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Home » तेजी ग्रोवर की कविता: मदन सोनी

तेजी ग्रोवर की कविता: मदन सोनी

तेजी ग्रोवर (1955) के छह कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उनकी कृतियाँ देश-विदेश की तेरह भाषाओं में अनूदित हुई हैं. ‘संभावना’ से प्रकाशित ‘तूजी शेरजी और आत्मगल्प’ इधर चर्चा में है. तेजी मूलतः कवि हैं. उनकी कविताओं के महत्व और विशेषताओं पर आलोचक मदन सोनी का यह आलेख प्रस्तुत है. कहना न होगा कि तेजी की कविताओं पर सम्यक विचार नहीं हुआ है और मदन सोनी के इस रेखांकन का अपना महत्व है.

by arun dev
July 21, 2025
in आलेख
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तेजी ग्रोवर की कविता: मदन सोनी
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तेजी ग्रोवर की कविता 
मदन सोनी

सामान्य तौर पर, हम कविता को ‘अपनी’ दुनिया की शर्तों पर देखने के अभ्यस्त होते हैं (यह और बात है कि इस दुनिया की हमारी समझ कितनी और कैसी है). कविता में हम केवल ऐसी ही संघटनाओं (छवियों, दृश्‍यों, घटनाओं आदि) के साथ तादात्म्य स्थापित कर पाते हैं, जिनका सम्बन्ध किसी-न-किसी रूप में ‘हमारी’ दुनिया की संघटनाओं से हो; जो भले ही सर्वथा काल्पनिक, यहाँ तक कि अपनी कल्पना में अतीन्द्रिय हों, लेकिन जो कम-से-कम अपनी सम्‍भावना में हमारी इस दुनिया और ऐन्द्रिय संघटनाओं से मेल खाती हों. जहाँ इस तरह की अतिरंजित कल्पनाएँ या फ़न्‍तासियाँ होती हैं, वहाँ वे अक्‍सर आलंकारिकता (रूपक या रूपक-कथाओं, उत्‍प्रेक्षाओं आदि) के अनुरोध से आयी होती हैं, जहाँ दुनिया और उसकी ऐन्द्रिय संघटनाएँ इन रूपकों आदि का आधार होती हैं.

इस अभ्‍यस्ति का अपना तर्क– अपना औचित्य या नैतिक आधार– होता है: हमारी प्रतिबद्धता, प्रतिश्रुति और जवाबदेही इस दुनिया के प्रति है. और इसलिए कविता से अपेक्षा की जाती है कि वह हमें अपने कल्‍पना-लोक की कितनी ही यात्राएँ कराने के बाद अन्ततः ‘हमारी’ दुनिया में स्थित करे, हमें उससे और अधिक गहराई से जोड़े, हमारे अवस्थिति-बोध और विवेक को पैना करे, हमें दुनिया में भागीदारी करने के लिए प्रेरित करे.

यह केवल दुनिया को देखने के हमारे ढंग तक ही सीमित नहीं है, बल्कि बहुत-सी कविता भी इसी तर्क से लिखी जाती है. उसका सत्यापन जागतिक यथार्थ से किया जा सकता है और जागतिक यथार्थ के सत्‍यापन में उसका उपयोग किया जा सकता है.

जागतिक यथार्थ और कविता के बीच यह परस्‍पर प्रतिश्रुति, भाषा के स्‍तर पर एक ऐसी प्रांजल और तर्कसंगत वाक्‍य-रचना या पद-रचना में, अरस्‍तू के एक महत्त्वपूर्ण प्रत्‍यय के सहारे कहें तो, ‘लोगॉस’ में, फलित होती है जो अपनी अभिधा, लक्षणा और व्‍यंजना में हमें तत्‍काल ग्राह्य होती है. हम कविता को लगभग पढ़ते ही उसके साथ तादात्म्य बिठा लेते हैं और उस आधार पर हम कविता का विश्लेषण, मूल्यांकन आदि करने में सक्षम हो जाते हैं.

