पेंटिग : अमृता शेरगिल |
‘कालजयी’ स्तम्भ में आप प्रेमचंद की कहानी, ‘कफन’ पर रोहिणी अग्रवाल का आलेख पढ़ चुके हैं, इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए आज जैनेन्द्र कुमार की कहानी ‘पत्नी’ और उसकी विवेचना प्रस्तुत है.
भारतीय स्वाधीनता संघर्ष की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कालजयी कहानी भारतीय स्त्री के गुम वजूद की खोज तो करती ही है आज के आतंकवादी बनाम क्रांतिकारी विवाद को भी देखने की एक विवेकसम्मत दृष्टि प्रदान करती है.
पत्नी
रोहिणी अग्रवाल
‘सुनीता’ और ‘त्यागपत्र’ उपन्यासों की तरह ‘पत्नी’ कहानी भी जैनेंद्रकुमार की कालजयी रचना मानी जाती है. मौन और मितव्ययिता के धनी जैनेंद्रकुमार स्त्री-मन के चितेरे हैं. दबे पांव स्त्री के अंतस् में गहरी पैठ बनाते हुए वे न केवल उसकी दमित आकांक्षाओं और क्षत-विक्षत सपनों को सतह पर लाते हैं, बल्कि बेहद अनायास भाव से स्त्री को स्त्री (हीन एवं शून्य) बनाने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था के हृदयहीन चरित्र को भी प्रकाश में ले आते हैं. जैनेंद्रकुमार प्रेमचंद का विलोम हैं. वे स्त्री के जीवन को यातनापूर्ण बनाने वाली सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार नहीं करते, स्त्री की मानसिकता को कुंठित करने वाली संस्कारग्रस्तता पर चोट करते हैं. इसलिए वे प्रेमचंद और प्रसाद की तरह स्त्री को पुरुष के प्रभामंडल में घेर कर स्त्री-मुक्ति की बात नहीं करते, वरन् पहले एक परतंत्र लैंगिक इकाई के रूप में स्त्री की व्यक्तित्वहीनता को उभारते हैं, और फिर तदनुरूप यथास्थितिवाद से जूझने का आक्रोश पाठक के भीतर भरते हैं.
’पत्नी’ कहानी पति के भोजन की प्रतीक्षा में अस्त-व्यस्त सामान्य स्त्री की सामान्य दिनचर्या का आख्यान नहीं है, व्यवस्था द्वारा एक भरी-पूरी शख्सियत को प्रतीक्षा और जड़ता के दो खूंटों से बांध कर बधिया कर दिए जाने की पड़ताल है. उल्लेखनीय है कि बधिया कर दिए जाने का क्षोभ मौन हाहाकार बन कर कहानी की नायिका सुनंदा को जब-तब जकड़ लेता है. तब वह ’भीतर ही भीतर गुस्से से घुट कर रह’ जाती है, या पति का जी दुखाने के लिए उसकी उपस्थिति का नोटिस न लेकर ’कठोरतापूर्वक शून्य को ही देखती रहती’ है; या ’हाथ की बटलोई को खूब जोर से फेंक’ देना चाहती है ताकि बता सके कि ’किसी का गुस्सा सहने के लिए वह नहीं’ है. लेकिन इस सारे मानसिक ऊहापोह के बाद अपने में लौटने पर पाती है कि वह ’जहां थी, वहां’ अब भी है – गीली लकड़ी की तरह धुंआती हुई या अंगीठी की आग की तरह राख हुई जाती हुई.
घटनाओं की न्यूनता, स्थितियों की गतिहीनता एवं पात्रों के विकास की संभावनाओं का अभाव – जैनेंद्र कुमार की कहानी-कला की कुछ विशेषताएं हैं जो कहानी में स्फूर्ति, उत्साह और आशा जैसी सकारात्मक चटखदार रेखाओं को उभरने नहीं देतीं. लेखक व्यक्ति की मनःस्थितियों के जरिए सामाजिक विडंबनाओं और पाखंड का उद्घाटन करते हैं और इस प्रक्रिया में पात्र के अन्तर्द्वन्द्वों या दो पात्रों को आमने-सामने रख कर कहानी को खुद अपनी यात्रा तय करने का अवसर देते हैं. ’पत्नी’ कहानी में जैनेन्द्र कुमार एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्विता में तन कर खड़े दो विरोधी पात्रों या स्थितियों को नहीं गढ़ते, बल्कि उनकी संवादहीनता के भीतर बोलती चुप्पियों के जरिए उनके मानसिक गठन को उद्भासित करते हैं. अपनी नित्यक्रमिकता को यांत्रिक भाव से जीती सुनंदा कहानी में शुरु से अंत तक अवरुद्ध कर दी गई लहर के बिंब की सृष्टि करती है, मानो लेखक कहना चाह रहा हो कि जीवन की गत्यात्मकता के भीतर जीवन का क्षरण करने वाली स्थितियों को चीन्हने के लिए हमें स्वयं उनके भीतर उतरना होगा.
