कोरोना से ऐन पहले
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१)
क्वॉरेंटाइन
ना बोल सुन सकने वाले कोका की उपस्थिति सोसाइटी की सबसे वाचाल उपस्थिति थी जहां पर भी कुछ शोरोगुल हो रहा हो यकीन मानिए कि वहां पर कोका जरूर होगा. मंगोलियन नाक नक्श वाले कोका की धवल दंत पंक्तियां इतनी धवल थी कि नकली का आभास देती थी. उसका चेहरा मोहरा हर किसी को उसे बहादुर पुकारने को उकसाता था. कोई बहादुर पुकारता था तो कोई कोका लेकिन किसी के कुछ पुकारने से उसे फर्क कहां पड़ना था. चेहरे की भाव भंगिमा से और जरा से इशारे से वह समझ जाता था कि सामने वाला उससे क्या चाहता है- जैसे सोसाइटी का सेक्रेटरी स्टेनगन से गोली चलाने का इशारा करता तो कोका दौड़कर पानी का पाइप उठाकर नल चालू करके पौधों को पानी देने लगता. जरूर थोड़ा थोड़ा सुनाई देता होगा, ऐसा लोग मानते थे क्योंकि गेट पर किसी गाड़ी के हॉर्न बजते ही कैसे वह दौड़कर कहीं से प्रकट हो जाता गेट खोलने. वैसे तो यह काम गार्ड साहब का था पर गार्ड साहब तो गार्ड कम साहब ज्यादा थे. वह ज्यादातर समय फोन पर व्हाट्सएप वीडियोज़ देखने और अपने आसपास के मित्रों को फॉरवर्ड करने में मुब्तिला रहते थे. कोका उनके बहुत सारे तरद्दुद अपने सिर पर ले लेता. कभी गाड़ी साफ करते हुए देखकर किसी ने कोका से पूछ लिया- गार्ड किधर है? तो कोका अपनी झक्क सफेद दंत पंक्तियां दिखा कर हंस पड़ता और अपने काम में जुट जाता था. वह इतने घंटे इसी सोसाइटी में दिखता था कि किसी ने जानने की जहमत नहीं उठाई कि वह रहता कहां है, खाता क्या है, कौन उसको पैसे देता है, कैसे काम चलता है उसका. ‘ऐ कोका! चल न क्रिकेट खेलते हैं!’ बच्चों का क्रिकेट का इशारा देखते ही कोका का चेहरा उजास से भर जाता, भले ही सोसाइटी के बच्चे उसे कभी भी बैटिंग करने नहीं देते लेकिन उसकी उत्साहपूर्ण किलकारियां इस बात का गवाह थी कि वह कितना खुश था दौड़ दौड़ कर गेंद लाने में ही सही. बच्चों की चहचहाहट के बीच कोका की किलकारी अलग ही सुनाई देती थी-चीख और सीटी के बीच की कोई ध्वनि- यह उसके उल्लास की चरम अभिव्यक्ति थी. गार्ड कभी कभी डांट भी देता
‘का डेहंडल के तरह कर रहा है रे कोकवा! इ लोग तो बच्चा है, तुम इतना बड़ा गधा हो गया आर..’.
यही सुभाषित अपने छोटे पुत्र के मुंह से अपने बड़े भाई के लिए सुनकर गुप्ता जी बिगड़ पड़े थे- कैसा लैंग्वेज सीख रहा है? कोका के साथ खेलने से हो रहा है. मिसेज गुप्ता ने गुप्ता जी को डांटते हुए कहा- कोका बोल ही नहीं सकता तो लैंग्वेज क्या सिखाएगा जी. इ सब गार्ड से सीखा है. कब से बोल रहे हैं सेक्रेटरी को बोलकर गार्ड को हटवाओ. गार्ड को हरदम फोन में डूबे देखकर सोसाइटी की महिलाएं चिढ़ती थीं. कोका से सब खुश रहती. उनकी हर छोटी-छोटी फरमाइशें दौड़ दौड़ कर पूरी करता है
‘ऐ कोका! गुपचुप वाले को रोक! नवीन स्टोर से एक किलो मैदा और आधा किलो सूजी ले आ दौड़ के! ऐ कोका! एक सौ आठ बेलपत्र तोड़ कर ला देना. आज सावन का आखिरी सोमवार न है.’
और इसी आखिरी सोमवारी के दिन सोसाइटी में, बकौल सेक्रेटरी भोलेनाथ की कृपा हो गई थी. किनारे बने छोटे से शिव मंदिर के पास एक सांप दिख गया. शाम को दफ्तर से घर आने पर मेरे दोनों पुत्रों ने बाकायदा सांप पकड़ने का अभिनय किया. बड़ा वाला बार-बार दोनों हाथों की उंगलियों से दोनों आंखों के किनारे को दबाता और चाँऊ माँऊ जैसा कुछ बोलता और छोटा वाला शादियों में होने वाले नागिन डांस की तरह मुद्राएं बनाकर उछल रहा था इधर उधर.
‘पापा, भैया कोका है और हम सांप. कोका ने सांप को कैसे पकड़ लिया देखिए.
अरे हां, आज कोका नहीं रहता तो गजब हो जाता- यह बच्चे की मम्मी थी.
बार-बार आंख के किनारे को क्यों दबा रहे हो?
बड़े से पूछा, उत्तर छोटे ने दिया
कोका का रोल कर रहा है ना. कोका न, जानते हैं पापा, चिंकी है.’
क्या बेहूदा बात है, बच्चे कहां से सीख रहे हैं यह सब?
मैं बच्चों की मां पर गरजा.
हां गार्ड कह रहा था कि चीनी लोगों के अलावा इस तरह से सांप कोई नहीं पकड़ सकता. वह लोग सांप, चूहे, चमगादड़ सब खा जाते हैं. सांप पकड़ कर सोसाइटी के पीछे वाले टीले की तरफ ले गया था.
हां पापा, उधर ले जाकर पका कर खा गया होगा.
फालतू बात मत करो. हर उस तरह का चेहरे वाला चीनी नहीं होता और है भी तो चिंकी नहीं कहना चाहिए. शायद नेपाल का होगा.
कैसे पता? आपने कभी उसकी बोली सुनी है? और फिर सांप को कहां ले गया?
एक तो बेचारे ने तुम लोगों को सांप से बचाया और तुम लोग… अरे बहुत सारे लोग सांप को मारते नहीं हैं. छोड़ दिया होगा उधर ले जा कर.
मेरे जोर से बोलने से सब चुप तो हो गए लेकिन चेहरे बता रहे थे कि वह मुतमईन नहीं थे पूरी तरह मैं हर आदमी की तरह इत्मीनान था कि वह बात समझ गए होंगे. संडे की शाम थी और सोसाइटी में कोई शोरगुल नहीं. वॉक पर गया तो बच्चे मायूस होकर बैट बॉल लिए बैठे थे.
क्या बच्चा पार्टी? क्रिकेट नहीं हो रहा आज?