लेकिन ऐसी भी कविता हो सकती है (होती है, जैसा कि हम देखेंगे) जो, उपर्युक्त अर्थ में, दुनिया की (भाषिक) प्रतिकृति रचने की बजाय, स्वयं एक समानान्तर दुनिया की रचना करे. एक ऐसी अराजक भाषिक सृष्टि जिसकी रचना या गति‍की (डायनामिक्‍स) शब्‍द और अर्थ के स्थापित, परिचित सम्‍बन्‍धों की बजाय, स्वयं अपने ही कल्पित, निजी नियमों से परिचालित हो. ऐसी कविता के साथ तादात्म्य बिठा पाना और फलत: उसकी व्याख्या, विश्लेषण, मूल्यांकन कर पाना मुश्किल होता है. ऐसी कविताएँ कुपाठ तक से वंचित, अक्सर, अपाठ का शिकार होती हैं.

तेजी ग्रोवर की कविताएँ ऐसी ही अपाठ की शिकार और सम्‍भवत: अपाठ्य मान ली गयीं कविताएँ हैं. इन कविताओं के बिम्‍ब या अभिप्राय अपने नियमों में, ‘हमारी’ दुनिया की छवियों को प्रतिबिम्बित नहीं करते, वे एक अलग ही दुनिया की ओर इंगित करते प्रतीत होते हैं : ‘बाहर अकेले उड़ रही है कोई दुकान,’ अर्थों के फूल चुनने पुत्र घाट पर आये हैं,’ ‘हर बार यह पृथ्वी पर पहले प्रेम की ही चन्‍द्र-बूँद है,’ ‘ईर्ष्या की राख बरस रही है,’ ‘रोशनी हर जगह चहचहाने लगती है/और पक्षी चमकते हैं’, ‘कठपुतली सो सकती है/सूर्य की हवा में,’ ‘चन्‍द्रमा झील से अपने अक्‍स को खींच लेता है,’ ‘प्‍यास लगी थी उन्हें/ जो दीवार से दिख रही थी,’ ‘कहीं नीचे/ रंगों में हिलते हुए हाथ की तलवार में/कभी-कभी पलक झपकने की आवाज़ आती थी,’ ‘प्‍यास लगती है/जिस एक बिम्‍ब को,’ इत्‍यादि.

हम देख सकते हैं कि ये विचित्र, ‘इडियोसिन्‍क्रटिक’ क़ि‍स्‍म के अवबोध इस अर्थ में सर्वथा अपारदर्शी हैं कि इनमें ‘हमारी’ दुनिया के परिचित पद और अर्थ स्‍वतन्‍त्र रूप में तो हैं लेकिन ये दोनों मिलकर जिस पदार्थ की रचना करते हैं वह पदार्थ इस दुनिया में अनुपस्थित बल्कि असम्‍भव है : ‘ईर्ष्‍या की राख,’ ‘उड़ती हुई दुकान,’ ‘प्रेम की चन्‍द्र-बूँद,’ ‘हड्डी की तरह तड़पता पानी’ इत्यादि. एक विक्षिप्त चेतना के पर्यवेक्षण और प्रक्षेप. ये किसी भी परिचित वास्तविकता को प्रतिबिम्बित नहीं करते. न ही यहाँ ये आलंकारिक उक्तियाँ हैं, क्योंकि इनका उद्देश्य किसी दुनियावी वास्तविकता को अलंकृत (अलम्+कृत) करना नहीं है. और इसलिए भी कि ‘हमारी दुनिया’ के समानान्‍तर कल्‍पनाओं को आधार प्रदान करते इनके समतुल्‍य कोई उपमान इस दुनिया में नहीं हैं. ये अभिव्यक्तियाँ इस दुनिया के होने, घटने या घटित होने की सम्‍भावना से युक्त अभिव्‍यक्तियों से स्‍वतन्‍त्र हैं. इनका अस्तित्‍व केवल भाषा में सम्‍भव है. और यह चीज़ केवल उन बिम्‍बों और उक्तियों तक सीमित नहीं है जिन्हें ऊपर उद्धरित किया गया है.

