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समालोचन

Home » अच्छा आदमी: सुभाष चन्द्र गुप्त

अच्छा आदमी: सुभाष चन्द्र गुप्त

‘अच्छा आदमी’ पंकज मित्र का पांचवां कहानी संग्रह है जिसमें नौ कहानियां शामिल हैं. इसका प्रकाशन राजकमल ने किया है. इस संग्रह की चर्चा कर रहें हैं सुभाष चन्द्र गुप्त. कहानियों के माध्यम से वर्तमान समय की दृष्टिपूर्ण विवेचना है. प्रस्तुत है.

by arun dev
August 16, 2022
in समीक्षा
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अच्छा आदमी: सुभाष चन्द्र गुप्त
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अच्छा आदमी
विकास के विरोधाभास की कहानियां

सुभाष चन्द्र गुप्त

समकालीन कथा परिदृश्य के सुपरिचित कहानीकार पंकज मित्र का सद्य प्रकाशित पाँचवाँ कहानी-संग्रह है-‘अच्छा आदमी’. संग्रह की कहानियां एक लम्बी यात्रा तय करती हैं. इस क्रम में शहर से गाँव तक का भूगोल अपनी विडम्बनाओं, विसंगतियों व विरोधाभासों के साथ सामने आया है. उनकी कहानियों के आयतन का शहर से गाँव तक फैला होना स्वाभाविक भी है और उनके अद्यतन समय-बोध का परिचायक भी. दो राय नहीं कि नव उदारवाद के दौर में भारत के भीतर दो भारत के होने का अहसास गहरा हुआ है. मुट्ठीभर सुविधा-संपन्न लोगों का भारत जो शहरों में है और दूसरा बहुसंख्यक  गरीबों, किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों का भारत जो गाँवों में रहता है. पहला भारत बीस प्रतिशत  खाये-पीये व अघाये लोगों का है, जबकि दूसरा अस्सी प्रतिशत  विवश और विकल लोगों का भारत है.

पहले भारत में भूमंडलीकरण, उदारवाद  आधुनिकतावाद आदि का शोरगुल हैं, पूंजी के तिलिस्मी खेलों पर टिके नव बाज़ारतंत्र की चमक-दमक है तो दूसरे भारत में गरीबी, कुपोषण, बीमारी, असमानता, दमन, शोषण, लाचारी का अंधेरा है. गाँव से शहर तक की रचना-यात्रा में पंकज मित्र ने श्रमजीवी वर्ग से लेकर एरिस्टोक्रेट समाज तक का अवलोकन किया है और पाया है कि एक ओर जीवन-रक्षा के लिए बुनियादी चीजें भी पर्याप्त नहीं हैं, पर मूल्यों और मनुष्यता  को बचाये रखने की भरपूर कोशिश हैं, जबकि दूसरी तरफ लालसाओं की भयावह मरीचिका है जहाँ चमक एवं रंगीनियों के पीछे घिनौनी सौदेबाजियाँ और शोषण-दोहन के जटिल रूप दैनिक जीवन में व्याप्त हैं. पर नव उदारवाद के दौर में शहरी भारत की तरह ग्रामीण भारत भी जटिलताओं और कुटिलताओं की गिरफ्त में आता गया है. पंकज मित्र पूरी प्रामाणिकता, पारदर्शिता  और तथ्यपरता के साथ भारत के मौजूदा दौर की द्वन्द्वात्मक संरचना से रू-ब-रू कराते हैं.

बाज़ार-केन्द्रित उदारीकरण में जिस विकास-मोडल में हम रहने को अभिशप्त हैं, वह अद्भुत  विरोधाभासों से भरा है. इस विकास मोडल का जमीनी सच यह है कि मोबाईल के एक काल पर दस मिनट में हमारे घर पर पिज्जा-बर्गर की डेलीवरी हो जाती है, पर घंटों प्रतीक्षा करने के बाद भी ‘एम्बुलेंस’ नहीं आ पाता.

झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा जैसे राज्यों के सैकड़ों गाँव 21 वीं सदी में भी सड़क-मार्ग से जुड़ नहीं पाये हैं. बाहर से आनेवाले लोग एन.एच. के किनारे उतरकर खेत की पगडंडियों पर चलते हुए इन गांवों तक पहुँचते हैं. एक ओर परमाणु-शक्ति, आई.टी., बुलेट ट्रेन  आदि के बलबूते भारत को महाशक्ति बनाने का कोशिश हो रही हैं और दूसरी और खेती-किसानी पर निर्भर दो-तिहाई आबादी मृत्युशय्या पर पड़ी है. बेरोजगारी लगातार बढ़ती जा रही है और रोजमर्रा की आधारभूत जरूरतें पूरी न कर पाने की मनोदशा में आत्महत्या करनेवालों का ग्राफ तेजी से चढ़ा है. क्या यह सच नहीं कि नव उदारवाद की अर्थनीति और राजनीति ने नयी-नयी समस्याओं को जन्म दिया है तो पुरानी समस्याओं को जटिल बनाया है? यह बाज़ारवादी सभ्यता चाहती है कि देश और दुनिया के कोने-कोने में सौंदर्य-प्रतियोगिता के नाम पर स्त्री-अंगों का प्रदर्शन होता रहा, शराब और सेक्स की रंगीनियां इतनी फैले कि आम लोगों की जिन्दगी से जुड़े जरूरी सवाल स्थगित हो जायें, भूख, गरीबी, अशिक्षा , बेरोजगारी जैसे जलते प्रश्न नेपथ्य में चले जायें, विश्व बाज़ार के नाम पर तीसरी दुनिया के देश जिस चक्रव्यूह में फंसे हैं, उनसे बाहर निकलने का रास्ता दिखायी न दें, आदमी की बुनियादी जरूरतों से जुड़ा कोई भी जन-संगठन या जन-आंदोलन सिर न उठा सके.

यह व्यक्ति और समाज को मदहोश करनेवाला दौर है, न कि चेतनशील बनानेवाला. बाज़ारवादी जीवन-दृष्टि ने पाशविक भोगवाद, हिंसक संचय की प्रवृतियों और घनघोर आत्मकेन्द्रीयता को विस्तार भी दिया है और गहराव भी. संस्था और संसाधनों पर एकाधिकार कायम करने के जो तिकड़मी संस्कार पूँजीतंत्र और बाज़ारतंत्र ने विकसित किये हैं, उसने व्यक्ति तथा समाज को असंगतियों और अंतर्विरोधों से भर दिया है. महत्वाकांक्षी सुविधाओं की तलाश में जो लोलुप और मूल्यहीन जीवन-विवेक अस्तित्व में आया है, वह सामाजिकता के लिए घातक साबित हुआ है.