इस अवरुद्ध लहर के ध्रुवांत पर है कालिंदीचरण जो मित्र-मंडली के साथ हवा के झोंके की मानिंद घर और समाज में बेरोक-टोक मनचाही गति और समय के साथ घूमता है. उसके पास संवारने को संघर्ष-संकुल वर्तमान है, और विचरण के लिए भविष्य का आसमान. सुनंदा के पास न वर्तमान है, न भविष्य. बस, उसकी थाती है अतीत – पुत्र की अकाल मृत्यु के कारण चोट खाया, बिलबिलाती स्मृतियों से भरा अतीत. यह अतीत उसे खाली देखते ही गहरे सख्य भाव से बतियाने हेतु उसके पास आ पहुंचता है. लेकिन दोनों जैसे ही मिल-बैठ कर साझा भाव से अपने-अपने जख्म चाटने लगते हैं, सुनंदा अश्रुपूरित नेत्र लिए उसे जहां का तहां छोड़ वर्तमान में लौट आती है. वह जानती है वर्तमान का स्वामी उसका पति कालिंदीचरण है और वह स्वयं उसकी छाया या अनुगूंज. वर्तमान उसे पलायन की जमीन देता है क्योंकि यहां उसे विचारशून्य सेवादारिन की भूमिका निभानी है.
इस अवरुद्ध लहर के ध्रुवांत पर है कालिंदीचरण जो मित्र-मंडली के साथ हवा के झोंके की मानिंद घर और समाज में बेरोक-टोक मनचाही गति और समय के साथ घूमता है. उसके पास संवारने को संघर्ष-संकुल वर्तमान है, और विचरण के लिए भविष्य का आसमान. सुनंदा के पास न वर्तमान है, न भविष्य. बस, उसकी थाती है अतीत – पुत्र की अकाल मृत्यु के कारण चोट खाया, बिलबिलाती स्मृतियों से भरा अतीत. यह अतीत उसे खाली देखते ही गहरे सख्य भाव से बतियाने हेतु उसके पास आ पहुंचता है. लेकिन दोनों जैसे ही मिल-बैठ कर साझा भाव से अपने-अपने जख्म चाटने लगते हैं, सुनंदा अश्रुपूरित नेत्र लिए उसे जहां का तहां छोड़ वर्तमान में लौट आती है. वह जानती है वर्तमान का स्वामी उसका पति कालिंदीचरण है और वह स्वयं उसकी छाया या अनुगूंज. वर्तमान उसे पलायन की जमीन देता है क्योंकि यहां उसे विचारशून्य सेवादारिन की भूमिका निभानी है.
सुनंदा पाठक के भीतर गहरे भावोद्वेलन की सृष्टि करती है, लेकिन लेखक उसके चरित्र की बारीक परतों को एक निश्चित अंतराल में उठने वाली परस्पर विरोधी विचार-लहरियों के जरिए बुनता-उकेरता है. एक ओर किसी भी सामान्य स्त्री की तरह सतीत्व उसकी पूंजी है और पति-सेवा उसका सौभाग्य. यही उसके दायित्व की जमीन है और सपनों का आसमान भी. मन में उठती टीस और हुलसते अरमान – दोनों की ’भू्रण हत्या’ करने के लिए वह किसी न किसी ’व्यस्तता’ की तलाश में अपने स्वत्व और ऊर्जा को क्षरित करती चलती है. लेकिन इसके बावजूद पढ़-लिख कर भारतमाता को स्वतंत्र कराने जैसे ’बड़े’ और ’पुरुषेचित’ मुद्दों को समझने की ललक सुनंदा को निरी छाया या अनुगूंज नहीं रहने देती. उसमें अपनी कमतरी पर ग्लानि है तो उसी सांस में कमतर बनाए रखने वाले घटकों की शिनाख्त की तमीज भी. ’’उसने बहुत चाहा है कि पति उससे भी कुछ देश की बात करें. उसमें बुद्धि तो जरा कम है, फिर धीरे-धीरे क्या वह भी समझने नहीं लगेगी? सोचती है, कम पढ़ी हूं तो इसमें मेरा ऐसा कसूर क्या है? अब तो प़ढ़ने को मैं तैयार हूं, लेकिन पत्नी के साथ पति का धीरज खो जाता है.’’
