रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह
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16 अक्तूबर को बांग्लादेशी कवि रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह (1956-1991) का जन्मदिन था. हिंदी में अनूदित ये कविताएँ उसी दिन प्रकाशित होनी चाहिए थीं पर मेरे आलस्य और प्रमाद के कारण विलंब हो गया. मेरी सह अनुवादक सुलोचना वर्मा ने अपने हिस्से का काम समय से पूरा कर लिया पर मैं न कर पाया.
शहीदुल्लाह ने 1970 के दशक में लिखना शुरू किया. अस्सी के दशक में उनके बराबर लोकप्रिय कवि बांग्लादेश में दूसरा नहीं था. मुख्यत: उन्होंने क्रान्ति और प्रेम को अपना विषय बनाया. चयनित कविताओं में प्रेम कविताएँ भी हैं, विद्रोह की कविताएँ भी. उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रेम कविता ‘आमार भितरे बाहिरे अन्तरे अन्तरे’(1991) है जिसका अनुवाद यहाँ दिया गया है. यह कविता कदाचित् तसलीमा नसरीन को संबोधित है जो 1982 और 1986 के बीच उनकी पत्नी थीं. विद्रोही कविताओं में यहाँ अनूदित ‘बातासे लाशेर गन्ध’ कविता बड़ी लोकप्रिय है.
34 वर्ष की अल्प आयु में शहीदुल्लाह ने बहुत लिखा. उनके सात प्रकाशित काव्य-संग्रह ये हैं –
- उपद्रुत उपकूल (क्षुब्ध तट)
- फिरे चाइ स्वर्णग्राम (स्वर्ण ग्राम वापस चाहिए)
- मानुषेर मानचित्र (मानव का मानचित्र)
- छोबल (दंश)
- गल्प (कहानी)
- दियेछिले सकल आकाश (दिया था तुमने सारा आकाश)
- मौलिक मुखोश (असली मुखौटा)
रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह ने आजीवन क्रांतिकारी आंदोलनों में हिस्सा लिया. वे जनतंत्र, समता और धर्म-निरपेक्षता के पक्ष में सदा सक्रिय रूप में लड़ते रहे. कवि के जन्मस्थान ब’रिशाल में प्रत्येक वर्ष उनके जन्मदिन पर एक राष्ट्रीय समारोह ‘रुद्रमेला’ आयोजित होता है.
शिव किशोर तिवारी
रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह
(রুদ্র মোহাম্মদ শহীদুল্লাহ্)
सुलोचना वर्मा द्वारा अनूदित
१.
दूर हो दूर
नहीं छू पाया तुम्हें, तुम्हारी तुम्हें
उष्ण देह गूँथ-गूँथ कर इकठ्ठा किया सुख
परस्पर खनन कर-करके ढूँढ ली घनिष्ठता,
तुम्हारे तुम को मैं छू नहीं पाया.
जिस प्रकार सीप खोलकर मोती ढूँढते हैं लोग
मुझे खोलते ही तुमने पायी बीमारी
पायी तुमने किनारा हीन आग की नदी.
शरीर के तीव्रतम गहरे उल्लास में
तुम्हारी आँखों की भाषा पढ़ी है सविस्मय
तुम्हारे तुम को मैं छू नहीं पाया.
जीवन के ऊपर रखा विश्वास का हाथ
कब शिथिल होकर तूफ़ान में उड़ गया पत्ते सा.
कब हृदय फेंककर हृदयपिंड को छूकर
बैठा हूँ उदासीन आनन्द के मेले में
नहीं छू पाया तुम्हें, मेरी तुम्हें,
पागल गिरहबाज कबूतर जैसे नीली पृष्ठभूमि
तहस-नहस कर गया शांत आकाश का.
अविराम बारिश में मैंने भिगोया है हिया
तुम्हारे तुम को मैं नहीं छू पाया.
२.
एक गिलास अंधकार हाथ में
एक गिलास अंधकार हाथ में लिए बैठा हूँ.
शून्यता की ओर कर आँख, शून्यता आँखों के भीतर भी
एक गिलास अंधकार हाथ में लिए बैठा हूँ.
विलुप्त वनस्पति की छाया, विलुप्त हिरण.
प्रवासी पक्षियों का झुण्ड पंखों के अन्तराल में
तुषार का गहन सौरभ ढोकर नहीं लाता अब.
दृश्यमान प्रौद्योगिकी की जटाओं में अवरूध्द काल,
पूर्णिमा के चाँद से झड़कर गिरती सोने सी बीमारी .
पुकार सुन देखता हूँ पीछे – नहीं है कोई.
एक गिलास अंधकार हाथ में लिए बैठा हूँ अकेला….
समकालीन सुन्दरीगण उठकर जा रही हैं अतिद्रुत
कुलीन शयनकक्ष में,
मूल्यवान असबाब की तरह निर्विकार.
