कृष्ण बलदेव वैद
(२७ जुलाई,१९२७,पंजाब, पीएच डी- हार्वर्ड विश्वविद्यालय)
उपन्यास
उसका बचपन, बिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ, नसरीन, दूसरा न कोई, दर्द ला दवा, गुज़रा हुआ ज़माना, काला कोलाज, नर-नारी, मायालोक, एक नौकरानी की डायरी
कहानी संग्रह
बीच का दरवाज़ा, मेरा दुश्मन, दूसरे किनारे से, लापता, आलाप, लीला, वह और मैं, उसके बयान, चर्चित कहानियाँ, पिता की परछाइयाँ, बदचलन बीवियों का द्वीप, खाली किताब का जादू, रात की सैर (दो खण्डों में), बोधित्सव की बीवी, खामोशी, प्रतिनिधि कहानियां, मेरी प्रिय कहानियां. दस प्रतिनिधि कहानियां, शाम हर रंग में, प्रवास-गंगा, अंत का उजाला, सम्पूर्ण कहानियां
नाटक
भूख आग है, हमारी बुढ़िया, सवाल और स्वप्न, परिवार-अखाड़ा, कहते हैं जिसको प्यार, मोनालिज़ा की मुस्कान, अंत का उजाला
निबंध
शिकस्त की आवाज़, संचयन, संशय के साए
अनुवाद
हिन्दी में
गॉडो के इन्तज़ार में (बेकिट), आखिरी खेल (बेकिट), फ़ेड्रा (रासीन), एलिस: अजूबों की दुनिया में (लुई कैरल)
अंग्रेज़ी में
टेक्नीक इन दी टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्स, स्टैप्स इन डार्कनेस (उसका बचपन), विमल इन बॉग(बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ), डाइंग एलोन (दूसरा न कोई), दी ब्रोकन मिरर (गुज़रा हुआ ज़माना), साइलेंस इन दी डार्क, द स्कल्प्टर इन एग्ज़ाइल
द डायरी ऑफ़ अ मेडसर्वेंट (एक नौकरानी की डायरी)
डेज़ ऑफ़ लोंगिंग (निर्मल वर्मा – वे दिन), बिटर स्विट डिज़ायर (श्रीकांत वर्मा -दूसरी बार), इन द डार्क (मुक्तिबोध – अँधेरे में)
डायरी
ख्याब है दीवाने का, जब आँख खुल गयी, डुबाया मुझ को होने ने, अब्र क्या चीज़ है ? हवा क्या है. आदि
भारतीय और विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित.
‘इल्हाम के लिये इबादत जरूरी है. रियाज़ जरूरी है‘
कृष्ण बलदेव वैद से आशुतोष भारद्वाज की बातचीत
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II आरम्भ II
हार्वर्ड में लिखी आपकी आलोचना किताब टैक्नीक इन द टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्स. शीर्षक में भी अनुप्रास. यह अनायास नहीं होगा.
यह शीर्षक शुरु में तो नहीं था लेकिन बाद में आ गया. अनुप्रास का यह आग्रह मेरे भीतर है. अंग्रेजी में भी जो मैंने अनुवाद किये हैं या थोड़ा बहुत लिखा है, उसमें भी अनुप्रास, एसोनैंस, एलीटरेशन मेरे स्टाइल में अनायास ही आ जाता है. गद्य में मुझे लय देखने की लत है. जेम्स का गद्य, वहां एक लय है. आप उसे ऊँचा पढ़ें. जॉयस के गद्य में तो संगीत है. जॉयस तो गाता है. फिनिगंस वेक भले न समझ आये आपको, अभी भी नहीं समझ आता मुझे. कई कीज़ के साथ भी पढ़ा है, कई चीजें छूट जाती हैं. उसे ऊँचा पढ़िये. अगर मैं आयरिश होता(तो शायद)…. आयरिश उसे पढ़ें तो उसका संगीत सुनाई देगा भले समझ न आये. मेरी समझ में गद्य में भी लय हो सकती है बगैर उसे क्षुद्र अर्थों में काव्यात्मक या पर्पल प्रोज बनाये. रूखे गद्य में भी. मसलन निर्मल के मुकाबले मेरा गद्य रूखा है, जानबूझकर है. मैं उस तरह का सौंदर्य अपने गद्य में नहीं लाना चाहता लेकिन लय तो बनी रहती है. शब्दों की आपसी रगड़ से संगीत पैदा होता है, वह निर्मलीय हो सकता है, वैदीय भी.
लिखते में ही मैं सुनता रहता हॅूं इसकी आवाज क्या होगी. बोलकर तो नहीं लिखता लेकिन जब भी पाठ का कहीं मौका मिला है पढ़ने में बड़ा मजा आया है.
अनुप्रास मेरे गद्य के संगीत का एक स्रोत है, और भी होंगे.
टैक्नीक इन द टेल्स. तकनीक आपका बुनियादी सराकोर तभी से रहा है. दूसरे, स्टोरी नहीं टेल्स, कहानी नहीं कथा.
उससे भी पहले से. हेनरी जेम्स अपने छोटे आकार के गल्प को टेल्स कहते हैं. मृत्यु से पहले उन्होंने अपनी चुनिंदा रचनाओं को संकलित किया था- द न्यूयॉर्क एडिशन. उसका शीर्षक ही था द नोवेल्स एंड टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्स. छोटी कहानियों का उनका प्रत्यय टेल का था, फ्रैंच में जिसे Conte कहते हैं.
हिंदी में‘लंबी’ कहानियां अमूमन दस–बारह हजार शब्दों से अधिक नहीं होतीं. जेम्स की सबसे छोटी कहानी द रियल थिंग सात–आठ हजार शब्द. अपनी बहुत सी कहानियों को वे नॉवलेट भी कह सकते थे मसलन टर्न ऑफ़ द स्क्रू, द बीस्ट इन द जगंल. एक तो इस वजह से वे‘शार्ट स्टोरी’ नहीं इस्तेमाल करना चाहते थे. कहानी की परिभाषा जो एडगर एलन पो ने दी, कहानी वो जो एक बैठक में खत्म हो सके, तो जेम्स जानबूझकर पो की प्रतिक्रिया में, जो उन दिनों चलन भी था पत्रिका में आदर्श कहानी पांच-छः हजार शब्दों की मानी जाती थी जैसा हमारे यहाँ अभी भी है, उसे तोड़ रहे थे. शब्दों के लिहाज़ से.
दूसरा, उनकी स्टाइल इतनी डिमांडिंग है कि आप एक बैठक में उनकी कोई कहानी नहीं खत्म कर सकते.
‘टेल्स’ को चुनने में मेरा कोई इनोवेशन नहीं था. उन्होंने ख़ुद ही इसे परिभाषित करते लंबे निबंध लिखे थे. पहली बार अंग्रेजी में किसी बड़े लेखक ने कहानी और उपन्यास पर आलोचना लिखी, सिद्ध किया लघु गल्प या टेल में भी किसी उपन्यास जैसी संश्लिष्टता पैदा की ला सकती है. कहानी के लिये उनका प्रत्यय हमारे गल्प के नजदीक ठहरता है.
यह दस्तूर कि कहानी एक ही फर्राटे में लिख दी या पढ़ ली जाये, ऐसी कहानियों को वे ऐनकडोट कहते थे. मैंने अपनी किताब में भी पैराबेल्स और ऐनकडोट्स का ज़िक्र किया है जो आकार में छोटी और संश्लिष्ट भी नहीं हैं, एकरेखीय कहानियाँ ओ हेनरी, पो सरीखी कहानियाँ. जेम्स ने ऐनकडोटिक कहानियाँ भी लिखीं लेकिन उनकी महानतम कहानियों– द फिगर इन द कारपेट, द बीस्ट इन द जंगल, द जॉली कार्नर- में उपन्यास सरीखी संश्लिष्टता है. कई चीजों को उन्होंने कहानी से शुरु किया, उपन्यास पर खत्म किया.
आप उस किताब में लिखते हैं कि जेम्स का गल्प कहानी की संकीर्ण विधानावली का अतिक्रमण कर जाता है. आपकी खुद की कहानियों में फेबल सरीखा तत्व वहीं से उभरा?
कहानी में मैंने थोड़ी देर से प्रयोग किये लेकिन उपन्यास में शुरु से ही सचेत था. उसका बचपन के दो ड्राफ्ट लिखे, पहला निरा यथार्थवादी जिसमें परिप्रेक्ष्य का बड़ा चित्रण था, उस कस्बे, वर्ग का. फिर लगा मैं तो वही लिख रहा हॅूं जो नहीं लिखना चाहता था, मैं जेम्स की तरह भी नहीं लिखना चाहता था. जेम्स से मैंने ग्रहण किया कि उपन्यास भी कला है. उसमें कुछ भी भूसे की तरह नहीं डाला जा सकता, हांलांकि उस तरह भी महान उपन्यास लिखे गये हैं. मैंने उनसे स्टाइल, संश्लिष्टता, भाषा, रूपक, मैटाफर्स और फैबूलेशन की गुंजाइश तो सीखी लेकिन उन जैसा फैलाव मेरे लेखक के स्वभाव के अनुकूल नहीं था.
मैंने नैरेटिव को तोड़ने की कोशिश की. ढांचे को ले सचेत तो हूँ लेकिन निरा नियंत्रित ढांचा नहीं देना चाहता. संगीत की लय और चित्रकला के विन्यास पर मेरा आग्रह निरंतर रहा. काला कोलाज मसलन.
मेरी कहानियों में फेबुलिस्टक या पैराबेल सरीखे तत्व तो हैं. मेरा दुश्मन और उसी थीम पर तीन कहानियां मैंने लिखीं. डॉपलगैंगर या आल्टर इगो जिसे मनोहर श्याम जोशी ने हमजाद कहा है कई स्थलों पर आता है- मेरा कोई दूसरा घूम रहा है. लेकिन मेरी टेल्स जेम्स सी नहीं.
शुरुआत में तो मैंने ऐनकडोट मसलन उड़ान, बीच का दरवाजा लिखीं. बाद की कहानियाँ लीला, प्रवास गंगा जिनमें दस्तूरनुमा ढांचा नहीं हैं, इनके किरदार भी खंडित हैं, नैरेटिव भी. पाठक खुद ही पढ़ लीला को बाँधेगा कहाँ से खत्म करे कहाँ शुरु. नर नारी में भी नैरेटिव की निरंतरता को तोड़ा है. बिमल में फिर भी एक खास किस्म का आख्यान है जो उसके दिन के साथ चलता है- समाधि, स्थिति. काला कोलाज, माया लोक, नर नारी में खंडित है. दूसरा न कोई, दर्द ला दवा में लंबा मोनोलॉग है.
मेरी कहानियाँ एकदम संयमित होती है, निर्मम इकॉनमी. ऐसा नहीं कि थोड़ा डायलाग भी हो, माहौल हो, चुस्की चाय की भी चलें. उसमें सांकेतिकता होती है. मेटाफोरिकल ढांचा.
फॉर्म के साथ प्रयोग शायद आपके बोध में आये परिवर्तन को भी लक्षित करते हैं. उसका बचपन के बहते हुए नैरेटिव के बाद जब आप काला कोलाज में ढांचे को तोड़ते हैं तो सृष्टि के प्रति आपकी दृष्टि बदल चुकी होती है.
वेस्टेज तो अभी भी मेरे काम में बहुत कम है. रैटॉरिक तो है लेकिन उसका खास मकसद है. कोई वाक्य कहना, उसका क्षिद्रान्वेषण करना, उसे कई तरह से कहना, उसका ही खंडन करना. कई चीजें जो उस वाक्य में नहीं आ सकतीं, वे और उनका उलट भी आ जाये.