आत्मविस्मरण से आत्मान्वेषण की उत्कंठा के बीच निरंतर दोलायमान सुनंदा की विचार-यात्रा दरअसल यथास्थितिवाद के अभिशाप से उबरने के लिए स्पेस पाने की चाहत है जिसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतिनिधि पुरुष/पति कालिंदीचरण पे पूरी तरह घेर लिया है. ’माथे को उंगलियों पर टिका कर’, ’बैठी-बैठी सूनी सी’ अदृश्य को ताकती सुनंदा ऊपरी तौर पर लकड़ी के कुंदे सी ठस्स भले ही दीखती हो, वक्त से पिछड़ने की पराजय ने उसके भीतर क्षीणकाय संघर्ष-चेतना अवश्य भरी है. बेशक ’’उत्साह उसके लिए अपरिचित है’’ और ’’जीवन की हौंस उसमें बुझती जा रही है’’, पर फिर भी वह ’जीना चाहती है’ – रेंग-रेंग कर नहीं, पति के साथ कंधे से कंधा मिला कर भारतमाता की स्वतंत्रता के यज्ञ में आहुति डाल कर.
आत्मविस्मरण से आत्मान्वेषण की उत्कंठा के बीच निरंतर दोलायमान सुनंदा की विचार-यात्रा दरअसल यथास्थितिवाद के अभिशाप से उबरने के लिए स्पेस पाने की चाहत है जिसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतिनिधि पुरुष/पति कालिंदीचरण पे पूरी तरह घेर लिया है. ’माथे को उंगलियों पर टिका कर’, ’बैठी-बैठी सूनी सी’ अदृश्य को ताकती सुनंदा ऊपरी तौर पर लकड़ी के कुंदे सी ठस्स भले ही दीखती हो, वक्त से पिछड़ने की पराजय ने उसके भीतर क्षीणकाय संघर्ष-चेतना अवश्य भरी है. बेशक ’’उत्साह उसके लिए अपरिचित है’’ और ’’जीवन की हौंस उसमें बुझती जा रही है’’, पर फिर भी वह ’जीना चाहती है’ – रेंग-रेंग कर नहीं, पति के साथ कंधे से कंधा मिला कर भारतमाता की स्वतंत्रता के यज्ञ में आहुति डाल कर.
जैनेंद्रकुमार की विशेषता है कि आत्मसंकोच और दीनता में दुबकी-सिमटी सुनंदा को दयनीयता में ढाल कर विघटित नहीं करते, उसमें सेवा, त्याग, नैतिकता का बल गूंध कर आक्रांता सरीखे कालिंदीचरण के सामने खड़ा कर देते हैं. निश्चय ही यह शेर और मेमने की लड़ाई है. सुनंदा के पास आत्म-बलिदान के तेज से परिपूर्ण आत्मबल है तो कालिंदीचरण के पास पुरुष होने के दंभ से उपजा अहं भाव. एक ओर अपने मान की रक्षा की मूक मिन्नतें हैं, दूसरी ओर सब कोमल चकनाचूर कर देने की उद्धत लापरवाही. दोनों ओर बिना कहे अपने को समझे जाने की चाहतें हैं, और दोनों ओर समझबूझ कर भी अनजान बने रहने की भंगिमाएं हैं. संभवतया इसलिए कि बरसों से पसरी संवादहीनता संबंध को कुतरते-कुतरते दो व्यक्तियों को परस्पर अजनबी बना देती है. पति के पास यदि क्रुद्ध होकर बाहरी दुनिया में जा रमने का विकल्प है तो पत्नी के पास और अधिक कड़ाई से अपने दायित्व को निभाए चलने की विकल्पहीनता. अलबत्ता खाना न परोसने के हुक्म का उल्लंघन करते हुए वह खाना परोसने के साथ-साथ अपने आहत अभिमान को भी अनबोले ठसके के साथ परोस आती है.
लेकिन यह क्षणिक उत्तेजना की तात्कालिक प्रतिक्रिया भर है. अपने-अपने खांचों में बंधे सुनंदा और कालिंदीचरण जानते हैं कि स्त्री की कमजोरी ही पुरुष की ताकत है. इसलिए आंख में आंख डाल कर पंजा लड़ाने की यह क्षणिक प्रक्रिया अंततः पति-पत्नी की समाजानुमोदित भूमिकाओं की पारंपरिक लय-ताल में विलीन हो जाती है, जहां अपनी छोटी से छोटी जरूरत की पूर्ति के लिए हांक लगा कर पत्नी को हड़का देने के विशेषाधिकार हैं तो दूसरी ओर अपनी भूख और जरूरतों को मुल्तवी कर पति के लिए जान की बाजी लगा देने की दीनता.
