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Home » नीलेश रघुवंशी की कविताएँ

नीलेश रघुवंशी की कविताएँ

नीलेश रघुवंशी की कविताओं  में स्त्री जीवन और उस जीवन के उतार – चढ़ाव, उस जीवन में जन्म से ही चुभते, गड़ते कील कांटे हैं. तमाम तरह की बंदिशों से मुक्त एक मनुष्य के सहज जीवन की सरल सी इच्छाएं हैं. ज़ाहिर है ये कविताएँ समकालीन सचेत स्त्री के स्वप्न हैं. समाज की संरचना में […]

by arun dev
September 6, 2017
in कविता
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नीलेश रघुवंशी की कविताओं  में स्त्री जीवन और उस जीवन के उतार – चढ़ाव, उस जीवन में जन्म से ही चुभते, गड़ते कील कांटे हैं. तमाम तरह की बंदिशों से मुक्त एक मनुष्य के सहज जीवन की सरल सी इच्छाएं हैं.
ज़ाहिर है ये कविताएँ समकालीन सचेत स्त्री के स्वप्न हैं. समाज की संरचना में क्रूरता कितनी गहरी है और यह हिंसा स्त्रियों पर ही गिरती है.  
नीलेश रघुवंशी का नया संग्रह आया है ‘खिड़की खुलने के बाद’ , ये कविताएँ इसी संग्रह से हैं.

नीलेश रघुवंशी की कविताएँ                       


बेखटके

नींद इतनी कम और जलन इतनी ज्यादा कि
सड़क किनारे
सोते कुत्ते को देख भर जाती हूँ जलन से
इतनी कमियाँ हैं जीवन में कि
पानी के तोड़ को भी देखने लगी हूँ उम्मीद से
अंतिम इच्छा कहें या कहें पहली इच्छा
मैं बेखटके जीना चाहती हूँ .
निकलना चाहती हूँ आधी रात को बेखटके
रात बारह का  ‘शो’ देखकर
रेलवे स्टेशन पर घूमूँ जेब में हाथ डाले
कभी प्रतीक्षालय में जाऊँ तो कभी दूर कोने की
खाली बैंच को भर दूँ अपनी बेखटकी इच्छाओं से
इतनी रात गए
सूने प्लेटफार्म पर समझ न ले कोई ‘ऐसी-वैसी’
मैं ‘ऐसी-वैसी’ न समझी जाऊँ और
नुक्कड़ की इकलौती गुमटी पर चाय पीते
इत्मीनान से खींच सकूँ आधी रात का चित्र
क्षितिज के भी पार जा सके मेरी आँख
एक दृश्य रचने के लिए
मिलें मुझे भी पर्याप्त शब्द और रंग .
जरूरत न हो
आधी रात में हाथ में पत्थर लेकर चलने की
आधी रात हो और जीने का पूरा मन हो
कोई मुझे देखे तो देखे एक नागरिक की तरह
यह देह भी क्या तुच्छ चीज है
बिगाड़कर रख दिये जिसने नागरिक होने के सारे अर्थ .
उठती है रीढ़ में एक सर्द लहर
कैलेंडर, र्होर्डग्ंस, विज्ञापन, आइटम साँग
परदे पर दिखती सुंदर बिकाऊ देह
होर्डिग्ंस पर पसरे देह के सौंदर्य से चौंधियाती हैं आँखें
देखती हूँ जितना आँख उठाकर
झुकती जाती है उतनी ही रीढ़
फिरती हूँ गली-गली
रीढ़हीन आत्मा के साथ चमकती देह लिए
जाने कौन कब उसे उघाड़कर रख दे
तिस पर जमाने को पीठ दिखाते
आधी रात में
बेखटके घूमकर पानी को आकार देना चाहती हूँ मैं .