लेकिन ऐसा नहीं कि प्रत्यय पहले बन गया हो, लिखते–सोचते ही फॉर्म बनती है. ऐसा नहीं मैं स्पांटेनिटी का ख्याल नहीं करता, लेकिन फिर जो मन में आये जरूरी नहीं उसका कोई स्वरूप भी बने… रूप लिखने की प्रक्रिया में ही अर्जित होता है. ऐसा नहीं कि ये ख्याल करूँ कोई बड़ा तीर मारना है फॉर्म में लेकिन पचास साल से ज्यादा हुआ काम करते और कोशिश यही रहती है अपने को दोहराऊँ नहीं. ये कोशिश दोहरावों को रोकती है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं कर पाती. आखिर लिख तो मैं ही रहा हॅूं. उसका बचपन के कई तत्व मसलन बीरू, कुछ लोगों का कहना है बीरू ही बिमल है, वही मेरा दुश्मन का नैरेटर है. या सिमिलीज और मैटाफर. हैमिंग्वे के काम में उपमायें होती ही नहीं. न कोई विशेषण न उपमायें. मेरे यहाँ विशेषण भी हैं, रूपक भी, तुलनायें भी. जिन्हें आप होमॅरिक या एपिक सिमिलीज भी कह सकते हैं. इकॉनमी के साथ यह भी है.
रूपक महज लेखन के दौरान नहीं हैं, किसी की शक्ल मसलन देखूं तो तुलना करता रहता हूँ इसकी नाक इस तरह की है. कोई दृश्य मुझे किसी और दृश्य की याद दिलाता है. मैं दृश्य को अनुभूत करता ही सिमिलीज और मैटाफर्स में हॅूं.
निरंतरता तो है. स्टायलिस्टिक और थीमेटिक निरंतरता तो है. भूख, गरीबी, भौतिक अभाव बार बार आते हैं. काला कोलाज में ऐसे कई दृश्य हैं जिन्हें बहुत कम लोग देख–बर्दाश्त कर पाते हैं. इनका चित्रण यथार्थवादी तरीके से नहीं होता लेकिन इनका यथार्थ मारक है क्योंकि प्रगतिवादी तो सैंसर कर देते हैं, पांयचे पकड़ चलते हैं. दूसरे, बीरू की तड़प और तलाश कई रूप लेती है. कॉमिक और ट्रैजिकॉमिक रूप भी. समाधि लगाने की कोशिश भी करता है लेकिन लगती नहीं. या ऐसे सवाल कि हम कहाँ से आये, कहाँ जा रहे हैं.
मैं आपके सवाल का जवाब नहीं दे पा रहा कि पहले फॉर्म बदलती है या दृष्टि.
मेरे लिये फॉर्म अपने विषय को तलाशने–तराशने का साधन है.
फॉर्म के जरिये ही मैं अपने विषय तक पहुँचता हॅूं. कच्चा विषय तो बतौर अनुभव या किसी और रूप में मेरे अंदर होगा ही लेकिन जब तक फॉर्म न मिले तो कुछ नहीं. मसलन नर नारी जिसका एक तत्व स्त्रीवाद है कि मैं स्त्रीवादी चेतना को विकसित करने का प्रयास कर रहा हॅूं. एक सचेत और असचेत नायिका है. लेकिन मैं यह उस तरह नहीं लिख सकता जिस तरह हिंदी में नब्बे फीसद उपन्यास लिखे जाते हैं, एक फार्म जो अब घिस चुकी है. जब तक मुझे नहीं सूझता अपने किरदार के भीतर कैसे जाऊँ कुछ नहीं होने पाता. मसलन स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस बार बार इस्तेमाल करता हॅूं. अगर मुझे ऐसी फ्रैगमैंटिड फार्म न मिलती तो उस तरह का उपन्यास इतना अच्छा न लिख पाता.
फॉर्म अगर जरिया है भी तो कोई प्रस्थान बिंदु तो होगा ही जहाँ से शुरु करते हैं आप?
मोनोलॉग शायद जरिया है एक. उसका बचपन में भी कई ऐसे बिंदु हैं जहाँ बीरू अकेला है, स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस नहीं वहाँ लेकिन बीरू अपने ख्यालों में है. गुजरा हुआ जमाना में भी लंबा ड्रीम सीक्वेंस है, स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस का तत्व है. प्रथम पुरुष नैरेटिव या एक खास प्वांइट ऑफ़ व्यू से देखने की मैंने कोशिश की है. प्वांइट ऑफ़ व्यू पर जेम्स ने बहुत अधिक बल दिया है वे प्रथम पुरुष नैरेटिव के खिलाफ थे. जबकि मुझे लगता है प्रथम पुरुष नैरेशन में भी वही संयम हासिल किया जा सकता है जो जेम्स चाहते थे. गुजरा हुआ जमाना में वैसा संयम है भी.
तो दो तीन युक्तियाँ हैं जो मैं बार बार इस्तेमाल करता हूँ भले ही उपर से लगे एकदम नया प्रयोग हो रहा है. मोनोलॉग, स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस, प्रथम पुरुष नैरेटिव. आख्यान खंडित करने का प्रयास. नर नारी, मायालोक और काला कोलाज. एक नौकरानी की डायरीमें फिर से वापस गया हॅूं, डायरी कई लोगों ने लिखीं हैं. लेकिन मैंने डायलॉग से परहेज किया. प्रयास यह रहा है कि चेतना का जन्म हो, नायिका डायरी लिखती है और उसे रस आने लगता है. वह डायरी में अपने को पाना चाह रही है. यह भी था कि शायद मैं एक सरल सा उपन्यास लिखना चाहता था. अंत का उजाला और इस डायरी को लिखने में अजीब सी आसानी रही.
प्रथम पुरुष नैरेटिव आपको अपने किरदारों से कहीं गहरे जोड़ देता है शायद. एक आत्मीयता.
प्रथम पुरुष नैरेटिव की सीमायें भी हैं. उसमें टॉलस्टाय जैसा विस्तार, कैनवास नहीं आ सकता. लेकिन यूलिसिस प्रथम पुरुष नैरेटर का ही रूप है. उसमें तीन नैरेटर है और प्रमुख स्टीफन डैडलस ही है. आत्मीयता तो रहती है लेकिन इंटैंसिटी भी आती है. उसमें बिखराव की गुंजाइश कम है. जेम्स हांलांकि इसके विपरीत थे, कहते थे फर्स्ट पर्सन इज कंडैम्ड टू द फ्लूयिडिटी ऑफ़ सैल्फ रैविलेशन.
उनकी मान्यता को मैंने हार्वर्ड में चुनौती दी. द अंबैसेडर्स के एक सफे का विश्लेषण कर बताया कि अगर जेम्स उसे प्रथम पुरुष में लिखते तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता.‘वह’ के बजाय ‘मैं’ कर दो. काम्यू का आउटसाइडर भी प्रथम पुरुष में है और बड़ा ही सघन है. जेम्स ने पहले ही समूची वेस्टेज हटा दी है. प्वांइट ऑफ़ व्यू और उसकी पकड़ इतनी जबरदस्त हो कि आप एक ही नायक की आँख से सब कुछ घटित होता देख रहे हैं तो फिर प्रथम पुरुष में क्यों नहीं.
मैंने प्रथम पुरुष क्यों चुना? उसका बचपन में प्रथम पुरुष नहीं लेकिन आँख वही है. प्रथम पुरुष सघनता के अलावा मैंने इसलिये भी चुना कि उसमें एक सैल्फ–कांशस नायक या प्रतिनायक जो आत्मसजग है, अपनी हर हरकत देख–परख रहा है, हर वाक्य छान रहा है. दूसरा, यथार्थवादी रूढ़ियों के प्रति मेरा विद्रोह —- कि थोड़ा माहौल हो ही. उसका संकेत करना काफी है. मसलन एक नौकरानी की डायरी. उसमें उसके जीवन का संकेत पूरा मिलता है.
उसका बचपनके बाद लम्बे अरसे तक कथा लगभग न्यून रही आती है आपके यहाँ. न्यून गल्प दो तीन दशकों तक चलता है फिर सहसा गल्प का विस्फोट. बदचलन बीवियों का द्वीप.
कथा तो रही लेकिन घटना पर आधारित नहीं. मायालोक में कई कहानियां हैं. काला कोलाज में दृश्य. बिमल में भी कहानी है. कहानी को तोड़ने की कोशिश है, खंडित करने की. दूसरे, बदचलन बीवियों का दीपकथासरित्सागर की कहानियों पर प्रयोग ही था, कथा के रस को हासिल करने के लिये. तथाकथित पोस्टमॉडर्न तत्व भी लाये. वो विस्फोट तो संयोग से ही हो गया. मन में था शायद अर्से से. लेकिन आप इन्हें मूल से तुलना करें ये एकदम नयी कहानियां हैं. मैंने कथासरित्सागर से खेला भर है.
ये खेल का तत्व मेरी फॉर्म में है. स्टाइल में, शिल्प में भी. खिलवाड़ नहीं, जो हल्का शब्द है. खेल. लीला. शाब्दिक व शैल्पिक लीला.
खेल के साथ शरारत भी शायद. फॉर्म ही नहीं मिजाज में भी. दो किरदारों वाले नाटक अंत का उजाला का पाठ मसलन. आप उसे पढ़ रहे थे और शुरु में ही कह गये थे, शायद किसी शरारत के ही तहत, बजाय किरदारों का नाम लेने के पहले पात्र पर दांये हाथ की तर्जनी उपर उठायेंगे, दूसरे पर बांये की. मैं दर्शकों के बीच था, पूरा समय मेरा यही ध्यान रहा कौन सी उंगली अब उठी है, कौन सी उठने जा रही है. तुर्रा यह बीच–बीच में गलत उंगली भी उठ जाया करती थी. शायद शरारत ही. (वैद ने इस नाटक का पाठ दिल्ली में किया था. यहाँ उसी पाठ का उल्लेख है.)
हाँ. शरारत. हमारे यहाँ बहुत है. कृष्ण की लीला. माखन चोर. चीर हरण.
नैरेटिव की जड़ता कि कोई आरंभ, मध्य, अंत हो, इसे तो तोड़ना चाहिये. ये आशंका कि खेल से उसकी गंभीरता खत्म हो जाती है गलत है. भूख के साथ खेलना मसलन, भूखकुमारी का दर्द उस कहानी में उतना ही शायद उससे कहीं अधिक सशक्त है. उसे एक स्वप्न में पिरो दिया गया है.
काला कोलाजमें दोहरी माई का किरदार. जिन उपन्यासों में भूख ठस तरीके से चित्रित की जाती है मैं तो जरा भी प्रभावित नहीं होता. इतना शोषण होता दीखता है जनवादी लेखन में लेकिन कोई असर नहीं होता उसका. वो जड़ फार्म है, इतना फूहड़ तरीका है.
भूख कुमारी के साथ एक शाम. यह एक रोमानी सी कहानी नहीं है? मध्यमवर्गीय नायक अपने अपराध बोध को छुपाने के लिये एक काल्पनिक किरदार गढ़ देता है, एक फितूर.
इसमें फंतासी है, रोमानियत नहीं. मैंने उस लड़की को रोमान्टिसाइज नहीं किया है, उसे एक ऐसी चेतना जरूर दी है जो आम लेखकों की दृष्टि में अयथार्थवादी होगी. मेरा यह मानना है कि बच्चे किसी भी वर्ग के हों, बड़े ही संवेदनशील हो सकते हैं. बीरू, एक नौकरानी की डायरी की नायिका, भूख कुमारी. इनमें यह क्षमता है कि वह किसी चीज को समझें और उस पर संवेदनशील प्रतिक्रिया करें. संवेदनशील होना और अतिभावुक होना दो अलग चीजें हैं. अगर मैं उसे अधिक सैंटीमैंटल बनाता या उसकी झौंपड़ी या उसके कचरा बीनने को खूबसूरत तौर पर पेश करता तो वह रोमानी लगती. नायक–लेखक और लड़की का रिश्ता सांकेतिक ही रहा आता है. वह रोज सैर को जाता है लेकिन एक खास जगह से लौट आता है. उस जगह से आगे जाने का मतलब किसी दूसरे प्रदेश में प्रवेश है. आज उसने हिम्मत की है और वह वहाँ चला गया है. इसमें फंतासी का तत्व तो है लेकिन यह एक अच्छी बात ही कही जायेगी, अगर सिद्ध हो जाये तो, कि नायक और लड़की के संवाद को एक दूसरे स्तर पर ले जाना जो स्वप्नलोक भी हो सकता है. मसलन एलिस इन वंडरलैंड की फंतासी जो यथार्थ से उलट नहीं, यथार्थ तक पहुँचने का ही एक तरीका है.
