नैना से पिशाच तक
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साल 2011 में दक्षिण भारत की सिल्क स्मिता नाम की एक अभिनेत्री की जीवनी पर आधारित एक फिल्म आई थी ‘द डर्टी पिक्चर’. इस फिल्म का यह संवाद उन दिनों बेहद चर्चित हुआ था कि फिल्म का मतलब होता है– एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट. इस फिल्म का यह संवाद एक तरह से अपने दर्शकों को सीधे-सीधे यह संदेश देता है कि अगर आप इस फिल्म को देखने जाते हैं, तो सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि से देखने जाएँ. अगर आप इसमें, साहित्यिक भाषा में कहें, किसी तरह के स्त्री सशक्तीकरण, किसी तरह का स्त्री-विमर्श, स्त्री का कोई आधुनिक और बदलता हुआ रूप देखना चाहते हैं, तो आपको निराशा हाथ लगेगी.
लेकिन मैं कम-से-कम इस मत से इसलिए सहमत नहीं हूँ क्योंकि जब भी कलाभिव्यक्ति का कोई माध्यम या रूप चाहे वह फिल्म हो या संगीत, पेंटिंग हो या साहित्य हमारे सामने आता है, हम इन प्रश्नों से कतई नहीं बच सकते. जब भी किसी अभिव्यक्ति के माध्यम से कोई फिल्मकार, कलाकार या कोई लेखक अपनी बात कहता है या कहने का प्रयास करता है, तो उसके पृष्ठ में कोई-न-कोई संदेश छिपा होता है. अब यह दर्शक या पाठक की समझ और दृष्टि पर निर्भर करता है कि वह इनसे क्या ग्रहण करता है.
लगभग दस साल पहले बनी इस फिल्म ‘द डर्टी पिक्चर’ के बारे में भी यही कहा है कि यह एक लोकप्रिय संस्कृति या कहिए माध्यम की बड़ी हस्तियों के निजी जीवन के उन अनदेखे पक्षों को उद्घाटित करती है, जिससे एक आम दर्शक परिचित नहीं था. थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि फिल्म निर्माता और इसके निर्देशक ने जिस लक्ष्य और उद्देश्य के लिए इस फिल्म का निर्माण किया, उसमें वे पूरी तरह सफल रहे हैं. बावजूद इसके, हम इस फिल्म में निहित उन अनुत्तरित सवालों के भी जवाब ढूँढने का तो प्रयास करते ही हैं कि आखिर एक स्त्री की निजता और शुचिता के क्या मायने हैं. क्या सिर्फ मनोरंजन कह कर हम उन सवालों को अनदेखा कर सकते हैं, जो इसे देखते हुए रह-रह हमें मथते हैं ?
इधर वरिष्ठ पत्रकार संजीव पालीवाल का दूसरा और नया उपन्यास आया है ‘पिशाच’. दूसरा उपन्यास आते-आते संजीव पालीवाल लेखक के रूप में अपने उन पाठकों के लिए कोई अपरिचित नाम नहीं रह गया है, जिन्होंने इनका पहला उपन्यास ‘नैना’ पढ़ा होगा. आगे बढ़ने से पहले मैं इसके उस पक्ष पर बात करना चाहूँगा, जिस पर लेखक का कोई अख्तियार नहीं होता. दूसरे शब्दों में कहूँ तो प्रकाशक द्वारा अपनी पुस्तक को बेचने या कहिए पाठकों तक पहुँचाने के लिए जो तौर-तरीके अपनाए जाते हैं, उन पर कुछ शब्द कहना चाहूँगा. पहला है इसका शीर्षक और दूसरा है मुख्य आवरण और अंतिम आवरण पर छपी ये पंक्तियाँ- ‘एक फेसबुक पोस्ट, कई हाई-प्रोफाइल मर्डर’ और ‘पहले उपन्यास नैना की अपार सफलता के बाद लेखक संजीव पालीवाल लौट रहे हैं एक और रोंगटे खड़े कर देने वाला क्राइम थ्रिलर लेकर.’
यह सही है कि लेखक-प्रकाशक का उद्देश्य एक रहा होगा अर्थात इसे अपने युवा और नए पाठकों को आकर्षित करने और एक हद तक भ्रमित कर इसे एक क्राइम थ्रिलर कह कर प्रस्तुत करना. मगर एक पाठक के तौर पर मेरा मानना है कि यह पाठक के विवेक, समझ और उसकी इच्छा पर छोड़ देना चाहिए, उसे तय करने का हक होना चाहिए कि वह इसे क्या मानता है. मेरी समझ से किसी पुस्तक को जब यह कह कर प्रचारित किया जाता है कि यह सामाजिक रचना है या राजनीतिक, सामाजिक है या आर्थिक, जासूसी है या क्राइम थ्रिलर; तो एक तरह से हम अपने पाठक को इसके लिया बाध्य कर देते हैं कि वह अमुक रचना को अपनी नहीं, प्रकाशक या लेखक की नज़र से पढ़े. ऐसे में एक खतरा यह रहता है कि वे प्रश्न कहीं-न-कहीं पीछे छूट जाते हैं, जो उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक के दिलो-दिमाग में उठते रहते हैं.