ये एक वृहत्तर संघटना के आसानी से गोचर हो सकने वाले अंश (‘द टिप ऑफ़ दि आइसबर्ग’) भर हैं . अपनी वृहत्तर व्याप्ति में, ये केवल भाषा में सम्भव होती एक स्वायत्त दुनिया, एक स्वायत्त यथार्थ की रचना करते हैं. इस अर्थ में, ये सिर्फ़ भाषा में लिखी गयी ही नहीं, बल्कि लगभग विशुद्ध रूप से भाषा की कविताएँ हैं, जो अपनी अपाठ्यता या दुरूहता का जोख़ि‍म उठाकर भी इकतरफ़ा ढंग से दुनिया की शर्तों पर पढ़े जाने का प्रतिरोध करती हैं.

ऊपर हमने तेजी के अवबोधों की ‘इडियोसिन्‍क्रसी’ की ओर इशारा किया है. यहाँ इस ‘इडियोसिन्‍क्रसी’ को इस तथ्‍य के सन्‍दर्भ में रेखांकित करना आवश्‍यक प्रतीत होता है कि तेजी हिन्‍दी के उन अत्‍यन्‍त थोड़े-से कवियों में से एक, किन्‍तु उनके बीच भी अपनी तरह की नितान्‍त अकेली कवि हैं जो उस तरह की कविता लिखती हैं जिसे अँग्रेज़ी में ‘पर्सनल पोएट्री’ कहा जाता है : वह कविता जिसमें कवि के नितान्‍त ‘निजी जीवन के’ अनुभवों को अभिव्‍यक्ति मिलती है.

तेजी की कविता का मसला उनके अनुभव की निजता तक सीमित होने का नहीं बल्कि उसका विस्तार इस बात में भी है कि, प्रथमत: तो वे बहुत ‘इडियोसिन्‍क्रटिक’ क़ि‍स्‍म के अनुभव हैं, दूसरे, तेजी, इन निजी अनुभवों को ‘साधारणीकृत’ नहीं करतीं. दूसरे शब्‍दों में, वे उन अनुभवों का निर्वैयक्तीकरण कर उन्‍हें सर्वसामान्‍य के अनुभवों में नहीं बदलतीं. यही नहीं बल्कि मानो इस भय से कि अगर वे अपने इन अनुभवों को सार्वजनीन या सर्वसामान्‍य की भाषा में, ‘लोगॉस’ में, निबद्ध करेंगी तो उस भाषा में इन अनुभवों की निजता बिला जाएगी, वे उस अनुभव के अनुरूप इस भाषा का एक निजी संस्करण या ‘इडिऑस’ रचकर उसमें उस अनुभव की निजता को सुरक्षित कर लेती हैं. तेजी का यही उद्यम उनके ‘इडियोसिन्‍क्रटिक’ अववोधों में फलित होता है. इस ‘इडियोसिन्‍क्रसी’ का एक रूप इस कविता में महसूस किया जा सकता है :

बात यह नहीं है कि कहीं भी मन नहीं लगता, कहीं भी जड़ महसूस नहीं होती, कहीं भी अकेलापन साथ नहीं छोड़ता. बात ठीक इससे उलट है. हर जगह मन लगता है. हर जगह जड़ महसूस होती है. हर जगह सान्निध्‍य है, स्‍नेह, साथ है. आत्‍मीयता से भरे नक्षत्र पर किससे कहूँ कि ऐसा है…कौन मेरी बात का विश्‍वास करेगा.
‘हो सकता है यह सिर्फ़ लिखा ही जा रहा हो’ शृंखला की पहली कविता

यह, यद्यपि भाषा के साथ कोई विद्रोह न करती, उसके साथ ‘एट होम’ कविता है, लेकिन इसका अनुभव हमारे समय के सामान्‍य अनुभव के विपरीत जाता एक नितान्‍त निजी और चौंकाने वाला अनुभव है : ‘हर जगह जड़ महसूस होती है. हर जगह सान्निध्य है, स्नेह, साथ है.’ इस अनुभव की नितान्‍त निजता ही इस आशंका का आधार है कि ‘कौन मेरी बात का विश्वास करेगा.’