कैसे होगा? कोका नहीं आया है ना.
कहां है कोका?
पता नहीं अंकल. तीन दिन से नहीं आ रहा जब से सांप पकड़ा था तभी से.
क्या सिंह जी कहां है कोका?
पता नहीं सर. केन्ने है. दस दुआरी है. होगा कोनों दूसरा जगह.
चिंता हुई कि कहीं सांप ने… फिर मामला हमारी सोसाइटी का था. कुछ हो हवा गया तो हम फंस जाएंगे. सेक्रेटरी से इस पहलू पर बात की. वह भी चिंतित हो गया.
हां सर जी! उसको देख नहीं रहे हैं कई दिन से.
तो पता करना चाहिए ना, काम करवाने में तो आगे रहते हैं.
झुंझलाहट की वजह से कुछ ज्यादा जोर से बोल दिया होगा. वह सकपका गया.
लेकिन सर जी! हम लोग तो जानते भी नहीं हैं कहां रहता है.
आप जानते हैं सिंह जी?
नहीं सर भोरे आ ही जाता था तो कभी मालूम नहीं किए उधर पीछे जो बस्ती है ना उधर कहीं रहता है.
बच्चों में खुसुरफुसुर जारी थी. मेरा छोटा वाला अचानक बोला
पापा! भैया जानता है कोका का घर!
कैसे- त्योरियां चढ़ गई थी तो बड़ा वाला थोड़ा सहम गया. वैसे भी वह कम बोलता था.
नहीं.. वह.. मतलब.. वह रूआंसा हो गया था.
ठीक है, ठीक है चलो. मैं, सेक्रेटरी, गार्ड और मेरा बड़ा बेटा सब चले. लग रहा था कि पता नहीं क्या बात हो. गार्ड को पैसे देकर एक ब्रेड भी मंगवा लिया. जत्था चला टीले के पास से पगडंडी थी और टीले के उस पार एक झुग्गियों वाली बस्ती थी. रास्ते में भटकटैया की झाड़ियां, गंदगी का साम्राज्य फैला था. शाम हो रही थी और टार्च की रोशनी की जरूरत पड़ गई थी. मोबाइल की टॉर्च की रोशनी में हम चले जा रहे थे गंदगी से पैरों को बचाते. बस्ती की शुरुआत में ही टीन टप्पर वाला बोरे से बना एक ढांचा था जिसकी तरफ बेटे ने इशारा किया. सिंह जी ने हाँक लगाई
रे कोकवा! कोई आवाज नहीं. फिर टीन के दरवाजे पर ठक ठकाया. फिर कोई आवाज नहीं. बोरा हटाकर नीम रोशनी में देखा एक टूटी सी फोल्डिंग खटिया पर एक आकृति. कराह जैसी आवाज भी आई. सभी ने अपने मोबाइल के टॉर्च रोशन कर लिए थे. सबसे पहली चीज जिस पर टार्च की रोशनी पड़ते ही चमक उठी वह थी कोका की धवल दंत पंक्तियां. चेहरा अलबत्ता पीला पड़ा था. बेटा भावुक होकर उसकी तरफ बढ़ा तो कोका ने जोर-जोर से सिर हिलाकर हाथ से नहीं नहीं का इशारा किया. बेटा ठिठक गया –
‘का होलो रे कोकवा’ सिंह जी थे. कोका ने सिर को छूकर बुखार होने का इशारा किया.
जूड़ी ताप! अरे तो उधर आता ना दवाई देते साहब लोग.
कोका हड़बड़ा कर उठ बैठा. उसने शायद अब हम लोगों को देखा था. बेटे ने क्रिकेट खेलने का इशारा किया. उन लोगों का इशारों में संवाद जारी था. कोका नहीं नहीं इशारा कर रहा था सिर को छूकर बता रहा था कि बुखार जो है वह बेटे को लग जाएगा. यह बेटे ने बताया हमें, इसलिए वह नहीं आ रहा था.
सेक्रेटरी ने दांत निकाल कर हंसते हुए कहा
उरे साला! अब समझ गया सर जी! इ कोरेंटाइन कर लिया है अपना को. बुखार बच्चा लोग में नहीं चला जाए इसीलिए.
कोका की म्लान हंसी में भी उसके दांत चमक उठे थे. अब तक कोरोना का प्रकोप दुनिया में फैला नहीं था.
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२)
सोशल डिस्टेंसिंग
अरे अशरफ! फिर तुम बाबा के बिछौना पर बैठ गया रे!
उधर से कान पर से जनेऊ उतार कर आते हुए बाबा बकुली लेकर लड़खड़ाते हुए बढ़े और मनोज जो बाबा के बिछावन पर बैठा था, उठकर तेजी से बाहर की तरफ भागा. बाबा ने बकुली उसकी तरफ फेंकी लेकिन निशाना चूक गया. बाबा को कम दिखता था और मजे की बात यह कि यह कहने वाला कौन था खुद अशरफ.
तहरा महतारी के! मीमा के जनमल! आर तहरा जगह ना मिलल बैठे के? इ रकेशवा भी कम हरामी नइखन. सब मीमा तीमा के घरे बोला के बैठावन स. आबे द तोहार बाप के.
रोज का मामला. मेरे बाबा को दुनिया में अगर किसी से बेइंतहा नफरत थी तो वह थे मुसलमान जिन्हें वह मीमा कहकर बुलाते थे. और तो और एक बार तो समीउल्लाह साहब को जो मेरे पिता के कलीग थे, मुंह पर ही कह दिया था- आप लोग का दोस्ती जो है ना वह घर से बाहर. उस दिन के बाद से समीउल्ला साहब कभी घर के अंदर नहीं आए, बाहर से ही आवाज लगाते थे. लेकिन उनका बेटा अशरफ बेखटके आता जाता रहता था और दोस्तों के साथ मिलकर बाबा को चिढ़ाता रहता था. एक बार तो पकड़ भी लिया बाबा ने उसका हाथ.
अरे बाबा! हम मनोज! अशरफ वह देखिए भाग रहा है.
बाबा उसका हाथ छोड़कर “तहरा महतारी के” कहते हुए दौड़े तब तक मनोज गेट फांद कर यह जा वह जा. बकुली पड़ जाती तो…
मेरे पिता ने समीउल्ला साहब से अपने पिता के व्यवहार के लिए माफी मांगी तो समीचच्चा बोले-
अरे छोड़िए पांडे जी! पुराने ख्यालात के आदमी हैं!. अपना जीने का तरीका है जिस पर जिंदगी भर अमल किया है. अभी अचानक बदल कैसे सकते हैं. हमने बिल्कुल दिल पर नहीं लिया है. अशरफ समीउल्लाह चाचा का बड़ा बेटा था और सब मिलाकर नौ भाई-बहन थे. नौ नंबर क्वार्टर में रहने और नौ भाई-बहनों के कारण मैं और मेरे दोस्त उसे नौटंकी बुलाते थे और वह बिल्कुल बुरा नहीं मानता था. समीचच्चा एक स्मार्ट आदमी थे. बिल्कुल नवीन निश्चल की तरह दिखते थे. जाहिर है कि उनके बच्चे भी सुंदर थे. सबसे सुंदर थी सलमा, जो अशरफ के ठीक बाद थी हालांकि उसे देखा कम ही था. शायद खिड़की पर खड़े एक दो बार पर बुर्के में भी उसे पहचान लेते थे सिर्फ उसकी आंखें देख कर. उसकी आंखें भूरी थी और इसीलिए उसे देखते ही मैं अशरफ की ओर देखकर शुरू हो जाता था-
सौ में सूर
हजार में काना
सवा लाख में ऐंचाताना
ऐंचाताना करे पुकार
कुर्री से रहियो होशियार.