वह पहुँचता तो है यथार्थतक लेकिन यह बोध बना रहता है किवह लड़की उसका ही ख्यालहै, उसका ही अपराध बोध है जिससे मुक्ति के लिये उसने उसे गढ़ दियाहै.
अगर इस तरीके से पढ़ें कहानी को तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तो भी वह फंतासी रहेगी. अपराध बोध कि वह भूख के अनुभव से दूर हो गया है, या भूख के यथार्थ का सामना नहीं कर रहा, यह पाठ भी उस कहानी में निहित है, तो भी उस नायक की रूमानियत नहीं झलकती, अपने अपराध बोध से साक्षात्कार का एक नया तरीका झलकता है कि उसने इस लड़की को रच दिया है, खुद को चेतावनी–चुनौती देने के लिये इस लड़की को ईजाद कर लिया है. यह कहानी पूरी तरह तो यह इजाजत नहीं देती कि आप इसे सिर्फ एक फंतासी के तौर पर पढ़ें कि वो लड़की है ही नहीं, उसके दिमाग का ही प्रोजैक्शन है. नहीं. उस लड़की में ऐसी खूबियां हैं, ऐसे फीचर्स हैं जो उसे एक ठोस लड़की भी बनाते हैं और एक प्रतीक भी. उसके अपराध बोध का एक प्रतीक.
जब आप इसे लिख रहे थे तो आपके ज़ेहन में यह दोनों संभावित व्याख्या थीं?
लिखते वक्त तो बहुत कुछ नहीं भी होगा, बहुत कुछ और भी होगा. लेकिन लिख चुकने के बाद जो उसमें आ सका है, आ चुका है, उसकी मल्टीप्लिसिटी इसलिये ही कायम रहती है क्योंकि वह यथार्थवादी रूढ़ियों से हटती है. इसी वजह से उसमें यह संश्लिष्टता या संभावना आती है कि आप उसे एक से अधिक तरीके से पढ़ सकें.
आप यथार्थवादी फॉर्म का विरोध करते हैं कि यह ठस, घिस चुकी है. आप भी तो लेकिन वही गिनती के तकनीकी औजार प्रयोग कर रहे हैं— मोनोलॉग, स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस, प्रथम पुरुष नैरेटिव.
यथार्थवादी रूढ़ियां जिन बातों पर जोर देती हैं कि संदर्भ विस्तृत हो, किरदार का पूरा नक्शा विस्तार किया जाये. मुझे लगता है कि इन रूढ़ियों की अब जरूरत नहीं, इनकी अनुपस्थिति कोई दोष नहीं उपन्यास में. इनके माध्यम से जो चीजें स्थापित–प्रस्तावित की जाती थीं वो किसी और तरीके से भी हो सकती हैं. ये बंधन अगर टूट जायें तो आप ऐसी कोशिश नहीं करेंगे. टॉलस्टाय, प्रेमचंद या बाल्जाक सरीखे महान उपन्यासकार— हांलांकि प्रेमचंद उनके पाये के नहीं हैं, गाल्सवर्दी तक ही पहुँचते हैं, दरअसल यथार्थवाद की महान परंपरा उन्नीसवीं के अंत तक घिस चुकी थी. उसमें कोई संभावना नहीं बची थी. सोवियत के जमाने में लिखे गये उपन्यास उस पाये के नहीं थे. शालाखोव का क्वाइट फ्लोज़ द डॉन, हाउ द स्टील वाज टैंपर्ड— सोवियत सोशलिस्ट रियलिज्म के उपन्यास जिन्हें स्टालिन पीस प्राइज, लेनिन पीस प्राइज मिलते थे उस पाये के नहीं थे. जिस परंपरा की बात जॉर्ज लूकाच ने की है स्टडीज इन यूरोपियन रियलिज्म वो परंपरा अब घिस चुकी हैं. वे बैस्ट सैलर टाइप के लोग ही लिख रहे हैं.
कई लोग अभी भी यथार्थ को चित्रित कर रहे हैं लेकिन उसकी अभिव्यक्ति के लिये उन्होंने और युक्तियां प्रयुक्त की हैं, कुछ उन्होंने सिनेमा से लिया है, कुछ खंडित नैरेटिव, कुछ उत्तरआधुनिक डिवाइस भी ली हैं.
मुझे कोई रुचि नहीं कि मैं अपने किरदार को बाल्जाक या टॉलस्टाय की तरह चित्रित करूँ.
जो आपका सवाल कि मैं बार बार वही करता हॅूं, तो उसमें अदल-बदल होती रहती है. खंडित नैरेटिव में कई गुंजाइश हैं, सिनेमा के मोंताज में भी, मोंताज हांलांकि बहुत पुरानी चीज हो चुकी है. संगीत से तुलना करें तो उससे फॉर्म में लय आ जाती है. सही है, अगर ये चीजें भी सौ–दो सौ साल तक चलती रहीं तो कुछ और ढूंढ़ना पड़ेगा. लेकिन इन चीजों के बदलने से आपकी शैली एकदम बदल जाती है.
निर्मल या वात्सयायनजी का जिक्र करें तो उनके उपन्यासों में कुछ और चीजें आयीं हैं, भाषा और शैली के स्तर. लेकिन संरचना के स्तर वे रोमांटिक रियलिज्म तक ही पहुँचते हैं. उससे आगे नहीं बढ़ते. मसलन सूखाऔर कव्वे और काला पानी. निर्मल की गति इसलिये ही मंथर होती है कि उन्हें हर चीज जरूरी दिखती है- मौसम, चढ़ाई चढ़ता नायक… क्योंकि वे जाने अनजाने वही विधियां इस्तेमाल कर रहे हैं.
ये दावा नहीं है कि जो यथार्थवाद को नकार रहा है वह पूरी तरह से नकारता है. नाम देने पड़ते हैं, हांलांकि मेरे किरदारों के कई बार नाम नहीं होते. न ही ये दावा है कि जो दूसरा रास्ता अख्तियार किया मैंने वह हमेशा तरोताजा ही रहेगा. दरअसल अभी तक हम जॉयस से आगे नहीं बढ़ सके. वे एक ऐसे चरम बिंदु तक ले गये गद्य और ढांचे को खासतौर पर फिनिगंस वेक में कि उससे आगे अंग्रेजी का कोई उपन्यासकार नहीं जा पाया है.
ये भी मानना पड़ेगा कि अगर आप जॉयस के बाद के महान उपन्यास गिनें तो वे लोग उन्नीसवीं सदी के महान यथार्थवादी उपन्यासों से भिन्न हैं. रश्दी को लें, भले ही महान न सही वे उल्लेखनीय तो हैं, एलियास कनेटी एकदम अलग हैं. फॉकनर ने स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस का अपने तरीके से इस्तेमाल किया.
यानि आप मान रहे हैं कि रियलिज्म में भी संभावनायें हो सकती हैं.
हाँ, लेकिन वे संभावनायें कमजोर ही होंगी जब तक आप उनमें कुछ नया नहीं तलाशेंगे. मसलन वर्जीनिया वुल्फ अपने पितामह गाल्स्वर्दी इत्यादि को नकारती हैं, अपनी राह बनाती हैं. उन्होंने कहा ऑन ऑर अबाउट डिसेंबर1910 ह्यूमन कैरेक्टर चेंज्ड और द एक्सैन्ट फाल्स हियर एंड नॉट देयर.
एक ओर तो निर्मल वुल्फ का बारबार गुणगान करते हैं, लेकिन उनके और वुल्फ के उपन्यासों में फर्क यह है कि यथार्थवादी ढांचे को उन्होंने तोड़ा— मिसेज डैलोवे में भी, टू द लाइटहाउस में भी. उनके शुरुआती उपन्यास भले ही यथार्थवादी थे लेकिन वे उस ढांचे को छोड़ती गयीं. स्वप्न का ढांचा ले सकते हैं. मैंने मायालोक में प्रयास किया कि स्वप्न सरीखा ढांचा बुन दूँ. मैं ये नहीं कह रहा कि कोई बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिये लेकिन हमारे संदर्भ में देखें तो बहुत कुछ भिन्न किया मैंने.
यथार्थवादी तरीके से भी उत्कृष्ट काम किया जा सकता है लेकिन मैं उस उत्कृष्ट को कोष्ठक/इनवर्टड कोमा में रखूँगा क्योंकि वहाँ वही बैस्टसैलर सरीखा काम हो रहा है जो कहानी, प्लाट की रट लगाते हैं. इसके साथ अतिभावुक, रुलाने वाला आर्द्र भी काम हो रहा है भीगा भीगा है समां वाला.
इस बहस को कितना ही खींच लें लेकिन जिन लोगों के मन में यह बस जाता है कि जो यथार्थवाद का विरोध कर रहा है वह यथार्थ का भी विरोध करता है कि यथार्थ को पकड़ने कि लिये यथार्थवाद बहुत जरूरी है. मैं समझता हूँ कि यथार्थ की कोई भी परिभाषा हो, बाहरी या आंतरिक, उसे पकड़ने के लिये भी फिलहाल तो यह जरूरी है ही कि उसे पकड़ने के लिये हम यथार्थवादी रूढ़ियों से दूर जायें. फिर परखिये पचास सौ साल बाद.
साहित्य और कला में प्रगति नाम की कोई चीज नहीं होती. आप पिछले को नहीं नकारते. कोई बेवकूफ ही माइकिल एंजेलो को नकार सकता है, भले ही पिकासो माइकिल एंजेलो जैसा नहीं रचेंगे, उनसे जो लेना है ले लेंगे.
कहानी तो माना कि आप अपने लिये ही लिख रहे हैं, पाठक ध्येय या उद्देश्य नहीं. लेकिन नाटक तो अनिवार्यतः दर्शक और मंचन के लिये है. आपने नाटक भी लिखे हैं. इन दोनों की रचना में कोई फर्क कहीं?
नाटक को भी उसी तरह लिख सकते हैं आप लिखते समय अपने को न डरायें कि यह मंचित हो पायेगा या नहीं, दर्शक इसे समझेगा या नहीं. कई महान नाटक भले शेक्सपियर के हों, चेखव या बैकेट के, उनमें कोई बंदिश नहीं. क्या शेक्सपियर अपने ऑडियंस को ध्यान में रखता था, रखता होगा लेकिन महानतम रचनात्मक लम्हों में वह उन्हें भूल जाता था. यह नहीं सोचता था वो उसके साथ उड़ेंगे या नहीं, लेकिन वो उड़े. अपना महानतम काव्य वह हैमलेट, किंग लियरमें नहीं लिख पाता अगर वह सोचता यह एलिजाबेथियन ऑडियंस को समझ आयेगा या नहीं. उसने अपने आपको पंगु नहीं बनाया होगा तभी वह इतना उॅंचा उड़ सका, टैंपेस्ट जैसा नाटक लिख सका, भाषा को मुक्त कर सका. सही है वह एक उत्कृष्ट अभिनेता भी था और यह समझ थी कि उसे दर्शकों को भी खुश करना है लेकिन अपने महानतम लम्हों में उसने उन्हें खुश नहीं किया. टू बी ऑर नॉट टू बी लिखते समय वह भूल गया कोई इसे समझेगा या नहीं.
फिल्म लें. फिल्म से ज्यादा ऐसी कोई कला नहीं जो दूसरों पर निर्भर होती है. लेकिन जिन लोगों ने महान फिल्म बनायी है, तारकोवस्की ने नहीं सोचा होगा स्टॉकर कोई देखेगा या नहीं. नाटक को कला के प्रतिमानों पर लेना है तो उसे इन्हीं शर्तों पर उतरना होगा. बैकेट ने नहीं सोचा होगा उसके नाटक सफल होंगे, दर्शक को समझ आयेंगे या नहीं. नाटक के लिये भी अनकंप्रोमाइजिंग दृष्टिकोण बहुत जरूरी है. उसके लिये जोखिम उठाना ही चाहिये. हमारी बुढ़िया, जिसका मंचन नहीं हुआ अभी, भूख आग है से ज्यादा मुश्किल और जोरदार है.