लेकिन ‘केवल भाषा में सम्‍भव होती यह स्‍वायत्त दुनिया’ इस कविता से बाहर की ‘हमारी दुनिया’ के प्रति न तो उदासीन है, और न ही उसमें उसकी विस्मृति है. इसके विपरीत उसका अस्तित्व ‘हमारी दुनिया’ की पूर्वापेक्षा पर ही टिका हुआ है. उसके भीतर मौजूद सारे अपरिचित प्रतीत होते पदार्थ ‘हमारी अपनी दुनिया’ के परिचित घटकों से ही निर्मित हैं, और उसका छोटा-सा पदार्थ-जगत अधिकांशत: इसी दुनिया के पदार्थों में साझा करता है. इस तरह, यद्यपि वह इस दुनिया के साथ, बहुत-सी अन्‍य कविताओं की तरह, बिम्‍ब-प्रतिबिम्‍ब रिश्‍ते में नहीं है, तब भी उसके साथ उसका एक अत्‍यन्‍त महत्त्वपूर्ण रिश्‍ता है: वह ‘हमारी दुनिया’ के साथ, उसके बरक्‍स, एक ‘काउण्‍टरप्‍वाइण्‍ट’ का रिश्‍ता है : एक ऐसा स्‍वर जो ‘हमारी दुनिया’ की लय (मैलोडी) में एक विषम स्‍वर की तरह समाविष्‍ट होकर एक नयी लय गढ़ता है.

हमारी दुनिया को अनुगुंजित करने की बजाय, वह उसकी एकध्‍वनिकता (मोनोफ़ोनी) का प्रतिरोध कर एक बहुध्‍वनिकता (पोलिफ़ोनी) को उभारता है, और इस तरह, अपनी व्यंजना में, यह कहता प्रतीत होता है कि यह एक तरह की अराजकता को प्रतिध्‍वनित करती बहुध्‍वनिकता ही हमारी दुनिया का वास्तविक स्वरूप है. तेजी अपनी लगभग हर कविता में ‘हमारी दुनिया’ से सम्‍बन्धित सामान्‍योक्तियों के भीतर अपनी विचित्र उक्तियों का अन्‍तर्निवेश करती चलती हैं :

वे उठे
और पानी पीने से पहले
उन्‍होंने दीवार को सजा दिया
कठपुतली की आँख से

प्‍यास लगी थी उन्‍हें
जो दीवार से दिख रही थी

वे जल्‍दी में थे
और पानी को उनकी देह में
रास्‍ता नहीं मिल रहा था

उन्‍होंने पुतलियों को नचाया
कभी ऊपर कभी नीचे

पानी
किसी हड्डी की तरह तड़प रहा था
कठपुतली की आँख में

‘कठपुतली की आँख’ (मैत्री) शीर्षक शृंखला की दसवीं कविता; रेखांकन मेरा

तेजी हिन्‍दी के उन बहुत थोडे़-से कवियों में एक हैं जो इस तरह के भाषिक अन्‍तर्निवेश के सहारे दुनिया को उसकी स्‍वर-संगति (‘हॉर्मनी’) में पकड़ने की बजाय बहुध्‍वनिकता में पकड़ती हैं, और यूँ जागतिक यथार्थ के बहुध्‍वनिक होने का इसरार करती हैं; जो यह कहती प्रतीत होती हैं कि यह दुनिया अपने मूल रूप में अराजक है और इस अराजकता के सौन्‍दर्य को भाषा के ‘काउण्‍टरप्‍वाइण्‍ट’ में ही पकड़ा जा सकता है.