लेकिन यह क्षणिक उत्तेजना की तात्कालिक प्रतिक्रिया भर है. अपने-अपने खांचों में बंधे सुनंदा और कालिंदीचरण जानते हैं कि स्त्री की कमजोरी ही पुरुष की ताकत है. इसलिए आंख में आंख डाल कर पंजा लड़ाने की यह क्षणिक प्रक्रिया अंततः पति-पत्नी की समाजानुमोदित भूमिकाओं की पारंपरिक लय-ताल में विलीन हो जाती है, जहां अपनी छोटी से छोटी जरूरत की पूर्ति के लिए हांक लगा कर पत्नी को हड़का देने के विशेषाधिकार हैं तो दूसरी ओर अपनी भूख और जरूरतों को मुल्तवी कर पति के लिए जान की बाजी लगा देने की दीनता.
लेकिन जैनेंद्रकुमार का लक्ष्य ऊबड़खाबड़ जमीन पर स्थित दांपत्य संबंध की कथा कहना नहीं है. वे इस तथ्य की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं कि सृष्टि के विकास- क्रम को निरंतर बनाए रखने के लिए स्त्री और पुरुष की दो पूरक इकाइयां कैसे समाज व्यवस्था के हत्थे चढ़ कर एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्विता में तनी दो लैंगिक इकाइयां बन जाती हैं. चूंकि एक पक्ष को श्रेष्ठ अथवा कत्र्ता मानते ही अपने आप दूसरा पक्ष हीन और अनुकत्र्ता की भूमिका में आ विराजता है, इसलिए दमनकारी तंत्र में सहभागिता की बात बेमानी हो जाती है. यह व्यवस्था के आंतरिकीकरण की मनोवृत्ति ही है कि सुबह के उपासे पति की प्रतीक्षा में अंगीठी की आग लहका कर बैठी सुनंदा की चिंता और चेतना में पति की भूख ही जब-तब आ विराजती है, अपनी नहीं. ’’कुछ हो, आदमी को अपनी देह की फिक्र तो करनी चाहिए’’ – खीझ में वात्सल्य भर कर सुनंदा सोचती है तो उसकी सोच में ’आदमी’ यानी कालिंदीचरण ही है, अपनी आदमियत नहीं. यह स्त्री द्वारा अपनी देह (अस्तित्व) को नकार कर स्वत्वहीन हो उठने का संस्कार है जो देह के भीतर स्थित दिमाग और देह पर आच्छादित व्यक्तित्व दोनों से पिंड छुड़ाने के अभ्यास में उभरता है.
लेखक ने एकाधिक बार सुनंदा को अपनी देह के प्रति असावधान दिखाया है और कालिंदीचरण की देह के प्रति ममत्वपूर्ण, मानो देह जैविक संरचना न होकर ठोस व्यक्तित्व हो. ’’उन्हें न खाने की फिक्र है, न मेरी फिक्र. मेरी तो खैर कुछ नहीं, पर अपने तन का ध्यान तो रखना चाहिए’’ – सुनंदा की यह आत्म-दीनता एक ऐसी स्त्री-छवि की रचना करती है जो चोट खाकर आत्माभिमान में फुफकार उठती है और फिर आत्मपीड़न में ढल जाती है. इसके विपरीत देह के स्वीकार के साथ अनिवार्य रूप से व्यक्तित्व के स्वीकार और संवार का भाव व्यक्ति में पनपता है जो स्वाभिमान के सहारे अपनी परिधि का विस्तार करता चलता है.
जैनेंद्रकुमार अपने पात्रों का एकरेखीय विकास नहीं करते. पहले वे प्रयासपूर्वक अपने पात्रों को एक खास गढ़त देते हैं और जैसे ही अपनी विशिष्ट पहचान के साथ वे पाठक के मस्तिष्क में अंकित होने लगते हैं, लेखक तुरंत उन्हें ही उनका विलोम बना कर प्रस्तुत कर देता है. उल्लेखनीय है कि अपनी ही पूर्व-मान्यता के विपरीत आकर ये पात्र अपने को झुठलाते नहीं, बल्कि अंतर्विरोधों के जरिए व्यवस्था के साथ अपने द्वंद्वात्मक संबंध के सत्य का बखान कर जाते हैं. सुनंदा द्वारा पति की भूख की चिंता, देर दोपहर मित्रों के साथ घर पहुंचे पति को खाना खिलाने की तत्परता में अपने लिए कुछ भी बचा कर न रखना, फिर मान से भर आना कि उन्होंने एक बार झूठे भी उसकी भूख की फिक्र नहीं की और अंत में आत्मधिक्कार के जरिए आत्मोद्बोधन की जुगत – ’’छिः! सुनंदा, तुझे ऐसी जरा सी बात का अब तक ख्याल होता है. तुझे खुश होना चाहिए कि उनके लिए एक रोज भूखे रहने का तुझे पुण्य मिला.’’ यह वह स्थल है जहां पुण्य लूटने के फुसलावे ’भूख’ और उससे अविच्छिन्न भाव से जुड़े स्वाभिमान की तीव्रता को ढांप नहीं पाते. यह जैनेंद्रकुमार द्वारा सुनंदा की चुप्पियों से बुना गया मांग-पत्र है जो सुनंदा (रूढ़ स्त्री छवि) के भीतर अंकुआती नई स्त्री के जन्म लेने की पूर्व-घोषणा है.
पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बुनियादी संरचना को मूर्त रूप देने के लिए जैनेंद्रकुमार स्त्री और पुरुष को विलोम-द्वित्व (अपोजिट बाइनरी) में चित्रित करते हैं. सुनंदा के चरित्र की गढ़त जहां उन्होंने स्त्री की चुप्पियों के महीन रेशमी तंतुओं से की है, वहीं कालिंदीचरण के व्यक्तित्व की रचना में पुरुष का बड़बोलापन अपनी खोखली अनुगूंजों के साथ सक्रिय हुआ है. जैनेंद्रकुमार की विशेषता है कि वे अपने दोनों पात्रों को स्वतंत्र रूप से रचते भी हैं और एक-दूसरे के संदर्भ में उनका उपयोग करते हुए उन्हें स्टीरियोटाइप (रूढ़ छवि) में बांधते भी हैं. सुनंदा की चुप्पी, दीनता और तरलता जितना सुनंदा के व्यक्तित्व को रचती है, उतना ही कालिंदीचरण की हिंसक आक्रामकता और अहम्मन्यता को उभारती है. सुनंदा को लेखक ने करुणा की जमीन पर खड़ा कर सहानुभूति से रचा है, जबकि कालिंदीचरण के लिए उनके पास व्यंग्य और उपहास है. कालिंदीचरण अपने ’’दल में विवेक के प्रतिनिधि हैं और उत्ताप पर अंकुश का काम करते हैं’’ – यों कालिंदीचरण का प्रथम परिचय देकर जैनेंद्रकुमार उसे जरा ऊँचे धरातल पर प्रतिष्ठित करते हैं ताकि उसकी कमजोरियों को उतने ही ’मैग्नीट्यूड’ के साथ अभिव्यक्त किया जा सके. बड़ी-बड़ी रणनीतियां बनाना, सिद्धांत और आदर्श की बातें करना, राष्ट्र के लिए आत्मोत्सर्ग के दावे करना कालिंदीचरण सरीखे हर पुरुष का वास्तविक परिचय है जो घर को क्षुद्र समझ कर हर गार्हस्थिक दायित्वों की हेठी करता है.
पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बुनियादी संरचना को मूर्त रूप देने के लिए जैनेंद्रकुमार स्त्री और पुरुष को विलोम-द्वित्व (अपोजिट बाइनरी) में चित्रित करते हैं. सुनंदा के चरित्र की गढ़त जहां उन्होंने स्त्री की चुप्पियों के महीन रेशमी तंतुओं से की है, वहीं कालिंदीचरण के व्यक्तित्व की रचना में पुरुष का बड़बोलापन अपनी खोखली अनुगूंजों के साथ सक्रिय हुआ है. जैनेंद्रकुमार की विशेषता है कि वे अपने दोनों पात्रों को स्वतंत्र रूप से रचते भी हैं और एक-दूसरे के संदर्भ में उनका उपयोग करते हुए उन्हें स्टीरियोटाइप (रूढ़ छवि) में बांधते भी हैं. सुनंदा की चुप्पी, दीनता और तरलता जितना सुनंदा के व्यक्तित्व को रचती है, उतना ही कालिंदीचरण की हिंसक आक्रामकता और अहम्मन्यता को उभारती है. सुनंदा को लेखक ने करुणा की जमीन पर खड़ा कर सहानुभूति से रचा है, जबकि कालिंदीचरण के लिए उनके पास व्यंग्य और उपहास है. कालिंदीचरण अपने ’’दल में विवेक के प्रतिनिधि हैं और उत्ताप पर अंकुश का काम करते हैं’’ – यों कालिंदीचरण का प्रथम परिचय देकर जैनेंद्रकुमार उसे जरा ऊँचे धरातल पर प्रतिष्ठित करते हैं ताकि उसकी कमजोरियों को उतने ही ’मैग्नीट्यूड’ के साथ अभिव्यक्त किया जा सके. बड़ी-बड़ी रणनीतियां बनाना, सिद्धांत और आदर्श की बातें करना, राष्ट्र के लिए आत्मोत्सर्ग के दावे करना कालिंदीचरण सरीखे हर पुरुष का वास्तविक परिचय है जो घर को क्षुद्र समझ कर हर गार्हस्थिक दायित्वों की हेठी करता है.