पाठक का हौआ, पाठक को हौए के तौर पर इस्तेमाल नहीं करना चाहिये. इस हौए को प्रगतिवादी लेखकों ने बनाया है, इससे साहित्य को बहुत नुकसान पहुंचा. भाषा ऐसी सबकी समझ आये- ये गलत है. यह व्यवसायिक और नीरस लेखन को जन्म देता है. वे सोचते हैं समाज का उत्थान कर रहे हैं. वही पुराने शोषण के दृश्य, जिनमें न कोई कंपकंपी होती है न अनुभव की शिद्दत न ही सौंदर्य. अखबारी सी सूचनानुमा बात होती है.
आप लिखते वक्त कहीं अटके हों, किसी फिल्म को देखते या किताब पढ़ते या किसी दृश्य से गुजरते आपको कुछ कौंध जाये और आपका अटका उपन्यास फिर चल पड़े भले ही उस किताब या दृश्य का आपके अधूरे उपन्यास से कोई संबंध न हो. ऐसा होता है आपके साथ?
यह तो क्रिएटिव प्रोसेस ही है. आप कई चीजों से उकसाये जाते हैं. अक्सर होता है मेरे साथ कुछ ऐसा जिसका कोई ताल्लुक नहीं है जो आपके मन में चल रहा है उससे. यह किसी याद से भी हो सकता है, दृश्य से भी. सड़क पर चलते हुये, कार चलाते हुये, किसी से बात करते हुये. कई ख्याल अकेले में ही आते हैं एकाग्रता बांधने से. कई तरीकों से दस्तक देती है प्रेरणा.
जो चीज उपर से असंबद्ध लगती है किन्हीं अन्य स्तरों पर उसका संबंध होगा. प्रूस्त का उपन्यास शुरु होता है नायक मैडलीन बिस्कुट चाय में डुबोता है तो उसे कई चीजें कौंध जाती हैं जिसका उस डुबोने से कोई संबंध नहीं है. जो चीज ट्रिगर करती है उसका कोई संबंध परोक्ष सही जरूर होगा. अवचतेन स्तर पर हो. फ्रायड ने कह तो दिया अवचेतन कार्यरत रहता है. ऐसे स्वप्न आते हैं जिनकी आपने कभी कल्पना ही नहीं की होगी. दिमाग बड़ा ही जटिल सयंत्र है, चेतना का ताल्लुक बताते हैं दिमाग से है.
कुछ ऐसे बिंदु होंगे जहाँ आपका उपन्यास अक्सर अटकता होगा.
जब लिखना शुरु किया था मुझे प्लाट कभी पसंद नहीं आया. फिर मैंने प्लाट छोड़ ही दिया. प्लाट की जगह शुरु में किरदारों ने ली, फिर एंबियेंस ने. एंबियेंस जो परिवेश से भी सूक्ष्म है. अगर मैं प्लाट में फंसू तो भटक जाउॅगा. अंत कभी मुझे तंग नहीं करता. जरूरी नहीं मैं कोशिश करूँ अंत में सब कुछ समेट लिया जाये. अगर रचना अनफिनिश्ड लगती है तो भी ठीक, उसकी भी अपनी एक फॉर्म होती है. काला कोलाज को कह सकते हैं— मैंने यूँही खत्म कर दिया, छोड़ दिया. अगर नहीं रास्ता मिल रहा तो छोड़ दिया आगे कोई और चीज आ जायेगी जैसे नर नारीआ गया. उस तरह के अंत का सुगठित आदर्श जो हेनरी जेम्सियन आदर्श था मैंने छोड़ा. फार्म को ले सजग रहो लेकिन जरूरी नहीं हर फार्म बिल्कुल फिनिश्ड नजर आये. ओपन एंडेड उपन्यास भी हो सकता है उसे क्यों समेटा जाये.
कविता में भी कुछ लोगों की आदत होती है कविता की आखिरी पंक्ति उसमें सब कुछ आ जाये लेकिन आप क्यों खामख्वाह उसकी संभावनाओं को सीमित कर रहे हैं. उसे खुला ही रहने दीजिये. कुछ चित्र, स्वामी के कई चित्र मुझे अनफिनिश्ड लगते हैं, रामकुमार के नहीं. अनफिनिश्ड चित्रों में वैसी ही कभी कभी उससे ज्यादा शक्ति नजर आती है. बी राजन. बड़े भारी मिल्टन स्कॉलर. फॉर्म ऑफ़ द अनफिनिश्ड लिखी. बहुत प्यारी किताब. उन्होंने अंग्रेजी से उदाहरण लिये. मैंने उनसे कहा था काफ्का के भी उपन्यास लिये जायें वे भी अनफिनिश्ड हैं. और वे महान हैं. कुछ चीजें खत्म होने से ही इंकार कर देती हैं. हमें इसे स्वीकारना चाहिये.
आप किसी दृश्य से गुजरते, उद्वेलित होते हैं, क्या यह भी तय करते हैं कहीं प्रयोग करेंगे इसका और घर आ उसे डायरी में दर्ज कर लेते हैं?
अलग है मेरा तरीका. अगर दर्ज भी होता है तो मन में ही. कई बड़े अच्छे लेखक तो जैसे ही कोई ख्याल आता है कागज पर भी नहीं अपनी कमीज के कफ पर ही लिख लेते हैं. नोट्स लेकिन कई किताबों, कहानियों के लिये हैं. बिमल को लिखते हुये कई दफा नोट्स बनाये थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ फौरन फैसला कर लिया हो इसे इस्तेमाल करना है. कई बार शुरु करने से पहले डूडलिंग सी, अनकंट्रॉल्ड आउटपोर सा भी होता रहा है.
कभी ये भी हुआ है मसलन काला कोलाज जिसमें निरंतरता नहीं है, जैसे कोई चित्रकार– कभी यहाँ ब्रश कभी वहाँ. खंडों में ही लिखा, बाद में फैसला किया किसे कहाँ रखना है. मैं समझता हूँ इन दोनों उपन्यासों- माया लोक, काला कोलाज— को कहीं से भी पढ़ा जा सकता है. जरूरी नहीं आप आदि से शुरु करें और अंत पर खत्म करें.
यह तत्व बाद की कई रचनाओं में है. दूसरा न कोई, दर्द ला दवा.
अपने पुराने किरदारों को ले नॉस्टैल्जिक होते हैं? बीरू या रानीखेत की वो दोपहर जब आपने उसे लिखा था.
हाँ. गया भी हूँ वहां. कुछ ही साल पहले मेरी नातिन आयी थी अमरीका से, उसे ले गया था रानीखेत. लेकिन सबसे पुरानी यादें सबसे ज्यादा तीव्र होती हैं. कई लेखकों, मेरे जैसे लेखक के लिये, बचपन के साल ही बीज–वर्ष हैं. अक्सर सोचता हूँ जो कुछ घटना था घट गया उसी को खंगाल रहा हूँ. सबसे रोशन यादें, सबसे ज्यादा नॉस्टैल्जिक यादें उस कस्बे की हैं— डिंगा. उसके बाद का मसलन दिल्ली काफी धुंधला पड़ जाता है. किरदार तो याद आते हैं लेकिन कभी–कभी अपने लेखन को पढ़- जैसे अभी हाल ही मैंने प्रयोग किया अपनी पिछली किताबों को कहीं से भी पढ़ना शुरु कर दिया. बड़ी सुखद सी हैरानी होती है ये मैंने लिखा था. गद्य लेखक को तो वैसे भी वाक्य याद कैसे रहेंगे. कवि को कवितायें, शायर को तो सारा दीवान याद होता है. अपने को पढ़कर हैरान होना अच्छा लगता है. अपने से लिहाज भी होता है, ईगो भी संतुष्ट होता है शायद. और ये मैंने हाल ही में शुरु किया. मैं भूलता जा रहा हॅूं.
फर्ज करो मैं लीला पढूं तो कुछ याद नहीं आता कब किस हालत में क्या गुल खिलाये हैं मैंने.
याद से मुझे याद आया, पता नहीं मेरे साथ ही है या सबके साथ, सुबह का लिखा शाम को पूरी तरह याद नहीं रहता.
इससे ईगो संतुष्ट होता है?
एक खुशी कि बी योर ओन रीडर. पहले हिचक भी होती है अपने को क्यों पढॅूं, अपने को पढ़ने का, अपनी तस्वीर देखने का क्या मतलब हुआ. लेकिन तस्वीर का उदाहरण गलत है. लिखा हुआ भूल जाते हैं खासतौर पर जब किसी लेखक की तथाकथित ताकत भाषा में हो और वह भाषा के तथाकथित चमत्कार भूल जाये. तो मैंने सोचा इसे करके देखूं. गुजरा हुआ जमाना मैंने सिरहाने रख ली, उसकी वजह भी थी आनी मांतो उसका फ्रैंच में अनुवाद कर रही हैं, तो मुझे लगा यह तो काफी सुखद है, एक तो काफी समय हुआ उसे लिखे. ईगो इस अर्थ में कि पढ़कर सुखद हैरानी हो जो मैंने लिखा था वो बुरा नहीं है.
हाँ. खुफिया खुशी.
भारतीय लेखक जब यूरोप जाता है कहानी, कविता और नहीं तो दो–चार संस्मरण ही लिख लाता है. भरमार है यूरोप-केंद्रित लेखन की, उस महाद्वीप से हमारे बौद्धिक संवाद की. निर्मल का भारत और यूरोपः प्रतिश्रुति के क्षेत्रों में मसलन. इसके बरअक्स अमरीका हमारे सरोकारों से एकदम गायब है. कोई दंभ है यहाँ ? आपके लेखन से भी अमरीका गायब है.
मुझे संस्मरण लिखने की ललक नहीं रही. डायरी जो मैं लिखता रहा उसमें भी जो कुछ पढ़ा उसके बारे में लेकिन वो भी विस्तार से नहीं. मसलन रमेशचंद्र शाह लिखते हैं तो पूरा निबंध लिख देते हैं. सही है मैंने अमरीका पर ज्यादा नहीं लिखा, एक कहानी है बस, क्यों नहीं लिखा मालूम नहीं. आपका जो सवाल है वो मुझ पर तो लागू नहीं होता. मेरे न लिखने का कारण मेरा टैंपरामेंट है. कभी कभी ही मैं जहाँ भी जाता हूँ वहाँ के बारे में लिखता हूँ. मसलन वेनिस न गया होता तो वेनिस में वैराग्यन लिखता. लेकिन मैं अपने अतीत को ही खोदता हूँ.
आपके प्रश्न को मैं इसी वक़्त ही सोच रहा हॅूं. एक तो स्नॉबरी का तत्व है. यूरोप में मसलन निर्मल, अशोक वाजपेयी की तो दिलचस्पी है लेकिन वे अमरीका को समझते हैं घटिया मुल्क है. है नहीं जबकि. साहित्य को ही लें. जिस तरह के उपन्यास उन्होंने पैदा किये- हेनरी जेम्स, मैलविल, फॉल्कनर, हैमिंग्वे. बौद्धिक स्तर पर उन्होंने कोई कम काम नहीं किया. शरण दी अनेक महान लोगों को. उनकी उपलब्धियां कम नहीं हैं लेकिन एक पूर्वाग्रह जो उनके खिलाफ है कि निपट भौतिकवाद का, डॉलर नियंत्रित देश है. कोई इतिहास नहीं है. हेनरी जेम्स ने ही पूरी सूची बना दी थी कोई कैसे अमरीका में उपन्यास लिख सकता है कि मैं इंग्लैंड में क्यों रहना चाहता हॅूं. अमरीका में ऑक्सफ़ोर्ड नहीं है, कैंम्ब्रिज नहीं है, कथीड्रल नहीं है, इतिहास नहीं है. कोई कैसे बिना इन चीजों के महान उपन्यास लिख सकता है.