पंकज मित्र आज की समस्याओं को ही उठाते हैं, पर समस्याओं का कहानीगत ट्रीटमेंट बिल्कुल अलग है क्योंकि कहानियों का गन्तव्य अलग है. संग्रह की लगभग सारी कहानियां एक तरह से समाज के नकारात्मक और नैतिकता शून्य रुझानों का विश्वसनीय पाठ है. सामाजिक संबंधों और अनुबंधों से जुड़े आर्थिक व नैतिक अपराधों की जिस तरह की सूचनाओं से हमारा वास्ता संग्रह की कहानियां कराती हैं, उन्हें देखते हुए इन कहानियों को अतिवादी, काल्पनिक या अपवाद स्वरूप मानना गलत होगा. तथाकथित विकास और आधुनिकता के नाम पर जो विकृतियाँ समाज में जगह बनाती गयी  हैं और एक छद्म नैतिक आग्रह के नीचे चलनेवाली बहुरंगी अनैतिकताएँ किस तरह सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषण से आच्छन्न करती गयी है- संग्रह की कहानियां पूरी निर्ममता के साथ, लेकिन एक स्पष्ट मूल्यधर्मी पक्षधरता को सहेजे सामने आती हैं. स्थितियाँ इतनी जटिल है कि जो दिखता है, वह सच नहीं है और जो सच है, वह दिखता नहीं है. ऐसे जटिल परिदृश्य में व्यक्तियों और वस्तुओं की प्रवंचनापूर्ण शक्ल का अनावरण व विखण्डन ही पंकज मित्र की कथा-प्रक्रिया है, पर इस अनावरण व विखंडन की कथा-प्रक्रिया के बीच से उभरती छवियों और वैचारिकी के मानवीय सारतत्व को बचाना ही सही मायने में संग्रह की कहानियों का रचनात्मक गन्तव्य है.

संग्रह की पहली कहानी ‘मंगरा मॉल’ पूँजी और बाज़ार की युगलबंदी पर चमकते भारत और उसके पीछे घसीटते-कराहते आदिवासी कलाकार मंगरा की जीवनगत त्रासदियों को बेपर्दा करती है. मंगरा के जरिए यह व्यक्तिवाचक कहानी प्रकारांतर से आदिवासियों की शोषित-प्रताड़ित और अभिशप्त सामूहिक नियति की ओर संकेत करती है. सहज, सरल, निश्छल, सौम्य और लोकतांत्रिक चरित्रवाला मंगरा आदिवासी समाज का एक लोकप्रिय कलाकार है जिसके मांदर की थाप आदिवासियों के मनप्राण में जीवनवाही ऊर्जा और सांस्कृतिक चेतना की विराट अनुगूंज का संचार करती है. जल, जंगल और जमीन की प्रकृतिजन्य संरचना को अस्मिता माननेवाले आदिवासी समाज के भोले-भाले मंगरा को सम्मान व समृद्धि के स्वप्न-जाल में उलझाकर छल व बल से जिस तरह उसकी पुश्तैनी और एकमात्र जीविका के आधारवाले भूखंड पर कब्जा कर एक विशाल मॉल का निर्माण होता है और इस षड्यंत्रकारी परिणतियों के समक्ष मंगरा अपने को जिस तरह असहाय, निरीह, छला गया और सर्वहारा महसूस करता है-ये स्थितियाँ एक ओर पूँजीवादी शक्ति-संरचना की वर्चस्वकारी क्रूरता को उभारती है और दूसरी तरफ इस तथ्य को पुष्ट करती हैं कि 21वीं सदी के नव उदारवाद के दौर में भी आदिवासी समाज अपने शोषण-दोहन और दमन की अभिशप्त नियति से मुक्त नहीं हो पाया है.

इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि मध्यकाल तक भारतीय जनजातियों को प्रकृति विरोधी शक्तियों के खिलाफ युद्धरत होना होता था. कभी-कभी अस्तित्व एवं वर्चस्व के लिए आपसी टकराव भी होते थे. सामंती सत्ता के अधीन रहकर भी अपने जंगल, अपनी जमीन और अपनी स्वतंत्रता का पूरा-पूरा उपयोग वे कर सकते थे. मुगल शासन काल तक आदिवासी समाज को जीवन जीने में कोई व्यवधान या खतरा महसूस नहीं होता था. उनका निजी जीवन अभावग्रस्त और जद्दोजहद भरा रहा, पर वे प्रकृति के बीच पूरी सहजता के साथ रहने में सक्षम थे. लेकिन अंग्रेजी उपनिवेशवाद के आरंभ के साथ ही जनजातीय समाजों के सामने कई तरह की चुनौतियाँ पैदा होती गयी. इन चुनौतियों ने आदिवासी समाज के सामने न केवल सांस्कृतिक संकट पैदा किया, बल्कि अस्तित्व का संकट भी पैदा किया. ब्रिटिश शासक वर्ग ने आदिवासी समाज-संस्कृति की लोकतांत्रिक व्यवस्था को तो क्षतिग्रस्त किया ही, उनके ऊपर औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था भी थोप दी. सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि आजादी के बाद आदिवासी-समाज में अपनी अभिशप्त नियुक्ति में बदलाव होने की आशा जगी थी, पर आशा साकार नहीं हो सकी. लेकिन हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि आजादी के बाद की सरकारों की आँखों में लोक-लाज का लोकतांत्रिक पानी बचा था, पर एकध्रुवीय विश्व-व्यवस्था के गर्भ से जन्में नवउदारवाद के दौर में राजनीतिक सत्ता लोकतंत्र की चादर उतारकर नंगी और बेशर्म रूप में पूंजीवादी बाज़ारतंत्र के साथ खड़ी हो गयी है.

