पंजाबीभूपिंदरप्रीत की पन्द्रह कविताएँ(पंजाबी से अनुवाद : कवि के साथ रुस्तम सिंह) |
एक कोशिश धुआँ
कारखाने की चिमनी से धुआँ उठ रहा था
तुम चुप थीं
ताप-घर के अँधेरे में झुलस रहा
कारीगर था मैं एक
अगर मैंने धुएँ को देखना छोड़ दिया
तुम्हारा आकाश मुझसे
छूट जायेगा
बात नहीं
बात करता रहा
मैं तुमसे
ज़ीरो
कि आओगी तुम
मेरे ही बंटे हुए भागों को आपस में
जो तकसीम हो रहे हैं
अपने ही बचे हुए भाग्य से
तुम नहीं आयीं
खाली जगह आयी
मिलाते-मिलाते
एक हारा हुआ गणितज्ञ हो गया
हमारी वो ज़ीरो कहाँ है
आ ही रहा हूँ
मैंने बाहें खोलीं
और रुके हुए समय के लिए रास्ता बना दिया
पीठ पर लटका बच्चा
बहते पानी के ऊपर उड़ते धुएँ को देख खुश हो रहा था
तड़पकर निकलते
दुआओं की तरह
मिट्टी में दबी
सिसक रही थीं
दम तोड़ रही थीं
और पागल सूर्य से कहा-
मेरी आत्मा के लिए आग का एक कोना बचा के रखना
आ ही रहा हूँ पास तुम्हारे
भटके समय को राह दिखाकर
कुछ ही देर में
तुझे पता है!
मैं तुम नहीं
धरती पर डोलती तुम्हारी
परछाईं हूँ
चरना चाहता है जो
इस हरी परछाईं को
मैं ‘मैं‘ नहीं
एक मरीचिका हूँ
जो फिर से जन्म लेने के लिए
भटक रही है
तुम्हारी योनि की तलाश में
ख़ुदा
सब कुछ
जैसे किताब अपना पन्ना
आप न पलट सके
जैसे कोई नियति के बाहर
टहनियां इस कदर टेढ़ी और रूखी हैं
जैसे किसी कहानी का अन्त न मिल रहा हो
फसलें इतनी लहरा रही हैं
जैसे उन्हें काटने वाला ही न रहा हो
धरती पर
समझा भी वही
लिखा भी वही
पर कविता नहीं बनती
शब्द की आंत में ज़हरीला मादा होता है
वैसे के वैसे ही पड़े रहते हैं
ता-उम्र
अभाव
घास पर ख़ामोशी से ओस की बूँदें सूख रही थीं
हरी छाया
तेज़ धार से बनते पानी के घुँघराले सफ़ेद बाल
मेरी कार के धुँधले शीशे पर गिरा
हंसनी का सफ़ेद पंख
और रोशनी में मर रहा
अन्धा जुगनू
अपना ही अभाव था
रंजिश में खड़े लोहे के जँगाले पुल-सा
नुकीले पत्थर पर
धूप में सुखा रहा था
फुंकार
नियति
सूर्य की
अपनी ही
छाया ढूंढते देखा
क्या कहता
रात के सन्नाटे से
जिसकी शीतल चाँदनी में जम कर बर्फ़ हो गये थे
सारे शब्द
भटक गयी थी मेरी छाया
लोप होने के लिए जगह नहीं बची थी
आत्मा में
बस देखता रहा तुमको
छाया ढूंढते
एकांत-शिविर
उम्र से पहले गिर गये
सफ़ेद बाल ढूंढ रहा हूँ
जिनका भय था
कविता की काल-कोठरी में बस गयी हैं
कई बार
जीना सिखा देती हैं
एक गुब्बारा
दुःख
लम्बा सफ़ेद धागा
पहाड़ की ढ़लान
उतर रहा है
एकांत-शिविर
जाने दोगी न !
एक आदमी तुमसे रास्ता माँग रहा है
और उस आदमी के आगे खड़ी हो
मील-पत्थर की तरह
आग का फूल
जब वह आयी
जिसका सम्बन्ध
कामना से ज़्यादा ईश्वर की चित्रकारी से था
मृत्यु एक शब्द है
जिसे तुम्हारी मौजूदगी में लिख रहा हूँ
दो इंच उठती लपट में
जैसे आसमान में आग का फूल
खिल गया हो
रेतघड़ी
पर डरता है मेरे कमरे में रखी तुम्हारी रेतघड़ी से
तुम्हारी प्रतीक्षा को जज़्ब कर दूँ
कांच के खिलौने में
एक ऊँट कराहने लगा
रेगिस्तान में
पर नखलिस्तान नहीं
कविता में सिर्फ पानी की उदासी
होती है
यही सोच मैंने
जाते समय की पीठ पर तोड़ दी प्रतीक्षा
क्या
ऊँट ऐसे ही करवट बदलता ?
चालक
थोड़ा काल-रहित होता हूँ
ढ़लान से उतरती एक
बकरी के पास बिठा देता है
पर बेबस होता हूँ
सन्तुलन कैसे पैदा करूँ
शब्द, बकरी और भाषा की ढलान में
पर ऐसा कभी-कभी हो जाता है
जो मैं हूँ
शब्द उसकी शब्दकशी नहीं करते
बस उसकी केंचुल उतार रख देते हैं एक पत्थर पर सूखने
और मुझे सुझाव देते हैं
कि समय
किसी बूढ़े आलोचक के साईकल के टायरों में भरी हवा है
बात बूढ़े की करो
पर लिखो साईकल पर
और अन्त में जो बचे
कैरियर ना कहा जा सके
साईकल का कैरियर मानता हूँ
पागलपन को बच्चे की गद्दी
तो लगता है
छिपकली चुप क्यों रहती है
लटकती रह जाएगी यह
बरामदे की दूधिया रोशनी
ये ट्यूब
पतंगे की ओर
रोशनी के टुकड़े तड़प रहे हैं
मासूमियत ने
वहाँ से पशु के कराहने की
आवाज़ आ रही है
आदमी के ज़िंदा होने की
नक्काशी कर रहा है
पवन-चक्की
चल रही है
धरती पर
किसी बौद्धिक ट्रेन के उलट जाने की चीख़ें
बन्द आँखों की कविता लिखता
गुज़रता हूँ मैं
कविता की मौत निश्चित है
अपनी भाषा से
वह मेरी अमूर्त कविता के पास रुककर कहती है —
हर सभ्यता
नग्न रेशों से बुनी जाती है
हर रेशा
नग्न इच्छा से
धुँधले-से
आकार पैदा करना है
मिट्टी में दफ़न देह को चींटियां कितने कोणों से
खाकर ख़त्म करती हैं?
धार अमूर्त
मरना है तो धार से मरो
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