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Home » रुस्तम की नयी कविताएँ

रुस्तम की नयी कविताएँ

वरिष्ठ कवि रुस्तम की इन कविताओं को प्रेम कविताएँ कह सकते हैं. यह प्रेम गहरा है और इसलिए थिर. हलचल अंदर है. फूल से अधिक उनकी स्मृतियाँ हैं. अगर वे हैं भी तो सूखे और बेजान. जैसे उन्होंने देख लिया एक पूरा जीवन. इनमें जीवन रहस्य समझ लेने की परिपक्वता है. रुस्तम की बीस नई कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
March 3, 2025
in कविता
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रुस्तम की नयी कविताएँ
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रुस्तम की नयी कविताएँ

1.
एक-एक कदम कर
मैं तुमसे दूर चला आया
सूने उस उजाड़ में.
तुम्हारी पीठ मेरी ओर थी.
तुम दूर कहीं ताक रही थीं.

 

2.
भूरी-काली मिट्टी उसके दोनों तरफ़ थी.
बल खाती वह राह
उस झील में
जा मिली
जो लाल पर्वतों से घिरी हुई थी.
झील में भी उस राह पर मैं चलता चला गया.
मेरे आगे-आगे झील

फटती जा रही थी.

 

3.
कैसे पड़ा है
जैसे मृत हो
या फिर मर जाना चाहता हो.
निश्चित ही
लम्बे समय तक यह लड़ा है.
लेकिन जीवन ने इसे पछाड़ दिया है,
फाड़ दिया है इसके हृदय को, इसके मन को,
इसके
आत्म को,
इसे लगभग मार दिया है.
अब यह उठेगा नहीं.

 

4.
गली के मोड़ पर अचानक तुम मिलीं.
हमारी आँखें टकरायीं.
मैं समझ गया कि तुम किसी और जगत् से आयी थीं.
मैं तुम्हारे पीछे-पीछे चलने लगा.

 

5.
एक आदमी चीत्कार करता हुआ चला गया.
एक अन्य बहुत थका हुआ था, वह हिल नहीं पा रहा था.
एक तीसरा भी था जो ज़ख्मों से भरा हुआ था.
एक चौथे का दिल टूट चुका था.
और पाँचवें के बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगा, कुछ नहीं कहूँगा.

 

6.
कल शाम जब मैं
लड़खड़ाते हुए जा रहा था,
पूरा दृश्य मेरे सामने लहरा रहा था.
ऐन उसी वक़्त
मैंने एक पेड़ को
टूट कर
गिरते हुए देखा.

 

7.
तुम नहीं,
तुम्हारे होने का भ्रम लौटा.
मैं उसके पीछे-पीछे चला.
मैंने उसे आवाज़ दी.
वह रुका.
उसने गर्दन घुमायी,
मेरी ओर देखा.
मैं उसकी ओर दौड़ा,
उसे पकड़ने की कोशिश की.
मेरा हाथ
उसके आर-पार चला गया.
लेकिन वह तब भी वहाँ बना हुआ था.

 

8.
हम जायेंगे
उस उजाड़ में
जहाँ पहले भी हम गये थे.
हम वहाँ पर घूमेंगे, चुपचाप हँसेंगे.
सूखा हुआ एक फूल तुम्हारे श्वेत बालों में मैं ठूंस दूँगा.
तुम एक कंकड़ को बहुत दूर, ऊपर तक उछाल दोगी —- वह वापिस नहीं लौटेगा.
एक पहाड़ी को हिलाकर मैं रास्ता बनाऊँगा.
हम प्रतीक्षा करेंगे,
लेकिन इस बार वसंत नहीं आयेगा.

 

9.
मैं सपना लूँगा.
और नहीं, मैं सपना नहीं लूँगा.
एक लम्बी, पतली राह पर मैं चलूँगा.
एक पत्थर उस पर पड़ा होगा.
एक घोड़ा वहाँ खड़ा होगा.
एक पेड़ वहाँ गड़ा होगा.
मैं उन्हें पार कर जाऊँगा.
एक हँसी की आवाज़ सुनूँगा.
एक कऊआ चिल्लायेगा.
एक चील झपटेगी.
मिट्टी का ग़ुबार उठेगा —-
उसकी चोटी आकाश को छू रही होगी.
मिट्टी का ग़ुबार उठेगा.

pinteres से आभार सहित

10.
यूँ लगता है कि सारे पत्ते झर गये हैं.
मेरे पैरों के नीचे वे चरमरा रहे हैं.
लो! मैं बेंच पर बैठ गया हूँ.
तुमने
किसी और दुनिया से आना है.
यह पार्क
एक दमक से भर जायेगी
जब तुम उतरोगी.
तुम्हारे होठों पर दैवीय एक मुस्कान होगी.
तुम्हारे साथ ही मैं उड़कर चला जाऊँगा,
मेरी प्यार.