भाई जान! देखिए ना! सलमा झूठ मूठ चिढ़ने का नाटक करती और हम सारे दोस्त हंसते थे.
दोस्तों के दल में अशरफ और प्रताप के बीच अक्सर कहा सुनी हो जाती जिसमें प्रताप अक्सर उत्तेजित हो जाता था और अशरफ हंस-हंसकर उसके क्रोध को और हवा देता.
क्या रे खाकी चड्डी! आज गया था सुबह लाठी भाँजने! अब बताओ बंदूक पिस्तौल के जमाने में अभी भी लाठी भाँज रहा है.
हाँ रे मुसल्ला! बंदूक पिस्तौल पर तो तुम लोग का कॉपीराइट है. पूरा दुनिया में हंगामा मचा कर रखा है.
अरे नहीं, ऐसा नहीं है, वक्त जरूरत तुम लोग भी प्रैक्टिस करता है जैसे गांधी जी पर किया था.
इतना कहते ही प्रताप अशरफ के पीछे दौड़ा और अशरफ एक दो तीन.
सुन ना सुन ना! अच्छा बे अशरफवा! तुम लोग का सचमुच हमलोग के खाने में थुकथुका देता है?
राकेश के बाबा तो कहते हैं ऐसा. बाबा कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे. का राकेश?
इस बार अशरफ के प्रताप के पीछे भागने की बारी थी और प्रताप एक दो तीन. राकेश यानी मेरी जान सांसत में. किसकी तरफ से बोले. दोनों को बराबर की मात्रा में डांट डपट करने के बदले वैद्यनाथ सिनेमा में नई पिक्चर दिखाने का वादा करना पड़ता तभी समझौता संभव हो पाता था.
जिस दिन अयोध्या में एक मस्जिद गिरी उसी दिन मेरे बाबा भी गिरे थे और फिर उठे नहीं. कस्बे में तनाव पूर्ण माहौल था और मेरे घर में गमगीन. लेकिन अशरफ ने हम सबको चौंका दिया. बाबा की अर्थी पर इतनी जोर रोया कि हम सब भौंचक्के रह गए. मैं रोया था अपने बाबा के मरने पर पोते को जितना रोना चाहिए उतना ही. शुरू में तो हमने समझा कि हमेशा की तरह नाटक कर रहा है. लेकिन उसके झर झर बहते आंसू और बुक्का फाड़कर रोने की आवाज… श्मशान घाट तक रोता हुआ गया.
जानता है राकेश! बाबा चले गए तो जैसे कुछ खाली हो गया.
दूसरे दिन अशरफ ने कहा-
अब कौन दौड़ायेगा बकुली लेकर. वैसे भी हम लोग का भी साथ छूटने ही वाला है.
इस बार फिर हमारी बारी चौकने की थी.
क्यों?
हम लोग मोहद्दीपुर शिफ्ट हो रहे हैं.
मेरे पिता भी चौंके थे- क्या बात कर रहे हैं समी साहब?
हां पांडे जी! एक जमीन मिल रही थी सस्ते में. एक छोटा-मोटा मकान बनवा कर उधर ही चले जाएंगे.
इधर क्या तकलीफ थी?
नहीं तकलीफ तो कोई नहीं… मतलब.. माहौल तो आप देख ही रहे हैं.
चेहरे पर दर्द था समीचच्चा के. फिर एक दिन वह कयामत का दिन भी आ पहुंचा जब मय सरोसामान अशरफ का पूरा परिवार ट्रक में लदकर मोहद्दीपुर चला गया. सलमा हिजाब के अंदर चेहरा छुपाए थी पर उसकी भूरी आंखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. यह तो मैंने साफ देखा था. शुरुआती दौर में तो हम सभी दोस्तों का आना-जाना लगा रहा है अशरफ के घर लेकिन अशरफ जब अलीगढ़ चला गया पढ़ने तो यह सिलसिला टूट गया. हम लोग भी कैरियर की चिंताओं में ऊभचूभ करने लगे.
समी चाचा को प्रणाम नहीं किया राकेश?
पिता की आवाज सुनकर मैं चौंका और यह चौंकना चार गुना हो गया उस आदमी को देखकर जो मेरे पिता के सामने खड़े थे- झुके हुए कंधे, छोटे-छोटे बाल, सिर पर गोल टोपी, टखने तक पाजामा, लंबा ढीला सा चोगानुमा कुर्ता, ललाट पर नमाज का गट्टा. समीचच्चा थे यह मानने में मुझे थोड़ा वक्त लग गया.
चाय! मेरी मां ने चाय रखी.
और भाई साहब! सब बच्चे वगैरह ठीक हैं? अशरफ भी बहुत दिनों से नहीं आया इधर.
सलाम भाभी जी! सब ठीक है अल्लाह के फजल से और सलमा का निकाह है अगले जुम्मे को. अशरफ भी आया हुआ है उधर निकाह की तैयारियों में मुब्तिला है.
दो झटके एक साथ! सलमा का निकाह और अशरफ कई दिनों से आया हुआ है और मिला तक नहीं!
चलता हूं पांडे जी! आप तो जानते ही हैं. सब इंतजाम करना है- चाय पीकर शीशे का गिलास रखते हुए.
समीचच्चा के जाने के बाद पिता मां को डांट रहे थे- क्या करती हो? शीशे के ग्लास में चाय देने की क्या जरूरत थी? अरे यह तो बाबूजी के समय का तरीका था न. हद करती हो!
देखे नहीं, समी भाई साहब भी तो बड़ा भाई का कुर्ता और छोटा भाई का पजामा पहनने लगे हैं.
माँ टीवी ज्यादा देखने लगी थी. सलमा के निकाह के दिन मेरी हालत वही हो गई थी जो आमतौर पर साइलेंट प्रेमी की हो जाती है. वह बारातियों को फिरनी परोसता हुआ नजर आता है. लेकिन असली झटका तो बाकी था. मेरी निगाहें अशरफ को ढूंढ रही थी और उसके छोटे भाई को पूछा तो हंसते हुए बोला
आपके सामने ही तो खड़े हैं, वह रहे भाई जान!