दो हिस्से

1. आत्मकथ्य
मेरे प्राण मेरी कमीज़ के बाहर
आधी उधड़ चुकी जेब में लटके हैं
मेरी जेब में उसका फोटो है
रौंपा जा रहा है जिसके दिल में
फूल विस्मरण का .
झूठ फरेबी चार सौ बीसी
जाने कितने मामले दर्ज़ हैं मेरे ऊपर
इस भ्रष्ट और अंधे तंत्र से
लड़ने का कारगर हथियार नहीं मेरे पास
घृणा आततायी को जन्म देती है
आततायी निरंकुशता को
प्रेम किसको जन्म देता है ?
अपना सूखा कंठ लिए
रोता हूँ फूट फूटकर
मेरी जेब में तुम्हारा फोटो है
कर गए चस्पा उसी पर
नोटिस गुमशुदा की तलाश का .
2. एक बूढ़ी औरत का बयान
“मथुरा की परकम्मा करने गए थे हम
वहीं रेलवे स्टेशन पे भैया …..
रोओ मत 
पहले बात पूरी करो फिर रोना जी भर के .
“साब भीड़ में हाथ छूट गए हमारे
पूरे दो दिन स्टेशन पर बैठी रही
मनो वे नहीं मिले
ढूँढत-ढूँढत आँखें पथरा गई भैया मेरी
अब आप ही कुछ दया करम करो बाबूजी ’’
दो चार दिन और इंतज़ार करो बाई
आ जाएँगे खुद ब खुद  .
“नहीं आ पाएँगे बेटा वे
पूरो एक महीना और पन्द्रह दिन हो गए
वे सुन नहीं पाते और
दिखता भी नहीं उन्हें अच्छे से ’’
बुढ़ापे में चैन से बैठते नहीं बनता घर में 
जाओ और करो परकम्मा
कहाँ की रहने वाली हो ?
“अशोक नगर के .’’
घर में और कोई नहीं है क्या ?
“हैं . नाती पोता सब हैं भैया ’’
फिर तुम अकेली क्यों आती हो ?
लड़कों को भेजना चाहिए था न रिपोर्ट लिखाने .
‘‘वे नहीं आ रहे, न वे ढूँढ रहे
कहते हैं
तुम्हीं गुमा के आई हो सो तुम्हीं ढूँढो .
लाल सुर्ख साड़ी में एकदम जवान
दद्दा के साथ कितनी खूबसूरत बूढ़ी औरत
उसी फोटो पर चस्पा
नोटिस गुमशुदा की तलाश का.    

सम्बोधन

दर्द और राहत एक हो गए
चीख और कराह घुल-मिल गए
जन्म देने की प्रक्रिया पूरी हुई
सयानापन और सन्नाटा उठ खड़े हुए
रोने की पहली आवाज़ सुने बिना माँ बेसुध हुई
क्या हुआ, क्या हुआ की आकुलता इतनी भयानक कि
घर की स्त्रियों में ‘क्या हुआ’ को लेकर द्वंद्व मच गया .
बूढ़ी सयानी दाई रो पड़ी
थरथराते हाथों से सर पर कलश रखते
देहरी पार की उसने
लड़के के जन्मने पर ‘जय श्री कृष्ण ‘
लड़की के जन्मने पर ‘जय माता दी’
हर प्रसव के बाद इसी तरह बताना होता है
लड़का हुआ है कि लड़की हुई है .
कलश का पानी छलका
जिसने शब्दों और अर्थों को पानी-पानी कर दिया
देहरी पार कहती है दाई‘‘जय माता दी
बरात द्वारे आई है बिठाना है कि लौटाना है ’’
‘‘लौटाना है, लौटाना है जय माता दी’’
मद्विम स्वर में एक मत से बोल उठा समूह
‘‘हे देवी
हमारे यहाँ न पघारो, प्रस्थान करो, प्रस्थान करो’’
देव की पूजा, देवी से प्रार्थना
साधारण मानुष का जन्म लेते ही वध .
दाई ने सर पर रखे कलश को
पेड़ से टूटे पत्ते की तरह गाड़ दिया जमीन में
चाँद पेड़ की ओट में छिप गया
अंधेरे का फायदा उठाते अपने नवजात बच्चे को
दाँतों के बीच दबाए बिल्ली दबे पाँव निकल गई
माँ के कंठ से निकली रूलाई ने
प्रसव कक्ष में बिना तकिए के दम तोड़ दिया .
एक स्त्री ने स्त्री को जन्म दिया
स्त्री की स्त्री से नाल एक स्त्री ने काटी
एक स्त्री ने स्त्री को जमीन में गाड़ दिया
पितृसत्ता का कैसा भयानक कुचक्र कि
स्त्री ने ही स्त्री का समूल नाश किया .
यह किसी मध्ययुगीन नाटक का दृश्य नहीं
आधुनिक जीवन का दृश्य
जिसमें आज भी निर्णायक पुरूष मूकदर्शक है .
(आषा मिश्र के लिए)