 

11.
घुप्प अँधेरे में सिर्फ़ वह राह थी जो चमक रही थी.
दोनों ओर पहाड़ियाँ थीं पर वे नज़र नहीं आ रही थीं.
सब कुछ खड़ा था.
न राह चल रही थी, न मैं, न हवा, न पहाड़ियाँ,

न अँधेरा ही.

 

12.
कल मैं गुम हो गया था.
मैं घर से निकला,
मैं एक दिशा में चलने लगा.
मैं बहुत दूर चला गया.
मैं भूल गया कि मुझे वापिस लौटना था.
मैं सब कुछ देख रहा था, तब भी यूँ था जैसे मुझे कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था,
जैसे कि मैं एक धुन्ध में से गुज़र रहा था.
फिर मैं
उसी धुन्ध में घिरा हुआ
सड़क के किनारे
एक जगह पर बैठ गया.

 

13.
रात को मैं तुम्हारे यहाँ आया.
मैं सब कमरों में घूमा.
एक में तुम सोयी पड़ी थीं.
मैंने तुम्हें देर तक देखा.
फिर,
एक दीवार में से होता हुआ
मैं बाहर चला गया.
तुम्हें अहसास तो हुआ होगा
कि मैं वहाँ खड़ा था.

 

14.
रसातल मुझसे ले लो

या फिर
तुम भी इसमें उतर आओ.

मुझे
समतल एक मरु में खड़ा कर दो,

सूखा एक फूल जिसमें पड़ा हो,

जैसे तुम्हारी उँगलियों पर
जो मरु ही हैं

या फिर
वे मृत हैं.

 

15.
सभी बत्तियाँ बन्द होंगी.
हम सूरज को डूबते हुए देखेंगे.
अँधेरा बढ़ता जायेगा.
चीज़ें
सायों में बदल जायेंगी.
साये हिलेंगे,
इक-दूजे में मिलेंगे.
कितनी अजब आकृतियाँ,
आकार बनेंगे!
किसी दूसरे को
हम भी हिलता हुआ,
बदलता हुआ
कोई आकार लगेंगे.

 

16.
जल्द ही
एक राह उभरेगी
इस बंजर में
और उस पर कोई आकृति
तुम्हारी ओर आती हुई.

 

17.
कई चेहरे हैं.
हर चेहरे में कई और चेहरे हैं.
मैं उनमें झाँकता हूँ और ढूँढता हूँ वही एक चेहरा,
वही एक.

 

18.
मेरी स्मृति पुराना एक काँच है.
तुम्हारा बिम्ब उसमें धुँधला पड़ता जा रहा है.

 

19.
एक ख़ुशबू वहाँ फ़ैली थी
उस उजाड़ में.
मैं समझ गया
तुम वहीं कहीं थीं.

 

20.
हवा तड़प रही थी.
मरु में
रेत समझ नहीं पा रही थी कि वह इधर हिले या उधर उड़े.
इसी बेचैन हलचल में दूर मैंने तुम्हें जाते हुए देखा.
बहुत धुँधला था तुम्हारा बिम्ब.

 

 रुस्तम

जन्म: 30 अक्तूबर 1955॰ कवि और दार्शनिक. रुस्तम के हिन्दी में आठ कविता संग्रह प्रकाशित हैं, जिनमें से एक संग्रह किशोरों के लिए है. उनकी “चुनी हुई कविताएँ” 2021 में सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर, से प्रकाशित हुईं. उनकी कविताएँ कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित हुई हैं. इसी वर्ष उन्होंने कुछ अलग स्वर शीर्षक से हिन्दी के अठारह समकालीन कवियों की कविताओं को संचयित व सम्पादित किया है, जो संकलन सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर, से प्रकाशित हुआ है. रुस्तम सिंह नाम से अँग्रेजी में भी उनकी चार पुस्तकें प्रकाशित हैं. इसी नाम से अँग्रेजी में उनके पर्चे राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं.

उन्होंने नार्वे के कवियों उलाव हाउगे व लार्श अमुन्द वोगे की चुनी हुई कविताओं के पुस्तकाकार अनुवाद हिन्दी में किये हैं जो वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, से 2008 तथा 2014 में प्रकाशित हुए. उन्होंने तेजी ग्रोवर के साथ मिलकर एस्टोनिया की प्रसिद्ध कवयित्री डोरिस कारेवा की चुनी हुई कविताओं का अनुवाद किया है जो संग्रह 2022 में राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, से प्रकाशित हुआ. उन्होंने पंजाबी के सात कवियों की कविताओं का अनुवाद किया है जो संग्रह 2022 में सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर, से प्रकाशित हुआ. इसके अलावा उन्होंने पाँच अन्य पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया है.


वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, तथा विकासशील समाज अध्ययन केन्द्र, दिल्ली, में फ़ेलो रहे हैं. वे “इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली”, मुंबई, के सहायक-सम्पादक तथा श्री अशोक वाजपेयी के साथ महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, की अँग्रेजी पत्रिका “हिन्दी: लैंग्वेज, डिस्कोर्स, राइटिंग” के संस्थापक सम्पादक रहे हैं. वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली, में विजिटिंग फ़ेलो भी रहे हैं. वे एकलव्य नाम की एन. जी. ओ. में सीनियर फ़ेलो तथा वरिष्ठ सम्पादक रहे हैं. इस सबसे पहले वे भारतीय सेना में अफ़सर (कैप्टन) भी रहे हैं.


ईमेल : rustamsingh1@gmail.com

 

 

Tags: 20252025 कविताएँरुस्तम
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Comments 12

  1. M P Haridev says:
    3 months ago

    रुस्तम सिंह जी के लिये इन कविताओं को लिखना दुष्कर कार्य रहा होगा । भीतर सुलगती आँच और उससे उठता ग़ुबार तकलीफ़देह होगा । मोहब्बत ज़िंदगी माँगती है । तरह-तरह के शब्दों से रिझाना पड़ता है । रुस्तम जी की शक्ल कठोर [कुराड़ी] या कोमल [मलूक] इस पर कोई परिभाषा नहीं बन सकेगी ।
    समालोचन का यह अंक जल्दी पढ़ा मगर घाव किया या सहलाया, बेख़बर हूँ । १२वीं भ्रम कविता में वो नहीं दिखता और हाथ आर-पार चला जाता है ऐसे ही कविताओं ने मुझे छलनी कर दिया ।
    २० फ़रवरी को ‘कुछ अलग स्वर’ कुरि’अर से मिल गयी थी । अभी यतीश कुमार जी का कविता संग्रह आविर्भाव पढ़ रहा हूँ । ११५ सफ़े पढ़ लिये । आपने चयनित कविताओं की किताब का फ़ोटो खींचकर टिप्पणी में लगाना बाक़ी है ।
    काश यह टिप्पणी यहाँ पोस्ट हो जाये जहाँ ऑटोमेटिकली ईमेल और नाम लिखा जाता है । एक गुज़ारिश-१२वीं कविता में ‘मैं’ शब्द कई दफ़ा लिखा । कम हो सकता था । १३वीं कविता में भी आख़िरी मैं

    Reply
  2. प्रियंका दुबे says:
    3 months ago

    पढ़ रही हूँ ! बहुत सुंदर कविताएँ- अपनी तरह का शिल्प लिए हुए. रुस्तम कम शब्दों में कहना जानते हैं …उनके बिम्ब भी जैसे एक तस्वीर खोलते हैं पाठक के सामने और फिर उसे वहीं छोड़ देते हैं. आगे का रास्ता ख़ुद तय करने के लिए.

    Reply
  3. सोमेश शुक्ला says:
    3 months ago

    रुस्तम जी की कविताएँ यूँ तो कई वजह से मुझे बहुत प्रिय हैं, जिनमें पहली तो यही है कि उनकी कविताएँ पाठक की जीवन, संसार के प्रति उसकी अपनी समझ का भी विकास करती हैं।

    Reply
  4. तेजी ग्रोवर says:
    3 months ago

    राह, झील, फूल, मरू…

    हर कविता के साथ कुछ पल गुज़ारना और इनकी बिलख और गहन प्रशांतता को महसूस करना..

    … रुस्तम की कविताओं के साथ रहना हो तो तसव्वुर की जो क़ुव्वत दरकार है वह पाठक इन कविताओं से अर्जित कर सकता है..

    यह बिलख का ऐसा तस्सवुर है जो जीवन और मृत्यु में भेद और अभेद दोनों को व्यंजित कर रहा है

    Reply
  5. गोपाल माथुर says:
    3 months ago

    वाह! बहुत सुन्दर कविताएं. जैसे नई जमीन पर नए नए फूलों के पौधे.