कथनी और करनी के बीच की खाई में आत्मप्रवंचित पुरुष की मरीचिकाएं छुपी हैं. लेखक ने कालिंदीचरण के मिशन (संकल्प) और कार्यशैली दोनों पर तंज कसते हुए उसे आड़े हाथों लिया है. कालिंदीचरण का मिशन है भारतमाता को स्वतंत्र कराना. बेशक जैनेंद्रकुमार के युग में स्वतंत्रता-सेनानी देश को ’भारतमाता’ के प्रतीक में अभिव्यक्त कर सिर-धड़ की बाजी लगाते थे, लेकिन राष्ट्र और कालिंदीचरण के बीच सुनंदा को खड़ा कर मानो लेखक जंजीरों से जकड़े भारतमाता के चित्र में अर्गलाओं से बंधी औसत स्त्री की विभीषिका को आरोपित कर देते हैं. तब ’बिटविन द लाइंस’ उठने वाले सवालों को अनसुना करना सरल नहीं रह जाता कि क्या घर-घर में सुनंदा सरीखी श्रृंखलाबद्ध स्त्री को स्वतंत्र किए बिना राष्ट्रीय मुक्ति संभव होगी? या कि अंग्रेज हाकिमों को खदेड़ दिए जाने से ही क्या स्वतंत्रता हासिल की जा सकती है?
सरकार बदलने से राजनीतिक स्वतंत्रता भले ही पा ली जाए, मानसिक-सामाजिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता के बिना क्या उसे एक नई शुरुआत का बिंदु माना जा सकता है? सुनंदा धाराप्रवाह भाषण के दौरान पति के मुंह से निकले शब्दों – भारतमाता, स्वतंत्रता, सरकार, हाकिम – के अर्थ को गुनना चाहती है, लेकिन पाती है कि उसे ’’न भारतमाता समझ में आती है, न स्वतंत्रता समझ में आती है.’’ जहां तक कालिंदीचरण का सवाल है, उसके पास इन शब्दों के भीतर स्थित अर्थगर्भी संकल्पनाओं पर विचार करने का अवकाश नहीं. यदि अवकाश होता तो पहले वह भारतमाता की बेटियों को स्वतंत्र कराने का सामूहिक अभियान चलाता, और फिर स्वतंत्रता की आभा से दीप्त भारतमाता की वे बेटियां एक प्रगाढ़ जिम्मेदारी के भाव से अपनी मां को स्वतंत्र कराने के संयुक्त अभियान में निकलतीं. सामने खड़े अवरोधों से बच कर किन्हीं अमूर्त महत्तर उद्देश्यों के लिए जान कुर्बान कर देने की बदहवासी कालिंदीचरण और उसके युग की पहचान है. ठीक इसी स्थल पर सुनंदा की ’खाली-खाली’ व्यस्तताओं के समानांतर लेखक कालिंदीचरण की कागजी व्यस्तताओं की पोल भी खोल देते हैं.
सरकार बदलने से राजनीतिक स्वतंत्रता भले ही पा ली जाए, मानसिक-सामाजिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता के बिना क्या उसे एक नई शुरुआत का बिंदु माना जा सकता है? सुनंदा धाराप्रवाह भाषण के दौरान पति के मुंह से निकले शब्दों – भारतमाता, स्वतंत्रता, सरकार, हाकिम – के अर्थ को गुनना चाहती है, लेकिन पाती है कि उसे ’’न भारतमाता समझ में आती है, न स्वतंत्रता समझ में आती है.’’ जहां तक कालिंदीचरण का सवाल है, उसके पास इन शब्दों के भीतर स्थित अर्थगर्भी संकल्पनाओं पर विचार करने का अवकाश नहीं. यदि अवकाश होता तो पहले वह भारतमाता की बेटियों को स्वतंत्र कराने का सामूहिक अभियान चलाता, और फिर स्वतंत्रता की आभा से दीप्त भारतमाता की वे बेटियां एक प्रगाढ़ जिम्मेदारी के भाव से अपनी मां को स्वतंत्र कराने के संयुक्त अभियान में निकलतीं. सामने खड़े अवरोधों से बच कर किन्हीं अमूर्त महत्तर उद्देश्यों के लिए जान कुर्बान कर देने की बदहवासी कालिंदीचरण और उसके युग की पहचान है. ठीक इसी स्थल पर सुनंदा की ’खाली-खाली’ व्यस्तताओं के समानांतर लेखक कालिंदीचरण की कागजी व्यस्तताओं की पोल भी खोल देते हैं.