सभ्यता देख रही है उसके अंतर्गत क्षय
और प्रशंसित विकृति की ओर.
उज्जवलता की ओर कर आँख, देख रहा हूँ-
डीप फ्रीज में हिमायित कष्ट के पास ही प्रलोभन,
अतृप्त शरीर ढूँढ ले रहे हैं चोरदरवाज़ा – सेक्सड्रेन.
रुग्णता के काँधे पर रख हाथ सांत्वना बाँट रहा है अपशिष्ट-
मायावी प्रकाश के नीचे गजब का शोरगुल, नीला रक्त, नीली छवि
जग उठता है एक खंड धारदार चमचमाता इस्पात,
खोपड़ी के अंदर उसकी हलचल महसूस कर पाता हूँ सिर्फ.
इसी बीच कॉकटेल से बिखरा परिचय, संपर्क, पदवी –
उज्जवलता के भीतर उठाता है फन एक अलग अंधकार.
भरा गिलास अंधकार उलट देता हूँ इस अंधकार में.
३.
बतास में लाश की गंध
आज भी मैं पाता हूँ बतास में लाश की गंध
आज भी मैं देखता हूँ माटी में मृत्यु का नग्ननृत्य,
बलात्कृता की कातर चीत्कार सुनता हूँ आज भी तन्द्रा के भीतर….
यह देश क्या भूल गया वह दुस्वप्न की रात, वह रक्ताक्त समय ?
बतास में तैरती है लाश की गंध
माटी में लगा हुआ है रक्त का दाग.
इस रक्तरंजित माटी के ललाट को छूकर एकदिन जिन लोगों ने बाँधी थी उम्मीद
जीर्ण जीवन के मवाद में वो ढूँढ लेते हैं निषिद्ध अन्धकार,
आज वो प्रकाश विहीन पिंजड़े के प्रेम में जगे रहते हैं रात्रि की गुहा में.
मानो जैसे नष्ट जन्म की लज्जा से जड़ कुँवारी जननी
स्वाधीनता – क्या यह जन्म होगा नष्ट ?
यह क्या तब पिताहीन जननी की लज्जा की है फसल ?
जाति की पताका को आज पंजों में जकड़ लिया है पुराने गिद्ध ने.
बतास में है लाश की गंध
निऑन प्रकाश में फिर भी नर्तकी की देह में मचता है मांस का तूफ़ान.
माटी में है रक्त का दाग –
चावल के गोदाम में फिर भी होती है जमा अनाहारी मनुष्य की अस्थियाँ
इन आँखों में नींद नहीं आती. पूरी रात मुझे नींद नहीं आती –
तन्द्रा में मैं सुनता हूँ बलात्कृता की करुण चीत्कार,
नदी में कुम्भी की तरह तैरती रहती है इंसान की सड़ी हुई लाश
मुंडहीन बालिका का कुत्तों द्वारा खाया हुआ वीभत्स शरीर
तैर उठता है आँखों के भीतर . मैं नहीं सो पाता, मैं नहीं सो पाता….
रक्त के कफ़न में मुड़ा – कुत्ते ने खाया है जिसे , गिद्ध ने खाया है जिसे
वह मेरा भाई है, वह मेरी माँ है, वह हैं मेरे प्रियतम पिता.
स्वाधीनता, वह मेरी स्वजन, खोकर मिली एकमात्र स्वजन –
स्वाधीनता – मेरे प्रिय मनुष्यों के रक्त से खरीदी गयी अमूल्य फसल .
बलात्कृता बहन की साड़ी ही है मेरी रक्ताक्त जाति की पताका.
४.
खतियान
हाथ पसारते ही मुठ्ठी भर जाती है ऋण से
जबकि मेरे खेत में भरा है अनाज.
धूप ढूँढे नहीं मिलती है कभी दिन में,
प्रकाश में बहाती है रात की वसुंधरा.
हल्के से झाड़ते ही झड़ता है सड़ी हुई ऊँगली का घाम,
ध्वस्त होता है तब दिमाग का मस्तूल
नाविक लोग भूलते हैं अपना पुकारनाम
आँखों में खिलता है रक्तजवा का फूल.
पुकार उठो यदि स्मृति सिक्त फीके स्वर में,
उड़ाओ नीरव में गोपनीय रुमाल को
पंछी लौटेंगे पथ चीन्ह चीन्ह कर घर में
मेरा ही केवल नहीं रहेगा चीन्हा हुआ पथ –
हल्के से झाड़ते ही झड़ जाएगी पुरानी धूल
आँखों के किनारे जमा एक बूँद जल.
