मीडिया का मानचित्र
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समाज के विकास की अवस्था के साथ ही संचार की तकनीकी और माध्यम का भी विकास होता रहा है. औपनिवेशिक शासन के दौरान हरकारे, डाक, भाट, रिसाले आदि खबरों, सूचनाओं के प्रसार का माध्यम होते थे. फिर अखबारों की दुनिया से गुजरते हुए हमारा समाज रेडियो और टेलीविजन जैसे जनसंचार के माध्यम तक पहुँचा. वर्तमान में, भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीकी के सहारे हम एक बड़े सूचना समाज का हिस्सा बन गए हैं. सूचना और तकनीकी हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है. पिछले पच्चीस वर्षों में इंटरनेट और मोबाइल नेटवर्क के माध्यम से फैला सोशल मीडिया हमारी जनसंचार संस्कृति का अहम हिस्सा बन चुका है. जिस तेजी से फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप आदि की पहुँच बढ़ी है, वह अखबार, रेडियो, टेलीविजन जैसे मीडिया के मुकाबले अप्रत्याशित कही जा सकती है.
मास मीडिया के लिए इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक दुनिया भर में संभावनाओं और चुनौतियों से भरा रहा है. हाल के वर्षों में पश्चिमी देशों, खास कर अमेरिकी नागरिक समाज और अकादमिक दुनिया में, काफी चिंता जताई जा रही है कि डिजिटल मीडिया कंपनियों से लोकतंत्र को खतरा है.[i]इन्हीं दुश्चिंताओं के मद्देनजर डिजिटल मीडिया पर नियंत्रण/नियमन को लेकर भारत सरकार भी तत्पर दिख रही है. हालांकि नियंत्रण/नियमन को लेकर विमर्शकारों के बीच दुविधा है. असल में यह दुविधा न सिर्फ सोशल मीडिया बल्कि मुख्यधारा के मीडिया को लेकर भी भारतीय जनमानस में दिखाई पड़ती है.
समकालीन पूंजीवादी समाज में ‘नेटवर्क’ संबंधों के मूल में है. यह भूमंडलीकरण के मूल में भी है. नेटवर्क, मसलन इंटरनेट, के सहारे भूमंडलीकरण की भाषा और संस्कृति बाजार के माध्यम से फैलती है. इस भूमंडलीकृत बाजार में अंग्रेजी का ही दबदबा रहा है, लेकिन समाजशास्त्रियों, भूमंडलीकरण के अध्येताओं का मानना है कि भूमंडलीकरण की इस संस्कृति को स्थानीय संस्कृतियों से प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है. स्थानीय संस्कृति और भूमंडलीय संस्कृति के बीच आवाजाही, लेन-देन चलती रहती है, इसलिए इसे ‘ग्लोकोलाइजेशन’ भी कहा गया.
भारत में आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण (1991) के बाद पनपे नव पूंजीवाद और मीडिया के संबंध काफी रोचक हैं. पिछले तीन दशकों में भाषाई मीडिया, खास कर हिंदी अखबार, टेलीविजन चैनल और ऑनलाइन डिजिटल मीडिया का प्रसार और शहरी केंद्रों से परे कस्बों, गाँवों, दूर-दराज के इलाकों तक नेटवर्क का विस्तार शोध का विषय है, जिस पर बेहद कम ध्यान दिया गया है. सच तो यह है कि समकालीन मीडिया के अभूतपूर्व प्रसार के बावजूद भारतीय अकादमिक जगत, खास कर हिंदी में, मीडिया विमर्श केंद्र में नहीं है. जो कुछ अखबारों, फेसबुक, ट्विटर आदि पर आलोचना दिखाई देती है, वह नाकाफी है.[ii]
प्रोफेसर शोशाना जुबॉफ ने अपनी चर्चित किताब ‘द एज ऑफ सर्विलांस कैपिटलिज्म’ में नोट किया है कि किस तरह मुनाफे के लिए तकनीकी कंपनियाँ हमारे जीवन को अपने नियंत्रण में ले रही है. चाहे-अनचाहे हम इन कंपनियों से उन जानकारियों को साझा कर रहे हैं जो बेहद निजी हैं. ये सूचनाएँ कंपनियों के लिए ‘डेटा’ हैं, जिसकी ताक में विज्ञापनदाता लगे रहते हैं. जुबॉफ लिखती हैं कि इस सर्विलांस कैपिटलिज्म में हम एक ऐसे समाज की तरफ बढ़ते हैं जहाँ पूंजीवाद समावेशी अर्थव्यवस्था या राजनीतिक संस्थाओं को पाने का एक जरिया नहीं रह जाता. एक बेहद अलोकतांत्रिक सामाजिक शक्ति (antidemocratic social force) के रूप में इस पर विचार करना चाहिए.[iii]
वर्ष 2020 में ‘नेटफ्लिक्स’ पर रिलीज हुई डाक्यूमेंट्री ‘द सोशल डिलेमा’ इन्हीं सवालों से रू-ब-रू है. इसमें सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों की चर्चा है. जेफ ओरलोवस्की निर्देशित इस डॉक्यूमेंट्री में एक जगह कहा गया है,
‘यदि हम किसी उत्पाद के लिए मोल नहीं चुकाते हैं तो फिर हम खुद एक उत्पाद हैं.’