नहीं है यह सब. महान उपन्यास फिर भी लिखे गये. मोबी डिक महान कृति है. हाथ्रोन का द हाउस ऑफ़ सेवन गेबल्स भी महान है. कई चीजों के बगैर भी महान उपन्यास लिखे जा सकते हैं. लेकिन हम यूरोप से ज्यादा अपने को जोड़ कर देखते हैं.
दूसरा न कोईअमरीका के परिवेश को छूता था. कोई अबैंडैंड/उजाड़ कस्बा.
हाँ. लेकिन दूसरा न कोई का कस्बा अमरीका के उन उजाड़ कस्बों में से नहीं था जिन्हें लोग किसी महामारी या संसाधन खत्म हो जाने की वजह से छोड़ कहीं और बस जाते हैं. वह यूनिवर्सिटी टाउन था. बर्फ बहुत पड़ती थी. उजाड़ इसलिये जब लड़के लड़कियां छुट्टियों में चले जाते थे उजाड़ नजर आता था. निर्मल, रामकुमार वहाँ रहे थे हमारे साथ. एक दरिया भी था वहाँ. बड़ा सुंदर कस्बा था.
उपन्यास का, गल्प का कोई भारतीय स्वरूप हो भी सकता है? इसके जरिये हम गल्प को फिर से किसी तय ढांचे में नहीं बंद कर रहे?
हाँ. बिल्कुल. सजातीय फॉर्म का सवाल और खुद सजातीय फॉर्म ही अब नहीं रही. उठा था ये सवाल पहले भी. उसमें तो मैंने एक ही बात कही है कि नॉवेल या तो किसी ख्याल के प्रति ऑब्सेशन से निकला या आउटरेज से. इसकी कमी है हमारे यहाँ.
हॉलैंड में आठ–नौ साल पहले एक सेमिनार हुआ था. इंडियननैस ऑफ़ इंडियन लिटरेचर. मैंने वहाँ पेपर पढ़ा था कि इस पर जोर नहीं होना चाहिये इसमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बू आती है और फिर यह रास्ता सीधा फासिज्म की ओर जाता है. ठीक है कुछ बातें संस्कृति की खुद ही आ जाती हैं लेकिन सायास अगर कोशिश करेंगे कि दृष्टिकोण, विषय शुद्ध देशी हो तो नहीं होने पाता. हम कई जगहों से चीजें ग्रहण करते हैं जिसमें भारतीयता अभारतीयता का भेद समझ नहीं आता. मेरी कहानी बुढ़िया की गठरी इसी संदर्भ में है, पढ़नी चाहिये. नाटक हमारी बुढ़िया उसी का एक रूप है. यह कि यह हमारी भारतीयता, थाती है गलत है. निर्मल उसका शिकार हुये. उदयन इसके शिकार होते जा रहे हैं. हमारे यहाँ
सब कुछ था, शिक्षा पद्धति बहुत अच्छी थी. होगा सब कुछ, सब जगह था. बहुत सी सभ्यताओं का अतीत स्वर्णिम था.
लेकिन कोई तो ऐसा तत्व होगा. यह भारतीय लेखक, यह अमरीकी और यह तुर्क.
कुछ चीजें होंगी, होती होंगी ऐसी. लेकिन वे भी पूरी तरह इतनी शुद्ध नहीं होंगी कि कहीं और न मिलें. आखिर यह सवाल किसे नहीं तंग करतेः विज्ञान, धर्म, कला हर कोई ये प्रश्न उठाता है. दर्द ला दवा में हस्ती और नेस्ती का सवाल है. होने का सवाल अस्तित्ववाद ने उठाया, हमारे यहाँ भी उठता रहा है. दानाई की चीज तो यही.
हक्सले ने एक एंथोलोजी बनाई थी, पेरिनियल फ़िलॉसफ़ी. जिसमें उसने बहुत जगहों से हिंदोस्तान, मिडिल ईस्ट वगैरा से उदाहरण ले यह साबित करने की कोशिश की कुछ मूलभूत प्रश्न–सरोकार आबोहवा, संस्कृति के भेद के बावजूद सारी दुनिया में समान हैं. बुद्ध, जीसस, महावीर, मोहम्मद ने भी यही सवाल उठाये.
भारतीयता पर इतना जोर नहीं देना चाहिये कि आप यह कहने लगें हमसा कोई नहीं. कहीं कुछ पहले आया, कहीं कुछ बाद में. हम अपने पतन की बात नहीं करते, उसे दूसरों के मत्थे डाल देते हैं. भारतीयता की बात करते वक्त हम हिंदू की ही बात करते हैं. मुसलमानों को लिये बगैर काम नहीं चलेगा. क्या पांच हजार साल पहले जाना ही भारतीयता है? कितना भी हिंदू की परिभाषा खुली कर दें, काम नहीं बनेगा.
जो रचनाकार एक विस्तृत प्लाट रचता है उसके लिये उस प्लाट को पूर्णता तलक पहुँचाना ही अंत है. लेकिन आपके यहाँ तो प्लाट गायब होता गया है फिर आप कहाँ अंत करते हैं?
मैंने पहले भी कहा था कि काला कोलाज और माया लोक के अंत बड़े आर्बिट्रैरी लग सकते हैं. यह सवाल उठाया जाये कि अंत यहाँ क्यों हुआ, इससे दस मील बाद या पहले क्यों नहीं हुआ तो वह जायज सवाल होगा. इसलिये मैं इन्हें ओपन–एंडेड उपन्यास कहॅूगा. लेकिन मैंने इन्हें क्यों छोड़ दिया, मजाक में कहूँ तो इसलिये कि मैं तंग आ गया उससे. खासतौर पर काला कोलाज से.
लेकिन नहीं. मैंने उसमें कुछ अंत करने की कोशिश की तो है. लेकिन फिर यह भी कहा जा सकता है कि मैंने उसे यूँही छोड़ दिया.
कुछ उपन्यासकार अंत करने के लिये बहुत सी मौत दिखा देते हैं. कट्टर यथार्थवादी तो बीमारी का भी हाल बतायेंगे. ई एम फोस्टर मसलन. वे अपने किरदार मार देते हैं या शादी कर देते हैं.
मेरे इन उपन्यासों को आप अनफिनिश्ड भी कह सकते हैं. आर्बिट्रैरी भी. लेखक को यह अधिकार हो सकता है कि अगर वह समझता है कि उसने इस उपन्यास की संभावनाओं को खत्म कर दिया है, इसमें और कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें नायक तो नहीं है महज एक चेतना है, उस चेतना की कोई और परत अगर वह नहीं खोल पा रहा तो वह वहाँ उसका अंत कर दे.
आलोचक कह सकता है कि इसमें त्रुटि रह गयी है, इसका अंत अपरिहार्य नहीं है. लेकिन मैं बतौर लेखक तो यही कहूँगा कि मैं तो किसी भी अंत को इनएविटेबिल नहीं मानता. सभी अंत आर्बिट्रैरी लग सकते हैं. आप ऐसी फॉर्म में काम कर रहे हैं कि उसके कई अंत हो सकते हैं. जिन्हें हम इनएविटेबिल अंत कहते हैं वे भी नहीं होते. एक क्षण को लग सकते हैं महज. लेकिन इतना ही काफी है. कुछ लोगों को लगते हैं तो भी ठीक है. अगर मुझे अनफिनिश्ड लगते हैं तो वह भी मुझे संतुष्ट करता है. मैंने एक निबंध लिखा था— तथ्य, कथ्य, शिल्प. कहानीनुमा निबंध लिखने की कोशिश थी वह और जब मैंने वहाँ देखा कि मैं एक अंधी गली में पड़ गया हॅू तो मैंने अंत कर दिया, कोष्ठक में लिखा असमाप्य, भविष्य में समाप्य.
इसे मैं दोष नहीं मानता. इस फॉर्म में यह गुंजाइश है कि आप अंत को ओपन–एंडैड रखें.
लेकिन आपकी वो रचनायें जहाँ प्लाट है, घटनायें हैं? गुजरा हुआ जमाना मसलन. उनका अंत?
वे कम ही हैं. कहानियां तो शुरु की ही होंगी, बीच का दरवाजा मेरी पहली कहानी. गुजरा हुआ जमाना में तो एपीसोड्स ही हैं. वहाँ प्लाट नहीं है. कॉज इफैक्ट नहीं है कि पिस्तौल रखी है तो उसका इस्तेमाल होना ही चाहिये. तमस में प्लाट है कि सूअर को मारा गया फिर सब कुछ हुआ. यहाँ कई कारण हैं, कई तत्व हैं. प्लाटनुमा अंत नहीं है. दंगों की पराकाष्ठा दिखा दी गयी है. मेमने की आवाज आती है, एक प्रतीकित चीख. क्राई ऑफ़ फ्यूटिलिटी. बस खत्म
क्या यह तय था आपके जे़हन में कि यहीं अंत करना है?
हाँ. यहाँ तो मुझे लिखते लिखते दिशा दिखाई दी कि मैं मरते हुये बच्चे की आवाज चुनूँ. यह मेरे दिमाग में था कि इसे क्लाइमेक्स बनाऊँ लेकिन यह प्लाट की तरह का क्लाइमेक्स नहीं है.
कागज पर उतरते शब्द के साथ आपका क्या संबंध है? सुबह के बैठे जब आप दोपहर को उठते हैं तो सफेद कागज पर उतर आयी इबारत को देख, कि जो आपने चाहा एकदम वही शब्द मिल गया, कैसा महसूस करते हैं?
इस प्रक्रिया को शब्द देना आसान नहीं है क्योंकि यह एक ही प्रकार की नहीं होती. किसी भी लेखक की रचना प्रक्रिया हमेशा किन्हीं परिधियों में तो घूमती है लेकिन हरेक रचना के दौरान वही अमल नहीं होता जो कि पहले हो चुका है. परिवर्तन अपने आप होते रहते हैं.
दूसरे, शब्द के उतरने की प्रक्रिया भी अलग है. कई बार शब्द ढूँढने में कोई दिक्कत नहीं होती. कई बार कांट–छांट बहुत होती है. आप शब्द से संतुष्ट नहीं होते लेकिन उसे छोड़ देते हैं, बाद में कुछ और सूझ जाता है. मैं उन लेखकों में से हॅूं जो एक ही ड्राफ्ट में सब कुछ नहीं लिख पाते. जिस ड्राफ्ट में रवानी भी होती है उससे भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पाता. बहुत से लोग, मसलन अशोक वाजपेयी कवितायें भी एक ड्राफ्ट में लिखते हैं. जैनेंद्रबोल कर लिखवा देते थे. मैं ऐसे लेखकों की सराहना तो कर सकता हूँ लेकिन जब उन्हें गौर से पढ़ता हॅूं तो लगता है कहीं कुछ अधूरा रह गया है.
जब कागज पर कोई शब्द उतरता है और जो मुझे ठीक भी लगता है तब भी जरूरी नहीं कि दस दिन बाद जब उसे देखूं तो उसे बदलने की कोशिश न करूँ. कभी कभी बदलने में बिगड़ भी जाता है, लेकिन यह गलती तो आप कर सकते हैं कि किसी लिखे को संवारने की कोशिश में उसे बिगाड़ दें. लेकिन हाँ, अंतिम वाक्य या अंतिम शब्द जैसा कुछ नहीं होता. दूसरे या तीसरे ड्राफ्ट में कई बदलाव लाता हूँ. मैंने कोशिश की है कि दुबारा न लिखूं, लेकिन अक्सर कहानियां पूरी फिर से लिखता हॅूं. लिखते समय मुझे लगता है कि वो नर्वस इंटैंसिटी आती है तो उससे भी आलोक फूटता है, उससे भी कोई शब्द झर जाता है क्योंकि एकाग्रता बहुत जरूरी होती है और अगर आप बिल्कुल उसमें डूबे हुये हों तो इल्हाम की गुंजाइश ज्यादा रहती है. ऐसा कोई शब्द या दिशा मिले, कोई किरदार फूट पड़े या रोशनी मिले.