‘मंगरा मॉल’ शीर्षक कहानी आदिवासियों के संदर्भ में अर्थनीति एवं राजनीति की दिशा पर भी गंभीर विमर्श को जन्म देती है. यह सर्वविदित है कि आदिवासियों की जमीन-जायदाद को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सी.एन.टी. जैसे कई एक्ट बने हुए हैं, बावजूद इसके आदिवासियों की जमीन पर कब्जा बनाने की घटनाएं होती रहती हैं. गौरतलब है कि ‘

‘पूँजीवादी राज्य एक तरह जनतंत्र का मुखौटा धारण करता है,  जनता के नाम पर काम करने का दिखावा करता है और दूसरी तरफ हर तरह की चालबाजी और पाखंड करता है. पूँजीवादी राज्य अपने स्वामी वर्ग के साथ अपने संबंध का निर्वाह बड़े छद्म ढ़ग से करता है. वह प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं को जन्म देता है, राज्य के विभिन्न निकायों के बीच श्रम-विभाजन तय करता है और इस तरह की तस्वीर पेश करता है मानो राज्य वर्गीय अंतर्विरोधों की उपज नहीं है. दिखावे के तौर पर वह समाज के विभिन्न वर्गों के बीच शक्ति-संतुलनकर्ता और न्यायकर्ता की भूमिका अपना लेता है और इसके लिए उसके हाथ में एक ही हथियार होता है- सार्विक मताधिकार जिसके द्वारा वह यह दिखाना चाहता है कि राज्य पर बिना किसी भेदभाव के राज्य के सभी नागरिकों का समान अधिकार है. लेकिन असंख्य दृश्य-अदृश्य माध्यमों से राज्य पूंजीपतियों की मुठ्ठियों में बंद रहता है. पूंजीपति वर्ग अपना नियंत्रण भ्रष्ट तरीकों से, मंत्रियों, नेताओं और अफसरों की खरीद-बिक्री आदि के माध्यम से उत्पादन के साधनों पर और विनिमय पर अपना नियंत्रण बरकरार रखता है. जबतक सार्विक मताधिकार, राज्य और पूंजीपति वर्ग के बीच उपर्युक्त संबंध को बाधित नहीं करता, तबतक वह बदस्तूर जारी रहता है. लेकिन जैसे ही वह संबंध गड़बड़ाने लगता है तो राज्य सार्विक मताधिकार का चोला उतारकर फेंक देता है और अपने निरंकुश और रक्त पिपासु रूप में सामने आ जाता है. तब यह बात साफ हो जाती है कि किसी भी पूंजीवादी राज्य की असली ताकत निर्वाचित संसदीय संस्थाओं में नहीं, बल्कि पुलिस, सेना और नौकरशाही में होती है.’’
(स्रोत: दास कैपिटल)

दो राय नहीं कि नव उदारवाद का दौर पूंजीवादी जनतंत्र का दौर है. यही कारण है कि पूंजीवादी बाज़ार तंत्र की बागडोर थामें बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देश के कारपोरेट घरानों की गिद्ध नजर सीधे-सीधे आदिवासियों के भूखण्ड़ों और उनकी प्रकृतिजनित जीविका के संसाधनों पर टिकी है. लिहाजा आदिवासी समाज बार-बार लहूलुहान होता रहा है कभी इकाई के रूप में तो कभी सामूहिक रूप में. इस शोषण-चक्र की प्रतिक्रिया दो रूपों में दिखायी दे रही है. आदिवासी समाज का एक हिस्सा आत्महीनता का शिकार हो रहा है तो दूसरे हिस्से में अराजक मनोदशा आकार ले रही है. कभी विकास की दुहाई देकर तो कभी देशहित की दुहाई देकर आदिवासी समाज को नयी-नयी तरह की दासता के चक्रव्यूह में कैद करने की साजिशें होती रही हैं. सच यह है कि नव उदारवाद के दौर में ही आदिवासियों को सुरक्षा प्रदान करनेवाले पहले से बनाये गये कानूनी प्रावधानों को शिथिल करते हुए एक नया प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रीय विकास के मद्देनजर उद्योग-धंधों की स्थापना के लिए आदिवासियों की जमीनों का भी अधिग्रहण किया जा समता है. ऐसे प्रावधानों ने आदिवासी-समाज में उद्योगपतियों-व्यापारियों को घुसपैठ करने का रास्ता खोल दिया है. नतीजतन आदिवासियों की जमीन और जीविका के संसाधनों पर बाहुबलियों के द्वारा कब्जा बनाने की घटनाओं में इजाफा हुआ है. ऐसी ही साजिशों का शिकार होता है आदिवासी कलाकार मंगरा.

मॉल का नाम मंगरा मॉल रखकर यह बात लोगों के दिलोदिमाग में बिठायी जाती है कि यह मॉल महज खरीद-बिक्री का व्यावसायिक केन्द्र नहीं हैं, बल्कि  आदिवासी-समाज के महान कलाकार मंगरा के कला-वैभव की विरासत को आनेवाली पीढ़ियों तक पहुँचाने के लिए एक सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विकसित किया गया है. इस क्रम में मॉल के प्रवेश द्वार पर मंगरा की एक भव्य प्रस्तर प्रतिमा लगायी जाती है. कहानी में एक आदिवासी ईसाई युवक जान की कथा-योजना भी है, जो विचारणीय है. भारत के औपनिवेशिक शासन-काल में शोषण का तंत्र तो प्रमुखतः साम्राज्यवादी था, लेकिन उसका सामाजिक आधार भारत के सांमती जमींदार थे. कंपनी बहादुर से वायसराय तक का शासन तंत्र इन्हीं पर टिका रहा. ब्रिटिश सत्ता के फैलाव में स्थानीय जमींदारों ने जिस तरह क्रूर भागीदारी निभायी थी, कुछ ऐसी ही भूमिका कहानी का युवा आदिवासी ईसाई जान निभाता है. इस तरह कहानीकार ने एक बार पुनः साबित कर दिया है कि स्थानीय तत्वों के सहयोग और समर्थन के बिना बाहरी शक्ति का वर्चस्व कायम हो ही नहीं सकता.  कहानी में कई ऐसे प्रसंग हैं जो आदिवासियों के प्रति सत्ता तंत्र की उदासीनता और संवेदनहीनता को उजागर करती है. मसलन, मंगरा अपनी पत्नी को कंधे पर लादकर आठ किलोमीटर दूर स्थित शहर के अस्पताल में ले जाता है, पर अस्पताल-प्रबंधन की अपेक्षित तत्परता के अभाव के कारण उसकी पत्नी नहीं बच पाती.