यह बहुध्‍वनिकता तेजी की कविता में एक ‘स्किज़ोफ़्रेनिक’ स्‍तर पर फलित होती है. जो नयी लय इस बहुध्‍वनिकता से गढ़ी जाती है, वह किसी एक भाव को मुखरित नहीं करती. उसमें एक तरह की भाव-शबलता है. बल्कि, शायद यह कहना ज्‍़यादा सही होगा कि तेजी की कविताओं में भावों की स्‍पष्‍ट शिनाख्‍़त करना मुश्किल है. यह नहीं कि उसमें भाव नहीं हैं. वे हैं, लेकिन उनकी प्रतीति इतनी मद्धिम और क्षणिक होती है कि हम कहीं भी कभी किसी एक भाव पर अँगुली नहीं रख सकते. अक्‍सर, भाव एक अनुभूति के स्‍तर पर जन्‍म लेता है और इसके पहले कि वह स्‍थायित्‍व ले, अपना विस्‍तार करे, वह किसी दूसरी अनुभूति के स्‍तर पर उदित होते भाव में विलीन हो जाता है, और यह सिलसिला तब तक जारी रहता है जब तक कि विभिन्न भावों की रंगतों से बना एक पारभासी (‘ट्रांसलुसेण्‍ट’) अन्‍तर्गुम्‍फन तैयार नहीं हो जाता :

प्‍यार हो सकता है यह जो घाट की तिलकनी सीढ़ी पर बैठा है. कोई अन्‍चीन्‍हा जानवर है जिसकी याद उसे देखकर आती है.

एक स्‍वप्‍न हो सकता है यह – मन्दिर में स्‍तम्‍भों की जगह नितम्‍ब तने हैं. ईर्ष्‍या की राख बरस रही है. अभी समय है, अभी समय है – एक बूढ़ी औरत रेतीली घास में बोल रही है. झुर्रियाँ मिट जाएँगी, अभी समय है, मेरे बच्‍चे.

माथे फटने को हैं, आत्‍माएँ काँच के गुम्‍बद को तरेड़ती हुई बह रही हैं. एक दमकती देह लहर में अपनी एड़ी को खुरदुरे पत्‍थर से माँज रही है. एक तिनका-सा पुरुष गेंदे के फूलों के पास बैठा है. आँखें नम हैं. तुम बताओ, वह कहता है, क्‍या मेरे पास कुछ भी नहीं है?

उसके बायीं ओर किसी के स्‍तनों के बीच एक सतरंगी पत्‍थर रह-रहकर अपनी धूप बना रहा है.

सुबह के दस बजे नदी में तैयार चाय-सा पानी है. जापानी एक नचैया बहुत धीमा नाच रहा है, बाँसुरी चिता की ओर उठाये.
कोई आने वाला है
इस कविता का भ्रम तोड़ने
कोई आने वाला है

‘अन्‍त की कविताएँ’ शृंखला की पहली कविता

इस पारभासी अन्‍तर्गुम्‍फन से तेजी एक संश्लिष्टि की रचना करती हैं– सृष्टि की एक ऐसी अवस्‍था की रचना जिसमें ‘एक समय के बाद’ ‘प्रेम और घृणा’ के बीच, ‘सुख और दु:ख’ के बीच, ‘गहराई और सतह’ के बीच ‘कोई फ़र्क नहीं’ रह जाता. (और, हम इन भेदपरक द्वित्‍वों में तर्कसंगत ढंग से ‘स्‍त्री और पुरुष’ नामक द्वित्‍व को भी शामिल कर सकते हैं.) तेजी की विडम्‍बनापूर्ण अस्तित्‍व-दृष्टि के लक्ष्‍य पर अस्तित्‍व की यह अभेदपरकता या अद्वैत हैं. यह अस्तित्‍व-दृष्टि विडम्‍बनापूर्ण इसलिए है, क्‍योंकि जहाँ इसमें, एक ओर सृष्टि के मूल स्‍वरूप को अभेदात्‍मक मानने का इसरार है, वहीं दूसरी ओर, जब वे कहती हैं, ‘एक समय बाद’, तो इसमें सृष्टि की अपभ्रंशावस्‍था में उभर आये इन द्वित्‍वों और भेदों को बलात् मेटने की ओर भी संकेत है.

