• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मोहम्मद रफ़ी: तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे : सुशील कृष्ण गोरे

मोहम्मद रफ़ी: तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे : सुशील कृष्ण गोरे

३१ जुलाई १९८० को महान पार्श्व गायक मोहम्मद रफ़ी हमसे हमेशा के लिए अलग हो गये, पर इस महाद्वीप में आज भी उनकी आवाज़ गूंजती रहती है. उन्हें याद कर रहें हैं सुशील कृष्ण गोरे.

by arun dev
July 31, 2019
in कला, संगीत
A A
मोहम्मद रफ़ी: तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे : सुशील कृष्ण गोरे
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे                           

सुशील कृष्ण गोरे

इस आवाज को थमे आज 39 साल पूरे हो जाएंगे. एक ऐसी आवाज जिसके बारे में कहा जाता है कि अगर ख़ुदा की आवाज होगी तो हू-ब-हू ऐसी ही होगी. जब किसी आवाज में इस कदर कुदरत की रूह समाई हो; वो भला थम कैसे सकती है. आज भी रफ़ी अपने चाहने वाले करोड़ों दीवानों के दिलों पर हुकूमत कर रहे हैं.

आइए, इस पुरखुलूस आवाज के जादूगर रफ़ी साहब के ज़िंदगीनामा के कुछ खास पन्नों को पलट कर देखते हैं. कहा यह भी जाता है कि रफ़ी साहब बनावटी दुनिया के उसूलों से कोसों दूर रहने वाली शख्सियत थे. उन्हें शोहरत और दौलत की दुनिया की परवाह नहीं थी. पेशेवराना तरीके से वे आ जरूर गए थे ग्लैमर और चकाचौंध से भरी एक दुनिया में, लेकिन उनकी रूह में तो एक फकीर का पीर पैठा हुआ था. तभी तो वे कैफी आज़मी के अल्फाज़ों को बुलंदियों से कह पाए कि –‘ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं …..’

आपको जानकर हैरानी होगी कि मोहम्मद रफ़ी का काफी बचपन अपने बड़े भाई के साथ लाहौर में बीता था जिनकी वहाँ नाई की दुकान थी. यह वह दौर था जब उनका परिवार अमृतसर के पास अपना पैतृक गांव कोटला सुल्तान सिंह पीछे छोड़कर रोजी-रोटी कमाने की गरज़ से लाहौर आ गया था. वे छह भाइयों में पांचवें भाई थे. उनकी तीन बहने भी थीं. कहा जाता है कि रफ़ी साहब का गाने की तरफ झुकाव बचपन से था. उनके लंगोटिया यार बचपन से ही अपने इस दोस्त को गाते सुनकर अक्सर कहा करते थे कि तू और तेरी यह आवाज एक दिन दुनिया पर हुकूमत करेगी. तेरी आवाज तुझे खुदा की नेमत है.

रफ़ी का परिवार बहुत साधन संपन्न नहीं था और उनके पिता बिल्कुल नहीं चाहते थे कि वे गीत-संगीत की राह पकड़ें. केवल चंद दोस्तों और एक बड़े भाई मोहम्मद दीन के अलावा उनकी रूह में बसी मौशिकी की प्यास को कोई तवज्ज़ो नहीं दे रहा था. एक घटना ऐसी है जो इस बात की तसदीक करती है कि रफ़ी को अपने भीतर से उठती सूफीयाना आवाज की पहचान जरूर थी. उनको खुद पर ऐतबार भी था. उनके मोहल्ले से रोज़ एक सूफी फकीर एकतारा बजाते हुए पंजाबी लोकगीत गाते हुए गुजरा करते थे. रफ़ी उसकी आवाज पर फिदा थे और उसकी नकल किया करते थे. वे बिना नागा उस फकीर का इंतज़ार किया करते थे….और उसके पीछे-पीछे दूर तक चले जाते थे. इस छोटे से बच्चे की चाहत देखकर एक दिन उस फकीर का दिल भी आ गया. उसने रफ़ी को हौसला देकर गाने को कहा. फिर क्या था, रफ़ी गुनगुनाए और फकीर ने उन्हें दुआ दी कि एक दिन बेटा तेरी यह आवाज सारी दुनिया सुनेगी. इसमें तो कुदरत की रूह छिपी बैठी है.