पूंजीवाद के इस नए रूप में निजता/गोपनीयता (प्राइवेसी) का कोई मतलब नहीं रह जाता है.
यह डॉक्यूमेंट्री ‘खुफिया पूंजीवाद’ के हवाले से दिखाती है कि किस तरह सोशल मीडिया हमारे आचार-व्यवहार को प्रभावित कर रहा है. किस तरह घर-परिवार के सदस्यों के आपसी रिश्ते, युवाओं के मनोभाव और प्रेम संबंध प्रभावित होने लगे हैं. किसी नशे की लत की तरह हम खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं. हालांकि डॉक्यूमेंट्री में गूगल, यूट्यूब और सोशल मीडिया से जुड़े रहे आला अधिकारी बताते हैं कि इसका ‘डिजाइन ही ऐसा है कि आप चाह कर भी इससे अलग नहीं रह पाते’. मिर्जा ग़ालिब के शब्दों में कहें-
‘उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफ़िर पे दम निकले.’
सोशल मीडिया आम नागरिकों को एक-दूसरे से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. एक तरफ सत्ता के साथ संवाद का प्रमुख जरिया बन कर उभरा है, वहीं दूसरी तरफ सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध में सशक्त हथियार के रूप में इसका इस्तेमाल हो रहा है. सत्ता भी जन प्रतिरोध को कुचलने में इसका इस्तेमाल करने से नहीं चूकती. निस्संदेह, पारंपरिक मीडिया के बरक्स सोशल मीडिया ने सार्वजनिक दुनिया में बहस-मुबाहिसा को एक गति दी है और नेटवर्किंग के माध्यम से एक नए लोकतांत्रिक समाज का सपना भी बुना है. लेकिन सच यह भी है कि सोशल मीडिया के रास्ते ‘फेक न्यूज’ का तंत्र विस्तार पाता है. इन्हीं वर्षों में दुष्प्रचार का एक ऐसा तंत्र खड़ा हुआ है जिसकी चपेट में डिजिटल मीडिया के साथ-साथ पारंपरिक मीडिया-अखबार और टेलीविजन भी आ गया. इस किताब में हिंदी मीडिया के हवाले से इन मुद्दों की पड़ताल की गई है.
(दो)
इतिहासकार रंजीत गुहा ने एक अध्ययन में नोट किया है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान किसान विद्रोहों और सिपाही विद्रोह को सत्ता सरकारी कागजातों में ’महामारी’ के रूप में देख रही थी. यहाँ महामारी सत्ता के नजरिए से एक अलग अर्थ की व्यंजना करती है, जिसमें किसानों की सामूहिक उद्यमों की नकार है. वे लिखते हैं कि इन विद्रोहों के प्रसार में अफवाहों की एक बड़ी भूमिका थी.[iv]उस समय में हमारे समाज में शिक्षा का प्रसार बेहद कम था और खबरों के प्रसार की गति बहुत ही धीमी थी. वर्तमान समय में इंटरनेट के माध्यम से पलक झपकते ही सूचनाएँ मीलों की दूरी तय कर लेती है. जाहिर है खबर की शक्ल में मनगढंत बातें, दुष्प्रचार, अफवाह आदि समाज में पहले भी फैलते रहते थे. पर उनमें और आज जिसे हम फेक न्यूज समझते हैं, बारीक फर्क है.