महज यह एक घटना इस बात को उजागर कर देती है कि आदिवासी-बहुल इलाके अब भी विकास की रोशनी से बहुत दूर हैं . जमीन और जोरू को खोने के बाद मंगरा एक जिन्दा लाश बनकर रह जाता है. मंगरा का बेटा अपनी जमीन की वापसी के लिए मॉल के मुख्य द्वार के सामने धरना-प्रदर्शन शुरू कर देता है, जिसकी प्रतिक्रिया में उसके बेटे को गायब कर दिया जाता है. मंगरा अपने बेटे की तलाश में भटकता रहता हैं, पर उसके बेटे का पता नहीं चलता. लुटे-पिटे मंगरा का कलाकर मर जाता है, उसके जीने की लालसा तिरोहित हो जाती है और उसका जीवन मृतवत् हो जाता है. कहानी के अंत में मंगरा की जीवन-स्थिति और मनः स्थिति को बड़े ही कलात्मक, पर मर्मस्पर्शी शब्दों में कहानीकार ने चित्र-विधान किया है-

‘‘मंगरा दादा घंटों मांदर लेकर खड़े रहते हैं. बीच-बीच में एकाध थाप देते भी हैं मॉल के शीशे की दीवार से सटें एंट्रेंस के सामने. गार्ड आकर हटा देते हैं. लेकिन फिर थोड़ी देर में वापस आ जाते हैं. किसी ने खैनी दी तो खा लिया, किसी ने कभी केला दे दिया, कभी ब्रेड की स्लाइस, कभी कोई सिगरेट भी पिला देता. पत्थर की मूरत की तरह यांत्रिक भाव से बजाते हैं मांदर. देखनेवाले कहते हैं कि अब तो शायद मांदर से आवाज भी नहीं निकलती. सिर्फ हाथ भर हिलता है या शायद वह भी नहीं. मंगरा मॉल में भीड़ भी खूब होती है. पता नहीं उस पत्थर की मूरत को मंगरा मॉल ने आगे बढ़कर अपने अन्दर ले लिया है या मूरत खुद बढ़कर मॉल के अन्दर खड़ी हो गई है.’’

स्पष्ट है कि मंगरा मनुष्य नहीं रह जाता,  पूंजीतंत्र की चक्की में पिसता हुआ वह पाषाणवत हो जाता है, जिसे सुख-दुख, राग-द्वेष, घृणा-प्रेम कुछ भी आंदोलित या स्पंदित नहीं करता. यह, वह विदेहता नहीं हैं जिसे राजा जनक या बुद्ध ने त्याग और तपस्या से अर्जित किया था. यह, वह विदेहता है जो जीवन की त्रासदियों तथा यातनाओं को लगातार सहते-सहते व्यक्ति में स्वाभाविक रूप से चली आती है- उसे सब कुछ से निस्पृह और निरपेक्ष बनाती हुई.

अब खेल भी सिर्फ खेल नहीं रहा. वैसे तो कमोबेश सभी खेलों में बाज़ारतंत्र का हस्तक्षेप हो चुका है, पर खासकर क्रिकेट का तो पूरी तरह व्यापारीकरण भी हो चुका है और राजनीतिकरण भी. क्रिकेट का पूंजी तंत्र के साथ गहरे रूप में जुड़ जाने से नयी पीढ़ी के बीच इस खेल को कैरियर की तरह देखा जा रहा है तो पूंजी निवेशकों के लिए असीमित व आकर्षक मुनाफा का स्रोत है. लिहाजा बाज़ार तंत्र के सारे गुण-अवगुण, छल-कपट, उठा-पटक, जोड़-तोड़ आदि का क्रिकेट में भी प्रवेश हो चुका है. क्रिकेट धनार्जन का भी जरिया बन चुका है और क्रिकेट प्रेमियों के साथ-साथ विशाल जन-समुदाय तक पहुँचने का माध्यम भी बन चुका है. यही कारण है कि क्रिकेट के आयोजन व प्रबंधन में पूंजी तंत्र के समानांतर राजनीति से जुड़े लोगों का जुड़ाव भी बढ़ा है. क्रिकेट की टीम में प्रवेश पाने के लिए, खिलाड़ी के रूप में जगह बनाने के लिए जद्दोजहद, मैच-फिक्सिंग- इन तमाम पहलुओं को समाने लाती हैं संग्रह की कहानी- ‘सिली प्वाइंट’. हालाँकि ‘डिस्क्लेमर’ के बावजूद मानसिक प्राणायाम की जरूरत नहीं पड़ती कि ‘सिली प्वाइंट’ झारखण्ड़ के प्रसिद्ध क्रिकेट और उनके मित्रों की संघर्ष-कथा है. यह कहानी इस तथ्य की ओर भी सकेत करती है कि क्रिकेट राजनीति का प्रवेशद्वार बन सकता है. कुल मिलाकर, क्रिकेट जिसके साथ खेल का एक पूरा तंत्र जुड़ा है, उसकी बाहरी और भीतरी दुनिया की गहरी पड़ताल करती है यह कहानी. कहानी में क्रिकेट से जुड़े शब्द, टर्म, दृश्य, उमंग, शोर आदि का जिस तरह अंकन है, वह साबित कर देता है कि पंकज मित्र की क्रिकेट-जगत से भी गहरी संलग्नता है.

‘मुंहबली’ कहानी मौजूदा ग्रामीण भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक व राजनीतिक यथार्थ को उभारती है. भारत के संदर्भ में कहा जाता है कि यहाँ की समाज-संरचना अर्द्ध-सामंती व अर्द्ध-पूंजीवादी है और बहुत कुछ बदल जाने के बाद भी यह बात ग्रामीण समाज पर विशेष रूप से लागू होती है. किसी व्यक्ति का सामाजिक संबंध दो आधारों पर तय होता है. पहला रोटी यानी जीविका यानी आर्थिक आधार पर और दूसरा बेटी यानी वैवाहिक संबंधों के आधार पर. 21वीं सदी में भी ग्रामीण समाज आर्थिक आधार पर भले सामंतवादी नहीं है, पर सांस्कृतिक आधार पर यानी परिचय, पहचान व परिणय संबंधों के आधार पर सामंतवादी है. मसलन, एक सवर्ण-समाज का व्यक्ति व्यापार करता यानी वैश्यकर्म से जुड़ा दिखायी देता है, तो जाति से एक शूद्र माना जानेवाला व्यक्ति किसी स्कूल या कॉलेज में पढ़ाता हुआ यानी ब्राहाण-कर्म से जुड़ा दिखायी देता है.