यह अशरफ है! कई बार उसे इधर-उधर आते-जाते देख चुका था लेकिन पहचान में ही नहीं आया. मुझे लगा समीचच्चा के कोई भाई बंद होंगे. वहीं धजा समी सच्चा की तरह- लंबा कुर्ता, टखने तक पाजामा, गोल टोपी, दाढ़ी भी बढ़ा ली थी और मूँछ लगभग साफ. अशरफ कभी ऐसा हो सकता है कल्पना में भी नहीं था. हालांकि अशरफ ने मुझे भी देखा नहीं था तब तक- भाईजान! राकेश भैया ढूंढ रहे हैं आपको. -छोटे ने आवाज लगाई तो तपाक से मिला गले लगकर.
अभी फुर्सत मिली है तुम्हें?
तुम भी तो कई दिन से हो यहां- मैंने भी उलाहना दिया.
हां यार, दरअसल निकाह की तैयारियों में रह गया, मौका ही नहीं मिला.
यह क्या हाल बना रखा है? कुछ लेते क्यों नहीं? मतलब कहां हमारा स्मार्ट अशरफ और यह हाल?
दीन मजहब फॉलो करना कोई बुरी बात है क्या?
नहीं, मतलब तुम बदल गए हो. थोड़ा अलग लग रहे हो. दूर हो गए हो कुछ ज्यादा ही.
तुम लोगों ने दूर कर दिया है भाई. दीवार में पीठ सट जाए तो… छोड़ो चलो निकाह की रस्म हो रही है. बाद में बात करते हैं इस बारे में.
कोरोनावायरस से पहले ही सोशल डिस्टेंसिंग जैसे हावी हो चुका था.
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३)
सैनिटाइजर
प्रोफेसर गुप्ता अद्भुत प्रोफेसर थे– बड़े अकबाली, बड़े मृदुभाषी और बड़े ही विनम्र. सिर्फ उन्हें किसी ने कभी कुछ पढ़ते पढ़ाते नहीं देखा था. अखबार पढ़ते थे सिर्फ विश्वविद्यालय की निविदा सूचनाएं पढ़ने के लिए. तभी किसी अखबार वाले का फोन आ जाता–
प्रणाम सर! देख लिए पूरे तीन कॉलम में छपा है. बिल लेकर कब तक आ जाएंगे सर? जरा पेमेंटवा जल्दी करवा दीजिएगा.
कहां से होगा बाबू पेमेंट?
हंस कर कहते प्रोफेसर गुप्ता
आज भी सी साहब का छात्र कल्याण संबंधी घोषणा का न्यूज़ कहां छपा?
अरे सर! छपा है विश्वविद्यालय वाला पेज पर देखिए.
वही (स्थान विशेष के बालों का जिक्र करते हुए) भर का न्यूज़? ऐसे नहीं होता है बाबू! तुम इतना अनुभवी पत्तरकार हो.
अरे सर! हमारा भी मजबूरी समझिए. हम लोग लिखते हैं बड़ा, न्यूज़डेस्क वाला काटकर छोटा कर देता है तो क्या करें?
तब तो विषविद्यालय का एडवर्टाइजमेंटवा भी तो कट के छोटा हो जाएगा ना बाबू!- शहद घोलते हुए प्रोफेसर गुप्ता बोलते थे. पत्रकार बेचारा “विषविद्यालय” पर सिर धुनता रह जाता.
सुनो सुनो! देखो घबराओ मत. तुम बात करो अपने यहाँ. हम भी भी सी साहब से बात करेंगे. मैंनेज हो जाएगा.
“मैंनेज हो जाएगा” तकिया कलाम था प्रोफेसर गुप्ता का जिसे गाहे-बगाहे चिपकाते रहते थे और मजे की बात यह कि मैंनेज हो भी जाता था. कैसे कैसे मैनेज करना पड़ता है वही जानते हैं. नहीं तो कम झमेला थोड़े ही हुआ था जब कॉलेज रातो रात कांस्टीट्यूएंट होने वाला था. वह तो गांव में थे धनकटनी करवा रहे थे. खबर मिली थी कि कई कॉलेज कांस्टीट्यूएंट होने जा जिसमें एक के मैनेजिंग कमेटी के सेक्रेटरी उसके गुरुदेव– वही गुरुदेव जो सिर धुन धुन कर मंच पर कविताएं सुनाते थे और गुप्ता जी की जिम्मेवारी थी कम से कम पच्चीस छात्रों को जमा कर आगे वाली कुर्सियों पर बिठाए रखना और वाह वाह! कमाल! फिर से कहिए! वगैरह करवाने की.
कभी-कभी चिढ़ भी जाते– उन्हीं दो कविताओं पर कितनी बार… पर… आज वह दिन आ गया था जब उन तमाम सेवाओं– मतलब खेत के खीरा, बैगन, टमाटर के तमाम संदेश, गाय का घी और समय-समय पर खैनी बना कर चुपचाप गुरुदेव को देने– सबका शिष्य ऋण गुरु को चुकाना था. पहुंचे तो गुरुदेव के यहां मेला लगा था- गुरुदेव के कई रिश्तेदार, कई भावी दामाद, कई सेवाभावी छात्र और एक झुंड वैसे शिक्षकों का भी था जो उस कॉलेज में पढ़ा रहा था लंबे समय से इसी दिन की आस में. होली दशहरा कुछ सौ रुपए मिल जाते थे. गांव से चावल दाल आलू बांध कर ले आते और हॉस्टल नुमा कमरों में ठुँसकर गुजार रहे थे.
कुछ ट्यूशन पढ़ा कर गुजारा करते. एक कमरे में कई रजिस्टर पड़े थे जिसमें गुरुदेव कॉलेज का प्रिंसिपल, जो गुरुदेव का दामाद ही था, एक गुंडा किस्म का शिक्षक– सभी उन रजिस्टरों में नाम चढ़ाने, काटने, भरने, मिटाने की प्रक्रिया में मग्न थे.
गुप्ता जी सीधे साष्टांग गुरुदेव के चरणों में. आंसुओं से चरण पखारते हुए जो बोले उसका अर्थ था कि राजा रामचंद्र जी के राज में उनके हनुमान की यह दुर्दशा! गुंडा शिक्षक के विरोध के बावजूद गुरु ने शिष्य की लाज रखी और एक कमजोर बंगाली शिक्षक जो कई वर्षों से पढ़ा रहा था और जहीन भी था, उसका नाम काटकर गुप्ता जी का नाम लिख दिया गया. लेकिन सिर्फ नाम लिखने से नहीं होता था. एक फाइल बनाई जाती थी, कागजों का मुंह भरा जाता यह साबित करने को कि गुप्ता जी कई वर्षों से कॉलेज में पढ़ा रहे हैं. बीच में कई बार नाश्ता खाना चाय सिगरेट खैनी के दौर भी चले. जाहिर है गुप्ता जी ने सब मैनेज किया और गुप्ता जी प्रोफेसर गुप्ता में परिणत हुए.