कपास फटकर बतास में तैरेगी रुई
नहीं रहेगा सिर्फ निवेदित तरुतल
नहीं जागेगा वनभूमि के सिरहाने चाँद
रेत के शरीर पर सफेद झाग की छुअन
नहीं आएगा याद अमीमांसित जाल
अविकल रह जाएगा, रहता आया है जैसे लेटना
हाथ पसारते ही मुठ्ठी भर जाता है प्रेम से
जबकि मेरी विरहभूमि है व्यापक
भाग जाना चाहता हूँ – पथ थम जाता है पाँव में
ढक दो आँखें ऊँगली के नख से तुम.
५.
यह कैसी भ्रान्ति मेरी
यह कैसी भ्रान्ति मेरी !
आती हो तो लगता है दूर हो गई हो, बहुत दूर,
दूरत्व की परिधि क्रमशः बढ़ा जा रहा है आकाश.
आती हो तो अलग तरह की लगती है आबोहवा, प्रकृति,
अन्य भूगोल, विषुवत रेखा सब अन्य अर्थ-वाहक
तुम आती हो तो लगता है आकाश में है जल का घ्राण.
हाथ रखती हो तो लगता है स्पर्शहीन करतल रखा है बालों में,
स्नेह- पलातक बेहद कठोर उँगलियाँ.
देखती हो तो लगता है देख रही हो विपरीत आँखों को,
लौट रहा है समर्पण नंगे पैरों से एकाकी विषाद – क्लांत होकर
करुण छाया की तरह छाया से प्रतिछाया में.
आती हो तो लगता है तुम कभी आ ही नहीं पायीं …
कुशल क्षेम पूछती हो तो लगता है तुम नहीं आयीं
पास बैठती हो, तो भी लगता है तुम नहीं आयीं.
दस्तक सुनकर लगता है कि तुम आयी हो,
दरवाजा खोलते ही लगता है तुम नहीं आयीं.
आओगी जानकर समझता हूँ अग्रिम विपदवार्ता,
आबोहवा संकेत, आठ, नौ, अवसाद, उत्तर, पश्चिम
आती हो तो लगता है तुम कभी आ ही नहीं पायी.
चली जाती हो तो लगता है तुम आयी थीं,
चली जाती हो तो लगता है तुम हो पूरी पृथ्वी पर.
शिव किशोर तिवारी द्वारा अनूदित
६.
मेरे बाहर, भीतर, अंतर के कोने-कोने में
मेरे बाहर, भीतर, अंतर के कोने-कोने में
ब्यापकर हृदय को
तुम्हारी उपस्थिति.
फूल की पंखुड़ी के परदे में
सोती हुई फ़सल-सा
कलेजे के निगूढ़ राजमार्ग पर
पदचारण तुम्हारा.
सीप के आवरण में पलती
मुक्ता के आनंद जैसा
भीतर के नील तट पर
तुम्हारा गहन स्पर्श.
सकुशल हूँ, सकुशल रहो तुम भी,
पत्र लिखना आकाश के पते पर,
दे देना अपनी माला
जोगी इस मन को.
७.
अफ़ीम फिर भी ठीक है, धर्म तो हेमलाक विष है
जैसे ख़ून में जनमती है पीली बीमारी
और बाद में फूट पड़ता है त्वचा और मांस का बीभत्स क्षरण,
राष्ट्र के बदन में आज वैसे ही देखो एक असाध्य रोग
धर्मांध पिशाचों और परलोक बेचनेवालों की शक़्ल में,
धीरे-धीरे प्रकट हो गया है क्षयरोग,
जो धर्म कभी अँधेरे में रोशनी लाया था,
इस रोग से ग्रसित आज उसका कंकाल और सड़ा मांस
बेचते फिर रहे हैं स्वार्थपरायण बेईमान लोग –
सृष्टि के अज्ञात अंश को गप्पों से पूरते हुए.
अफ़ीम फिर भी ठीक है,धर्म तो हेमलॉक विष है.
धर्मांध के पास धर्म नहीं है, लोभ है, घिनौनी चतुराई है,
आदमी की धरती को सौ हिस्सों में बाँट रखा है
इन्होंने, क़ायम रखा है वर्गभेद
ईश्वर के नाम पर.
ईश्वर के नाम पर
दुराचार को जायज़ बना दिया है.
हाय री अंधता ! हाय री मूर्खता!
कितनी दूर, कहाँ है ईश्वर!
अज्ञात शक्ति के नाम पर कितने नरमेध,
कितना रक्तपात,
कितने निर्मम तूफ़ान आये हज़ार सालों में.
कौन हैं वे बहिश्त की हूरें, कैसी जन्नत की शराब और
कैसा अंतहीन यौनाचार में निमग्न अनंत काल
जिनके लोभ में आदमी जानवर से बदतर हो जाय?
और कौन सा नरक है इससे अधिक भयावह,
भूख की आग सातवें नरक की आग से कुछ कम है?