पूंजीवाद ने समाज के सामंती यानी जातिवादी ढांचे को धराशायी कर दिया है, पर सांस्कृतिक स्तर पर यानी शादी-विवाह के मामले में समाज का बड़ा हिस्सा अभी भी सामंती है. कहानी के प्रमुख पात्र रामबली के कथा-विधान के जारी ग्रामीण भारत के मौजूदा समय-सत्य से साक्षात्कार होता है. एक ऐसा समय-सत्य जिसका एक छोर अतीत से जुड़ा है तो दूसरा छोर वर्तमान  से. इन दोनों छोरों की आपसी सूत्रबद्धता को समझाने के क्रम में मौजूदा ग्रामीण समाज का बाहरी और भीतरी संसार खुलता है. रामबली अधेड़ उम्र के अकेले व्यक्ति हैं. सभी उन्हें आदर से रामबली कक्का कहकर संबोधित करते हैं. मूलतः रामबली कक्का का संबंध एक सवर्ण व जमींदार परिवार से हैं, पर वे शूद्र की नजर से देखे जाते हैं. कहानीकार के शब्दों में

‘‘बाबा के सौतेले भाई के पुत्र थे रामबली कक्का. मेरे बाबा के पिता ने एक कहारिन रख ली थी, उस लिहाज से थोड़ा हेय दृष्टि से भी देखे जाते थे रामबली कक्का. लेकिन मेरे बाबा जो सतं प्रकृति के आदमी थे, उन्होंने रामबली कक्का से कभी कोई भेदभाव नहीं किया था.’’

रामबली कक्का की शादी भी बड़ी धूमधाम से हुई थी, पर शादी के तीसरे दिन ही उनकी नव विवाहिता पत्नी क्रोधित मनोदशा में उन्हें छोड़कर अपने मायके जो वापस गयी तो कभी लौट कर नहीं आयी. इस संबंध-विच्छेद को लेकर लोगों के बीच अनेक मसालेदार कथाएँ व अन्तर्कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें केन्द्रीय कथा यह है कि रामबली कक्का की नव विवाहिता पत्नी को पता चल गया था कि उनके पति एक कहारिन के वंशज हैं. पत्नी द्वारा त्याग दिये जाने के बाद रामबली कक्का अपनी जीवन से और संसार से अनासक्त हो कहीं चले गये. किसी ने प्रचारित कर दिया कि रामबली कक्का  सन्यास ग्रहण कर तपस्यार्थ हिमालय में चले गये हैं. एक छोटे अन्तराल के बाद रामबली कक्का गाँव वापस आ गये और गांव में शौचालय के उपयोग तथा शौचालय के निर्माण को लेकर लोगों को जागरूक बनाने के अभियान में जुट गये. दरअसल इस अभियान की संकल्पना के पीछे उनका वेदना-स्नात गहरा आत्मबोध था. उन्हें छोड़कर चली गयी नवविवाहिता पत्नी शहरी परिवेश में पली-बढ़ी थी, इसलिए गाँव का माहौल उन्हें असहज लगा था और दूसरे गाँव में शौच के लिए सुबह की उजास फैलने से पूर्व ही खेतों की ओर जाने की विवशता थी.

प्रकारांतर से विधुर की जीवन-स्थिति प्राप्त करने के बाद रामबली कक्का ने अपना जीवन जनसेवा के लिए समर्पित कर दिया. अमल-धवल और धुले हुए, धोती-कुरता के परिधानों से सज्जित रामबली कक्का दूर से ही राजनेता की छवि का बोध करा देते. कभी चाय की दुकान पर तो कभी पान की गुमटी पर, कभी गली-नुक्कड़ पर एकत्र युवाओं के बीच तो कभी मिलने-जुलने घर पर आये लोगों के बीच रामबली कक्का देश-दुनिया की परिस्थितियों पर धारा प्रवाह और आश्वस्तिपरक ढ़ंग से भाषण देते हुए अक्सर दिख जाते. लोगों को सरकार की ओर से आरंभ की गयी विभिन्न लोक-कल्याणकारी योजनाओं की सूचना देने, योजनाओं की प्रासंगिकता से लोगों को परिचित कराने और योजनाओं से लाभ उठाने की तरकीबों की सलाह देने जैसी दैनिक गतिविधियों के कारण रामबली कक्का ग्रामीणों के बीच एक ओर लोकप्रिय थे तो दूसरी ओर भविष्य -सुधारक मार्गदर्शक के रूप में सम्माननीय थे. गाँव से राजधानी तक की यात्रा और फिर वहाँ से लायी सूचनाओं को लोगों तक पहुंचाना रामबली कक्का के जीवन की एक सामान्य  प्रक्रिया बन चुकी थी. कहानी में रामबली कक्का के राजदार के रूप में मोतिया धोबी की पात्र-योजना भी रोचक और उल्लेखनीय हैं.

मीड़िया की स्थिति, सड़क-निर्माण योजना, कामर्शियल खेती, पी.पी.पी. जैसी अनेक सरकारी योजनाओं के कथा-प्रसंग कहानी को समकालीन बनाते हैं. योजना के समानांतर योजना याद आती है, चरित्र के समानांतर चरित्र याद आते हैं, घटनाओं के समानांतर घटनाएँ याद आती हैं और इस कहानी को रचनात्मक अर्थवत्ता देती है. जनसेवा के छोटे-छोटे पड़ावों से गुजरते हुए रामबली कक्का अपना व्यापक जनाधार निर्मित करते हैं और मुखिया पद के लिए अपनी उम्मीदवारी घोषित कर देते हैं.

