्ष पर देखा जा सकता है. इस उपन्यास की चर्चा के साथ ही मन में उर्दू लेखिका कुर्तुलएन हैदर का प्रसिद्ध उपन्यास ‘आग का दरिया’ भी याद आता है. इन दोनों उपन्यासों में देश विभाजन की विभीषिका ने इन रचनाकारों के भीतर यह तीव्र इच्छा जगाई कि वे इस मिट्टी पर पनपने वाली साझी सांस्कृतिक विरासत की विशेष तस्वीर प्रस्तुत करें.
‘ज़िन्दगीनामा’ उस विस्तृत सामाजिक-सांस्कृतिक कैनवास को प्रस्तुत करता है जिसमें न केवल साझे मिथक-कथाएँ, उत्सव और विश्वास आदि हैं बल्कि गुजरात अथवा पंजाब की ग्रामीण पृष्पठभूमि में रहने वाले स्त्री-पुरुष तथा समुदायों के छोटे-मोटे झगड़े और विभिन्न वर्गों के आपसी संघर्ष भी मौजूद हैं. इसमें कोई एक नायक खलनायक नहीं हैं बल्कि एक बड़ी संख्या में वहाँ रहने वाले लोगों की झलक इसमें दिखती है. कुर्तुलएन हैदर का उपन्यास समय के लंबे अंतराल पर फैला हुआ है वहीं कृष्णा सोबती एक समृद्ध भौगोलिक क्षेत्र के सांस्कृतिक मानचित्र को बड़ी बारीकी तथा विस्तार के साथ उकेरती हैं. दोनों ही उपन्यासों में भाषा और शैली की दृष्टि से विभाजन के बाद, भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास को आख्यान में बदलने के लिए विलक्षण रचनात्मक प्रतिभा तथा उर्जा सक्रिय रहती है. दोनों लेखिकाओं ने जिन सच्चाइयों का उद्घाटन किया उससे उनकी दृष्टि के विस्तार का पता चलता हैं जो ऐसे समय में भी सामुदायिक सद्भाव को जीवन का निर्धारक मानती है. सारा बल लोगों के बीच भिन्नताओं के प्रति समुचित आदर तथा सहानुभूति पूर्ण साझेदारी पर है. बहुलतावादी संस्कृति में भिन्नेनताओं का सम्मान करने से ही समरसता संभव हो सकती है, यही इस कृति का महत्वपूर्ण संदेश है, जिसे अत्यंत संवेदनशीलता के साथ जीवन अनुभवों में चलने वाले सांस्कृतिक संवाद के रूप में प्रस्तुत किया है.
बहुत से लेखकों के लिए विभाजन की पीड़ा को अभिव्यक्त करना कठिन रहा. कृष्णा जी उस तकलीफ के साथ अंत तक जीती रहीं लेकिन यह ज़रूर है कि समय के अलग-अलग पड़ाव पर उन्होंने विभाजन के संदर्भ को कई स्तरों पर संबोधित किया. विभाजन के अपने अनुभव को उन्होंने आत्मकथात्मक आख्यान के रूप में लखनऊ से निकलने वाली ‘तद्भव’ पत्रिका में तीन हिस्सों में ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ के रूप में प्रकाशित किया और फिर उसी का विस्तृत रूप 2017 में प्रकाशित हुआ. उनकी निजता पर इतिहास के घावों का प्रभाव, धीरे-धीरे इस कृति में अभिव्यक्ति पाता है. इसकी मुख्य पात्र वे स्वयं है, एक रिफ्यूजी जो बॉर्डर के इस पार उस घर की तलाश में हैं जो घर उसने सीमा के उस पार खो दिया है. “हम तेज़ चाकुओं की तरह है… हम स्वयं हथियार बन गए हैं.”
दंगों में हुई हिंसा में सब कुछ खोकर, बच गए विस्थापितों में जो बचा रहा, वह आग की तरह था जो कभी बदला लेने के लिए जलती थी, तो कभी नई ज़िन्दगी को रोशन करने के लिए. वह आग कहीं भीतर बसी हुई थी, धड़कते असहाय आक्रोश के साथ. कृष्णा सोबती का लेखन मानवता की ओर लौटने की इच्छा जगाता है. भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ हो या कमलेश्वर का ‘कितने पाकिस्तान’ या फिर विभाजन पर आधारित अन्य अनेक कृतियाँ, सबमें एक अनिवार्य मानवतावादी दृष्टिकोण है, जिसकी नैतिकता का आयाम अप्रत्यक्ष एवं अति-सूक्ष्म है. कभी-कभी तो 1947 के दौरान हुई अकारण हिंसा की भयावहता का वर्णन दोनों वर्गों के पुरुषों द्वारा किए गए अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध प्रतिकार की भावना जगाता है. सआदत हसन मंटो जैसे लेखक विभाजन के तुरंत बाद उस पर लिख रहे थे जबकि कृष्णा जी ने अन्य बहुत से लेखकों की तरह बहुत बाद में विभाजन पर लिखा. संभवत लेखन के दौरान कल्पना के स्तर पर उस त्रासदी को पुन: झेलने से बचने के लिए उन्होंने ऐसा किया.
