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Home » साहित्य का नोबेल: ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै : उपमा ऋचा

साहित्य का नोबेल: ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै : उपमा ऋचा

2025 के साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै (laszlo-krasznahorkai) के कुछ साक्षात्कारों पर आधारित इस पाठ में आप हंगरी के इस लेखक का अंतर्मन देखते हैं. बीहड़ लेखन का ऊबड़-खाबड़ जीवन से सीधा रिश्ता दिखता है. समय, समाज और जीवन में गहरे धंसे लेखक की एक तस्वीर बनती है. उपमा ऋचा ने इसे तैयार किया है. प्रस्तुत है.

by arun dev
October 12, 2025
in बातचीत
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साहित्य का नोबेल: ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै : उपमा ऋचा
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ला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै
एक सातत्य, जो पल-पल बदल रहा है.

उपमा ऋचा

 

कितने काम साथ-साथ

कुछ समय तक मैंने खदान मज़दूर के तौर पर काम किया. सच कहूँ यह एक मज़ेदार दौर था, जहाँ असली मज़दूर मुझे घेरे रखते थे. फिर मैं बुडापेस्ट के दूर गाँवों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का निर्देशक बन गया.

हर गाँव में सांस्कृतिक-केंद्र थे, जहाँ लोग कालजयी रचनाओं को पढ़ते थे. पुस्तकालय उनके दैनिक जीवन का हिस्सा थे. शुक्रवार और शनिवार को सांस्कृतिक केंद्र के निर्देशक गीत-संगीत के कार्यक्रम का आयोजन करवाते थे. या ऐसा ही कोई और कार्यक्रम, जो नौजवानों के लिए अच्छा हो. मैं आधा दर्जन गांवों के सांस्कृतिक केंद्रों का निर्देशक था. मतलब कि मुझे तमाम वक़्त यहाँ से वहाँ चक्कर लगते रहना होता था. लेकिन यह अच्छा काम था. मेरे पूंजीवादी पारिवारिक परिवेश से बहुत दूर मेरा पसंदीदा काम, लेकिन यहीं अंत नहीं. मैंने कुछ वक़्त तक तक़रीबन तीन सौ गायों की रखवाली भी की. यह काम भी मुझे अच्छा लगता था.

इंसानी पहुंच से दूर, घने निर्जन में गोशाला के बीच, मैं शायद कुछ महीने ही ग़रीब रखवाले की भूमिका में रहा. एक जेब में ‘अंडर द वोल्केनो’ और दूसरे में दोस्तोएव्स्की. भटकन के इन्हीं बरसों में मैंने पीना शुरू किया. आप जानते हैं कि हंगरी-साहित्य परंपरा में असल साहित्यकार वही थे, जो नशे में धुत्त रहते थे और मैं तो इसके लिए पागल था. लेकिन एक बार मैं कुछ ऐसे लेखकों के बीच फंस गया, जो एकमत से लेखन के लिए नशे की अनिवार्यता सिद्ध करते हुए कह रहे थे कि हंगरी की कलम अगर नशे के लिए पागल नहीं, तो उसमें वज़न नहीं.

मैंने उनकी बात मानने से इनकार कर दिया और (बारह बोतल शैंपेन की) शर्त लगाई कि मैं शराब छोड़ दूंगा.     

और मैंने छोड़ दी. लेकिन आज भी मेरे समकालीन लेखकों में कई हैं, जो परंपरा निभा रहे हैं. मसलन पीटर हनोक्ज़ी. वह आदमी मेल्कोम लॉरी की तरह एक जीवित किंवदंती है.

Photograph by Renate von Mangoldt, courtesy the new yorker

बर्लिन में रहना क्यों चुना?  