पंचायत-चुनाव रोमांचकारी आकार लेता है क्योंकि रामबली कक्का के विरोध में लल्लुबाबू खड़े होते हैं जो उनके सौतेले भाई है. दोनों ही उम्मीदवार समान जाति-गोत्र के होते है. लेकिन रामबली कक्का को चुनावी फायदा अधिक होता है. चुनाव में एक सड़क-निर्माण के मुद्दे को साम्प्रदायिक रंग देकर हिन्दू वोट को अपने पक्ष में मोड़ने में रामबली कक्का सफल हो जाते हैं. रामबली कक्का इस बात पर अड़ जाते हैं कि यह सड़क हिन्दू टोला से ही गुजरनी चाहिए. यदि सड़क मुस्लिम टोला से होकर गुजरी तो विकास होगा, पर हिन्दुओं की सुरक्षा खतरे में पड़ जायेंगी. रामबली कक्का नारा देते हैं- सुरक्षा के साथ विकास. हिन्दू-मतदाताओं का दोहरा लाभ रामबली कक्का को मिलता है. हिन्दू-समाज का सवर्ण तबका रामबली कक्का के हिन्दुत्ववादी चेतना के इतिहास को देखते हुए मतदान करता हैं, तो हिन्दू समाज का दलित तबका कहारिन-पुत्र होने के कारण मतदान करता है और अन्ततः रामबली कक्का चुनाव जीत जाते हैं. चुनाव-प्रचार के दौरान पी.पी.पी. टर्म के लिए ‘पावन-पवित्र-पथ जैसे वाक्य का प्रयोग, परिवारवाद का विरोध, दादू कौशल विकास केन्द्र का  उद्घाटन जैसे कथा-प्रसंग कहानी को आज के परिदृश्य से जोड़ते हैं. इस तरह यह कहानी सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों, जातिगत खेमेबाजी, साम्प्रदायिक उन्माद, गाँव की गरीबी, टूटते परम्परागत संबंध, छिछली राजनीति, दबंगई, भ्रष्टाचार, घनघोर स्वार्थपरता, भाई-भतीजावाद, नारों का आभामंडल, योजनाओं का वायवीय क्रियान्वयन, आंकड़ों की लफ्फाजी, विज्ञापनी चकाचौंध आदि के प्रदूषणों की जद में आते ग्रामीण भारत के जमीनी सच को सामने लाती है जो भारत के राष्ट्रीय परिदृश्य का भी काला सच है.

संग्रह की शीर्षक कहानी है-‘अच्छा आदमी’. यहाँ ‘अच्छा आदमी’ का पदबंध अपने परम्परागत अर्थ में व्यवहृत नहीं है. यह शीर्षक लाक्षणिक अर्थगत ध्वनि यानी विलोम अर्थ का वाहक है. यह क्रूर सत्य है कि बाज़ारवादी जीवन- दृष्टि ने उन तमाम मूल्यों को नेपथ्य में धकेल दिया है जो रेणु जी के शब्दों में कहें तो मानव को सामाजिक और समाज को मानवीय बनाते हैं. लिहाजा, सामूहिकता की बात करनेवाला, मूल्यों की बात करनेवाला, संवेदनशीलता की बात करनेवाला, नैतिकता की बात करनेवाला, पारस्परिकता की बात करनेवाला, जनतांत्रिकता की बात करनेवाला मूर्ख, गंवार और दिमागी तौर पर खिसका हुआ समझा जाता है और ऐसे ही समझे जानेवाले इस कहानी के मुख्य पात्र हैं कॉलोनी के प्रोफ़ेसर साहब. न केवल जान-पहचान और पास-पड़ोस के लोग ही, बल्कि परिवार के सभी सदस्य यानी पत्नी, बेटा-बेटी सबप्रोफ़ेसर  साहब को मौजूदा दौर के हिसाब से ‘अनफिट’ मानते हैं. सबको लगता है कि प्रोफ़ेसर साहब के सोचने का तरीका, देखने का तरीका, समझने व समझाने का तरीका, जीने का तरीका सब किताबी है, आदर्शोंन्मुखी है जिनका मौजूदा दौर के जीवन-प्रवाह के साथ दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है. स्थिति यह है कॉलोनी के लोगों के बीच प्रोफ़ेसर साहब अपने को असहज महसूस करते हैं तो लोग भी प्रोफ़ेसर साहब के साथ उठने-बैठने और संवाद करने में असहज महसूस करते हैं. एक तरह से लोगों के बीच रहते हुए भी प्रोफ़ेसर साहब सबसे कटे हुए और अलग-थलग माने जाते हैं.

दूसरी तरफ कॉलोनी के उभरते बिल्डर और बिना मांगे सबकी सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहनेवाले व्योमेश हैं. हर तरह की नैतिक-अनैतिक समस्या के समाधान में सक्षम हैं व्योमेश. कॉलोनी में रहनेवाले हर परिवार के आन्तरिक जगत में बेरोकटोक आना-जाना है व्योमेश का. खासकर प्रोफ़ेसर साहब के परिवार के सदस्यों के बीच आत्मीय और गहरे शुभचिन्तक के रूप में व्योमेश अपनी जगह बना चुके हैं. रोजमर्रा की कोई समस्या हो, सामाजिक-आर्थिक समस्या हो, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, पिकनिक, बर्थडे पार्टी आदि का आयोजन हो-हर मौके पर और हर तरह के सुख-दुख में व्योमेश उपस्थित रहते हैं. प्रोफ़ेसर साहब के बच्चे व्योमेश को ‘अच्छे अंकल’ के नाम से संबोधित करते हैं. कॉलोनी का हर व्यक्ति व्योमेश की सहज उपलब्धता, सहयोगी प्रवृति और मुस्कान-प्लावित व्यावहारिकता से प्रभावित है. कॉलोनी के नजदीक स्थित एक विस्तृत भूखंड पर सर्वसुविधा संपन्न एक विशाल बहुमंजिला अपार्टमेंट निर्माण का प्रोजेक्ट शुरू होता है जिसके प्रोमोटर हैं व्योमेश. वे कॉलोनी के सभी हैसियतदार लोगों को निर्माणाधीन अपार्टमेंट में फ्लैट बुक करवाने के लिए तैयार कर चुके हैं. सभी अपार्टमेंट की स्वप्निल-दुनिया को लेकर उत्साहित हैं.