फरवरी 2018 में मुझसे बात करते हुए कृष्णा जी ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही,
“दूरी से अलग तरह की पहचान बनती है. जब आप लिख रहे होते हैं तो आपको एक उचित दूरी निभानी होती है जबकि जिसे आप दिखा रहे हैं उससे आपका गहरा आत्मीय संबंध भी होता है. दूरी होती है, पर बहुत नपी तुली. यदि आप बहुत नज़दीक आ जाएँ तो उस प्रक्रिया की ‘अन्यता’ ही भूल जाएगी और आत्मीयता तथा तटस्थता की बाइनरी बिखर जाएगी. यह अन्यता लेखक की नहीं है लेकिन लेखक को उसे सुलझाना पड़ता है.”
उन्होंने समझाया कि लेखक को एक साथ भीतरी और बाहरी भूमिका निभानी पड़ती है, बाहर से साक्षी होते हुए और भीतर से भागीदारी करते हुए. लेखक के लिए यह विचित्र दशा है जिसमें उसे धार पर चलना पड़ता है. पहले से भी मन में जो चित्र हैं, रचना की क्षण में वह भी एक नया रूप धारण कर लेता है . यह क्षण बहुत नाटकीय ढंग से नहीं आता. लेखक को उस क्षण की पहचान होनी चाहिए जिससे वह उसे पकड़ पाए अन्यथा वह यूँ ही व्यर्थ हो जाएगा. उनका कहना था कि “रचना के उस क्षण में आप काफी उद्वेलित हो सकते हैं और लेखक को उस उद्वेलन को संभालना आना चाहिए नहीं तो वह बुरी तरह असफल हो सकता है, ऐसे ही क्षण में कविता आती है.” और इसी बात से मुझे याद आती हैं वह पंक्तियाँ जो उन्होंने मुझे सुनाईं, जिसे उन्होंने शिमला के स्कूल में पढ़ते हुए लिखा था, “मैं मुस्कुराती सी सुबह, डरती हुई सी शाम हूँ : मैं मिलने वालों का युगों तक रहने वाला वो नाम हूँ” इन पंक्तियों पर उन्हें रजत पदक मिला था!
स्वाधीनता से पहले गर्मियों में अंग्रेजों की राजधानी शिमला चली जाती और कृष्णा जी का परिवार भी. वहाँ बिताए बचपन के दिनों के बारे में जब कभी कृष्णा जी बात करतीं उनका ध्यान बादलों, पहाड़ों और खुले नीले आसमानों में बसी सपनों की दुनिया में डूब जाता. शिमला की सफेद बर्फ़ में जिस तरह लोग मस्ती से नाचते या स्केटिंग का आनंद उठाते थे, उन दृश्यों का वर्णन करते हुए उनकी आँखें चमकने लगतीं. वे रुककर साफ नीले आसमान के बारे में सोचतीं तो अतीत की यादों से उनकी भवें कुछ तिरछी होने लगतीं और तब अचानक उन्हें याद आता कि कैसे उन्होंने चालीस के दशक में हिंदी को राजभाषा बनाए जाने को लेकर लोअर बाज़ार में एक लंबा जुलूस देखा था. वे साथ ही जोड़ देतीं, कि अपर मॉल में भी विद्रोह हो रहा था. उन दिनों अंग्रेज़ सरकार का युद्ध सम्बन्धी प्रोपोगेंडा अपने पूरे ज़ोर पर था और उन्हीं दिनों इस तरह के विद्रोह की घटनाएँ भी घटती रहती थीं. जब कभी उनका परिवार शिमला जाता वे ‘गुलशन लॉज’ में ही रहते थे. “हा हा तुम्हें पता है”, यह कहकर वे एक दबी-सी हँसी हँस देतीं, “1925 में जब मैं इस दुनिया में आई, तभी यह रेल कार शिमला लाई गई”… मैंने चुपचाप सोचा कि ये सारी बातें अपने आप में कुछ विशिष्ट ही थीं और इनमें सबसे विशिष्ट तो कृष्णा जी ही हैं!