चूंकि लेखक स्वयं स्वतंत्रता-सेनानी रहे हैं और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के इस महा आंदोलन में स्त्रियों की स्वाधीनता को भी समान महत्व देते रहे हैं, इसलिए घर की स्त्री को बंदी बनाए रख कर बाहर की महत्तर अमूर्तताओं के पीछे भागते कालिंदीचरण को श्रद्धा और सहानुभूति नहीं दे पाते. वे कालिंदीचरण के मुंह से जिन शब्दों को कहलवाते हैं, वे बूमरैंग की तरह पलटवार कर उसी को कठघरे में खड़ा कर जाते हैं. बहस के दौरान कालिंदीचरण दृढ़ शब्दों में कहता है, ’’सरकार व्यक्ति के और राष्ट्र के विकास के ऊपर बैठ कर उसे दबाना चाहती है. हम इसी विकास के अवरोध को हटाना चाहते हैं. जो शक्ति के मद में उन्मत्त है, असली काम तो उसका मद उतारने उसमें कत्र्तव्य भावना का प्रकाश जगाने का है.’’ सुनंदा नही जानती ’सरकार क्या होती है’, लेकिन पाठक तुरंत जान जाता है कि सरकार सत्ता का वह तंत्र है जो चित और पट के खेल में हमेशा हर तिकड़म के साथ जीतने का मूलमंत्र अपने पास सुरक्षित रखता है. भारतमाता के संदर्भ में सरकार का अर्थ यदि अंग्रेज हाकिमों का वर्चस्व है तो सुनंदा के संदर्भ में पितृसत्तात्मक व्यवस्था सरकार का रूप धर लेती है जिसने कालिंदीचरण को हाकिम बना कर अपनी ताकत उसके भीतर भर दी है. जाहिर है शक्ति का ’मद उतारने’ और ’उसमें कर्तव्य भावना का प्रकाश जगाने’ का दायित्व सुनंदा सरीखे व्यवस्था के उत्पीडि़तों को ही लेना होगा जो न मानवीय इकाई के रूप में अपनी अस्मिता और ताकत को पहचानते हैं, और न ही राजनीतिक चेतना से संपन्न होकर किसी लक्ष्योन्मुख लड़ाई की रणनीतियां बना सकते हैं.
कालिंदीचरण की कार्यशैली पर लेखक ने प्रत्यक्षतया कोई टिप्पणी नहीं की है, लेकिन टकराव (सुनंदा का सत्याग्रह) की अप्रत्याशित स्थिति में पड़ कर वह जिस प्रकार अपने पूर्ववर्ती स्टैंड से बिल्कुल उलट नई दिशा ग्रहण करता है, वह उसकी संयमहीनता, विवेकश्ीलता के अभाव, अहम्मन्यता और अपरिपक्व दृष्टि का ही सूचक है. कालिंदीचरण गर्म दल की राजनीति का प्रशंसक नहीं है. कार्य सिद्धि हेतु हिंसा के जरिए आतंक फैलाना उसकी दृष्टि में बुद्धिहीनता और विवेकशून्यता का ही निदर्शन करता है. वह मानता है कि ’’आतंक से विवेक कुंठित होता है और या तो मनुष्य उससे उत्तेजित ही रहता है या उसके भय से दबा रहता है. दोनों ही स्थितियां श्रेष्ठ नहीं हैं.’’ इससे जान पड़ता है आतंक की अपेक्षा धैर्यपूर्वक बुद्धि को जाग्रत एवं विकसित करना उसकी कार्यशैली का अहम हिस्सा है. लेकिन तभी लेखक पाठक की स्मृति में सुनंदा की आत्मस्वीकृति और आत्म-ग्लानि को ठेल देता है जब वह खेदपूर्वक स्वीकार करती है कि इस उम्र में भी पढ़-लिख कर वह ’देश’ को जानना चाहती है, लेकिन इतनी मूढ़मती है कि उसकी बुद्धि का विकास करने में ’पति का धीरज खो जाता है.’ पाठक की स्मृति को चमकाते हुए लेखक कालिंदीचरण पर घड़ों पानी उंडेल कर ही संतुष्ट नहीं है, बल्कि उसे पूरी तरह से आतंकवादी गतिविधयों का हिमायती बना देता है. सुनंदा की बींधती हुई मुखर चुप्पी ने उसे आहत कर दिया है क्योंकि अपने गार्हस्थिक दायित्वों की अवहेलना और पत्नी की निरंतर उपेक्षा करते रहने की प्रवृत्ति ने उसके भीतर सोए अपराध-बोध को जगा दिया है.