सही सूचनाएँ जहाँ आम लोगों की दुश्चिंताएँ कम करती हैं, वहीं इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से फैलने वाले दुष्प्रचार लोगों की परेशानियाँ बढ़ाने का कारण बनते हैं. कोरोना महामारी से बचाव के लिए जहाँ विशेषज्ञों की टीम के माध्यम से सही सूचनाएँ लोगों तक पहुँचती रही, वहीं बेबुनियाद और अवैज्ञानिक समाधान से भी सूचना संसार अटा पड़ा है. महामारी के बीच इस तरह के दुष्प्रचार को ‘इंफोडेमिक’ कहा जा रहा है. शब्दकोष में यह शब्द अभी जगह नहीं पा सका है. शाब्दिक अर्थ में इसे ‘सूचना महामारी’ कह सकते हैं- सूचनाओं की अधिकता जो दुष्प्रचार, अफवाह की शक्ल लेती है. महामारी से लड़ने में, समाधान ढूंढ़ने में यह बाधा बन कर खड़ी हो जाती है. लोगों में भय का संचार भी इससे होता है. मानवीय भय और असुरक्षा के बीच सही सूचनाएँ एकजुटता को बनाए रखती हैं, जो किसी भी महामारी से लड़ने के लिए सबसे जरूरी है.
कोराना महामारी के दौरान ‘लॉकडाउन’ के बीच दुष्प्रचार, ‘फेक न्यूज’ की वजह से सामाजिक सौहार्द के बदले इस महामारी को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश भी मीडिया के कुछ हिस्से में देखने को मिला. दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में तबलीगी जमात की एक बैठक की टेलीविजन समाचार चैनलों के द्वारा की गई सांप्रदायिक रिपोर्टिंग इसका उदाहरण है. असल में, वर्ष 2014 में क्रेंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद समाज में राष्ट्रवाद के नाम पर घृणा और द्वेष का प्रचार बढ़ा है. इसमें हिंदी के समाचार चैनलों की भूमिका उल्लेखनीय है. सांप्रदायिकता और ‘न्यूजरूम नेशनलिज्म’ के बीच क्या संबंध हैं? भारतीय मीडिया के संदर्भ में इसकी क्या विशेषता है?
पिछले कुछ वर्षों में सार्वजनिक दुनिया में लोकतांत्रिक ढंग से बहस-मुबाहिसा के लिए जगह सिकुड़ी है. यह बात ना सिर्फ राजनीति बल्कि मीडिया के लिए भी सच है. अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफलो ने अपनी किताब- ‘गुड इकानामिक्स फॉर हार्ड टाइम्स’में नोट किया है कि किस तरह लोकतंत्र के ऊपर सोशल मीडिया का नाकारात्मक प्रभाव पड़ा है. उन्होंने लिखा है:
‘इंटरनेट का विस्तार और सोशल मीडिया के विस्फोट से पक्षपातपूर्ण रवैए में बढ़ोतरी हुई है.’[v]
इस संदर्भ में वे फेक न्यूज और सोशल मीडिया में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को भी रेखांकित करते हैं जिससे विचार-विमर्श (‘सिविक डिस्कोर्स’) प्रभावित हुआ है. हालाँकि कोई भी तकनीकी इस्तेमाल करने वालों पर निर्भर करती है. दुष्प्रचार फैलाने का जिम्मा भी उन्हीं लोगों पर है, जो तकनीकी का इस्तेमाल संचार के लिए कर रहे हैं. ‘इंफोडेमिक’ के लिए सोशल मीडिया जैसे माध्यमों के सिर दोष मढ़ा जा रहा है, पर कोरोना महामारी के दौरान मीडिया कारोबार के लिए सूचना की नई तकनीकी और सोशल मीडिया मुफीद साबित हुए. अखबार और टेलीविजन जैसे पारंपरिक जनसंचार के माध्यमों से जुड़े पत्रकार इंटरनेट के प्लेटफार्म का इस्तेमाल खबरों के संग्रहण और प्रसारण में कर रहे हैं, जो एक हद तक दुष्प्रचार को रोकने में सहायक रहे.
(तीन)
आधुनिक हिंदी साहित्य में शुरुआती दिनों से ही किसानों, कामगारों और मजदूरों की संघर्षमयी छवि दिखाई देती रही है. प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन का साहित्य इसके दृष्टांत हैं. पर समकालीन घटनाक्रम को संवदेनशील ढंग से सामने रखने के लिए कई बार साहित्य पर्याप्त नहीं होते. इन कहानियों को कहने के लिए मीडिया माकूल है. मीडिया न सिर्फ हमारे समय को ‘रिकार्ड’ कर रही होती है, बल्कि यह ऐतिहासिक साक्ष्य भी बन कर हमारे सामने आती है.
कुछ दृश्य राष्ट्र की सामूहिक चेतना में लंबे समय के लिए अंकित हो जाते हैं. देश विभाजन, महात्मा गाँधी की हत्या, भोपाल गैस कांड जैसी घटनाएँ इसी श्रेणी में आती हैं. कोरोना महामारी के बीच महानगरों में रहने वाले प्रवासी मजदूरों के जिस हृदय विदारक दृश्य को हमने देखा, उसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी. रोजी-रोटी और सिर छिपाने के ठौर छिन जाने के बाद माथे पर गठरी और गोद में बच्चों को लिए सड़कों पर भूखे-प्यासे पैदल चलते इन्हें दुनिया ने देखा. दिल्ली, मुंबई, सूरत से बिहार, उत्तर प्रदेश, ओड़िशा, तेलंगाना में स्थित अपने गाँव-घरों को पहुँचने को बेसब्र, ट्रकों में लदे, साइकिल-ऑटो से हजारों मीलों की दूरी तय करते कामगारों या मजदूरों की तस्वीरें आने वाले समय में हमें उद्वेलित करती रहेंगी. पर क्या यह सच नहीं है कि शहरी समाज के हाशिए पर रहने वाले ये कामगार, मजदूर हमारे बीच रह कर भी मीडिया की नजरों से ओझल ही रहते हैं? वंचितों, उत्पीड़ितों के लिए कारोबारी मीडिया में जगह लगातार कम होते गई है. बेजुबानों की आवाज बनने की बजाय सत्ता का भोंपू बनना मीडिया के लिए फायदेमंद होता है, पर इसके साथ ही विश्वसनीयता का संकट भी उपस्थित हो जाता है.
असल में, आवारा पूंजी के दौर में कारोबारी मीडिया का जोर सत्ता के साथ सांठगाठ करने पर बढ़ा है. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रिंट और टेलीविजन चैनलों के ‘स्पेशल इवेंट’ हैं, जहाँ मंच पर मालिक और संपादक ‘सत्ता’ पर काबिज लोगों के साथ नज़र आते हैं. यह शोध का विषय है कि इन प्रायोजित कार्यक्रमों से अख़बारों, समाचार चैनलों की विषय-वस्तु और एजेंडा किस रूप में प्रभावित होता है. जब इसे मौजूदा सरकार के मीडिया के साथ रवैये के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो चीजें काफी स्पष्ट हो जाती है. अखबारों में छपी कई ऐसी खबरें या कहानियाँ जो सरकार और शासक पार्टी को असहज करने वाली होती हैं, वह पाठकों को बिना बताए ऑनलाइन से हटा ली जाती हैं. सरकार के दबाव में आकर मालिकों ने अपने पत्रकारों और संपादकों को बर्खास्त भी किया है. मसलन, वर्ष 2017 में ‘हिंदुस्तान टाइम्स समिट’ के पहले अखबार के संपादक बॉबी घोष को जाना पड़ा था. उनके जाने के बाद उनकी पहल पर शुरू किया गया हेट ट्रैकर (hate tracker) साइट को भी अखबार ने हटा लिया था.[vi]
लोकतांत्रिक समाज के बने रहने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता एक जरुरी शर्त है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था- “मीडिया अपना काम करता है वह करता रहे और मेरा स्पष्ट मत है कि सरकारों की, सरकार के काम-काज का, कठोर से कठोर एनालिसिस होना चाहिए, क्रिटिसिज्म होना चाहिए. वरना लोकतंत्र चल ही नहीं सकता है.”[vii]
हालांकि वे उन्हीं पत्रकारों को इंटरव्यू देना पसंद करते हैं जो उनके ‘मन की बात’ सुने, असहज करने वाले सवाल या ‘क्रास क्वेश्चन’ नहीं करें. प्रधानमंत्री बनने के बाद, पिछले छह सालों में, उन्होंने एक बार भी ‘प्रेस कांफ्रेंस’ नहीं की है. वे सोशल मीडिया, खास कर ट्विटर, पर ज्यादा सक्रिय रहते हैं. प्रधाननंत्री मोदी और उनके मंत्री उन टेलीविजन एंकरों के कार्यक्रमों का बॉयकॉट करते हैं जो सत्ता की आलोचना करते हैं. मोदी सरकार के प्रवक्ताओं और मंत्रियों ने वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार और एंकर करण थापर के सम सामयिक विषयों पर होने वाले कार्यक्रम और इंटरव्यू में आना बंद कर दिया है. ऐसे ही और भी एंकर-पत्रकार हैं जिनसे सरकार ने स्पष्ट दूरी बना ली है. लोकतंत्र में यह एक नए तरह की अस्पृश्यता है. एक तरह से सत्ता द्वारा मीडिया को साधने की यह कार्रवाई है. भारतीय जनता पार्टी के एक प्रवक्ता ने वरिष्ठ पत्रकार करण थापर से स्पष्ट कहा कि
‘पार्टी आपके सवालों को पसंद नहीं करती और आपके एटिटयूड से भी दिक्कत है’.[viii]एक पत्रकार के रूप में मैं इसका साक्षी हूँ!
आजाद भारत में मीडिया को वैधता समाज और आम लोगों से मिलती रही है. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के दौर में मीडिया राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में अपना सहयोग दे रहा था. आधुनिक भारत के निर्माण में मीडिया की विचारधारा राष्ट्र-राज्य से मेल खाती रही. गाहे-बगाहे मीडिया पहरुए की भूमिका में रहा, पर मीडिया की स्वतंत्र आवाज कहीं दब गई थी. प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के शासन काल में, खास तौर पर आपातकाल (1975-77) के दौरान, मुख्यधारा का मीडिया झुक गया या भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी के शब्दों में कहें तो ‘रेंगने लगा था’. पर उसके बाद देश में भाषाई पत्रकारिता के उभार से पहली बार मीडिया अपनी पहचान के साथ सत्ता के बरक्स खड़ा होता दिखा, पर वह पूंजी की गिरफ्त में आ गया. बाजार के इशारों पर खबरों का उत्पादन होने लगा. अखबारों और चैनलों में खबर और विचार की संस्कृति समकालीन समाज की जरुरतों से कम ‘ब्रांड’ की जरुरतों से ज्यादा परिचालित होने लगी. एक बातचीत के दौरान वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर ने मुझसे कहा था,
“हमारे यहाँ के मीडिया को चौथा खंभा कहना छोड़ देना चाहिए. इसने कभी वह भूमिका नहीं निभायी जो पश्चिम में निभायी है- स्टेट्समैन, इंडियन एक्सप्रेस और कुछ हद तक हिंदू अपवाद हैं. हमारा लोकतंत्र भी वैसा ही गलीज है जैसा हमारा मीडिया.”[ix]
दूसरे शब्दों में, ‘वाच डॉग’ की बजाय मीडिया की भूमिका ‘लैपडॉग’ की ही रही. हाल के वर्षों में अन्य मीडिया समूहों के साथ ही ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की पत्रकारिता पर भी सत्ता के साथ गलबहियाँ करने के आरोप लगते रहे हैं जबकि आपातकाल के दौरान ‘इंडियन एक्सप्रेस’ समूह ने इंदिरा गाँधी की सत्ता के खिलाफ खड़ा होने का माद्दा दिखाया था.
वर्ष 2014 के आम चुनावों के दौरान में जिस तरह से राजनीतिक पार्टियों, खास तौर पर भारतीय जनता पार्टी ने ‘मीडिया मैनेज’ किया, वह अलग अध्ययन का विषय है.[x]इस चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी एक ब्रांड के रुप में उभरे जिसे मीडिया ने खूब भुनाया. इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि इस चुनाव में मीडिया के अधिकांश घराने एक सहयोगी राजनीतिक पार्टी की भूमिका में थे! विशेष रूप से खबरिया चैनलों की भूमिका संदिग्ध रही. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद मीडिया में ‘सेल्फ सेंसरशिप’ बढ़ा है. पिछले छह वर्षों में यदि मीडिया की विषय वस्तु का विश्लेषण करें तो ऐसा लगता है कि सरकार की नीतियों और काम काज के तरीकों को लेकर मुख्यधारा के मीडिया के भीतर एक भय और बिन माँगे सरकार के समर्थन का रुख है. ऐसे में मुख्यधारा का मीडिया अपनी भूमिका तय नहीं कर पा रहा है कि वह किसके साथ है– सरकार के या समाज के. आम जन से उसकी दूरी बढ़ती जा रही है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसकी वैधता पर ही सवाल खड़े करता है.
सन्दर्भ:
अरविंद दास
लेखक-पत्रकार.
‘बेखुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स’ और ‘हिंदी में समाचार’ किताब प्रकाशित.
रिलिजन, पॉलिटिक्स एंड मीडिया: जर्मन एंड इंडियन पर्सपेक्टिव्स के संयुक्त संपादक.
डीयू, आईआईएमसी और जेएनयू से अर्थशास्त्र, पत्रकारिता और साहित्य की मिली-जुली पढ़ाई.
एफटीआईआई से फिल्म एप्रीसिएशन का कोर्स.
जेएनयू से पत्रकारिता में पीएचडी और जर्मनी से पोस्ट-डॉक्टरल शोध. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइट के लिए नियमित लेखन.
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