लद्दाख पर कृष्णा जी की पुस्तक, ‘बुद्ध का कमंडल: लद्दाख‘ हिमालय के प्रति उनके गहरे अनुराग का साक्षी है. लेखक ने तस्वीरों और वर्णन के माध्यम से उन रंग-बिरंगी पहाड़ियों की धड़कन को साकार किया है. हिमालय के प्रति उनके प्रेम का पता उनके लेखन तथा जीवन-व्यवहार दोनों से चलता है. वे बिना थके, पहाड़ों पर चढ़ने के अपने किस्से सुनाया करती थीं, हिमालय की तरफ के और उत्तरांचल के भी, मुक्तेश्वर के आसपास. कृष्णा जी को जीवन में जो भी अच्छा लगता उसके साथ वे अनुभव की साझेदारी करना चाहती थीं. प्राकृतिक सौंदर्य को भी वे इसी भाव से ग्रहण करतीं. वे बेधड़क होकर अपनी यात्राओं के प्लान बनातीं, अपने मन की दुनिया में और सचमुच की दुनिया में भी!
सत्तर की उम्र में कृष्णा जी ने डोगरी के लेखक शिवनाथ जी से विवाह किया. कृष्णा जी और मैं एक शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में इस अवसर को साझा करते हुए गपशप कर रहे थे. उनकी बातों से साफ़ था कि कृष्णा जी के मन में शिवनाथ जी के प्रति विशेष सम्मान और आदर का भाव था और हैरानी यह कि दोनों का जन्मदिन एक ही दिन और एक ही वर्ष का था यानी 18 फरवरी 1925. दोनों ने तय किया कि साथ-साथ रहते हुए उम्र के आगामी पड़ाव पार करेंगे और फिर, व्यवहारिक बाध्यताओं के कारण उन्होंने अपने संबंध पर विवाह की मुहर लगाना उचित समझा. अपने रिश्ते के बारे में सोचते हुए कृष्णा जी इस भाव-बोध और मनस्थिति पर सोचने को विवश महसूस करने लगीं और उसी प्रक्रिया में उनके उपन्यास ‘समय सरगम’ की रचना हुई. यह पुस्तक वृद्ध होने के अनुभव को जिस मनीषा व परिपक्वता से तलाशती है, उससे पन्नों के बीच एक प्रशांत-निर्मल सा अनुभव पसर जाता है. वसुधा डालमिया ने इसका अनुवाद करते हुए अंग्रेज़ी में शीर्षक दिया, ‘द म्यूजिक ऑफ सॉलिट्यूड’ यह वास्तव में एकांत या तन्हाइयों के साथ आ जाने की कहानी है जिसमें अपने समय के साथ भी अपने रिश्ते को समझने की कोशिश की गई है. जैसे वे सच में एक दूसरे से पूछ रहे हों कि क्या यूँ ही एक दूसरे के साथ समय गुज़ार देना चाहते हैं लेकिन तभी यह नज़रिया छूटने लगता है और वे स्वयं को जीवन और मृत्यु संबंधी अस्तित्व के मूल प्रश्नों के रूबरू पाते हैं. एक दूसरे से अलग होते हुए भी वह आत्ममंथन की इस यात्रा पर साथ-साथ निकले हैं. दो एकांत सामंजस्य की सरगम रचते हुए, एक-दूसरे से अलग होने के बावजूद साथ हो लेते हैं.
कृष्णा जी जिस तरह के असाधारण व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं उनके जीवन की कहानी को किसी एक लेख में नहीं समेटा जा सकता यद्यपि वह हमेशा देने और बाँटने में विश्वास रखतीं थीं लेकिन बहुत कुछ था जो उनके भीतर सिमट जाता था. उनकी दृष्टि और उनकी यादों का यह खज़ाना गहरे आत्ममंथन के बाद उनके लेखन में अलग-अलग समय पर अभिव्यक्ति पाता रहा. अंत के दिनों में वे बार-बार यही कहती, “यार, समय काफी नहीं है”
और वे चली गईं…पूरी तरह जीवंत और देने की इच्छा लिए…. विशद दृष्टि एवं जीवन से भी बड़े व्यक्तित्व वालों का साथ देह के लिए निभाना कब संभव है.
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लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक डॉ. रेखा सेठी दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. ई-मेलः reksethi@gmail.com |