इस तरह दिन बीतते गए. वर्ष 1937 था. रफ़ी सिर्फ़ तेरह साल के थे जब लाहौर में उस जमाने के मशहूर पार्श्वगायक कुंदनलाल सहगल का एक कार्यक्रम हो रहा था. मंच पर ऐन वक्त बिजली गुल हो गई और पेट्रोमैक्स जलाकर कार्यक्रम को आगे बढ़ाने का फैसला लिया गया. उस समय सहगल को सुनने के लिए बेताब़ भीड़ को थोड़ी देर संभालने के लिए बालक रफ़ी को मंच पर बुलाया गया. उन्होंने बिना माईक के ही अपनी जादुई आवाज में एक पंजाबी लोकगीत लोगों को सुनाया. रफ़ी के लिए किसी महफिल में सार्वजनिक तौर पर अपना गीत सुनाने का यह पहला मौका था. उनकी आवाज के फिज़ा में घुलते ही भीड़ मानों किसी जादू से बँध गई. शोर मचाती भीड़ अचानक खामोश हो गई. मंत्रमुग्ध जनता ने रफ़ी को सुनने के बाद खड़े होकर जोरदार तालियों से पूरे स्टेडियम को गुँजा दिया. उनकी आवाज को सुनकर मंच पर बैठे सहगल साहब भी आश्चर्य में पड़ गए और खुश होकर रफ़ी को आशीर्वाद दिया और कहा कि – तुम जरूर एक दिन बहुत बड़े गायक बनोगे. यह रफ़ी की जिंदगी का एक मक़बूल मौका था. इसके बाद उनको कुछ समय रेडियो लाहौर पर भी गाने का मौका मिला.

रेडियो लाहौर पर गाते सुनकर उस समय के बहुत ही पापुलर म्यूजिक डायरेक्टर श्याम सुंदर ने रफ़ी को एक पंजाबी फिल्म ‘गुल बलोच’ में पार्श्व गायक के रूप में गाने का मौका दिया. यह उनका पहला पंजाबी गाना था जिसे 28 फरवरी 1941 को रिकॉर्ड किया गया था. इसके बोल थे –शोणए नी, हिरिए नी, तेरी याद ने सताया. इस गाने ने भी रफ़ी को एक पहचान दिलाई जिसे सुनकर मशहूर अभिनेता और प्रोड्यूसर नसीर खान ने उनको मुंबई बुलाया. परंतु, रफ़ी साहब के घर वाले उन्हें इसके लिए इजाजत देने को तैयार नहीं थे. अंत में उनके बड़े भाई मोहम्मद दीन ने, जो हमेशा से ही रफ़ी के हुनर के ख़ैरख्वाह थे, उन्हें मुंबई भेजने का इंतजाम किया. यह 1942 का वर्ष था – मुंबई जाने के लिए लाहौर रेलवे स्टेशन से ट्रेन में बैठे रफ़ी को उनके अब्बा ने दिल पर पत्थर रखते हुए बड़ी मुश्किल से विदा किया और यह हिदायत भी दी कि – बेटा, जा तो रहे हो लेकिन याद रखना अगर कामयाब नहीं हुए तो वापस मुँह दिखाने मत आना. मैं यह भूल जाऊँगा कि रफ़ी नाम की मेरी कोई औलाद भी थी.

18 साल का एक बेहद सीधा-सादा, मासूम और शर्मीला मोहम्मद रफ़ी एक अनजान शहर मुंबई पहुँचता है. जिंदगी किसी की भी हो कभी आसान नहीं हुआ करती – रफ़ी के सामने रहने, खाने, सोने का इंतजाम करने का सवाल पहले था, गाने की तो बाद में देखी जाती.  लेकिन, उनके बड़े भाई के दोस्त हमीद भाई रफ़ी के इस शुरूआती संघर्ष में बहुत काम आए. उनकी कोशिशें रंग लाईं और दोनों को मोहम्मद अली रोड के प्रिसेंस बिल्डिंग में किराए का एक मकान मिल गया. इसके मालिक सिराजुद्दीन अहमद बारी खुद सपरिवार बिल्डिंग के टॉप माले पर रहते थे. इसे इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि बाद में इन्हीं बारी साहब की बेटी बिलकिस सुरों के इस शंहशाह की हमसफ़र बनीं.

यह समय रफ़ी के लिए बहुत कठिन था. वे मुंबई की फिल्मी दुनिया की बेगानी गलियों में इस स्टुडियो से उस स्टुडियो के चक्कर काट रहे थे और अपने लिए गाने का मौका तलाश रहे थे. कई बार ऐसा भी हुआ था कि वे जब किसी स्टुडियो के बुलावे पर वहां पहुँचे नहीं कि उन्हें सुनने को मिला कि अब कल आओ. रफ़ी के वपास कल दोबारा घर से वहां आने के पैसे न होते थे. ऐसे में वे कई बार स्टुडियो के सबसे नजदीक के रेलवे स्टेशन पर ही सोकर रात गुजार लेते थे.