तेजी का यह (अ-)भाव जगत बहुत आवेगपूर्ण नहीं है. वे उत्‍कटता की बजाय गाम्‍भीर्य की कवि हैं; मध्‍य लय और मन्‍द्र सप्‍तक की कवि. यह बात किंचित विस्मित कर सकती है कि तेजी का यह स्‍वर केवल उनकी बाद की, परिपक्‍वावस्‍था की कविताओं में ही नहीं, लो कहा साँबरी नामक उस पहले संग्रह में भी है जिसमें उनकी अपेक्षाकृत युवावस्‍था की कविताएँ संकलित हैं, और उन कविताओं में भी है जिन्‍हें ‘प्रेम कविता’ जैसा कुछ कहा जा सकता है. यह मध्‍य लय और मन्‍द्र सप्‍तक भी विडम्‍बनापूर्ण है, क्‍योंकि ये चीज़ें, एक ओर, तेजी की अस्तित्‍व-दृष्टि के उस पक्ष से मेल खाते हैं जहाँ वे सृष्टि के मूल स्‍वरूप को अद्वैत रूप में देखती हैं, तो, दूसरी ओर, वे उनके उपर्युक्त ‘काउण्‍टरप्‍वाइण्‍ट’ की विषमता में उभरती हैं : ‘काउण्‍टरप्‍वाइण्‍ट’ का काउण्‍टरप्‍वाइण्‍ट’.

तब भी, इन कविताओं की ऐन्द्रियता से इनकार नहीं किया जा सकता. यह वह सबसे महत्त्वपूर्ण चीज़ है जो तेजी के विलक्षण अनुभव-जगत को इन्द्रियगोचर बनाती है. फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि यह ऐन्द्रियता उत्‍कटता पर सवार होकर नहीं बहुत मन्‍दाक्रान्‍ता गति से हम तक पहुँचती है :

एक बार तुमने कहा था
अब फिर खो दिया है तुमने एक प्रेम
बहुत समय तक अब ख़ाली ही रखना अपना मन
बहुत धैर्य से दो-ढाई वर्ष तक सोचना
और सहना

मैं यहाँ तुम्‍हारे शब्‍दों को लिखती हुई नहीं बैठी, रामू
तुम्‍हारे शब्‍द नहीं रहते मेरे पास
सिर्फ़ तुम्‍हारा शब्‍द और ख़ाली तुम्‍हारे हाथ
और आसमान से
निशब्‍द वार्तालाप करती हुई धुली तुम्‍हारी आँखें

तुम्‍हारी गली की वे बिल्लियाँ
जो तुम्‍हारी मेज़ पर चढ़कर तुम्‍हारी ओर ताकती थीं

तुम्‍हारी वह स्‍वप्‍न में डूबती हुई सी छब, रामू
जिसे मैं जाली के इस ओर से देखकर
लौट जाती थी, बिना तुमसे मिले!

‘जाली के पार से देखते हुए : रामू गाँधी के लिए’ शृ़खला की सातवीं कविता

तेजी की यह मन्‍दाक्रान्‍ता गति हिन्‍दी की औसत भावगति का प्रत्‍यक्ष ‘काउण्‍टरप्‍वाइण्‍ट’ है.

मदन सोनी
(
जन्म १९५२, सागर, मध्यप्रदेश)


छह आलोचना पुस्तकें प्रकाशित जिनमें कविता का व्योम और व्योम की कविता, विषयान्तर, कथापुरुष, उत्प्रेक्षा, विक्षेप और काँपती सतह पर शामिल अनेक पुस्तकों और पत्रिकाओं का सम्पादन जिनमें आधुनिक हिन्दी की प्रेम कविताओं का संचयन प्रेम के रूपक, अशोक वाजपेयी की चुनी हुई रचनाएँ, शमशेर की कविता पर केन्द्रित आलोचना पुस्तक समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं, और भारत भवन, भोपाल से प्रकाशित पत्रिका पूर्वग्रह प्रमुख रूप से शामिल हैं.