फिर भी हो सकता है मैंने इस प्रश्न का जवाब नहीं दिया हो. टका सा जवाब नहीं दे सकता मैं. हैरानी, खुशी होती है, झुंझलाहट भी होती है कभी कि पकड़ नहीं पा रहा हॅूं सही शब्द. कभी सस्पैंड कर देते हैं उस शब्द को कि प्रश्नचिन्ह लगा छोड़ दिया.
शब्द हमेशा ही अकेला नहीं आता, कई अन्य शब्दों के साथ भी आ सकता है, पूरा पैराग्राफ भी कभी.
मदाम बोवारी लिखते वक्त फ्लाबेयर को कभी कभी महज एक शब्द को ढूँढने में कई दिन लग जाते थे. यह एक सत्य का मुबालगा भी हो सकता है लेकिन इसमें सत्य जरूर है. कुछ लोग सही शब्द की तलाश में घंटों या दिनों तक तिलमिला सकते थे, फ्लाबेयर उन लोगों में थे. उस सीमा तक बहुत कम लेखक जाते हैं खासतौर पर गद्य लेखक. कवि तो कभी कभी एक शब्द के लिये बहुत छटपटाते हैं लेकिन गद्य तो लोग समझते हैं कि जो लिख दो ठीक है, महज जानकारी देनी है आपको.
इल्हाम कब, कहाँ होता है आपको?
इल्हाम के संदर्भ में बार बार डायरी में ज़िक्र किया है. दो शब्दों का ज़िक्र करता हूँ जब लिखने का संकट सामने आता है कि इसमें आमद है या आवुर्द. आमद ज्यादा है या आवुर्द. आवुर्द जो चीज लायी गयी हो, आमद जो खुद आ जाये. आमदन. आवुर्दन. जिन्हें फारसी में मसधर कहते हैं.
फारसी का सौंदर्य शास्त्र जो मैंने पढ़ा किसी जमाने में वह यही था कि आमद पर जोर होना चाहिये. आमद में इल्हाम की गुंजाइश है. आमद यानी जो उतर रहा है. शास्त्रीय संगीत में भी आमद का जिक्र है, खासतौर पर कत्थक में क्योंकि उस पर मुसलमानों का असर था. फारसी का असर था. दरबारी विधा थी वह.
आवुर्दन यानी जो कोशिश करके सायास लिखा जाये, आमुर्दन जो अनायास हो जाये. संपूर्ण आमद कभी–कभी ही उतरने पाता है किसी कृति में. मेरे भीतर बार–बार यह सवाल उठता रहता है कि किसी रचना में आमद है या आवुर्द. नर नारी लिखते समय मुझे हमेशा लगा कि इसमें आवुर्द पर ज्यादा जोर है. बिमल में आमद ज्यादा थी, उसके कुछ हिस्सों में आमद ही आमद है, आवुर्द की बहुत कम गुंजाइश है.
उसका बचपन के पहले ड्राफ्ट में आवुर्द ज्यादा थी इसलिये मुझे बहुत पसंद नहीं आया था. और यहाँ मैं फुटनोट बतौर कह दूँ कि यथार्थवादी उपन्यासों में, बड़े से बड़े उपन्यासों में आवुर्द भी रहेगी काफी. वॉर एंड पीस के कई खंडों को हम उलट जाते हैं क्योंकि उनमें आवुर्द भरी हुई है. उन्हें नहीं पढ़ा जा सकता. बेकार की डिटेल्स, इतिहास की भरमार जिसे टॉलस्टाय जिला नहीं पाते.
इल्हाम तक पहुँचने के लिये आमद का इंतजार जरूरी है.
कुछ लोग कहते हैं कि किसी ने उनसे लिखवा दिया. आपको पता चल जाता है कि यह चीज लिखते समय मैं आमद के हवाले था. मुझे कोशिश ज्यादा नहीं करनी पड़ी. जरूरी नहीं कि वह चीज ज्यादा उत्कृष्ट हो ही.एक नौकरानी की डायरी. भले ही वह एक जगह तक ही पहुँचती है उससे आगे नहीं जाती, लेकिन उसमें ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ी. उसमें भाव तो है, सरलता भी है और आमद भी. उसमें घटनाओं, किरदार के चुनाव इत्यादि में मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी.
आमद की भी कई किस्में हो सकती हैं.
इल्हाम वहीं होगा जब आप किसी ऐसी मनोस्थिति में हों कि आपको, जो आप लिख या सोच रहे हैं, उसमें ज्यादा मीनमेख न निकालने पड़े. उस स्थिति तक पहुँचने के लिये समाधि जरूरी है. इसलिये बिमल में मैंने मॉक सी समाधि, समाधि की पैरोडी का जिक्र किया है. वह कोशिश करता है कि आज समाधि लगाउॅंगा, कहीं नहीं जाउॅंगा लेकिन फिर भी उस मॉक समाधि में वह व्यंग्य तक तो पहुँच जाता है— हिंदी साहित्य की विषय सूची सी. एक खास किस्म की एकाग्रता उसमें आ जाती है.
इल्हाम का इंतजार घातक भी हो सकता है कि आप सारी उम्र इंतजार ही करते रहें. हेनरी जेम्स की जबरदस्त कहानी है, एक बाल्जाक की है. जेम्स बाल्जाक को बहुत महान मानते थे, उन्होंने बुढ़ापे में एक महान लैक्चर भी दिया था द लैसन ऑफ़ बाल्जाक.
जेम्स की मैडोना ऑफ़ द फ्यूचर. इसमें इटली में रहता एक अमेरिकन कलाकार है. वह एक मास्टरपीस बना रहा है — मैडोना. बूढ़ा हो जाता है. किसी ने उसको देखा नहीं है लेकिन ये लेजेंड मशहूर है कि वह कुछ रच रहा है. एक युवा कलाकार उसके पीछे पड़ जाता है कि मैं तो देखूंगा ही. फिर वह उसे अपने स्टूडियो में ले जाता है लेकिन वहाँ कुछ नहीं है कैनवास पर. फिर वह बूढ़ा कलाकार उससे कहता है कि मैं सारी उम्र इल्हाम का इंतजार करता रहा मैडोना ऑफ़ द फ्यूचर बना सकूँ. अब तुम मुझसे सबक सीखो कि मैडोना बनाने के लिये काम करना बहुत जरूरी है. काम करते में ही मास्टरपीस की रचना संभव हो सकेगी.
इसी तरह बाल्जाक की एक कहानी है द अननोन मास्टरपीस. उसमें भी एक कलाकार है. बाल्जाक जेम्स से एक कदम और आगे चले जाते हैं. वहाँ भी यही दृश्य है. कलाकार पागल सा हो गया है. खुदकुशी कर लेता है. मरने के बाद उसके स्टूडियो से एक तस्वीर निकलती है— आड़ी तिरछी लकीरें, कुछ समझ नहीं आता क्या है यह. उस कहानी में यह भी गुंजायश है कि शायद यह मास्टरपीस ही है शायद इसलिये ही किसी की समझ नहीं आ रही है.
तो सार यह कि बैठना बहुत जरूरी है. आप चलते फिरते कहें कि इल्हाम आपको पकड़ लेगा तो नहीं, इल्हाम के लिये इबादत जरूरी है. रियाज़ जरूरी है. आमद के लिये आवुर्द जरूरी है.
किसी रचना में आमद की पहचान के क्या सूत्र हो सकते हैं?
लेखक के लिये तो ज्यादा आसान है. उसे खुद ही पता चल जाता है कि ये आमद है या आवुर्द. आवुर्द में जिस किस्म का प्रयास करना पड़ता है, जिस किस्म की सायासता लानी पड़ती है वह सुखद नहीं होती. आप कन्ट्राइव कर रहे हैं, जोर दे रहे हैं, बाहरी चीजें भी आ जाती हैं, पाठक भी उसमें आ जायेगा कि उसे अच्छा लगेगा या नहीं. बेवजह जोर आजमायश होती है. बौद्धिक स्तर पर आप कुछ रौब खांटने की कोशिश कर सकते हैं. आप कृत्रिम हो जाते हैं और आपको पता भी चल जाता है कि आप कृत्रिम हैं.
पाठक और आलोचक, अगर उत्कृष्ट हैं तो, वे भी कभी कभी जान जायेंगे. रचना में तरलता के स्तर को पहचान जायेगें कि ये शब्द सायास नहीं आये अपने आप उतरे या बरसे हैं. कभी कभी उनका ये अंदाजा गलत भी हो सकता है क्योंकि आर्ट लाइज इन कंसीलिंग द आर्ट ऑल्सो. कलाकार कितनी मेहनत करता है, उसे छुपा भी ले जाता है.
क्या आप खुद अपनी कला, अपने आवुर्द लम्हे छुपाने का प्रयास करते हैं?
छुपाने का तो नहीं बल्कि उसे बाहर लाने का ही प्रयास होता है. उसे किसी खास तरीके से दिखाने का भी प्रयास नहीं होता. यह धारणा जो कुछ लोगों के मन में है कि जो भी कला या कलात्मकता पर ज्यादा जोर देता है वह चौंकाने की कोशिश भी करता है. चौंकाने या चमत्कार पैदा करने की कोशिश घटिया लेखक भी कर सकते हैं. कोशिश तो यही होती है कि रचना सहज दिखे. लेकिन सरलता या सहजता के भी कई पैमाने हो सकते हैं. हैंमिग्वे मसलन. उनकी महान रचनाओं में बड़े ऊँचे दर्जे की सादगी है. वह अनुपस्थिति की नहीं उपस्थिति की सादगी है. कई चीजों को बड़ी मेहनत से नकारने के बाद एक खास किस्म की उपस्थिति पैदा की उन्होंने अपने साहित्य में. उपमायें, विशेषण, रूपक जैसे तत्व जिनके बगैर मेरे जैसे लेखक नहीं चल पाते, वह चीजें उन्होंने हटायीं.
एक सादगी विपन्नता की होती है कि कुछ है ही नहीं आपके पास. यह इकहरी सादगी है आप घटिया तरीके से सादा बनते हैं.
सूत्र किसी भी चीज का ढूंढ़ना मुश्किल है.
आप उपन्यास, कहानियों का दूसरा–तीसरा ड्राफ्ट भी लिखते हैं. क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि आपको पहला ड्राफ्ट कहीं बेहतर लगा हो.
हाँ. कभी कभी. कुछ कहानियों के बारे में. उपन्यास के बारे में तो ऐसा कभी नहीं हुआ. मेरा तरीका ही ऐसा है कि कांट–छांट बड़ी जरूरी है. दूसरी बार भी ऐसी ही शिद्दत होती है. पहले से तो दूसरा लेखन बेहतर ही होता है. एक नौकरानी की डायरी में भी ऐसा हुआ.
एक बार में एक ही कृति पर काम करते हैं या एकाधिक चीजें चलती रहती हैं?
शुरु शुरु में तो होता था कि एक चीज को खत्म करने के बाद ही दूसरी शुरु करता था. कम से कम पहला ड्राफ्ट खत्म किया, फिर उसे वक्त दिया ताकि दुबारा जब देखें कुछ समय बाद तो ताजा नजरों से देखें. यह चीज अब भी है. यह नहीं कि आज रात खत्म किया तो दूसरी रात फिर बैठ गये. उसके दौरान कोई और चीज शुरु कर लेते हैं जब आप तैयारी कर रहे होते हैं— मानसिक या खुफिया तैयारी. लेकिन इधर यह भी हुआ है कि दो तीन चीजें साथ शुरु कर दीं. थोड़ा समय यह लिखी फिर वह. मायालोक जब लिख रहा था तब नर नारी भी शुरु कर दिया था. शुरु में ऐसा कम होता था अब अधिक होने लगा है.
आपके जेहन में दोनों कृतियों के तार एक साथ घुमड़ते रहते हैं?
यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन दोनों में से कोई तो बहुत गहरे, अचेतन, में घूम रही हो और चेतन में कोई दूसरी हो. लेकिन बिल्कुल शायद न मिटती हों क्योंकि अगर आप दो चीजों पर काम कर रहे हैं तो दोनों ही किसी न किसी रूप में चेतना के किसी स्तर, कोने में जरूर कुलबुलाती रहती हैं.
जीवन जीते वक्त क्या चीजों, घटनाओं में अपने लेखन के कुछ इंप्रैशंस, सूत्र टटोलते चलते हैं?
सायास तो नहीं होता. मैं उन लोगों में से नहीं हॅूं कि मुझे फौरन ही पता चल जाये इसका इस्तेमाल कैसे होगा, वैसे बहुत से लोग, हेनरी जेम्स खुद एक मिसाल हैं, उन्होंने अपनी रचनात्मक प्रक्रिया, अपने संदर्भों का विस्तृत जिक्र किया कि कौन सा उपन्यास उन्हें कहाँ सूझा. बहुत सी नोटबुक्स तो वे नष्ट कर गये थे लेकिन कुछ बच गयीं थीं. वे इन्हें भी नष्ट करना चाहते थे लेकिन बच गयीं थीं उनके कागजात में निकलीं थीं. वे फिर बाद में हार्वर्ड के प्रोफेसर मैट्यसन ने प्रकाशित करवायीं. उन्होंने हेनरी जेम्स पर बहुत बढ़िया किताब लिखी थी — हेनरी जेम्सः द मेजर फेज़. उन्होंने उन डायरियों को संपादित किया. उन नोटबुक्स में कई रचनाओं के अलावा द अंबैसैडर्स का भी जिक्र था. उन्हें बहुत से आइडिया अपनी सामाजिक जिंदगी से सूझते थे.
वे बार जाने के शौकीन थे. अपने जीवनकाल में ही वे ‘मास्टर’ बन चुके थे. कई युवा लेखक उन्हें मास्टर बुलाते थे. वे हर किस्म की सोसायटी में, सिर्फ साहित्यिक समाज ही नहीं, जाते थे. क्लब में भी. वहाँ कई बेवकूफ लोग भी होते थे जो उन्हें अपने बारे में कुछ न कुछ सुनाते रहते थे. उन चीजों का बीज उनके दिमाग में कभी–कभी पड़ जाता था. उसके लिये उन्होंने फ्रैंच लफ्ज donne (उपहार) इस्तेमाल किया. यह उपहार उनको मिलते थे सामाजिक जीवन से. घर आकर कभी कभी वे नोटबुक्स में उनको दर्ज कर लेते थे. बहुत सी कहानियां उन्होंने इस तरीके से भी लीं और उनमें जान डाल दी.
मुझे ऐसा सौभाग्य नहीं हुआ. एक तो शायद मेरा सामाजिक जीवन इतनी ज्यादा विस्तृत नहीं रहा या स्वभाव से मैं कान खुले नहीं रखता. कुछ लोग करते हैं लेकिन मैं नहीं कर पाता.
फिर आपको आइडिया कैसे आते हैं?
वे आते रहते हैं. कभी पढ़ते हुये, अपने में डुबकी लगाते हुये. किसी ने कहा हो कुछ उसके चेहरे से भी आते हैं. कभी कभी स्वप्न से भी आते हैं. भले ही हूबहू न सही.
आपके यहाँ एक बूढ़ा लेखक, अपने में डूबा, समाधि में बैठा, अपने को कौंचता–नौंचता, बार बार आता है. यह नायक खुद आपकी कितनी प्रतिछवि है? आपसे कितना अधिक जुड़ता है?
(हॅंसते हैं) जुड़ती तो है, काफी जुड़ती है. मैं योग वगैरा तो नहीं करता. प्रार्थना भी नहीं. नास्तिक हॅूं. लेकिन यह सवाल उठते रहते हैं. दरवाजा बंद कर लिखता हॅूं. मैं शोर में नहीं लिख सकता. कैफे में बैठ कर नहीं लिख सकता जैसे सार्त्र ने कई किताबें लिखीं. कोशिश तो होती है डूबने की, ऐसी कैफ़ियत हो जिसमें डूबने का मन हो.
मैं आपसे एकदम परिचित नहीं हूँ, लेकिन आपके लिखे को पढ़ते वक्त मेरा मानने को मन होता है, शायद मैं गलत हो सकता हूँ, बिमल, दूसरा न कोई, दर्द ला दवा का नायक— इन सभी में आपका अंश बहुत अधिक है.
होगा. बोर्हेस की एक पैराबल है जिसमें वे कहते हैं कि जो भी उन्होंने लिखा है कविताओं में, गल्प में, वहाँ जो चेहरा है उन्हीं का है. चेहरे का लफ्ज प्रयोग किया है उन्होंने. जब पाठक या आलोचक इसे फूहड़ ढंग से लेते हैं तो उसमें लेखक के जीवन के तथ्य ढॅूंढ़ने लगते हैं. तथ्य के स्तर पर नहीं लेकिन आत्मा के स्तर पर कुछ कलाकार अपने ही माध्यम से दूसरों तक पहुँचते हैं, दूसरों के माध्यम से अपने तक नहीं.
मेरा भी यही कहना था. बतौर लेखक नहीं, बतौर इंसान आपके रूहानी सरोकार आपकी कृतियों में दिखते हैं .
बेशक दिख सकते हैं. उस तरह के रूहानियत सरोकार भले न हो जैसे लोग मजारों या मंदिरों में जाते हैं. मैं तो नहीं जाता, नास्तिक हॅूं. लेकिन आध्यात्मिक शब्द से कोई परहेज नहीं मुझे. नास्तिक भी आध्यात्मिक हो सकता है. डायरियों में यह जिक्र बार–बार आता है कि एक ऐसा नास्तिक जिसकी ईश्वर से मुक्ति न हो पाये. वह इसी उलझन में रहे कि ईश्वर है या नहीं और अगर है तो यह क्यों नहीं कर सकता. शुरु शुरु में तो यही होता था कि या तो विज्ञान को मानो या ईश्वर. लेकिन अब विज्ञान को मानते हुये भी ईश्वर को मान सकते हो. और ईश्वर को मानते हुये विज्ञान को भी.
लेकिन मैं उस स्थिति में नहीं पहुंचा हॅूं. रूहानियत का यह रहस्य मुझे अचंभित करता रहता है कि न था मैं तो खुदा था मैं ना होता तो खुदा होता. डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता.
क्या ऐसे अंतराल भी आते हैं जब आप लिख पाने में खुद को असमर्थ पाते हैं.
हाँ, क्यों नहीं आते. आजकल आया हुआ है.
लिख नहीं पा रहे या लिख नहीं रहे या सोच रहे हैं लिखा जाये या नहीं, जिसे अंग्रेजी में ‘फैलो पीरियड’ कहते हैं. वे भी जरूरी हैं, काम करने के लिये काम न करना भी जरूरी है. जैसे जमीन को ख़ाली छोड़ा जाये तो उसकी उर्वरकता बढ़ती है. लेकिन इसमें खतरा यह भी हो सकता है कि आप कोई बहाना ढूंढ लें, उबर ही न पायें. ब्लॉक्स तो आते हैं, राइटर्स ब्लॉक. उसके कारण भी होते हैं जो अक्सर समझ नहीं आते. कई लोग तो, खासतौर पर बाहर के लेखक विश्लेषकों के पास चले जाते हैं ब्लॉक हटाने के लिये. बैकेट अपने आपको एनालायज ही कराते रहे.
ब्लॉक आते हैं, चले भी जाते हैं.
इनके आने की तरह जाना भी अनायास होता है या सायास?
सायास तो नहीं. कभी कभी तो अगर अवधि ज्यादा लंबी हो जाये तो कष्ट तो होता है. इसलिये कुछ लोग कहते हैं अगर एक दिन भी नागा हो जाये और मैं भी मानता हॅूं कि एक नागा अपने साथ कई नागे लेकर आता है. कोशिश यही होनी चाहिये कि आप रोज बैठें. काम न हो तो भी. आप ऐसी कोई जगह बनायें जहाँ काम की गुंजाइश बन सके. जगह भौतिक ही नहीं, मानसिक भी. इतनी एहतियात तो रखनी चाहिये. लेकिन एहतियात के बावजूद ब्लॉक भी आते हैं.
लेकिन जिन लोगों ने बहुत अधिक और बहुत अच्छा लिखा है, बाल्जाक इसके सबसे महान उदाहरण हैं. उनकी मृत्यु उन्चास की उम्र में हो गयी थी. उन्होंने इतना उत्कृष्ट लिखा. जिस तरह वे लिखते रहे, जुआ खेलते रहे. उनके कई और शोशे थे, उलझनें थी. उन्हें कई और ऐब थे, व्यसन थे. दोस्तोयवस्की की तरह वे भी जुआ खेलते थे.
टॉलस्टॉय भी इसकी बड़ी मिसाल हैं. वॉर एंड पीस उन्होंने सात साल में लिखा. कई ड्राफ्ट तैयार किये.
कलाकारों में मार्शल दूशां. महान काम किया उन्होंने. दिशा बदल दी. लेकिन बरसों तक वे शतरंज खेलते रहे, लिखा कुछ नहीं. आर्ट डीलिंग करते रहे. पेंटिग्स की खरीद–फरोख्त में मिलने वाला कमीशन उनकी आजीविका का साधन था.
उसके बरअक्स पिकासो हैं जो आखिर तक काम करते रहे.
कोई एक पैमाना नहीं है किसी चीज का.
आपकी भाषा में अजीब सी छटपटाहट, तड़प बसी रहती है. शब्द पृष्ठ को फाड़ बाहर आ जाना चाहते हैं. ये कितना आपके मिजाज का सूचक है?
मिजाज का तो पता नहीं कितना है, लेकिन………. छटपटाहट है…… लेकिन……. दूसरा न कोई और दर्द ला दवा, इन दोनों मोनोलॉग में भी छटपटाहट के बावजूद उन चहेते संशयग्रस्त शब्दों के बावजूद जिनकी सूची दूसरा न कोई के अंत में दी गयी है …..इनके बावजूद कुछ और भी है.
छटपटाहट का एक स्रोत तो नेति नेति की दृष्टि है. हर चीज पर संशय. प्रश्न. यह दृष्टि लेखन में प्रकट होती है कि आप दोटूक स्थापना नहीं कर पा रहे. जो स्थापना एक वाक्य में करते हैं उसे दूसरे वाक्य में मिटा देते हैं. ये भी नहीं, ये भी नहीं. हर चीज को शक की निगाह से देखना. चेतना अपने आप पर संदेह करती है. ऐसे लेखन का स्टाइल छटपटाता हुआ तो होगा ही. लेकिन आपकी मिसाल कि शब्द कागज को फाड़ बाहर आना चाहते हैं वह जरूरी नहीं है. छटपटाहट के बावजूद भी कहीं न कहीं एक लय आ जाती है. भले ही वह प्रलाप की लय हो या आलाप की या प्रार्थना की. छटपटाहट का दूसरा रुख एक अंतर्निहित लय भी है. दोनों चीजें एकदूसरे को शक्ति भी देती हैं और नियंत्रित भी करती हैं. एक चीज को पकड़ लेना गलत है.
आप दुबारा पढ़ें तो आपको लगेगा कि यह शैली छटपटाती हुई तो है, डिस्टर्ब भी करती है लेकिन कभी–कभी कहीं–कहीं यह एक स्थिरता भी हासिल कर लेती है. थोड़ी देर के लिये ही सही. बेशक वहाँ जाकर बैठ नहीं जाती, हमेशा को नहीं रहती क्योंकि फिर से संदेह की प्रक्रिया शुरु हो जाती है. लेकिन इस तरह यह दो प्रक्रिया हैं. अगर दूसरी प्रक्रिया को नजरअंदाज करेंगे तो सिर्फ हिंसा ही नजर आयेगी उसे नियंत्रित करने वाली चीजें, आवाजें, या सही कहूँ तो खामोशियां सुनाई नहीं देगीं. इस शैली में खामोशी बहुत हैं, बेशक वो चैन की खामोशी न हो, चीखती हुई खामोशी हो. लेकिन खामोशी मेरी स्टाइल का एक तत्व है.