    Reply
  6. अशोक अग्रवाल says:
    3 months ago

    रुस्तम की प्रेम कविताएं प्रकृति के अनेक अवयवों जैसे झील, चट्टान, नदी, आकाश आदि से सृजित होकर अपना आकार ग्रहण करती हैं। आडंबरहीन शिल्प और फालतू शब्दों से दूरी बनाकर अपना ही संसार रचती हैं। शायद इसी कारण यह कविताएं कभी पुरानी नहीं पड़ती और बार-बार पढ़ने के लिए अपने पास बुलाती हैं।

    Reply
  7. शिव किशोर तिवारी says:
    3 months ago

    एक ही कविता मान सकते हैं – अंग्रेजी में जिसे सुविधाजनक ढंग से ‘लव ऐंड लाॅस’ कहा जाता है उसकी कविता। बीच में कहीं मृत्यु की छाया भी है। शिल्प चुस्त है। बढ़िया!

    Reply
  8. Vidyadhar Garg Shukla says:
    3 months ago

    रुस्तम जी की कविताएँ सचमुच प्रेम की गहराइयों को छूती हैं। उनकी कविताओं में जीवन के रहस्यों को समझने की एक परिपक्वता झलकती है, जो पाठक को अंदर तक झकझोर देती है। फूलों की स्मृतियाँ, सूखे और बेजान होकर भी, जीवन के सच को उजागर करती हैं। उनकी ये बीस नई कविताएँ निश्चित रूप से प्रेम और जीवन के नए आयामों को खोलती हैं। इन्हें पढ़कर ऐसा लगता है कि रुस्तम जी ने जीवन को बहुत नज़दीक से देखा और महसूस किया है। बहुत बढ़िया साझा करने के लिए धन्यवाद!

    Reply
  9. Bipan Preet says:
    3 months ago

    वाह..
    मेरी स्मृति पुराना एक काँच है.
    तुम्हारा बिम्ब उसमें धुँधला पड़ता जा रहा है.
    कमाल की आभा है रुस्तम जी की कविताओं की , कहने को शब्द उमड़ रहे पर अजीब चुप पसर गई है चारों और . और यह चुप मैं बचाये रखूँगी .

    Reply
  10. saloni sharma says:
    3 months ago

    आदरणीय रुस्तम जी की कविताएं प्रथम बार पढ़ी हूँ।कविता पढ़ने की अनुभूति एकदम अलग है जो शिल्प और स्थान से खुद को सजाती लगती है
    समालोचन जैसे प्लेटफार्म पर ही ऐसे सुंदर दृश्य पढ़े जा सकते हैं जो सिखाते और जिलाते दोनों हैं।धन्यवाद🙏

    Reply
  11. विदुलता गोस्वामी says:
    3 months ago

    आदरणीय जी, आपकी कुछ कविताएं साहित्यिक पत्रिका में पढ़ती रही हूं,एक उदास सम भाव उनमें हमेशा रहता है,और उसमें भी उदास निर्जन ,निचाट उतरती दोपहर में प्रेम एक कोयल की कू सा सुनाई भी देता है दिखाई भी ,मुझे आपकी कविता में कोई भाषाई चमत्कार ,ना कोई उठा पठक ना नकल, नाशब्दों का दोहराव इसलिए शायद ज्यादा खूबसूरत और अच्छी लगती है,सादगी मेरी पहली पसंद है इसलिए भी शुभकामना

    Reply
  12. Arun Aditya says:
    3 months ago

    रुस्तम की इन कविताओं में एक दृष्टि ही नहीं एक सृष्टि भी है। यह कवि रचित सृष्टि है जो वास्तविक सृष्टि के सममित नहीं है। यहाँ मूर्त और अमूर्त का द्वैताद्वैत है। बिम्ब मूर्त हैं, लेकिन वे पाठक को प्रेम के जिस लोक में ले जाते हैं वह भाव तरंगों का एक अमूर्त महासागर है।
    रुस्तम की कविताई में मितकथन भी एक दर्शन है। उनका मानना है कि जितना जरूरी है उतना ही कहा जाए। पाठक पर विश्वास है कि वह अनकहे को समझ लेगा। पाठक से पहले खुद पर विश्वास है कि ‘कहे और अनकहे’ के माध्यम से जो उन्होंने जो रचा है वह पाठक के मन पर दस्तक देने में सक्षम है। एक बात और कम शब्दों में लिखेंगे तो कम कागज खर्च होगा। कम पेड़ कटेंगे। जाहिर है कि रुस्तम पर्यावरण और प्राणिमात्र को लेकर बेहद संवेदनशील हैं। प्रेम का पर्यावरण बनाना-बचाना उनका स्वप्न है। प्रेम जो उजाड़ में भी खुशबू बिखेर दे-
    “एक ख़ुशबू वहाँ फ़ैली थी
    उस उजाड़ में
    मैं समझ गया
    तुम वहीं कहीं थीं।”

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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