मदन सोनी ने विश्व के कई शीर्ष लेखकों और चिंतकों की रचनाओं के अनुवाद किए हैं जिनमें शेक्सपियर, लोर्का, नीत्शे, एडवर्ड बॉन्ड,  मार्गरेट ड्यूरास  ज़ाक देरीदा, एडवर्ड सईद आदि शामिल हैं. उनके द्वारा अनुवादित उम्बर्तो एको का विश्व विख्यात उपन्यास ’द नेम ऑफ द रोज’ खासा चर्चित हुआ है उनके अन्य अनुवादों में हरमन हेस्स का उपन्यास सिद्धार्थ विश्व के प्रसिद्ध लेखकों की कहानियों का संचय ’चुगलखोर दिल और अन्य कहानियां’. डैन ब्राउन का उपन्यास ’द विंची कोड . एस हुसैन जैदी की पुस्तकें ’डोगरी टू दुबई’ तथा ’बायकला टू बैंकॉक’ आदि शामिल हैं.इधर विश्व विख्यात लेखक युवाल नोआ हरारी की तीन किताबों- सेपियन्स, होमो डेयस और २१ वीं सदी के लिए २१ सबक़, नेक्सस का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया है जो बहुत प्रसिद्ध हुईं हैं.

भोपाल स्थित राष्ट्रीय कला केंद्र भारत भवन के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त सोनी को अनेक सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें  देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार, नन्ददुलारे वाजपेयी पुरस्कार, मानव संसाधन विकास मन्त्रालय की वरिष्ठ शोधवृत्ति और रज़ा फ़ाउण्डेशन दिल्ली तथा उच्च अध्ययन संस्थान नान्त (फ्रांस) की फ़ेलोशिप आदि मुख्य हैं.

madanson.12@gma.l.com

Tags: तेजी ग्रोवरमदन सोनी
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Comments 3

  1. अम्बर पांडे says:
    5 minutes ago

    Teji Grover की कविताओं में प्रवेश की कुंजी जैसे मदन जी पकड़ा दी है।
    मुझे भी तेजी की कविताएँ हमेशा atonal संगीत की तरह लगती आई है। वे हिन्दी कविता की इस अर्थ में Arnold Schoenberg है। अर्थ के किसी स्थिर बिन्दु से उनकी कविता आकार बनाती हुई प्रकट नहीं होती और सच में इस वजह से वे अपाठ की शिकार होती है।
    जिस प्रश्न का उत्तर मदन जी ने नहीं दिया वह ये है कि तेजी चूँकि साधारणीकरण नहीं करती, अपने निजी अनुभवों को निवैक्तिक नहीं बनाती उनकी कविताओं को समझे कैसे?
    यह ऐसा है कि घर की चाबी तो मिल गई मगर अंदर सभी कमरों पर भी ताला है। नितांत वैयक्तिक काव्य को जो सैद्धांतिक रूप से तो स्वयं को उपलब्ध करवाता (Madan Soni ने जैसा सिद्धांत दिया है) है मगर व्यवहार में नहीं, कोई क्योंकर पढ़ना चाहेगा?

    Reply
  2. Dhruv Shukla says:
    4 minutes ago

    Dhruv Shukla
    कोई भी कविता प्रत्येक संरचना में सांसारिक है क्योंकि वह भाषा में ही संभव हो रही है। संसार भाषा से बाहर नहीं है। तेजी की कविताओं पर यह सुविचारित निबंध मर्मस्पर्शी है।

    Reply
  3. Rustam Singh says:
    3 minutes ago

    कविता को पढ़ते हुए हम उसे कई तरह से ग्रहण करते हैं, कर रहे होते हैं। कविता को समझना उनमें से एक है, लेकिन अनिवार्य नहीं है। विश्व कविता के बड़े कवियों में भी कई ऐसे उदाहरण हैं जहाँ उनकी कुछ महत्वपूर्ण मानी जाने वाली कविताओं को भी समझना अत्यन्त कठिन है। तब भी ऐसी कविताओं को यदि लगन से बार-बार पढा जाये तो शायद कुछ सीमा तक उन्हें समझ जा सके।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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