वह रौरव की ज्वाला से कम आँचवाली, कम कठोर है?
इहकाल को छोड़कर जो परकाल के नशे में चूर हैं
उनका सब कुछ उस पार बहिश्त में चला जाय,
हम रहेंगे इस पृथ्वी की मिट्टी, पानी और आकाश में,
द्वंद्वात्मक सभ्यता के गतिमान स्रोत की धारा में,
भविष्य के स्वप्न में मुग्ध, समता के बीज बोते जायेंगे.
८.
असमय शंखध्वनि
इतने हृदय की ज़रूरत नहीं,
कुछ शरीर, कुछ मांसलता की बहार भी चाहिए.
इतना स्वीकार, इतनी प्रशंसा का काम नहीं,
थोड़ा आघात, थोड़ी बेरुख़ी भी चाहिए, कुछ अस्वीकार.
साहस उकसाता है मुझे,
जीवन कुछ यातना की शिक्षा देता है,
भूख और सूखे के इस असमय में
इतने फूलों का काम नहीं.
सीने में घिन लिये नीलिमा की बात
उपास के मारे आदमी की मुश्किलात
किसी काम के नहीं, नहीं किसी काम के
करुणाकातर विनीतबाहुओ, घर लौट जाओ.
पथभ्रष्ट युवक, भुलावों-भरे अंधकार में रोओ कुछ दिन
कुछ दिन विषाक्त द्विविधा की आग में जलाओ अपने आप को,
अन्यथा धरती का मोह सुडौल नहीं हो पायेगा,
अन्यथा अंधकार की धार में बहोगे और कुछ दिन.
इतने प्रेम की ज़रूरत नहीं है
बेज़ुबान मुँह निरीह जीवन
नहीं चाहिए, नहीं चाहिए.
थोड़ा हिंस्र विद्रोह चाहिए थोड़ा आघात
ख़ून में कुछ गर्मी चाहिए कुछ उबाल,
चाहिए कुछ लाल तेज़ आग.
९.
माधवी की अविश्वसनीय स्मृति
माधवी कल चली जायेगी.
उसके हाथ में फूलों को थमाकर बोला,
‘तुम भी फूल की तरह झड़ जाओगी?’
वह चुप, उदासीन.
कौए के पंख की तरह काले उसके नयन
क्षण भर में भर आये
पलकें काँपीं हौले से.
नये ख़रीदे ज्योमेट्री बाक्स के
चकमक कवर की तरह
उसकी आँखें आँसुओं से झिलमिलाने लगीं,
लाल किनारी वाली साड़ी जैसे उसके होठ,
बात करती तो लगता कोई गा रहा है
चिरपरिचित कंठ-स्वर में
सभा के अनुरोध पर.
उसके होंठ काँपे
हलके हलके
ज़रा ज़रा
सिनेमा के मख़मली परदे की तरह.
मुझे जकड़ लिया उसने,
बच्चों की तरह रोई वो.
उसके लाल होंठ बार-बार काँपे
वो बोली ‘तुझे कभी नहीं भूलूँगी’
लेकिन यही माधवी कहती थी
अकसर कहती,
स्मृति नाम की किसी चीज़ में
मुझे यक़ीन नहीं है.
१०.
चले जाने का मतलब छोड़ जाना नहीं है
चले जाने का मतलब छोड़ जाना नहीं है- न कट जाना,
चले जाने का मतलब नहीं है बंधन तोड़ देने वाली भीगी रात,
चले जाने के बाद मुझसे बड़ा कुछ रह जायेगा
मेरे न होने से जुड़ा.
जानता हूँ चरम सत्य के सामने झुकना पड़ता है सबको,
जीवन सुंदर है,
आकाश-वातास,पहाड़-समुद्र
हरे वन से घिरी प्रकृति सुंदर है,
और सबसे सुंदर है जीवित रहना,
तब भी हमेशा जीवित रहना कहीं संभव है!
विदा की शहनाई बजी,
ले जाने को पालकी आकर खड़ी हुई द्वारे,
सुंदरी पृथ्वी को छोड़,
ये जो बचा हुआ था मैं,
दीर्घ नि:श्वास के साथ जाना होगा,
सभी को जाना होता है.
गंतव्य का पता नहीं,
सहसा बोल पड़ता है अज्ञातनामा पक्षी
एकदम चौंक उठता हूँ
जीवन समाप्त हुआ क्या?
सभी इसी तरह जायेंगे, जाना होगा.
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शिव किशोर तिवारी २००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त. हिंदी, असमिया, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन. tewarisk@yahoocom |
सुलोचना वर्मा (जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल) कॅंप्यूटर विज्ञान के क्षेत्र मे कार्यक्रम प्रबंधक आगमन तेजस्विनी सम्मान verma.sulochana@gmail.com |