उन दिनों भी मुंबई में, वो भी फिल्म उद्योग में, अपनी जगह बनाना कोई हँसी-मज़ाक की बात नहीं थी. वह के.एल.सहगल, पंकज मलिक, खान मस्ताना, जी.एम.दुर्रानी जैसे नामी-गिरामी गायकों का दौर था – एक तरफ तो ऐसे दिग्गज खड़े थे.वहीं दूसरी तरफ़ की कतार में उनकी टक्कर के मुकेश, तलत महमूद, मन्ना डे, और थोड़े ही दिनों बाद किशोर कुमार भी अपने हुनर का लोहा मनवाने के लिए म्युजिक इंडस्ट्री में संघर्षरत थे. इसलिए रफ़ी के लिए मंजिल आसान न थी. उन्हें हिंदी फिल्म में गाने का पहला ब्रेक दिया प्रसिद्ध संगीत निर्देशक श्याम सुंदर ने, अपनी फिल्म ‘गाँव की गोरी’ में – जिसमें उन्होंने जी.एम दुर्रानी के साथ मिलकर गाया था. इसके बाद उस दौर के स्थापित म्युजिक डायरेक्टर नौशाद अली ने भी उन्हें एक फिल्म पहले आप के एक गाने के में कोरस के साथ कुछ लाइनें गाने का मौका दिया. गाने के बोल थे – “हिंदुस्तान के हम हैं, हिंदुस्तान हमारा …..”

यह रफ़ी की पहला हिट गाना था. रफ़ी बचपन से के.एल. सहगल के मुरीद थे और उनको 1950 में अपने सपनों के गायक सहगल के साथ गाने का अवसर भी नौशाद जी ने ही दिया. फिल्म का नाम था –‘शाहजहाँ’. लेकिन, उनको एक मुकम्मल पहचान मिली फिल्म ‘जुगनू’ से, जिसमें रफ़ी को सुरों की मल्लिका नूरजहां के साथ गाने का बेशकीमती मौका मिला.

रफ़ी के सामने केवल बाहरी जोड़तोड़ से मुठभेड़ ही नहीं थी – बल्कि उनको गायकी के स्तर पर भी नए प्रकार की चुनौतियां झेलनी पड़ रही थीं. इसकी वज़ह यह थी कि रफ़ी का फन लीक से हटकर था. वे अब तक के प्रतिमानों से भिन्न थे. उनकी अपनी शैली और अंदाजे-बयां था. अपने समकालीन गायकों में से किसी की नकल में वे नहीं गा रहे थे. वे अपने साथ एक बदलाव लेकर आए थे इसलिए तत्कालीन गायकी और मौशिकी की दुनिया उनको सहजता से अपना नहीं पा रही थी. अभी तक फिल्मी गीत एक सप्तक पर ही गाए जाते थे लेकिन रफ़ी साहब ने डेढ़ सप्तक की शैली शुरू की.

मोहम्मद रफ़ी के बारे में यह कहा जाता है कि उनकी सुरों में जितनी विविधता और विस्तार था उतना तब भी किसी में नहीं था और आज भी नहीं है. उनकी काबिलियत इतने कमाल की थी कि वे जिस अभिनेता के लिए गाते थे उनके गाने से बिना देखे पता चल जाता था कि यह गाना दिलीप कुमार गा रहे हैं या शम्मी कपूर गा रहे हैं. उनकी आवाज की नरमी और लरजिश में वो माद्दा था कि वह गुरुदत्त, भारत भूषण, प्रदीप कुमार, देव आनंद, जॉय मुखर्जी, संजय खान, विश्वजीत, जितेंद्र, राजेंद्र कुमार, राजकुमार, धर्मेंद्र, शशि कपूर, ऋषि कपूर, अमिताभ बच्चन जैसे सभी अभिनेताओं की विशेषताओं और ख़ास अदाओं को अपने गाने में उतार देते थे.