अमरीकी आलोचक इहाब हसन ने बड़ी अच्छी किताब लिखी है द लिट्रेचर ऑफ़ साइलेंस. आधी किताब हेनरी मिलर पर है, आधी सैमुअल बैकेट पर. वे यह स्थापित करते हैं कि ये दोनों लेखक खामोशी तक पहुँचने का प्रयास करते हैं. मिलर चिल्लाते हुये शब्दों से.
मैं यह नहीं कर रहा कि मैं हेनरी मिलर के रास्ते पर चल रहा हूँ, नहीं मैं उस पर नहीं चल सकता. मिलर की सी वाक् शक्ति मुझमें नहीं है.
काला कोलाज में भी कई खंड हैं. शुरु के ही हैं शायद. लाल तमन्ना शायद. मेरे दार्शनिक मित्र दयाकृष्ण लाठ ने दर्द ला दवा पर एक सेमिनार किया था जयपुर विश्वविद्यालय में. उनका मानना था कि यह एक महान दार्शनिक उपन्यास है. उन्होंने काला कोलाज पढ़कर भी कहा कि इसके लाल तमन्ना अंश में मैंने यह कल्पना करने की कोशिश की है कि सृष्टि कैसे उपजी, जबकि मेरे जेहन में यह नहीं था.
उसमें छटपटाहट नहीं है, जबकि होनी चाहिये थी आखिर लाल लहू का रंग है. उसमें कोशिश यह थी कि आँख खुलती है तो आँख के सामने क्या दिखाई देता है. बिल्कुल अलग बैठी कोई चेतना धरती को देख रही है इसलिये शायद दया को लगा कि कोई तटस्थ चेतना यहाँ रची जा रही है. तो कई ऐसी चीजें हैं जो डिस्टर्ब करती हुई भी शांत रस में डूबने की कोशिश करती हैं.
भारतीय दर्शन के प्रमुख विषयों से वाकिफ तो हॅूं —- अद्वैत, सगुण, निर्गुण. कर्म सिद्धांत
मुझे प्रभावित करता है लेकिन झुंझलाहट भी उठती है. मार्क्स से भी प्रभावित रहा हॅूं. दयाकृष्ण से कई बार बात होती थी कि कर्म को अगर मान लिया जाये, और कर्म को मानने के कई कारण हो सकते हैं, तो altruism की कोई गुंजाइश नहीं रहती. क्योंकि विशुद्ध altruism किसी अन्य को ही केंद्रित होता है खुद अपने को नहीं. जबकि आपके प्रत्येक कर्म का फल खुद आपको ही भोगना पड़ता है. ऐसे में किसी चीज की कोई गुंजाइश नहीं रहती. अतीत पहले से ही तय है.
कर्म सिद्धांत आकर्षित इसलिये करता है कि जिन्होंने इसे गढ़ा, उन्होंने इसे समझने की कोशिश की होगी कि यह विविधता क्यों है, दुख, सुख इत्यादि में फर्क क्यों है.
क्या आप अपने लेखन के जरिये किसी बड़े सत्य को पाना चाहते हैं? किन्हीं बड़े मूल्यों की तलाश आपको लेखन की ओर ले जाती है?
मेरे जैसे संशयग्रस्त लेखन के जरिये उसे खोजा–खोदा तो जा सकता है, पाया नहीं जा सकता. तहकीद–तलाश की जा सकती है. पाने के लिये आस्था जरूरी है. लीप ऑफ़ फेथ. पाने के लिये अपने संशय को स्थगित करना जरूरी है. मैं संशय के माध्यम से सवाल उठा पाता हॅूं, हासिल नहीं कर पाता. पाने के लिये किसी न किसी अवस्था पर यह कहना पड़ता है कि कुछ चीजें जानी नहीं जा सकतीं.
संशय से शुरु कर आप संशय तक ही पहुँच पाते हैं या बीच में कहीं कुछ हासिल होता भी महसूस होता है?
संशय खुद ही एक उपलब्धि है. यह कुछ बड़े ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है भले ही उनके उत्तर नहीं दे पाता. सवाल सही होने चाहिये जवाब मिले न मिले. कलाकार, खासकर आधुनिक कलाकार के लिये यही काफी है कि वह लगातार सवाल उठाता है. गलत जवाब या ऐसे जवाब जिनमें गलती की संभावना रहती है स्वीकार कर लेने से कृत्रिम सी शांति मिलती है उससे बचना बहुत जरूरी है.
कौन सी चीजें रचनाकार के लिये एकदम घातक होती हैं, जिनसे उसे बचना चाहिये?
किसी सच्चे रचनाकार के लिये कोई भी चीज घातक नहीं होती क्योंकि वह भी उसके अनुभव का ही हिस्सा होती है. वह उनका भी इस्तेमाल कर सकता है, उनसे भी कुछ निकाल सकता है. बड़ा रचनाकार तो वही है जिसके लिये कोई भी चीज, अनुभव अप्रासंगिक न हो. सभी कुछ उसके काम आ सके. लेकिन फिर यहाँ अनिर्लिप्तता भी चाहिये, क्योंकि अगर वह सिर्फ भोक्ता बन कर रह गया तो जो निस्संगता चाहिये उस भोग को रचनात्मक रूप देने के लिये वह फिर संभव नहीं हो पायेगा. निस्संगता के क्षण तो उसे चाहिये ही क्योंकि यही उसकी बुनियाद है.
क्या आपने ऐसा महसूस किया है कि आप महज भोक्ता बनकर रह गये हों, निस्संगता बोध खत्म होता जा रहा हो? आप किसी दूसरी दिशा में खिंचे चले जा रहे हों, फिर आप सभी चीजों को पीछे छोड़ सहमे से वापस लौटे हों.
कई बार होता है ऐसा. कई बार आप छूट भी देते हैं अपने को. छूट कई बार जायज भी है नहीं तो आप संसार छोड़ ही देंगे. बड़े से बड़े संत, महात्मा भी हर वक्त निस्संग नहीं रहते थे, महात्मा गांधी भी नहीं. अनासक्ति आदर्श तो होती है लेकिन व्यवहार में पूरी तरह कहाँ आ पाती है. अगर आप गृहस्थ हैं तो आसक्ति से बच नहीं सकते.
इसलिये ऐसा भी कहते हैं कि रचना के लम्हों में ही आप पूरी तरह अनासक्त हो पाते हैं. इसलिये कृति कृतिकार से बड़ी होती है. रचे जाने के लम्हों में कृतिकार को उठा लेती है. कृतिकार में कई खामियां हो सकती हैं— जीने का, परिवार का मोह. कलाकार का द्वंद्व.
यह द्वंद्व आपको कितना विचलित–विघटित करता है? वे कौन सी चीजें हैं जो आपको खींचती हैं?
कई चीजें हैं. सबसे पहले तो ईगो ही खींचता है, जो जिंदा रहने के लिये जरूरी भी है. बच्चों का मोह, सैक्स का मोह. यादों का, कीर्ति का मोह. इन पर कितना ही संशय कर लो लेकिन यह खींचते हैं. इनसे फिर दूर जाने के लिये कड़ा नियंत्रण करना पड़ता है. कुर्बानी देनी पड़ती है. दीदा दानिस्ता कोई ऐसी बेईमानी न की जाये. आप रोज अपने से प्रश्न करते हैं कोई समझौता तो नहीं कर रहे, और उन्हें रोकने के लिये क्या प्रयत्न कर रहे हैं. झूठ बोल रहे हैं तो क्यों बोल रहे हैं. इस प्रक्रिया में आप कई बार असामाजिक भी हो जाते हैं, हर किसी से बात भी नहीं करते.
यह भी कोशिश रहती है कि आप सैल्फ राइचस न हो जायें. आपको यह गुमान न हो जाये कि आप सब दोषों से रहित हैं. गलती सबसे होती है और झूठ भी सबके भीतर है.
सैल्फ–राइचस हो जाना, यह गुमान कि वह सर्वगुण संपन्न है रचनाकार के लिये बहुत बड़ा खतरा है.
क्या यह खतरा आपके सामने आ खड़ा हुआ है कि आप इस गुमान में जीने लगे हों आप किसी शिखर हैं, बाकी लोग बहुत पीछे छूट गये?
ऐसा तो नहीं हुआ कभी. मुझे सबसे ज्यादा संशय तो खुद अपने पर ही होता है. बल्कि अपने कुछ दोस्तों, खासतौर पर निर्मल से, मुझे यह शिकायत होने लगी थी कि वे सैल्फ–राइचस होते जा रहे थे. निर्मल में शायद यह प्रवृत्ति शुरु में भी होगी लेकिन बाद में यह प्रबल होती गयी थी. उनके आखिरी दिनों में दो चीजों ने उन्हें बहुत गिराया, अपने पद से और मेरी नजर से, कि उनके जो दोष दूसरों को साफ दिखाई देते थे उनसे वे बेखबर रहने लगे थे. दूसरों की दृष्टि और विचारों में दोष निकालते हुये वे ऐसे इंसान की मुद्रा बना लेते थे जिसे यह शक जरा भी न हो कि उसमें भी ये दोष हो सकते हैं. जब वे दूसरों को ईमानदारी का उपदेश देने लगते थे तो अपनी बेईमानी को भूल जाते थे.
लेखक मित्रों का संबंध. वे शुरु में तो अपनी रचनायें एकदूसरे को दिखाते हैं बाद में लेकिन कतराने लगते हैं. यह इसलिये भी कि आपने निर्मल और अपनी मित्रता के संदर्भ में इस खिंचाव कहीं जिक्र किया है.
शुरु–शुरु में जाहिर है आप गोष्ठियों में जाते हैं. एक फोरम होती थी करोल बाग में हम अपनी रचनायें पढ़ते थे— मैं, निर्मल, भीष्म, देवेंद्र इस्सर, महेंद्र भल्ला, लेकिन तब भी ऐसा नहीं था कि हर रचना एकदूसरे को सुनाते थे. लेखकों की मित्रता में बीतते वक्त के साथ विकार आने लगते हैं. भारत में ही नहीं बाहर भी. काम्यू सार्त्र का झगड़ा तो मशहूर है. वैचारिक मतभेद, पर्सनल बातें भी आ जाती हैं. शुरुआत की सी घनिष्ठता आखिर के दिनों में नहीं रहती. जैनेंद्र और अज्ञेय में नहीं थी. उसका कुछ न कुछ अवशेष लेकिन आखिर तक भी रहता है जैसा निर्मल और मेरे साथ रहा. एक खास किस्म की निकटता थी जो किसी और के साथ उसकी भी शायद न थी, मेरी भी नहीं. लेकिन दूरियां भी थीं. बीच में कुछ बातें आने लगती हैं. ईगो कह लीजिये. अपना काम भी एकदूसरे को नहीं दिखाते.
कुछ लोग थोड़े गोपनीय भी होते हैं. मैं नहीं दिखाता हूँ जब तक फिनिश्ड न हो.
राय लेते हैं अपनी रचनाओं पर?
नहीं. मैं अपना कड़ा आलोचक हूँ. नहीं दिखाता किसी को. निर्मल ने भी राय ली हो तो मुझसे नहीं किसी और से ली हो राय. लिखने या छपने के बाद हाँ पढ़ते थे एक दूसरे को लेकिन फिर वो भी कम होता गया.
आपने एकदूसरे को पढ़ना ही बंद कर दिया?
नहीं, मैं तो पढ़ता रहा लेकिन मेरा ख्याल है निर्मल ने बंद कर दिया.
हो सकता है वे भी आपको पढ़ते रहे हों लेकिन बताया नहीं हो आपको.
हाँ, हो सकता है यह भी.
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(कृष्ण बलदेव वैद से यह संवाद उनके वसंत कुञ्ज के घर २०१० की जनवरी में हुआ था.)
वैद्य साहित्य को समझने की कुंजी है यह इंटरव्यू। मूल्यवान इंटरव्यू। यह धरोहर है। भाई भारद्वाज को बधाई।