भूमि-पूजन से कुछ दिन पूर्व प्रोफ़ेसर साहब के मकान के बगल में स्थित जो झाड़-झकाड़ थे, उनको काटकर एक चौड़ा रास्ता बनवाया जाता है. इसी क्रम में प्रोफ़ेसर साहब के आवास से सटे दीवार को भी गिरा दी जाती है और एक चौड़ी सड़क तैयार हो जाती है जिससे होकर अपार्टमेंट निर्माण से जुड़ी सामग्रियों वाले ट्रक का आना-जाना शुरू हो जाता है. कॉलोनी के लोग आपस में बात करते हैं कि रास्ता बन जाने से फ्लैट की कीमत कई गुनी बढ़ जायेगी तो कुछ लोग व्योमेश की चाल में उलझ गये प्रोफ़ेसर साहब के परिवार की अबोधता पर मुसकुरा उठते हैं. पर अव्यावहारिक और सनकी समझे जानेवाले प्रोफ़ेसर साहब को व्योमेश के व्यवहारजनित पूंजीनिवेश के पीछे छिपे षडयंत्र साफ-साफ दिखायी देते हैं. लेकिन उनकी बातों को उनके परिवार के सदस्य ही गंभीरता से नहीं लेते. उद्घाटन के कार्यक्रम-स्थल पर उत्सव-सा माहौल होता है. लोगों की भीड़ उमड़ी रहती हैं. कुछ लोगों को स्थल-निरीक्षण की उत्सुकता रहती है तो कुछ लोगों को फ्लैट बुक करवाने की जल्दी रहती है. भूमि-पूजन के बाद व्योमेश फीता काटकर निर्माणाधीन अपार्टमेंट के उद्घाटन की औपचारिकता के लिए प्रोफ़ेसर साहब से निवेदन करते हैं.

प्रोफ़ेसर साहब की आँखों के सामने बहुरंगी तस्वीरें उभरने लगती हैं- गिरी हुई दीवार, अवैध कब्जा कर बनायी गयी चौड़ी सड़क और उस सड़क से गुजरते हुए प्रस्तावित अपार्टमेंट तक पहुँचनेवाली भीड़ आदि-आदि. अचानक प्रोफ़ेसर चिल्ला उठते हैं, आवास, लुच्ची पूँजी, बाज़ार. व्योमेश ने जो ब्रान्डेड कुरता-पाजामा भेंट किया था और जिसे पहनकर प्रोफ़ेसर साहब उद्घाटन- स्थल पर आये थे, उस कुरता-पाजामा को प्रोफ़ेसर  साहब चिथड़े-चिथड़े कर देते हैं. प्रोफ़ेसर साहब को ‘सेट्रल इन्स्टीटयूट ऑफ साईकियास्ट्री’ में भर्ती कराया जाता है. कुछ दिन रहकर प्रोफ़ेसर साहब घर आ जाते हैं, पर वे मानसिक रूप से निष्क्रिय हो जाते हैं. मकान के बरामदे में बैठे शून्य में निर्निमेष देखते रहते. व्योमेश अपनी मंहगी होण्डा सिटी में प्रोफ़ेसर साहब को उनकी पत्नी के साथ मानसिक चिकित्सा के लिए अस्पताल ले जाते. अपार्टमेंट के सारे फ्लैट बिक जाते है क्योंकि दीवार गिरा दिये जाने कारण अपार्टमेंट तक आने-जाने का रास्ता क्लियर हो जाता है. कॉलोनी के लोग कृतज्ञ-भाव से व्योमेश की चर्चा करते-

‘‘मानना पड़ेगा, व्योमेश अच्छा आदमी है. पूरा परिवार को संभाल लिया प्रोफ़ेसर का.’’

यह कहानी इस तथ्य को उभारती है कि व्यक्ति-जीवन की प्राथमिकताएँ तो बदली ही है, समाज, संस्कृति, संबंध, प्रेम, पारस्परिकता-सबके अर्थ और मानदण्ड बदल गये हैं. उपभोक्तावादी समाज में कुछ भी निःशुल्क नहीं मिलता. हर चीज की कीमत वसूली जाती है चाहे प्रेम हो या घृणा. पूंजीवादी शक्ति-संरचना में समाजतंत्र, अर्थतंत्र, बाज़ारतंत्र और राजनीतितंत्र पर बर्बर शक्तियों का आधिपत्य होता है. ऐसे में भ्रष्टाचार, स्कैंडल, जालसाजी, सामाजिक हित की अवहेलना तथा निहित स्वार्थो के लिए घातक व्यापारिक षड्यंत्रों की योजनाओं-घटनाओं का सामने आना स्वाभाविक भी है और सुनिश्चित भी.

मार्क्स-एंगेल्स की वर्षो पूर्व लिखी गयी पंक्तियाँ अक्षरशः आज भी सत्य की प्रतीति देती हैं-

‘‘पूँजीपतिवर्ग ने सभी काव्यात्मक संबंधों का अंत कर दिया है. उसने नग्न स्वार्थ में नगद पैसे-कौड़ी के हृदय-शून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच कोई दूसरा संबंध बाकी नहीं रहने दिया है. उसने भावना को स्वार्थी हिसाब-किताब के बर्फीले पानी में डूबो दिया है. मनुष्य के वैयक्तिक मूल्य को विनिमय मूल्य बना दिया है और नग्न, निर्लज्ज, प्रत्यक्ष और पाशविक शोषण की स्थापना की है.’’
(कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र)

संग्रह की ‘कान्फिडेंशियल रिपोर्ट” कहानी जहाँ सरकारी कार्यालयों में अन्तर्धारा के रूप प्रवाहित जातिवादी सोच और भेदभावमूलक व्यावहारिकता की ओर संकेत करती है, वहीं दूसरी ओर ‘रात के पार चलो’ शीर्षक कहानी में अंधे नेनू और नर्स अंजना के बीच विकसित एक ऐसी प्रेमकथा है जो सीध-साधे जीवन-यथार्थ में डूबने से प्रत्यक्ष होने रागभाव है और यह रागभाव भाषा में गति और जीवन में हलचल पैदा करता है. ‘शाहदेव मेंशन’ और ‘आस’-ये दोनों कहानियाँ आदिवासी समाज-संस्कृति के अनछुए पहलुओं को उजागर करती हैं.