फिर कॉलेज से “विषविद्यालय” (गुप्ता जी के शब्दों में) की लंबी यात्रा– उसकी एक अलग कहानी है और किस्सा कोताह यह कि गुप्ता जी उस राजनीतिक दल की तरह हो गए जिसके विधायक तो कम ही रहते हैं पर हर बार सरकार उसी के सहयोग से बनती है. वीसी कोई भी हो गुप्ता जी को जरूर खोजता था, जब भी कुछ मैनेज करने की बात आती थी. वह ऐसे जरूरी पुर्जे थे जिसके बिना काम अटक जाता था. एक बार एक वी सी साहब ने नाराज होकर विश्वविद्यालय की खरीद बिक्री कमेटी से उनका नाम हटा दिया. बस दूसरे दिन से जो अखबारों में, कुकुरमुत्तों की तरह उग आए स्थानीय टीवी चैनलों में, नए वीसी के खिलाफ कैंपेन शुरू हुआ.
सब साबित करने में लग गये कि नया वीसी सर्वथा अयोग्य, परम भ्रष्टाचारी, घृणित जातिवादी और कुछ हद तक सांप्रदायिक भी है. इस कैंपेन की दुर्गंध राजभवन तक पहुंचाने में कामयाब रहे गुप्ता जी मतलब मैनेज कर लिया और एक दिन वीसी चेंबर में वीसी साहब के साथ सुगंधित चाय पीते हुए देखे गए. खरीद बिक्री कमेटी की तरफ से अगले ही महीने फर्नीचर की वृहत् खरीदारी हुई और वीसी साहब की पत्नी भी प्रसन्न हुई. बहुत दिनों से टीक के फर्नीचर की इच्छा दबी हुई थी.
जो भी कहिए, गुप्ता जी हैं काम के आदमी!
हूँ –कहकर वी सी साहब अखबार देखने लगे जिसमें उनकी ईमानदारी और विद्वता की खबरें छपी थी. पर गुप्ता के असली पराक्रम की परीक्षा अब होनी थी? वी सी ने उन्हें बुलाया था गुप्ता जी, आप तो जानते ही हैं. कितनी बड़ी महामारी पूरे विश्व में फैल रही है और इन चालीस हजार छात्रों के स्वास्थ्य, उनके जीवन की जिम्मेवारी है हमारे ऊपर. सरकार एडवाइजरी जारी कर रही है बार-बार. हाथ धोइये, सैनिटाइजर का इस्तेमाल कीजिए.
जी सर! हम लोगों को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए. मतलब आप विश्वविद्यालय के गारजन, (गार्जियन कहना चाहते होंगे) भी तो हैं. हर कॉलेज के गेट पर सैनिटाइजर रखवा दिया जाए सर. दरबान सुनिश्चित करें कि सेनीटाइजर के बाद ही स्टूडेंट कॉलेज में घुसे.
लेकिन यह प्रैक्टिकल होगा? विश्वविद्यालय के अंदर में इतने कॉलेज! हजारों छात्र! ड्रम के ड्रम सैनिटाइजर लग जाएगा! हर कॉलेज के लिए!
मैनेज हो जाएगा सर!
प्रोफ़ेसर गुप्ता के चेहरे पर आत्मविश्वास की आभा से वी सी साहब चमत्कृत थे.अभी सर जैसे बीस कॉलेज है ना तो बीस ड्रम दे दिया जाए विश्वविद्यालय की तरफ से और एक एक ड्रम सब कॉलेज में पहुंचा दिया जाए.
लेकिन बीस ड्रम सप्लाई कौन देगा? इतना सैनिटाइजर!
मैनेज हो जाएगा सर!
मोबाइल लेकर प्रोफेसर गुप्ता चेंबर के बाहर चले गए. कुछ मिनटों के बाद ही चहकते हुए लौटे
मैनेज हो गया सर! बस कमेटी का मीटिंग करके टेंडर कर दिया जाए. मरजेंसी (इमरजेंसी कहना चाहते होंगे) में जयसवाल जी से बात हो गई है. सप्लाई कर देंगे.
कौन जैस्वाल?
अरे सर जायसवाल जी! अपने जिनका बी एड कॉलेज भी है. अपने विश्वविद्यालय के अंदर.
लेकिन उनका तो देसी लिकर का…
अरे सर तो सैनिटाइजर में और होता का है? स्प्रिट ही तो रहता है, उसी में थोड़ा एलोवेरा का जेल, रस सुगंधी उगंधी मार के, बस हो गया और क्या मैनेज हो गया था. हमने जयसवाल जी को फार्मूला बता दिया है. उनका टेंडर एल वन में डाल देंगे.
वी सी साहब प्रोफेसर गुप्ता की दुर्दमनीय प्रतिभा पर कुर्बान हो गए. आनन-फानन में मीटिंग बुलाई गई उसमें इस भीषण महामारी जिससे मानवता को कितना खतरा था इस पर विचार व्यक्त किए गए. हाथ धोने के महत्व, सैनिटाइजर की तुरंत आवश्यकता पर बल दिया गया और प्रोफेसर गुप्ता को नोडल अफसर बना दिया गया. तय हो गया कि गुप्ता जी कल जायसवाल जी की फैक्ट्री (दारू भट्टी) में जाकर निर्देशन निरीक्षण कर आयेंगे कि सैनिटाइजर उच्च गुणवत्ता का बन पा रहा है कि नहीं. कागजी कारोबार तो होता रहेगा. अभी तो वक्त की पुकार है तुरंत एक्शन लेना. लेकिन एक्शन इतना तेज होगा ना गुप्ता जी सोच पाए थे न वीसी साहब.
अभी तो जनता कर्फ्यू में ताली थाली बजाई ही थी उत्साह से गुप्ता जी ने मकान की छत पर काफी देर तक. सपने में भी देखा था कि सैनिटाइजर का एक बड़ा सा कुंड है जिसमें वह तैर रहे हैं. इस पार से उस पार जा रहे हैं. वीसी साहब किनारे पर खड़े होकर उनकी हौसलाअफजाई कर रहे हैं– वाह कमाल कर दिया गुप्ता जी! लेकिन मोबाइल पर वीसी साहब ने कुछ और ही कहा– सब रुकवा दीजिए गुप्ता जी. सब कॉलेज विश्वविद्यालय बंद करवा दिया गया है. अब सैनिटाइजर की कोई जरूरत नहीं.
गुप्ता जी को उसी दिन से सैनिटाइजर से नफरत हो गई है. पत्नी कहती है कि बाहर से आए हैं सैनिटाइजर मल लीजिए हाथ पर. देख नहीं रहे टीवी पर बताता है.
चुप! एकदम चुप! – गरजते हैं प्रोफ़ेसर गुप्ता. नाम मत लो सैनिटाइजर का!
कोरोनावायरस दरवाजे पर खड़ा हंस रहा है.