क्या इस उपन्यास के आवरण पर ‘पिशाच’ शीर्षक और ‘रोंगटे खड़े कर देने वाला क्राइम थ्रिलर’ लिख देने से उन प्रश्नों से बचा या उन्हें अनदेखा किया जा सकता है, जिसने हमारे भारतीय समाज, विशेषकर उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों में एकाएक नैतिक-अनैतिकताओं के बीच खिंची बारीक विभाजन रेखा को समाप्त कर दिया है. यह उपन्यास जिस तरह कुछ महीन समाज शास्त्रीय अवधारणाओं को खंडित करता प्रतीत होता है, वह उस बनते नए समाज को समझने की दिशा में एक छोटा-सा प्रयास है. फिल्म जैसी ग्लेमरस दुनिया के समान्तर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विशेषकर टीवी की दुनिया, जिसमें न्यूज़ चैनल्स और टीवी सीरियल्स दोनों को शामिल किया जा सकता है, उसके उस वीभत्स चेहरे हो सामने लाता है जिसके बारे में आम आदमी को जानकारी नहीं होती है.
न्यूज़ चैनल्स की दुनिया को जो खाद-पानी मुहैया होता है या उसके लिए संजीवनी का काम करता है वह है नामचीन लोगों की हत्याएँ और सांप्रदायिकता.
‘पिशाच’ को पढ़ते हुए आपकी यह धारणा भी एक हद तक पुष्ट होती है कि यह उपन्यास कहीं इनके पिछले उपन्यास ‘नैना’ का सिक्वल तो नहीं है. हालाँकि ऐसा मानने और अनुमान लगाने वालों का यह अनुमान गलत है भी नहीं. अपने पहले उपन्यास ‘नैना’ की नायिका, इंस्पेक्टर समर, गौरव, राजा राघवेंद्र सिंह, नैना का पति सर्वेश सिंह के अलावा अन्य पात्रों का ‘पिशाच’ में फिर होने के क्या मायने हैं ?
दरअसल, संजीव पालीवाल एक हद तक कथा-लेखन के उन बुनियादी कथा-तत्वों से भली-भांति परिचित हैं जिनका होना किसी कथा को बुनने के लिए ज़रूरी होते हैं. वे जानते हैं कि एक सनसनीखेज, रोमांचक और एक हद तक थ्रिलर की केमिस्ट्री के लिए किन अवयवों की आवश्यकता पड़ती है. इसलिए वे इसके लिए ‘बीच’ की भाषा का उपयोग करते हैं. बीच की भाषा से तात्पर्य है एक वह भाषा जिससे उनका भाषाई संस्कार बना हुआ है. दूसरी वह भाषा जो ऐसे कथानकों को प्रामाणिक और विश्वसनीय बनाती है. एक नए-नवेले लेखक के रूप में वे इस बात से भी अच्छी तरह परिचित हैं कि भले ही वह ‘क्राइम थ्रिलर’ लिखने जा रहे हैं, लेकिन उन्हें कितना और किस हद तक साहित्यिक मर्यादाओं का अतिक्रमण करना है, इसका उन्हें पूरा खयाल है.