1987 के बाद मैं एक लंबा वक़्त इस शहर में बिताया. इसीलिए इस जगह से एक जुड़ाव-सा हो गया है. एक गहरा जुड़ाव. मुझे याद है पूर्वी बर्लिन घायल आत्माओं के लिए एक अस्पताल जैसा हुआ करता था. हर तरह के रचनाकार और वो भी जो रचनाकार होना चाहते थे, अपनी साधना के लिए यहाँ खिंचे चले आते थे. कितनी अच्छी बात थी न! उसी बार में बैठना, जहाँ तुमसे पहले कई बड़ी हस्तियाँ बैठी हों. उसी हवा को सांसों में भरना, जिसमें सृजन की ललक हो. इसीलिए आज मेरा वक़्त शहर में घूमते-टहलते बीतता है. हालांकि तब से अब में बहुत फ़र्क है. अब लोग यहाँ रचनाओं से ज़्यादा उन्हें बेचने के लोभ में आते हैं. फिर भी यह शहर कलाकारों का गढ़ है.

 

काफ़्का से  इतर  

मुझे लगता है कि जब मैं काफ़्का को पढ़ नहीं रहा होता हूँ, तब मैं उनके बारे में सोच रहा होता हूँ. जब मैं उनके बारे में सोच नहीं रहा होता हूँ, तो अपनी पुरानी सोच को दोहराने, याद करने की कोशिश कर रहा होता हूँ. और जब मैं उन्हें सोचते, दोहराते, याद करते हुए थक जाता हूँ, तो फिर से उन्हें पढ़ने लगता हूँ. दांते, दोस्तोएव्स्की, प्रूस्ट, एज़रा पाउंड, बकेट, थॉमस बेनेहार्ड, अतीला जोजेफ़, सेंडर वेयर्स और पिलिंस्ज़की के साथ भी यही करता हूँ.

 

लेखन की शुरुआत

वह शायद साठ के दशक का आख़िरी और सत्तर के दशक का शुरुआती वक़्त रहा होगा. मैं सोचता था कि असल ज़िंदगी, सच्ची ज़िंदगी जैसी शय अगर कोई है, तो वह कहीं और है. फ्रांज काफ़्का की कैसल के साथ-साथ  मैल्कम लोरी की अंडर द वोल्केनो मेरी बाइबिल थीं, लेकिन मैं एक पूर्णकालिक लेखक की भूमिका स्वीकार करने के मूड में नहीं था. मैं सिर्फ एक किताब लिखना चाहता था.

हाँ सही सुना आपने, बस एक किताब, और उसके बाद मैं अलग-अलग काम करना चाहता था. ख़ासतौर पर संगीत के साथ कुछ नए प्रयोग! मुझे लगता था कि अभाव की ज़िंदगी ही असल ज़िंदगी है. इसीलिए मैंने ग़रीबों के गांवों में डेरा डाला. ख़राब-ख़राब जगह नौकरियाँ कीं. अनिवार्य सैन्य सेवा से बचने के लिए हर तीन या चार महीने में ठिकाने बदलता रहा.

और फिर जैसे ही मैंने छिटपुट रचनाओं को प्रकाशित करवाना शुरू किया, मेरे पास पुलिस का न्यौता आ गया. दूसरे लोगों के हिसाब से मैं शायद थोड़ा ज़्यादा ही मुंहजोर था, क्योंकि पूछे गए हर सवाल के बाद मैंने उनसे कहा,  ‘विश्वास कीजिए, मेरा राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है.’

‘लेकिन हमें तुम्हारे बारे में कई बातें पता चली हैं.’

‘मगर मैं समकालीन राजनीति के बारे में नहीं लिखता.‘

‘हूँ… हमें तुम्हारी बातों पर भरोसा नहीं…’

इस बात पर मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया और मैंने तल्खी से कहा,

‘क्या सच में आपको लगता है कि मैं आप जैसे लोगों के बारे में कुछ लिखूंगा?‘

यक़ीनन इतनी तल्खी उन्हें गुस्सा दिलाने के लिए काफी थी. फौरन एक पुलिस अधिकारी (या हो सकता है कि वह खुफ़िया-पुलिस से हो) ने मेरा पासपोर्ट ज़ब्त करने की कोशिश की. हालाँकि सोवियत काल के कम्युनिस्ट सिस्टम में जारी किए जाने वाले लाल और नीले पासपोर्ट (लाल से आप केवल समाजवादी देशों में जा सकते थे, जबकि नीला पासपोर्ट असलियत में स्वतंत्रता देता था.) में से मेरे पास केवल लाल पासपोर्ट था. इसलिए मैंने हैरानी से पूछा भी,

‘क्या सच में आपको मेरा लाल पासपोर्ट चाहिए?‘ लेकिन मेरी हैरानगी को सिरे से ख़ारिज करते हुए मेरा पासपोर्ट ज़ब्त कर लिया गया.