४)
आइसोलेशन
वैसे तो गबरू मालिक है और झबरू उनका कुत्ता लेकिन अब गबरू न तो गबरू रहे थे और न झबरू, झबरू रहा था. गबरू के कंधे झुक गए थे. कुर्सी से उठने के लिए भी ठेहुनों पर हाथ रखकर सहारा लेना पड़ता और झबरू के झबरे बाल झड़ गए थे खाज के कारण. नाम तो उनका कुछ था जो पेंशन के खाते में दर्ज था और दस्तखत भी करते थे लेकिन इसकी जरूरत महीने में एक ही बार पड़ती थी जब बेटा उनको इज्जत से रिक्शा पर बिठाकर बैंक ले जाता था और उतनी ही बेइज्जती के साथ छोड़ जाता. तेतर टोली के एक प्राइमरी स्कूल में मास्टर रहे थे वे और बाकायदा पैंट शर्ट पहनकर साइकिल पर स्कूल जाते थे. बुजुर्ग हेड मास्टर साहब जो एक खुशमिजाज इंसान थे देखते ही कहते– आ गया गबरू जवान? दोनों क्लास को एक साथ बैठा लो. हम जरा डी ओ ऑफिस से आते हैं.
लेकिन यह सब बहुत पुरानी बातें हो गई. अब तो बस वह हैं और उनका झबरू है. झबरू तब एक छोटा सा पिल्ला था. एक टांग घायल थी. शायद मोहल्ले के बड़े कुत्तों ने झंझोर दिया था. साइकिल की टोकरी में बिठा कर लाए थे. घावों पर मलहम लगाया, पट्टी भी बांधी, दूध में रोटी सान कर दी. उनका बेटा भी पूरे उत्साह के साथ लगा रहा उसकी सुश्रुषा में. दस बारह साल का रहा होगा तब. उसी ने नाम रखा था झबरू घने बालों के कारण. अब तो बस वह है और झबरू है घर के बाहर ओसारे में. चौकी पर वह बैठे रहते और झबरू चौकी के नीचे. उठकर गली से पिछवाड़े की तरफ बने शौचालय में जाते. झबरू भी साथ-साथ जाता था फिर वापस आता था. बेटे ने सरकारी योजना के जरिए एक एक्स्ट्रा शौचालय हासिल कर लिया था. घर के बाकी लोग मतलब बेटा, पतोहू, पोता यहां तक कि खुद की पत्नी भी घर के अंदर बने शौचालय का इस्तेमाल करते. उनकी पत्नी एकमात्र पुत्र की गृहस्थी में बतौर सेविका अपनी भूमिका से खुशी-खुशी शामिल हो चुकी थी.
टीवी पर आने वाले धारावाहिकों और पोते की आकर्षण में बँधी थी. ऐसा नहीं था कि हर दादा की तरह उन्हें पोते से प्यार ना हो पर जब आदमी अपने कानों से सुन ले तो…
तब उनका ठिकाना बैठका हुआ करता था और पत्नी चाय लेकर आती तो कुछ देर बैठती थी. एक सुबह उठे तो नीम का दातुन करते हुए थूक में खून के छींटे दिखे. लगा कहीं दतवन मसूढ़ों में लग गया होगा. लेकिन जब मात्रा बढ़ गई तो बस डॉक्टर के बताने की देर थी. समझ तो गए ही थे वे. बेटे ने सीधे इटकी सैनिटोरियम में भर्ती करा दिया. जल्दी ठीक हो कर आ गए थे लेकिन तब तक उनका ठिकाना बदला जा चुका था वह ओसारे में. उनके वापस आने पर झबरू ने उछल-उछल कर और भौंक भौंक अपनी प्रसन्नता व्यक्त की थी इसीलिए उसका भी प्रवेश घर में वर्जित कर दिया गया. खुद अपने कानों से सुना था उन्होंने, पोते को उसकी मां डांट रही थी–
क्या बाबा-बाबा करता रहता है. उधर नहीं जाएगा. बीमारी लग जाएगा तुमको भी. बहुत डेंजरस होता है. मुंह से खून निकलने लगेगा.
आँय रे झबरू! तुम तो हरदम हमारे साथ रहता है. कभी तो खून नहीं निकला तुम्हारे मुंह से?
भौं भौं कर के झबरू ने इस बात की ताईद की थी उसे तो कुछ नहीं हुआ. पत्नी भी संझाबाती करने बस दरवाजे तक ही आती और लौट जाती. चाय पीने साथ बैठती नहीं. चाय स्टूल पर रख कर चली जाती. चाय रखते हुए भी साड़ी के आंचल से मुंह को दबाये रहती.
रे झबरू! अच्छा किया तुम शादी नहीं किया!
झबरू ने भोंभों कर कहा कि हम इतना बेवकूफ थोड़े ही थे. परिवार का लोग जब तुमको कबाड़ के तरह किनारे फेंक देता है ना तब बहुत तकलीफ होता है रे.
झबरू ने भों भों कर कहा कि तब तो बहुत प्रेम उमड़ आया था बेटा पर जब मकान उसके नाम लिख दिया. पेंशन हर महीना ले लेता है. चिनिया बदाम खाने भर छोड़ देता है.
सब समझते हैं रे झबरू! पेंशन नहीं रहता तो यहां ओसारा पर भी जगह नहीं मिलता. दरवाजा तो दूसरी तरफ से खोल लिया ना. बहू को दिक्कत है ना इधर से आने जाने पर भी. देख तो झबरू! खाना नहीं दिया अभी तक.
झबरू दूसरी तरफ़ के दरवाजे पर जाकर भौंक भौंक कर खबर करता है कि आज गबरू को भोजन देना भूल गए हैं वे. लेकिन बेटा बहू बाजार गए. पोता स्कूल गया है और पत्नी सास भी कभी बहू थी देखकर टसुए बहाने में मगन. झबरू दरवाजे को खरोंचता है, भौंकता है, भौंंकता ही जाता है पर टीवी जोर जोर से चल रहा है. पोता स्कूल से लौटते ही कॉल बेल बजाता है. दादी हुलस कर दरवाजा खोलती है-
आ गया रे मेरा बाबू! चल जल्दी से ड्रेस बदल ले! खाना देती हूँ.
दादी! जानती हो, उधर झबरू नहीं है!
गया होगा इधर उधर कहीं.
नहीं रोज तो रहता है इस टाइम.
तुम कैसे जानता है? उधर जाने मम्मी मना किया ना.
क्यों मना की है?
उधर बाबा रहते हैं न?
तो? बाबा तो अच्छे हैं. रोज हमको देख कर हंसते हैं.
तुम रोज उधर जाता है?
हां, स्कूल बस से उतरकर पहले उधर ही तो जाते हैं. झबरू के साथ खेलते हैं तब इधर आते हैं.
चलो रगड़ कर हाथ पैर धो लो. आज भी छुआ था झबरू को?