संजीव पालीवाल जानते हैं कि यथार्थ, कल्पना, फेंटेसी और भाषाई कलात्मकता के मिश्रण से एक ऐसा कॉकटेल तैयार हो सकता है जिसकी ख़ुमारी से आप घंटों नहीं कई दिनों तक बाहर नहीं आ सकते. एक ऐसा कॉकटेल जिसकी गिरफ्त में उस पाठक को कैद किया जा सके, जिसमें थोड़ी-बहुत पढ़ने कि ललक और लालसा बची हुई है. वे जानते हैं कि उनका पाठक वर्ग एकदम युवा है. गंभीर साहित्य का पाठक उनका पाठक नहीं होगा. वे जानते हैं कि उनका पाठक उस तुरंता मानसिकता वाला है, जिसे साहित्य के आदर्शवादी उद्देश्यों और सरोकारों से कोई लगाव नहीं है. वे जानते हैं कि उनके इस पाठक वर्ग का साहित्य और उसमें निहित वैचारिकता व प्रतिबद्धता से कोई लेना-देना नहीं है. यह वह पाठक है जिसे मनोरंजन और गंभीरता के बीच का अंतर नहीं मालूम. दूसरे शब्दों में कहें तो वे यह बखूबी जानते हैं कि उनका यह पाठक उन मनोरंजक फिल्मों के दर्शकों की तरह है, जो महँगी टिकट लेकर वातानुकूलित सिनेमा हाल में सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन और अपना समय बिताने की गरज से जाता है. इस अर्थ में संजीव पालीवाल पूरी तरह सफल भी हुए हैं. मगर उन्हें इस बात का भी भान है कि उनका उठना-बैठना हिंदी के जिन बुद्धिजीवियों में है, जिनमें कुछ गंभीर पाठक/लेखक बल्कि कुछ हद तक साहित्य के आलोचक भी हैं. इसलिए वे बड़ी चतुराई और सफ़ाई से उन सामाजिक प्रश्नों और मुद्दों को भी पूरी शिद्दत से छूते हैं, जिनको चाहते तो वे बड़ी आसानी से छोड़ भी सकते थे.
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ‘नैना’ और ‘पिशाच’ विशुद्ध लुगदी साहित्य की परंपरा के उपन्यास हैं. अगर आप इन दोनों उपन्यासों को साहित्य के निकष पर देखने की कोशिश करेंगे तो आपको पल्प लिटरेचर और गंभीर साहित्य के बीच के सूत्र और बिंदु इनमें साफ़ नज़र आ जाएंगे. वे यूँ ही स्वामी गजानन, छिनाल प्रकरण, हिंदी प्रकाशन जगत और हिंदी के एकाध संपादकों और उनकी कुछ रंगीनियों को अपने इस उपन्यास में नहीं लाते हैं. वे इन्हें बड़ी सोची-समझी नीति के तहत लाते हैं. वे इन्हें इसीलिए लाते हैं कि वे हिंदी साहित्य की कुछ परंपराओं से अच्छी तरह वाकिफ़ हैं. उनकी नज़र साहित्यिक हलकों में घटित होने वाले हर उन प्रसंगों पर बराबर रहती है, जिन पर लोग चटखारे ले-लेकर बात करते हैं. इसलिए इन प्रसंगों को इस उपन्यास में लाने का एकमात्र उद्देश्य उपन्यास को एक खुले विमर्श के मुहाने पर लाकर छोड़ने की रही है. उदाहरण के लिए देखें-
“समर इस वक्त दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर अंजलि सिन्हा के पास बैठा था. अंजलि सिन्हा देश की जानी-मानी उपन्यासकार भी थीं. तमाम लिटरेचर फेस्टिवल्स में उनका आना-जाना लगा रहता था. उनकी एक और ख़ास बात यह थी कि वे गॉसिप में बहुत रस लेती थीं. मजाल है साहित्यिक हलके का कोई रंगीन किस्सा उनकी नज़र से गुज़रे बिना निकल जाए.”
इसी तरह इस अंश को भी देखें-
“प्रकाशक जयराम गुप्ता की हत्या की जानकारी सुबह 11 बजे तब मिली, जब वहाँ काम करने वाले कर्मचारी पहुँचे और दरवाज़ा बंद मिला. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. जयराम गुप्ता दरियागंज में ही रहते थे. नीचे दफ्तर था और ऊपर उनका घर. पुलिस को फोन किया गया. दरवाज़े का ताला तोड़ा गया. ऊपर के कमरे में जयराम गुप्ता की लाश मिली.
सब कुछ ठीक वैसा ही था जैसा स्वामी गजानन के मामले में था. गला काट कर हत्या की गई थी. प्राइवेट पार्ट काट कर मुंह में ठूँस दिया गया था. दीवार पर ‘पिशाच’ लिख दिया गया था. संदेह की कोई वजह नहीं थी.”
अब आप अनुमान लगाते रहिए कि यह अंजलि सिन्हा किसका प्रतीक और स्वामी गजानन किसका? प्रकाशक जयराम गुप्ता में आपको किसका अक्स नज़र आता है, सोचते रहिए. इन अंशों को पढ़कर इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि लेखक के रूप में वे उन सारी घटनाओं और उन वैयक्तिक गुणों से अच्छी तरह वाकिफ़ हैं, जो एक लेखक और लेखक से ज़्यादा एक सचेत नागरिक के लिए आवश्यक होना चाहिए.