क्या आप यक़ीन करेंगे कि 1987 तक मेरे पास कोई पासपोर्ट नहीं था.

ख़ैर. यह थी मेरे लेखन-करियर की पहली कहानी, जो आसानी से आख़िरी हो सकती थी. हाल ही में मुझे खुफ़िया पुलिस के दस्तावेजों में कुछ नोट्स मिले जिनमें संभावित सूचनार्थियों और जासूसों के बारे में जानकारी थी.

जासूसी और मेरी! भले अब यह सब मज़ाक लगता हो, लेकिन उस समय यह मजेदार नहीं था. फिर भी मैंने कभी राजनीतिक प्रदर्शन नहीं किए. बस छोटे गांवों और कस्बों में रहता रहा और अपने उपन्यास पर ध्यान लगाए रहा, जिसे मैं उन दिनों लिख रहा था. मेरा पहला उपन्यास.

 

पहले उपन्यास का प्रकाशन  

यह 1985 की बात है. कोई भी (यक़ीनन इसमें मैं भी शामिल था) यह नहीं समझ पा रहा था कि ‘सातांतंगो’ का प्रकाशन कैसे संभव होगा. क्योंकि कम्युनिस्ट व्यवस्था के माथे पर शिकन डालने के लिए उपन्यास का कथानक पर्याप्त था.

इसी समय खुफ़िया-पुलिस के एक पूर्व अधिकारी समकालीन साहित्य के प्रकाशन से जुड़े प्रकाशन-गृह का निर्देशक बने. हो सकता है वह यह सिद्ध करना चाहते हों कि मुझमें अब भी शक्ति है. और इसी शक्ति या कहूँ साहस के प्रदर्शन के लिए उन्होंने उपन्यास प्रकाशित करने का फैसला किया हो. मुझे लगता है कि किताब केवल इसी कारण प्रकाशित हो पाई, वरना.

 

लिखना का तरीका

घुमक्कड़ ज़िंदगी ने कभी मुझे इसकी इजाज़त नहीं दी कि मैं कोई व्यवस्था बनाऊँ. मैं हमेशा इस शहर से उस शहर के बीच झूलता रहा. रेलवे स्टेशन पर सुबह, होटल में रातें और लोगों को देखते, समझते, बात करते दिन. ऐसे में आप किसी व्यवस्था की कल्पना कैसे कर सकते हैं. शायद यही वजह है मैं एक जगह बैठकर नहीं लिख सकता. मेरा मतलब डेस्क-राइटिंग से है. आइडिया की तलाश में मुझे घंटों लैपटॉप को घूरना भी पसंद नहीं.

मेरे लिए लिखना एक बोध है. एक गंभीर कर्म. इसीलिए मैं एकदम असंगत जगह, एकदम असंगत परिस्थितियों में लिखता हूँ. अक्सर लिखने की शुरुआत मन से करता हूँ. अगर ठीक लगा, तो विचारों को दुरुस्त कर कागज़ पर उतारने की कवायद करता हूँ, वरना दिमाग़ में ही धुलाई-पूछाइ चलती रहती है.

 

गद्य या पद्य?

मैं बहुत गहराई से इस बात को महसूस करता हूँ कि साहित्य-सृजन एक आध्यात्मिक कर्म है. हेनोक्ज़ी, जोन्स पिलिंज़्की, सेंडर वेयर्स आदि महान थे, क्योंकि उन्होंने कविताएँ  लिखीं. गद्य मेरी दृष्टि में कम महत्व रखता है. मुझे लगता है कि हम कविताओं से ज़्यादा प्रेम करते हैं क्योंकि यह गद्य से ज़्यादा दिलचस्प और ज़्यादा गोपन होती है.