वह चाहता तो संयम, धीरज, विवेक और सदय दृष्टि के साथ अपनी दुर्बलताओं पर विजय पाकर पत्नी-वत्सल स्नेही पति की भूमिका में आ सकता था, लेकिन उसकी विस्तीर्ण अहम्मन्यता अपने दोषों का परिहार करने की अपेक्षा दोष दिखा देने वाले व्यक्ति के विरुद्ध ग्रंथि पालने लगती है. ’’हां, आतंक जरूरी भी है’’ – यह उसकी कार्य-योजना का एक चरण भर नहीं है, उसके चरित्र की मूलभूत प्रवृत्ति भी है जो सुनंदा के अस्तित्व के साथ-साथ स्वयं उसकी मनुष्यता को भी जकड़े हुए है. ठीक यहीं समझ आने लगता है कि क्यों सुनंदा के लिए उत्साह ’’दूर की वस्तु है, स्पृहणीय और मनोरम और हरियाली’’, और क्यों वह पति की ’’राह के बीच आने की नहीं सोचती.’’
जैनेंद्रकुमार की विशेषता है कि कामधेनु गाय की तरह एक पुकार की दूरी पर ’’कमरे के बाहर दीवार से लग कर खड़ी’’ इस स्त्री की घुटन और आकांक्षा के जरिए उन्होंने घर-घर अदृश्य कर दी गई ’सुनंदाओं’ को न केवल दृश्यमान किया है, बल्कि पाठक के भीतर यह समझने का बोध भी पैदा किया है कि राष्ट्रोद्धार के कार्यक्रम घर की चैखट से बाहर नहीं, घर के भीतर ही सबसे पहले क्रियान्वित किए जाने चाहिए. प्रेमचंद अपनी रचनाओं में जिन स्त्रियोचित गुणों – प्रेम, त्याग, दया, ममता, संयम, सहिष्णुता, क्षमा, औदार्य, विश्वास आदि आदि – का बखान कर स्त्री को अभिषिक्त करते हैं, वे सब गुण सुनंदा में भी हैं, लेकिन जैनेंद्रकुमार इन गुणों की धारक स्त्री को श्रद्धा का अर्ध्य नहीं देते, उसकी दारुण दशा का प्रामाणिक चित्रण भर करते हैं.
वह चाहता तो संयम, धीरज, विवेक और सदय दृष्टि के साथ अपनी दुर्बलताओं पर विजय पाकर पत्नी-वत्सल स्नेही पति की भूमिका में आ सकता था, लेकिन उसकी विस्तीर्ण अहम्मन्यता अपने दोषों का परिहार करने की अपेक्षा दोष दिखा देने वाले व्यक्ति के विरुद्ध ग्रंथि पालने लगती है. ’’हां, आतंक जरूरी भी है’’ – यह उसकी कार्य-योजना का एक चरण भर नहीं है, उसके चरित्र की मूलभूत प्रवृत्ति भी है जो सुनंदा के अस्तित्व के साथ-साथ स्वयं उसकी मनुष्यता को भी जकड़े हुए है. ठीक यहीं समझ आने लगता है कि क्यों सुनंदा के लिए उत्साह ’’दूर की वस्तु है, स्पृहणीय और मनोरम और हरियाली’’, और क्यों वह पति की ’’राह के बीच आने की नहीं सोचती.’’
जैनेंद्रकुमार की विशेषता है कि कामधेनु गाय की तरह एक पुकार की दूरी पर ’’कमरे के बाहर दीवार से लग कर खड़ी’’ इस स्त्री की घुटन और आकांक्षा के जरिए उन्होंने घर-घर अदृश्य कर दी गई ’सुनंदाओं’ को न केवल दृश्यमान किया है, बल्कि पाठक के भीतर यह समझने का बोध भी पैदा किया है कि राष्ट्रोद्धार के कार्यक्रम घर की चैखट से बाहर नहीं, घर के भीतर ही सबसे पहले क्रियान्वित किए जाने चाहिए. प्रेमचंद अपनी रचनाओं में जिन स्त्रियोचित गुणों – प्रेम, त्याग, दया, ममता, संयम, सहिष्णुता, क्षमा, औदार्य, विश्वास आदि आदि – का बखान कर स्त्री को अभिषिक्त करते हैं, वे सब गुण सुनंदा में भी हैं, लेकिन जैनेंद्रकुमार इन गुणों की धारक स्त्री को श्रद्धा का अर्ध्य नहीं देते, उसकी दारुण दशा का प्रामाणिक चित्रण भर करते हैं.
अलबत्ता इन गुणों से न्यून कालिंदीचरण की परिकल्पना कर मानो वे कह देना चाहते हैं कि उद्धत पुरुष तब तक ’मनुष्य’ नहीं बन पाएगा, जब तक मनुष्योचित कहे जाने वाले इन गुणों को लैंगिक विभाजन से मुक्त कर अपने व्यक्तित्व में समाविष्ट नहीं कर लेगा.
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रोहिणी अग्रवाल
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,
हिंदी विभाग, महर्षि दयानंद विश्व विद्यालय, रोहतक, हरियाणा