अगर हम संजीव पालीवाल के इन उपन्यासों के पात्रों की (चाहे वे स्त्री पात्र हों या पुरुष पात्र) बात करें, तो सारे पात्र अपने आसपास की दुनिया के लगते हैं. न्यूज़ चैनल्स के जो नियमित दर्शक हैं उन्हें अपने इन पात्रों को पहचानने में बिलकुल देर नहीं लगती है. इस तरह का जोखिम लेना, वह भी तब जब लेखक खुद एक बड़े न्यूज़ चैनल से जुड़ा हुआ हो, अपने आप में बड़ी बात है. स्त्री सशक्तीकरण, स्त्री स्वतंत्रता, स्त्री विमर्श के जिन आधुनिक सवालों से हमारा शुचितावादी समाज आँखें चुराता रहा है, उन सवालों का जवाब यह उपन्यास खुद-ब-खुद देता चला जाता है.
एक तरह से ‘पिशाच’ उस आधुनिक स्त्री का आख्यान कहा जा सकता है जो अपनी शर्तों और मर्जी से जीना चाहती है. वह अपने इर्दगिर्द रूढ़िवादी और पारंपरिक पितृसत्ता की जंग लगी बेड़ियों से मुक्त होने को आतुर है. पुरुष के पहरे में कैद वह अपनी उस देह की खुद मालिक बनना चाहती है, जो एक तरह से पुरुष के पास रेहन पर रखी हुई है. अपनी इच्छाओं के खुले आकाश में वह उन्मुक्तता के साथ उड़ना चाहती है. अगर मैं इस उपन्यास के स्त्री पात्रों को केट मिलेट, जर्मन ग्रेयर, सिमोन द बाउर जैसी स्त्रीवादी चिंतकों की कल्पना का विस्तार कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. लेकिन यह मर्म हमारी तभी समझ में आ सकता है जब हम इस उपन्यास को क्राइम थ्रिलर, लुगदी साहित्य, लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य के घेरे से मुक्त होकर पढ़ने की कोशिश करें.
बहरहाल, इन दोनों उपन्यासों ने संजीव पालीवाल के सामने कई तरह कि चुनौतियाँ और डर भी पैदा कर दिए हैं. उन्होंने एक तरह से अपने द्वारा अपने लिए एक लंबी रेखा खींच दी है. भविष्य में वे अपनी इस लंबी रेखा के समांतर और कितनी लंबी रेखा खींचते हैं, इस पर अभी कुछ भी कहना मुश्किल है. इस समय तो बतौर एक पाठक मैं संजीव पालीवाल के उज्ज्वल भविष्य के लिए कामना कर सकता हूँ कि वे इसी तरह अपनी बुलंदियों की सीढ़ियाँ चढ़ते रहें.
काला पहाड़(१९९९), बाबल तेरा देस में(२००४) तथा रेत(2008) से चर्चित उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल (जन्म: २३ जनवरी, १९६०) इधर २०१४ से लगभग हर साल उपन्यास आदि लिख रहें हैं- नरक मसीहा(२०१४), हलाला(२०१६), पकी जेठ का गुलमोहर (२०१७), सुर बंजारन(२०१८), वंचना(२०१९), शकुंतिका(२०२०) तथा २०२१ के आरम्भ में ख़ानज़ादा. यह उपन्यास चौदहवीं सदी से लेकर सोलहवीं सदी के बीच मेवातियों के उत्पीड़न और संघर्ष की कथा कहता है. |
Aalochakeey tippani upanyas padhne kee utsukta jagati hai.
सुंदर विश्लेषण । भगवान दास मोरवाल द्वारा ’पिशाच’ पर लिखी गई यह सुंदर समीक्षा है।यह ’समालोचन’ ही संभव कर सकता है। आप बेहद सजग और गंभीर संपादक हैं । आपकी संपादकीय दृष्टि ने मुझे कायल कर दिया हैं।आप हिंदी साहित्य में वह सब कर रहे हैं जिस ओर किसी और की दृष्टि ही नहीं जाती है। बहुत बहुत बधाई
मोरवाल जी ने ज़बरदस्त विवेचना की है. मैं मुरीद हो गई. विवेचना का संतुलन क्या होता है, ये जाना.
कुछ बातें तो मेरी धारणा को पुष्ट करती है.
आलोचनात्मक विवेक क्या होता है, ये भी जानने लायक़ है इस आलेख में.
अच्छा लगा.
बहुत सार्थक समीक्षा बहुत ही गहन विवेचना भगवानदास मोरवाल जी बधाई के पात्र हैं कि आपने पिशाच की इतनी सुंदर समीक्षा की है संजीव परिवार को भी बहुत-बहुत बधाई कि उनका पिशाच बहुत पॉपुलर हो रहा है
बहुत अच्छी समीक्षा। उपन्यास को पढ़े बिना उसे बहुत दूर तक जानने समझने का मौका मिला।