गद्य यथार्थ के कुछ अधिक ही निकट चला जाता है और इस चक्कर में अपना रस सुखा बैठता है. गद्य में सिक्का क़ायम करने की वही सोच सकता है, जो ज़िंदगी की सच्चाइयों के निकट हो. इसीलिए पारंपरिक रूप से हंगरी के गद्य लेखक छोटे-छोटे वाक्यों की रचना करना पसंद करते हैं, लेकिन मेरे अपने प्रिय गद्य लेखक ग्यूला क्रूडी इसके अपवाद हैं. क्योंकि अव्वल तो उनकी भाषा इतनी मोहक है कि आप ख़ुद को उनका विरोध करने के लिए तैयार नहीं कर पाते और दूसरे उन्हें भाषांतरित करना भी कठिन है.

उनकी वाक्य रचना दूसरे गद्य लेखकों से अलग है. वह हमेशा मदहोश इंसान की तरह बात करते थे, जो बहुत अकेला हो. जिसे जीवन के बारे में कोई भ्रम न हो. जिसके पास बहुत ताक़त हो, लेकिन निहायत ही फ़िजूल.

ग्यूला मुझे पसंद थे, मगर मेरे साहित्यिक आदर्श बिल्कुल भी नहीं थे. वह केवल मेरे लिए एक संबल की तरह थे, जिन्होंने मुझे उस वक़्त हौसला दिया जब मैं लिखने का फैसला कर चुका था. पर असमंजस में था. बल्कि अपनी भाषा के कारण जोन्स पिलिंज़्की मेरे लिए कहीं ज़्यादा मायने रखते थे. कई बार मैंने उनकी नक़ल करने की कोशिश भी की.

 

अनुवाद  

मेरे हिसाब से अनुवाद मूल कृति का दूसरी भाषा में गढ़ा गया ढांचा है. अनुवाद अनुवादक की कृति है, न कि मूल लेखक की. यह सही है कि मूलतः लेखक ही अपनी कृति को सींचता है, लेकिन अनुवाद की स्थिति में वह एक नई रचना होती है. जिसकी नींव अनुवादक भरता है, एक नई भाषा, एक नए परिवेश के अनुसार. इस बात को यूं भी समझा जा सकता है कि एक परिवार के दो सदस्य अलग-अलग होते हैं, फिर भी एक जैसे होने का आभास देते हैं.

लेखक अनुवाद में केवल यह देखता है कि कथावस्तु समान है कि नहीं. कि कथ्य की हत्या तो नहीं हो गई. अगर दोनों (मूल रचना और अनुवाद) में समानता होती है, तो उसे संतोष होता है. अन्यथा की स्थिति में गुस्सा आता है. मुझे केवल एक बार गुस्सा आया था. ‘वार एंड वार’ के जर्मन अनुवाद को देखकर, क्योंकि अनुवाद इतना बेरहमी से हुआ था कि मेरी किताब बहुत बुरी किताब बन गई थी. इतनी बुरी कि उसे सुधार पाना भी असंभव था. लेकिन इसके अलावा मेरी हर किताब के अनुवाद ने मुझे आश्चर्य से भर दिया. वाक़ई मुझे बहुत बेहतरीन अनुवादक मिले.

 

Sátántangó से एक दृश्य

सातांतंगो   

सातांतंगो के प्रकाशन के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएँ मुझे मिलीं, उनसे लगा कि पाठकों को ऐसी ही किताब चाहिए थी. यहाँ पाठकों से मेरा मतलब उन लोगों से है, जो किसी ऐसी किताब का इंतज़ार कर रहे थे जिसमें दुनिया के बारे में कहा गया हो. उन लोगों से, जो मनोरंजन के इतर बात करने वाली किताब चाहते थे. उन लोगों से, जो जीवन से भागना नहीं चाहते थे. बल्कि बार-बार जीना चाहते थे. महसूस करना चाहते थे कि उनके पास भी सांसे हैं. जीवन है. अवसर है. समय के द्वारा लिखी जा रही लंबी पटकथा में उनका भी हिस्सा है. और इनके साथ उन लोगों से भी, जिनकी प्राथमिकताएं दयनीय मगर सुंदर थीं.