नहीं आज तो झबरू था ही नहीं. बाबा भी नहीं थे.
कहां चला गया बुढ़वा? जान लेकर रहेगा.
बेटा पतोहू बिग बाजार के थैलों के साथ आकर देखते हैं. पोता खाना खा रहा है दादी सिर पर हाथ धरे बैठी है– ओह रे करम! आज तो बुढ़वा को खाना ही नहीं दिए! देखो ना ज्यादा भात देखकर याद आया. बोले भी तो नहीं एक बार भी. देखो ना कहीं चले गए हैं बाबूजी.
बेटा किटकिटाकर बोला– टीवी का आवाज में सुनोगी तब ना. अब कहां खोजें?
बहू बेटा को एक किनारे ले जाकर फुसफुसाती है– जाने दो! हमेशा का झंझट खत्म हुआ.
अक्कल नाम का चीज है कि नहीं? इसी महीना में लाइफ सर्टिफिकेट देना पड़ता है. कहां से देंगे? पेंशन भी रूक जायेगा. बहुत ढूंढा बहुत ढूंढा न गबरु मिले न झबरू. इश्तेहार भी दिया– ढूंढने वाले को पच्चीस हजार का इनाम! पेंशन भी तो इतना ही था.
कोरोना काल से पहले ही आइसोलेशन से निकल भागे थे झबरू और गबरू.
५)
लॉकडाउन
(Painting: jozef-israels: the-day before parting)
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अपनी छत पर पचास पुशअप्स करके जैसे ही खड़ा हुआ तो लगा जैसे उस कोठरी में बने एकमात्र छोटे से जंगले के सामने से कोई अचानक हट गया. ऐसा कैसे हो सकता है? दरवाजे पर ताला बदस्तूर लगा हुआ था! जहां तक मेरी जानकारी थी उस मकान में तो कोई रहता नहीं था. शायद वहम हुआ होगा. दूसरे दिन भी जब ऐसा ही लगा तो पता करने की ठानी. देर रात छत पर गया तो उस जंगले से मद्धम सी रोशनी आती दिखी और ताला भी खुल चुका था. हालांकि यह अपने छोटे से टार्च की रोशनी के छोटे से भरोसे पर कह रहा हूं जो इतनी दूर से ताले पर रोशनी डालने के लिए शायद काफी ना था.
सुबह फिर छत पर आया तो वही नजारा! दिन के साफ शफ्फाफ उजाले में ताला नजर आया. हालांकि इतनी बेकली गैरजरूरी थी. पर आज फिर लगा कि कोई जंगले पर से हट गया है. दरअसल यह मकान बन्ने भाई का था और नीचे एक बड़ी सी गोदामनुमा जगह थी जिसमें दिनभर ठेले छकड़ों का आना-जाना लगा रहता था. कभी-कभी छोटे ट्रकों से माल उतारने की घुर्राहटें और इंसानी आवाजें सुनाई देती थी पर शाम के बाद अमूमन वीरानगी सी छाई रहती थी और पूरा मकान नीमरोशनी की एक आसेबजदा उदासी में डूबा सा लगता था. इसीलिए और सवालों की हुड़क मन में उठ रही थी. आखिर चक्कर क्या है? बन्ने भाई तो मोहल्ले की दूसरी तरफ रहते थे और कभी-कभार, वक्तन फवक्तन ही नजर आते थे. वैसे बन्ने भाई की जो इनफरादियत थी उसकी वजह से सीधे सीधे पूछा नहीं जा सकता था- सख्त चेचकरू चेहरा, आबनूसी रंगत, टखने तक का पाजामा, बड़ा सा काला कुर्ता, गोल काले रंग की टोपी, पेशानी पर नमाज का गट्टा और पाजामे के नेफे में खुँसा कट्टा. मिल भी जाएँ तो पूछताछ की हिम्मत ना हो. लेकिन जब भी छत पर जाता तो जंगले की तरफ टकटकी लगाए देखता रहता लेकिन वही मंजर दरपेश रहता. दरवाजे पर झूलता एक ताला था और छोटे जंगले पर… नहीं कोई नहीं… वहम ही रहा होगा.
पर उस दिन तो चांदनी रात थी. गर्मी लग रही थी तो छत पर टहलने चला गया. निगाहें उसी कोठरी की तरफ थी. हालांकि दूरी थोड़ी ज्यादा थी फिर भी लगा जैसे एक पल को दरवाजा सटाक से खुला और फटाक से बंद हो गया. कोई तो था जो कमरे में गया. काफी देर तक खड़ा रहा.
इंतजार करता रहा कि अगर कोई गया है तो निकलेगा पर जब घंटों तक कोई ना निकला तो फिर छत से नीचे आ गया. आखिर कौन गया था कोठरी में? कहीं कोई चोर वोर तो नहीं? लेकिन नीचे गोदाम में तो रखवाली के लिए आदमी है तो सीढ़ियों से उसके सामने से चोर कैसे आ सकता है? मैंने कई बार देखा है उस मुस्टंडे को एकदम चाक चौबंद मुस्तैदी से पहरा देते हुए. सुबह-सुबह जब वॉक पर जाता हूं तो रशीद के टपरी पर चाय पीता भी नजर आता है.
सलाम भाई जान! उसने घूर कर देखा- हां बोलो!
आप रात को भी यहीं रहते हैं?
हां क्यों?
ऊपर वाला घर खाली है न?
अब उसने खा जाने वाली ठंडी निगाह डाली. काहे?
नहीं एक आदमी किराए के लिए पूछ रहे थे.
मैं बचकर निकलना चाह रहा था
सुनो सुनो कौन आदमी?
नहीं मतलब.. है… पहचान वाला है.
तुम तो हाशिम साहब के लड़के हो ना?
जी.. जी..
जो भी है उसको बोलना जाकर बन्ने भाई से बात करेगा. तुम एजेंटी मत करो.
जिस ऐंठ और गुस्से से उसने यह बात कही मुझे अच्छा नहीं लगा. एक बात और हुई कि वह आदमी शाम में एक बार गोदाम की छत पर आने लगा. आता, इधर-उधर देखता जैसे नजर रख रहा हो. कसरत करते हुए मुझे देख कर चला जाता. हालांकि मैंने कोशिश की कि उससे नजरें ना मिले फिर भी… कोठरी के ताले को चेक करके वह फिर चला गया. दूसरे दिन रशीद चाय वाले ने मुझे बुलाया
ऐ बाबू सुनो इधर! ज्यादा छत पर मत घूमा करो और इधर उधर ताक झांक मत करो. अपना काम से काम रखो.
नहीं रशीद चा हम तो अपने छत पर खाली कसरत करते हैं बस.
बोल दिया ना बस. नहीं तो हाशिम साहब से कहना पड़ेगा.
इसके बाद तो बेचैनी और बढ़ गई. आखिर बात क्या है क्या? कोई डर का सामान है उस कोठरी में जो यह लोग चाहते हैं कि कोई देखे नहीं किसी को पता ना चले उसके बारे में. जंगले के सामने से अचानक हट जाने का सिलसिला अभी भी जारी था. देर रात दरवाजे का सटाक से खुलना और झटाक से बंद हो जाना भी. शक धीरे-धीरे यकीन में बदलता जा रहा था कि कोई तो रहता है उस कोठरी में और कोई तो आता जाता है. दोस्तों से जिक्र किया तो मजाक उड़ाने लगे
उस कोठरी में बला की खूबसूरत चुड़ैल का बसेरा है और उसे तुमसे मोहब्बत हो गई है. आखिर तेरा सिक्स पैक देखती है रोज अब तो दोस्तों से भी किसी मदद की तवक्को नहीं रही. मेरी और उस छत के दरम्यान थोड़ी-चौड़ी गली थी. अगर छतें मिली रहती तो. बहादुरी दिखाई जा सकती थी लेकिन दूरी खासी थी और कई बार देखा था कि वह आदमी जो रखवाली करता था वह गली में भी घूम जाता था. लेकिन इस कदर बेकली बढ़ गई थी कि एक दिन एक शीशा लेकर छत पर गया ठीक उसी वक्त जब सूरज उस मकान की तरफ होता था फिर सूरज की किरणों को पीछे से वापस जंगले पर फेंका और अचानक… अब तो पूरा यकीन हो गया कि कोई तो रहता है. रोशनी पड़ते ही हड़बड़ाहट में जंगला बंद भी कर दिया किसी ने. दूसरे दिन इरादा किया कि रशीद चा से दरयाफ्त करूंगा तो पहले तिरछी मुस्कान डाली फिर नाराज हो गए
तुमसे कहा था ना ज्यादा नाक न घुसेड़ो. कुछ नहीं है, बन्ने भाई ने कश्मीरी सेव रखा हुआ है वहां पर.
लेकिन गोदाम तो नीचे है ना?
ज्यादा दिमाग ना लगाओ. लगता है तुम्हारे अब्बा को कहना ही पड़ेगा पढ़ाई लिखाई से ज्यादा तुम्हारा दिल जासूसी में लग रहा है.
अगले दिन जब हमेशा की तरह कसरती करतबों में मुब्तिला था तो नजर जंगले पर ही लगी थी. अचानक एक हाथ नमूदार हुआ- दूधिया गोरे रंग में जैसे चुटकी भर सिंदूर डाल दिया हो किसी ने और एक कागज का गोला सा जंगले से बाहर गिरा. फिर एक तवील खामोशी… क्या सचमुच कोई है? जिसने मेरे लिए कोई पैगाम भेजा… कोई बात या ऐसे ही.. बेमकसद. लेकिन यह तो तय हो गया था कि कोई इंसान तो है अंदर. तो फिर ताला क्यों बंद है? कागज मिले कैसे? मुझे तो किसी हालत में उस छत पर जाने नहीं देगा वो रखवाला. उसे शायद थोड़ा शक भी हो गया था. कई बार उधर ताक झांक करते शायद देख भी चुका हो. मोहल्ले के बच्चों में से एक गुड्डू को पटाया. छोटा था पर होशियार.
अंकल! हमारी गेंद चली गई है उस छत पर. उतार लें जाकर वहाँ से?
कोई जरूरत नहीं है.
कमाल की एक्टिंग की रोने की.
अंकल अब्बा मारेंगे. नई गेंद थी.
हममें करार हो चुका था. नई गेंद मैंने ही उस छत पर फेंकी थी.
जाओ जल्दी लेकर आ जाओ.
अगले कुछ लम्हों में गुड्डू उस कागज को मेरे हाथ में दे रहा था और नई गेंद लेकर भाग रहा था. कागज खोल कर देखते ही झटका लगा. उर्दू में लिखा था लिपस्टिक से और मैं उन मुसलमानों में था जो उर्दू की रस्मुलखत से वाकिफ न था. तकरीबन दौड़ता हुआ उर्दू पढ़ने वाले एक दोस्त के घर पहुंचा –
“बचा लो अल्लाह के वास्ते ” दोस्त ने बताया. रगों में खून जम गया हो. तो सचमुच कोई है उस कमरे में जिसको मदद चाहिए. अब तो बन्ने खान से बात करनी पड़ेगी. जरूरत हुई तो पुलिस भी… गलियारे में बन्ने भाई मिल भी गए इस्तिंजा से फारिग होकर मिट्टी का ढेला छूकर उठे और पाजामे का नाड़ा बांध ही रहे थे कि मैंने आवाज दी- बन्ने भाईजान!
आवाज शायद लरज रही होगी. बन्ने मियां ने घूरा- हां बोलो! नेफे में खुँसा हुआ कट्टा साफ़ दिख रहा था.
ऐ शकूर!
जी भाईजान!
देख लेना जरा हाशिम साहब का लौंडा क्या चाहता है.
मेरी बात को जरा सी भी तवज्जो नहीं दी. लेकिन शकूर ने किनारे ले जाकर बन्ने भाई से सरगोशियों में कुछ कहा तो बन्ने मियाँ घूमकर मेरे सामने खड़े हो गए कमर पर हाथ रखे.
सबने समझाया तुमको अपने काम से काम रखो. समझ में नहीं आता? वह तो तुम्हारे अब्बा भले आदमी है इसीलिए…
शकूर! जरा ठीक से समझा देना इसको.
रात में अब्बा से जिक्र करते ही मुझ पर ही बरस पड़े- तुम जानते भी हो किस से दुश्मनी मोल ले रहे हो? चुपचाप पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दो.
रात में गाड़ियों की घर-घराहट से नींद उचट गई थी. पहले लगा कुछ सामान वगैरह आया होगा. बाज दफा ऐसा होता रहता था लेकिन इंसानी आवाजें भी थी जिसमें शकूर की खरज़दार अलग से पहचानी जा रही थी. जैसे दबी आवाज में धमका रहा हो किसी को- चुपचाप बैठो!
गाड़ियां चली गई थी. सुबह जल्दी ही छत पर चला गया. जंगला बंद था. दरवाजे पर ताला बदस्तूर झूल रहा था.
कोरोना की वजह से इक्कीस दिनों का लॉक डाउन शुरु हो चुका था और वह कागज अब तक मेरे पास पड़ा था- गहरे दुख और अफसोस के साथ.
15 जनवरी, 1965 (राँची)
क्विज़मास्टर, हुड़ुकलुल्लु, जिद्दी रेडियो, वाशिंदा@तीसरी दुनिया आदि कहानी संग्रह प्रकाशित.
इंडिया टुडे’ का युवा लेखन पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद् का युवा सम्मान, इसराइल सम्मान, मीरा स्मृति पुरस्कार, राधाकृष्ण पुरस्कार, वनमाली कथा सम्मान प्राप्त.
आकाशवाणी, राँची में कार्यक्रम अधिशासी.
ईमेल : pankajmitro@gmail.com