कुल मिलाकर पंकज मित्र के कहानीकार ने मनुष्य विरोधी और मनुष्यता विरोधी नव उदारवाद के दौर के बीहड़ इलाकों में जाकर जटिल व विद्रूप अनुभवों का संचयन किया है, पर इन विद्रूप और बदरंग अनुभवों को कहानी या आख्यान में रूपांतरित करना एक बड़ी चुनौती है. इस चुनौती को मूर्त करने के लिए कहानीकार ने सतह पर तैरते सत्य को ही नहीं, बल्कि सतह के नीचे चलनेवाली शातिराना गतिविधियों में प्रवेश करने का जोखिम उठाया है. संग्रह की कहानियों से गुजरते हुए हम समय-संरचना की उन जटिलताओं के बीच दाखिल होते हैं जहाँ आदमी की सारी हरकतें, यहाँ तक कि चरित्र, सोच, संवेदना, नैतिकता सब उपभोक्तवादी-बाज़ारवादी तिजारत से जुड़े दिखायी देते हैं. दो राय नहीं कि जीवन में, समाज में जो कुछ भी सुन्दर, संवेदनात्मक और कोमल बचा था, उनके विलोपन में बाज़ारवादी जीवन-संस्कृति की अहम भागीदारी रही है. पर यह भी सच है कि प्रकारांतर से मनुष्य को मनुष्य होने का अर्थ समझाने और उसके विचारशील तथा नीतिवान बने रहने की जरूरत के मद्देनजर पूरे मनप्राण से दिया गया प्रभावी वक्तव्य हैं संग्रह की तमाम कहानियां.

कहानी के बाहर का सत्य (शिल्प) कहानी के भीतर के सत्य (संवेदना) से अलग नहीं होता. संग्रह की कहानियों की संवेदना जिस जमीन से जुड़ी है, कहानी का शिल्प यानी भाषा, संस्कृति, सौंदर्य, गीत-संगीत, मौन-ध्वनि, प्रतीक बिम्ब, गति-ठहराव सब उसी जमीन से जुड़े हैं. इसीलिए कहानियों से गुजरते हुए स्वाभाविकता और स्थानीयता का गहरा बोध होता है. पर एक बात खटकती है कि लगभग सभी कहानियों का अंत घोर निराशा की स्थिति में होता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समय का सत्य लेखक का सत्य नहीं होता. लेखक का सत्य समय के सत्य से आगे तक की यात्रा करता है. कहानियां तात्कालिकता का अतिक्रमण करती हुई दिखायी नहीं है जिसे लुकाच ने ‘संभावित  भविष्य’ कहा है. बावजूद इसके हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि कहानीकार का निराशाजनक पर्यावसान पाठकों को उस द्वन्द्वात्मकता से परिचित कराती है जहाँ एक ओर छोटे से वर्ग के पास अपार सुविधाएँ व्यर्थ ही बिखरी पड़ी हैं, वहीं दूसरी ओर अभी भी पूंजी व बाज़ार के गठबंधन से संचालित राजनीतिक सत्ता आम लोगों के ढ़ेर सारे सपनों को तोड़े जा रही है, आधारभूत सुविधाओं तक के लिए लोग तड़प रहे हैं और विचार की जगह बाज़ार को महत्व देनेवाले नीति-निर्धारकों की कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती.

जमीन से उजड़े हुए सपने, नैतिकता से शून्य होते रिश्तों, परवरिश की कमजोरियों से डगमगाए घर, बाज़ार की शिकार होती मासूमियत और विस्थापित होकर अपने परिवेश को पुनः पाने को लालायित लोगों की अनेक छवियाँ संग्रह की कहानियां में मौजूद हैं. कहानियों में खासकर समाज के-जीवन के उस पक्ष को पेश किया गया है जिसमें संवेदना आत्म तक संकुचित हो गयी है तथा अमानवीय कृत्य के लिए कोई अपराधबोध नहीं है, बल्कि एक तरह से इस संदर्भ में जीता, सेलिब्रेशन  का भाव है. लालसा और भोगेच्छा ही सर्वोपरि है. मौजूदा दौर की प्रस्तुति कुछ ऐसी है जिसमें ऐसा लगता है कि गलत आदमी ही समाज का नायक है और जनविरोधी आर्थिक-सामाजिक प्रक्रिया के विरोध में खड़ा एक सही आदमी प्रति-नायक. संग्रह की तमाम कहानियां संबंधगत विपर्ययों की कहानियाँ हैं. इन विपर्ययों का निर्माण समाज, सत्ता, राजनीति, पूंजी, बाज़ार आदि की दुरभिसंधियों से हुआ है. कहानियों में एक औपन्यासिक अंतर्सूत्रता भी दिखती है. कहानियों को एक उपन्यास के अध्यायों के रूप में भी पढ़ा जा सकता है. कहानियों में बतरस की एक खास शैली विद्यमान है. कहानियां पाठकों से बातें करती हैं. उन्हें हर्फ-दर-हर्फ सावधान करती हैं और अन्ततः वहाँ लाकर छोड़ती हैं जहाँ परिवेश की पूरी बेबसी के बीच संवेदनशील मानस आर्तनाद करता साफ-साफ दिखायी देता है.

यह संग्रह आप यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं. 

सुभाष चंद्र गुप्त
कथाकर्म और कथा-आलोचना से संबद्ध चार आलोचनात्मक पुस्तकें और कुछ कहानियां प्रकाशित.

हिन्दी विभाग, करीम सिटी कॉलेज,
जमशेदपुर , झारखण्ड.
9430260514

Tags: 20222022 समीक्षाअच्छा आदमीपंकज मित्रसुभाष चंद्र गुप्त
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Comments 4

  1. Dr.S.C.Gupta says:
    7 months ago

    लेखकीय भागीदारी का अवसर देने के लिए हार्दिक आभार। आगे भी यह आत्मीयता प्रतीक्षित है।

    Reply
  2. अरुण कमल says:
    7 months ago

    पंकज मित्र बहुत अच्छे कथाकार हैं,निपुण और दृष्टिसंपन्न।

    Reply
  3. दया शंकर शरण says:
    7 months ago

    कहानियों पर बहुत सार्थक टिप्पणी । कहानी समाज का आइना है। समकालीन यथार्थ का चेहरा।लेकिन जरूरी नहीं कि हर कहानी का अंत भी निराशाजनक हो। साहित्य उम्मीद
    नहीं छोड़ता इस पराभवकाल में भी। यही इसकी ताकत है।बहुत अच्छी समीक्षा।लेखक एवं समीक्षक को बधाई !

    Reply
  4. राकेश बिहारी says:
    7 months ago

    सार्थक और दृष्टिसम्पन्न विवेचना। सुभाषचन्द्र गुप्त और पंकज मित्र को बधाई!

    Reply

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