अपने बेमिसाल हुनर और बेशुमार शोहरत की बुलंदियों पर होने के बावजूद रफ़ी साहब को दिखावा, दंभ छू तक नहीं गया था. उनकी शराफ़त की मिसालें आज भी दी जाती हैं. वे एक नेक और दरियादिल इंसान थे. पैसे की लालची नहीं थे. ज़मीर के पक्के और खुद्दार थे. प्रसिद्ध अभिनेता जितेंद्र एक वाकया का जिक्र करते बताते हैं कि एक फिल्म के प्रोडक्शन के दौरान यह तय हुआ था कि गाने के लिए गायकों को चार हजार रुपए दिए जाएंगे. फिल्म के बनने में चार साल लग गए और जब रफ़ी साहब को अन्य गायकों के बराबर बढ़ाकर बीस हजार रुपए दिए गए तो वे बहुत नाराज हो गए थे. फोन पर मुझे पंजाबी में प्यार से डांटते हुए कहा था कि – अबे वो जित्ते, बहुत पैसे हो गए हैं क्या तेरे पास. उन्होंने 16 हजार रुपए वापस लौटाए. जितेंद्र कहते हैं कि आज पैसे की दुनिया में ऐसी मिसाल कहां मुमकिन है.

इसी तरह रफ़ी साहब के बारे में यह कभी सुनने को नहीं मिला कि किसी संगीतकार के साथ उनकी नहीं बनीं. उनके नाम की तूती बोलती थी फिर भी उन्होंने संगीत निर्देशकों को हमेशा अपना गुरु और मार्गदर्शक माना. कभी उनके काम में दखलअंदाजी नहीं की. नौशाद, मदन मोहन, रोशन, शंकर जयकिशन, खय्याम, ओ.पी. नैयर, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, चित्रगुप्त जैसे प्रतिष्ठित संगीतकारों के साथ उन्होंने काम किया. एक से एक गाने गाए जिनकी फ़ेहरिश्त बनाना मुमकिन नहीं है.

रफ़ी की ख़ासियत ये थी कि वे सारे हिन्दुस्तान की एक मुकम्मल आवाज थे. उनके गीतों में सिर्फ़ प्यार, मोहब्बत, इज़हारे-इश्क और नर्गिस-ए-मस्ताना की शोख अदाएं ही नहीं हैं बल्कि रफ़ी ने संगीत की शास्त्रीयता को भी पूरा निभाया है. उनकी यह क्षमता उनकी ग़ज़लों और भजनों में देखा जा सकता है. आप रफ़ी की यह ग़ज़ल याद करिए –ये इश्क-इश्क ये इश्क-इश्क. उनको मधुबन में राधिका नाचे रे, गिरधर की मुरलिया बाजे रे.. गाते हुए सुनें. या ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नालेका स्केल देखिए – कहा जाता है कि रफ़ी ने इस गाने का सुर इतना ऊँचा उठा दिया था कि उनका गले से खून आ गया था और उनका गला रुद्ध हो गया था. यह भी एक किस्सा मशहूर है कि एक कैदी, जिसे फांसी की सजा सुनाई गई थी उसने जेल अधिकारियों से अपनी आखिरी इच्छा के रूप में इस गाने को सुनने की फरमाइश की थी.

उन्होंने हिन्दुस्तान के हर हिस्से की संस्कृति और रीति-रिवाज, पर्व-त्योहारों को अपने गीतों से सजाया है. आज भी हिन्दुस्तान के किसी भी हिस्से में जब बारात निकलती है तो एक मात्र यही गाना बजता है –आज मेरे यार की शादी है, लगता है कि ये सारे संसार की शादी है….. तिरंगे को देखते हैं तो बरबस ज़हन में … कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों गूंजने लगता है.

अपनी बहुमुखी प्रतिभा की बदौलत रफ़ी ने अपनी फ़नकारी के जिस भी आयाम छुआ उसमें कमाल हुआ. उनके सुरों में इतना देवत्व था कि वे जो गा देते थे वह ज़मीं से फलक तक नुमायां हो जाता था. उन्होंने इंसानी जज्बात के सभी रंगों और सब धड़कनों को अपनी पुरनम आवाज से सुनने वाले के खयालों में तामीर किया है. उनकी आवाज में दुनिया की हर चीज़ को बयां करने की ताकत थी. वे जब गाते थे तो दुनिया हर मंज़र आंखों में साया होने लगता था. हिंदी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती, मैथिली, भोजपुरी, उड़िया, बांग्ला, मराठी, कोंकड़ी, सिंधी, असमी, तमिल, तेलुगु, इंगलिश, अरबी, फारसी, सिंहली आदि कई भाषाओं में रफ़ी ने 30 हजार से ज्यादा गाने गाए हैं.