मुझे हमेशा लगता है कि हमारे पास महान साहित्य की कमी है, जबकि हमारे पाठकों की इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. किसी दवा के तौर पर नहीं और न ही किसी भ्रम के तौर पर, बल्कि एक ऐसे बोध के तौर पर, जो उन्हें बताए कि दरअसल कोई दवा है ही नहीं.

 

लेखक की दुनिया

यह बात चौंकाने वाली है कि हर चीज़ बदल चुकी है, पर फिर भी वैसी ही है. तेज़ कोलाहल करके बहती हुई किसी धारा की कल्पना कीजिए, जैसे ही वह मुड़ती है, कोई एक बूंद बुलबुले की तरह टूट जाती है. बुलबुला छोटी-छोटी बूंदों में तबदील हो जाता है और बूंदें एक छोटी सी लहर बनकर धारा में समा जाती हैं. दृष्टि बूंदों पर ध्यान लगाने की कोशिश करती है, पर व्यर्थ… संभव ही नहीं यह, क्योंकि बूंदें तो हैं ही नहीं. वहाँ तो धारा है, जो पल-पल अलग होकर भी अंतत: एक है. वहाँ न पूर्णता है, न अपूर्णता. न ऐक्य है, न द्वैत. फिर क्य है वहाँ?

एक सातत्य, जो पल-पल बदल रहा है. हम उसे देख सकते हैं. उसके साक्षी बन सकते हैं, मगर पकड़ नहीं सकते.

 

उपमा ऋचा
लेखक एवं अनुवादक. विश्व साहित्य की सात प्रमुख कृतियों का अनुवाद और ‘थी इंदिरा’ जैसी चर्चित जीवनी की लेखिका. वर्तमान में वागर्थ में मल्टीमीडिया संपादक.
upma.vagarth@gmail.com

Tags: 2025 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार किसे मिला है2025 के साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेताlaszlo-krasznahorkaiउपमा ऋचाला:सलो क्रॉस्नॉहोरकै
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Comments 4

  1. कुमार अम्बुज says:
    1 day ago

    दो दिनों में लास्लो क्रॉस्नोहोरकाई के तीन साक्षात्कार पढ़े। उसी क्रम में यह सुंदर संयोजन। धन्यवाद।

    सेटनटैंगो (सातंतांगो) उपन्यास और सिनेमा भी रेखांकित करता है कि लेखन जीवन में धँसकर किया जानेवाला कर्म है। अंतत: वह जनविरोधी राजनीति की विडंबनाओं, कुटिलताओंं, मुश्किलों के बीच जिजीविषा का भी संपृक्त और संयुक्त अंकन है। और यह सब बेहद सूक्ष्म निरीक्षणों, मनुष्य के स्वभावजन्य भय, लालच, ईर्ष्या आदि के मनोविज्ञान को समाहित करते हुए। सृष्टि के तमाम प्रश्नों को अपनी उत्सुकता के दायरे में लेते हुए।

    Reply
  2. Khudeja khan says:
    1 day ago

    लेखक के अंतर्मन और आतंरिक जीवन की परतों के नीचे की हलचल, विश्रांति, जिज्ञासा एक तरह की तलाश का सफ़र। गांवों में रहकर, दर ब दर भटक कर अर्जित किया अनुभव ,गहनता से प्रकट होकर छाप तो छोड़ता ही है। आख़िर सर्वहारा के जीवन से जुड़कर,लेखन सूत्र गझिन रूप लेते हैं। सर्व व्यापकता का मूलमंत्र इसी में अंतर्निहित है।

    Reply
  3. विष्णु नागर says:
    1 day ago

    बहुत सुंदर संयोजन।

    Reply
  4. Teji Grover says:
    1 day ago

    बहुत सुन्दर और कॉम्पैक्ट प्रस्तुति। विदेशी लेखकों के सभी नाम रोमन में भी दें।
    Samalochan Literary को हंगरी के इस शानदार लेखक को हिंदी पाठकों के सम्मुख लाने ले लिए विशेष बधाई।

    Reply

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