साँकल

कितने दिन हुए
किसी रैली जुलूस में शामिल हुए बिना
दिन कितने हुए
किसी जुल्म जोर जबरदस्ती के खिलाफ
नहीं लगाया कोई नारा
हुए दिन कितने नहीं बैठी धरने पर
किसी सत्याग्रह, पदयात्रा में नहीं चली जाने कितने दिनों से
‘कैंडल लाईट मार्च’ में तो शामिल नहीं हुई आज तक
तो क्या
सब कुछ ठीक हो गया है अब ?
इन दिनों क्या करना चाहिए
ऐसी ही आवाज़ों के बारे में बढ़-चढ़कर लिखना चाहिए
‘चुप’ लगाकर घर में बैठे रहना चाहिए
या इतनी जोर से हुंकार भरना चाहिए कि
निर्लज्जता से डकार रहे हैं जो दूसरों के हिस्से
उठ सके उनके पेट में मरोड़ 
यह और बात है कि
सड़कें इतनी छोटी और दुकानें इतनी फैल गई हैं कि
जुलूस भी तब्दील हो जाते हैं भीड़ में
विरोध के बिना जीवन कैसा होगा
घर के दरवाजे पर साँकल होगी
लेकिन उसमें खटखटाहट ना होगी
साँकल खटखटाए बिना दरवाजे के पार जाएँगे
तो चोर समझ लिए जाएँगे
चाँद आधा निकला होगा और कहा जाएगा हमसे
कहो- पूरा निकला है चाँद  .

साईकिल का रास्ता

साइकिल चलाते हुए
जमीन पर रहते हुए भी
जमीन से ऊपर उठी मैं .
अंधे मोड़ को काटा ऐसे कि
रास्ता काटती बिल्ली भी रूक गई दम साधकर
ढलान से ऐसे उतरी
समूची दुनिया को छोड़ रही हूँ जैसे पीछे
चढ़ाई पर ऐसे चढ़ी कि
पहाड़ों को पारकर पहुँचना है सपनों के टीलों तक .
साइकिल चलाते ही जाना
कितनी जल्दी पीछे छूट जाता है शहर
शहर को पार करते हुए जाना
नदी न होती तो
शहर की साँसें जाने कब की उखड़ गईं होतीं
पहला पहिया न होता तो
कुछ करने की जीतने की ज़िद न होती .
खड़ी हूँ आज
उसी सड़क पर बगल में साईकिल दबाए
पैदल चलते लोगों को देख
घबरा जाती हैं अब सड़कें
रास्ता काटने से पहले दस बार सोचती हैं बिल्लियाँ
गाय और कुत्ते भी पहले की तरह
नहीं बैठते अब सड़क के बीचों-बीच
देखा नहीं आज तक
सड़क पर किसी बंदर को घायल अवस्था में
मृत्यु का आभास होते ही
पेड़ की खोह में चले जाते हैं वे
क्या साईकिल चलाते और पैदल चलते लोग भी
चले जाएँगे ऐसी ही किसी खोह में
रौंप दी जाएगी क्या
साईकिल भी  किसी स्मृति वन में  .
साईकिल में जंग भी नहीं लगी और
रास्ते पथरीले हुए बिना खत्म हो गए
फिर भी भोर के सपने की तरह

दिख ही जाती है सड़क पर साईकिल .


_________

नीलेश रघुवंशी                                     
4 अगस्त 1969, गंज बासौदा (म.प्र.)
कविता संग्रह : घर-निकासी, पानी का स्वाद, अंतिम पंक्ति में
उपन्यास : एक कस्बे के नोट्स
नाट्य आलेख : छूटी हुई जगह (स्त्री कविता पर नाट्य आलेख), अभी ना होगा मेरा अंत  (निराला पर नाट्य आलेख), ए क्रिएटिव लीजेंड (सैयद हैदर रजा एवं ब. व. कारंत पर नाट्य आलेख)
बाल नाटक : एलिस इन वंडरलैंड,  डॉन क्विगजोट,  झाँसी की रानी
सम्मान
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, दुष्यंत कुमार स्मृति सम्मान, केदार सम्मान, शीला स्मृति पुरस्कार, युवा लेखन पुरस्कार (भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता) आदि
संपर्क

ए40, आकृति गार्डन्स, नेहरू नगर, भोपाल, मध्य प्रदेश
neeleshraghuwanshi67@gmail.com
Tags: नीलेश रघुवंशी
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