आज भी एक तड़पते आशिक को मरहम रफ़ीके गीत ही लगाते हैं –तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना, ग़रीब जान के. माशूका की ब़ेवफाई को जिस तल्खी से रफ़ी ने पेश की है, वह काबिले-तारीफ़ है –क्या हुआ तेरा वादा, वो कसम वो इरादा. रफ़ी ने रोमांस, मोहब्बत की हर शोख़ अदा को तरन्नुम के साथ गुनगुनाया है. आज तक इससे अधिक शोख़ और अल्हड़ प्यार का गीत दोबारा नहीं सुना गया –पूछे जो कोई मुझसे बहार कैसी होती है, नाम तेरा ले के कह दूँ कि यार ऐसी होती है  ….. वहीं गहरे अवसाद को भी उन्होंने क्या बेहतरीन स्वर दिए हैं –टूटे हुए ख्वाबों ने, हमको ये सिखाया है, दिल ने जिसे चाहा था, आंखों ने गँवाया है….. या याद न जाए, बीते दिनों की …. या फिर … सौ बार जनम लेंगे, सौ बार फनां होंगे …..

1956 से 1965 तक का समय रफ़ी के करियर का सबसे बेहतरीन वक्त था. इस बीच उनको कुल छह फिल्म फेयर अवार्ड मिले और वे रेडियो सिलोन से प्रसारित होने वाले बिनाका गीतमाला कार्यक्रम में दो दशकों तक छाए रहे. वर्ष 1969 में फिल्म ‘आराधना’ से रफ़ी को पहली बार करियर में झटका लगा. इत्तेफ़ाक की बात है कि इस फिल्म के म्युजिक डायरेक्टर एस.डी बर्मन फिल्म के सारे गाने रफ़ी से गवाने वाले थे लेकिन वे फिल्म निर्माण के बीच में ही बुरी तरह बीमार पड़ गए. ऐसे में काम आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उनके बेटे आर.डी. बर्मन के हाथ में आ गई. संयोग ऐसा था कि इधर रफ़ी साहब भी हज़ करने चले गए थे. आर.डी.बर्मन यानी पंचम नए जमाने के संगीतकार थे. वे नए प्रयोगों और वक्त के बदले हुए मयारों को संगीत में लाना चाहते थे. पंचम ने ‘आराधना’ के गीत किशोर कुमार को दिए. किशोर ने अपनी ख़ास अदा के साथ गाया और सारे गाने रातों-रात जबरदस्त हिट हो गए. किशोर ने बाजी मार ली. उनकी बढ़त कायम रही. रफ़ी पिछड़ने लगे थे. फिर एक बार रफ़ी की 1976 के ब्लॉक बस्टर ‘लैला मजनू’ से शानदार वापसी हुई. मदन मोहन और जयदेव के संगीत निर्देशन में इस फिल्म ने सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले. रफ़ी ने फिर से अपनी अहमियत का डंका बजा दिया था. उसके बाद कई यादगार फिल्मों के सुपर हिट गानों ने रफ़ी के कंठ से चारों तरफ धूम मचाया.

लंदन, अमेरिका, वेस्ट इडीज, जोहांसबर्ग, दुबई, श्रीलंका आदि कई देशों के कई शहरों में रफ़ी ने म्यूजिकल कंसर्ट में भी हिस्सा लिया और महफिलों में हरदिल अज़ीज सितारे की तरह छाए रहे. 1980 में श्रीलंका में जब वे वहां की सरकार के बुलावे पर गए थे तो उनको सुनने के लिए 12 लाख से ज्यादा लोगों का हुजूम उमड़ आया था. हिंदी उनके श्रीलंकाई चहेतों की भाषा तो नहीं थी; लेकिन रफ़ी की मेलॉडी के जादू का असर उन पर भी तारी था. रफ़ी की विशेषता थी कि जब वे कहीं गाने के लिए खड़े होते थे तो सबसे पहले वहां की स्थानीय भाषा में ही गाना शुरू करते थे.

1966 में भारत सरकार ने रफ़ी को ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया. लेकिन, सुरों का यह बादशाह गाता चला जा रहा था कि अचानक 31 जुलाई 1980 का वह मनहूस दिन बहुत जल्दी आ गया. रफ़ी को जबरदस्त हार्ट अटैक हुआ और वे सबको हैरत में डालकररोता हुआ छोड़कर दुनिया से बहुत दूर चले गए. उसके बाद एक ही आवाज गूँजती रह गई –जाने वालों जरा मुड़के देखो मुझे, एक इंसान हूँ मैं तुम्हारी तरह…. 
____
sushil.krishna24@gmail.com

Tags: मोहम्मद रफ़ीसुशील कृष्ण गोरे
ShareTweetSend
Previous Post

कृष्ण बलदेव वैद से आशुतोष भारद्वाज की बातचीत

Next Post

विष्णु खरे: अप्रत्याशित का निर्वचन: ओम निश्चल

Related Posts

No Content Available

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक