शायद कि याद भूलने वाले ने फिर किया(चंद तवाइफ़ों की दास्तान-ए-ज़िंदगी)
पंकज पराशर |
हालाँकि इस मज़मून में मैं बात तो सीधे ज़ोहराबाई आगरेवाली की ज़िंदगी से शुरू करना चाहता था, लेकिन शुरुआत चूँकि मैंने एक ‘हालाँकि’ से की है, तो बराए-मेहबरबानी दास्तान-ए-ज़ोहराबाई से पहले ज़रा सब्र करके इस ‘हालाँकि’ का क़िस्सा थोड़ा सुन लीजै. उसके बाद हम ज़ोहराबाई के वक़्ती और समाजी हालात के मुताल्लिक भी कुछ-न-कुछ सुनाए बग़ैर थोड़ी मानेंगे!जैसे पुराने लखनऊ में वाज़िद अली शाह ‘इंदर सभा’ शुरू करने से पहले माहौल बनाते थे, पारसी थियेटर वाले आगा हश्र कश्मीरी या नारायण प्रसाद ‘बेताब’ के नाटक की शुरुआत सामूहिक मंगलाचरण से करते थे, हालाँकि मंगलाचरण से पहले ही वे दिलकश मौसिकी से समाँ बाँध देते थे. उसी तरह 18 दिसंबर, 1887 को सारण के कुतुबपुर दियारा में दलसिंगार ठाकुर के घर जन्मे भिखारी ठाकुर जब ‘बिदेसिया’, ‘बेटी-बेचवा’ और ‘गबरघिचोर’ खेलने जाते थे, तो नाच शुरू करने से पहले ही ‘लहरा’ बजाकर दर्शकों में जबर्दस्त फुरफुरी पैदा कर देते थे!
बहरहाल, क़िस्सा-ए-ज़ोहराबाई से पहले हमारे-आपके बीच जब यह कमबख़्त ‘हालाँकि’ आ ही गया है, तो मेरे ख़्याल से कुछ और ‘हालाँकियों’ पर भी एक नज़र डालते हुए चलना ग़ैर-मुनासिब न होगा!हिंदुस्तान की तारीख़ को जब आप ज़रा ग़ौर से देखेंगे, तो पाएँगे कि तारीख़ में ऐसी बहुतेरी जगहें हैं, जहाँ असली क़िस्से के बराबर इन ‘हालाँकियों’ ने अहम किरदार अदा किया है. कभी-कभी तो हिंदुस्तान की तारीख़ को बदल देने की हैसियत का एहसास कराया है. 23 जून, 1757 को बंगाल के नदिया जिले में गंगा नदी के किनारे ‘पलाशी‘ (पलासी या प्लासी नहीं, क्योंकि पलाश के पेड़ों के सघन वन वाला इलाका होने के कारण इस जगह को पलाशी कहा जाता था) की लड़ाई हुई थी, तो लॉर्ड रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी ने नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया, ‘हालाँकि’सिराजुदौला के पास अठारह हजार सिपाही थे और अँगरेजों के पास महज तीन सौ सिपाहियों की सेना!
ज़ोहराबाई के बारे में सोचते हुए मुझे अपने ज़माने की मशहूर तवायफ़ ‘बड़ी मलका जान’की साहिबज़ादी गौहर जान और शहर इलाबाद से पटना तशरीफ़ लेकर आई ‘बाई जी’ अल्लाजिलाई की याद भी बारहा आई. जो मौसिकी आज इंटरनेट की मेहरबानी से ‘यू-ट्यूब’ और अन्य जगहों पर उपलब्ध है, उसका विकास किन-किन दुश्वारियों, किन लोगों की ज़िद और जुनून की वज़ह से मुमकिन हो पाया, यह जानना भी बेहद दिलचस्प है! हम सब जानते हैं कि दुनिया की तमाम सभ्यताएँ नदियों के किनारे विकसित हुई और नदियों की वज़ह से ही सैकड़ों साल तक उनका वज़ूद बना रहा. दुनिया की कोई भी पुरानी से पुरानी सभ्यता हो, मसलन वह चाहे सिंधु, गंगा, दजला-फरात, नील या ह्वांगहो की हो, वे नदियों की घाटियों में ही पनपी और विकसित हुई. शहर दरभंगा बागमती नदी के किनारे बसा हुआ एक ऐसा शहर है, जो इतिहास में मधुबनी पेंटिंग के साथ-साथ कला-संस्कृति के केंद्र के रूप में मशहूर रहा है. दरभंगा राजघराने में संगीत और नृत्य के एक-से-एक कद्रदान हुए. सन् 1700 ईस्वी में जब दरभंगा रियासत की राजगद्दी पर राजा राघव सिंह आसीन हुए, तो दरभंगा हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक बड़े केंद्र के रूप में उभर कर सामने आया और उनके बाद आए शासकों के समय में भी यह निरंतरता बनी रही. महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह और उनके निधन के बाद राजा बने उनके अनुज रामेश्वर सिंह भी अपने ज़माने में भारतीय संगीत के बड़े कद्रदान माने जाते थे.
कलाकारों को इनाम-इकराम देने और अपनी दरियादिली के लिए वे भारत भर में प्रसिद्ध थे. उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ, गौहर जान, रामचतुर मल्लिक, रामेश्वर पाठक और सियाराम तिवारी जैसे चर्चित संगीतज्ञ इस राजघराने से जुड़े रहे. 21 मार्च, 1916 को बिहार के डुमराँव में जन्मे कमरुद्दीन उर्फ भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की ज़िंदगी का एक तवील अरसा दरभंगा में बीता. बाद में बनारस को उन्होंने अपना पक्का ठिकाना बना लिया. शहनाई में बिस्मिल्ला खाँ ने इतना नाम पैदा किया कि उन्हें भारत की आज़ादी के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के सामने शहनाई बजाने का अवसर मिला और सन् 1997 में आज़ादी के पचास साल पूरे होने के अवसर पर भी संसद भवन में बजाने सम्मान मिला. उनके ख़ानदान में उनके परदादा हुसैन बख़्श खाँ, दादा रसूल बख़्श खाँ, चाचा ग़ाजी बख़्श खाँ और पिता पैगंबर बख़्श खाँ भी अपने ज़माने के नामी शहनाई वादक थे, लेकिन बिस्मिल्ला खाँ जैसी शोहरत इनमें से किसी को नहीं मिली. उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ भी अपने वाद्य में मुरकी, खटका, मींड आदि ला सकने की अपनी सामर्थ्य का श्रेय तत्कालीन दो बनारसी गायिकाओं रसूलनबाई और बतूलन बाई को देते थे.[1]
रसूलन बाई
बात जब रसूलन बाई की निकल ही आई है, तो ज़रा उनकी भी मौसिकी से मोहब्बत की रूदाद भी सुन लीजै. रसूलन बाई का तआल्लुक बनारस के बेहद ग़रीब घराने से था. उनके पास अगर कोई दौलत थी, तो वह थी अपनी माँ से मिली हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की विरासत. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का जो ज़रा भी जानकार होगा, वह रसूलन बाई की ठुमरी सुनकर यह सोचने पर मज़बूर हो जाएगा कि रसूलन ठुमरी को गाती थी या ठुमरी ख़ुद ही ख़ुदा की नेमत की तरह उनके गले में उतरती थी, यह पता करना ज़रा मुश्किल था. आज़ादी मिलने के साथ जब देश का बँटवारा हुआ और लोग इंसान से ज़्यादा हिंदू-मुसलमान हो गए, तो आम लोगों के सामने इस पार हिंदुस्तान या उस पार पाकिस्तान चले जाने का मसला आया. शहर बनारस से भी बहुत सारे लोग पाकिस्तान जाने लगे, तो मलका-ए-ठुमरी रसूलन बाई के शौहर सुलेमान मियाँ भी पाकिस्तान जाने के लिए नीयत और सामान दोनों बाँधने लगे. रसूलन के मियाँ सुलेमान को नये मुल्क पाकिस्तान के आकर्षण ने अपनी तरफ़ खींच लिया था, जबकि रसूलन बाई को नये बने पाकिस्तान से ज़्यादा पुराने बनारस से लगाव था.
रसूलन बी ने सुलेमान मियाँ को समझाने कि बारहा कोशिशें की. नये मुल्क में वहाँ हमारा कौन इस्तकबाल करने को बैठा है? न घर, न घाट, न वहाँ कोई जान-पहचान, जबकि बनारस हमारा अपना आबा-ए-वतन है! वहाँ पाकिस्तान में हमारा क्या है?पर चूँकि सुलेमान मियाँ सफर के लिए नीयत और सामान बाँध चुके थे, लिहाजा उनके ऊपर रसूलन बाई की दलाएल का कोई असर न हुआ. वे न माने. वे नहीं माने तो रसूलन भी नहीं मानी. रसूलन ने अपने शौहर सुलेमान मियाँ के साथ पाकिस्तान जाने से इनकार दिया और बनारस में अकेले ही रहना तय किया. रसूलन के इस फ़ैसले से सुलेमान मियाँ को बड़ा झटका लगा, मगर मर्द की अना भी तो कोई चीज़ है. जब औरतें अपने मियाँ के हुक्म की गुलाम हुआ करती थी, तब रसूलन बाई इतनी ख़ुदमुख़्तार भला कैसे हो सकती थीं कि वह मियाँ की हुक़्मउदूली करे? नतीज़ा यह हुआ कि अपनी शरीक़-ए-हयात रसूलन बी को बनारस में ही छोड़कर सुलेमान मियाँ अकेले ही पाकिस्तान के लिए निकल गए. इधर रसलून बी ने तो फैसला कर ही लिया था कि वह हिंदुस्तान में रहेंगी, तो बनारस में ही रहीं. लेकिन यह जानना बेहद तक़लीफदेह है कि जिस बनारस के लिए रसूलन बाई ने अपने मियाँ सुलेमान तक को छोड़ दिया, उस शहर बनारस ने उनकी कोई कद़र नहीं की. मान-सम्मान देना तो दूर, उन्हें दो वक़्त की रोटी के लिए भी काफी जिल्लत उठानी पड़ी.
आज़ादी के बाद हिंदुस्तान में सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का तेज़ कुछ इस कदर जाग्रत हुआ कि पहले तो लोगों ने बनारस की तवाइफ़ों का सामाजिक बहिष्कार करना शुरू किया कि इनकी उपस्थिति से बनारस की शुचिता और पवित्रता को ख़तरा है. फिर उसके बाद शहर बनारस में उनकी मौज़ूदगी पर ही सवाल उठाने लगे. उनके डर से मौसिकी के कद्रदानों ने कोठों की ओर रुख करना छोड़ दिया. फिर तो ग़ुरबत और मुफ़लिसी की वो शाम आयी, जिसकी फिर कभी सुबह हुई ही नहीं! बनारस के लोगों ने जब जीना मुहाल कर दिया, तो रसूलन बी इलाहाबाद की ओर निकल गईं. नौबत ये आ गई कि दो वक़्त की रोटी जुटाने के लिए मलका-ए-ठुमरी रसूलन बाई अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में शहर इलाहाबाद के फुटपाथ पर कुछ–कुछ बेचा करती थीं. अब ये तो ख़ुदा ही जाने कि वे इलाहाबाद की सड़कों पर अपने टूटे-बिखरे ख़्वाबों के किरचें देखा करती थीं या अपने अधूरे अरमानों को बाँचा करती थीं! आकाशवाणी इलाहाबाद उनकी गायी हुई ठुमरियों को बजाता तो मुसलसल था, लेकिन उसी आकाशवाणी इलाहाबाद की सड़कों पर बेघर-बेसहारा फिरतीं हुई रसूलन बाई के हालात से बेख़बर था. आकाशवाणी से जब रसूलन बी जब अपने नाम के साथ ‘बाई’ का तख़ल्लुस सुनतीं, तो उनका दर्द आख़िरकार छलक ही आता, ‘बाकी सब बाई तो देवी बन गई, एक मैं ही बाई रह गई!’
रसूलन बाई की एक यादगार ठुमरी है, ‘लागत करेजवा में चोट, फूल गेंदवा ना मारो’. घायल हृदय का वास्ता देकर, इज़हार-ए-मुहब्बत के नाज़ुक एहसास की उम्मीद जताने वाली इस ठुमरी का एक हर्फ़ वक़्त के साथ बदल दिया गया. ‘फूल गेंदवा ना मारो, लागत जोबनवां में चोट’ लफ़्ज़ में ये बदलाव उन हालात पर सांकेतिक कटाक्ष है, जिनके तहत रसूलन बाई को ग़ुरबत की ज़िंदगी गुजारनी पड़ी.
लोगों की तारीफ़, वाह-वाह और ‘एक और…एक और’ गीत की फरमाइश सुनने की आदी रसूलन बाई को बदलते हिंदुस्तान की संगदिली और बेशर्मी ने बुरी तरह तोड़ दिया.[2] जो नाज़ुकमिज़ाज दिल महफ़िल में बैठे लोगों के टेढ़े बोल निकल जाने से भी घायल हो जाते थे, उस दिल को इतने पत्थरों के चोट सहने पड़ेंगे, ये पाकिस्तान न जाने का फैसला करते हुए न तो रसूलन बाई ने कभी सोचा होगा, न रसूलन की ठुमरी के असल कद्रदानों ने.
गौहर जान
सन् 1880 से 1898 तक लक्ष्मीश्वर सिंह दरभंगा नरेश थे. बताते चलें कि ये वही महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह हैं, जो सन् 1885 में काँग्रेस की स्थापना के समय उसकी पहली बैठक में मौज़ूद थे. इसके बाद कलकत्ते में हुए काँग्रेस के द्वितीय अधिवेशन का पूरा खर्च (2500 रूपये) उन्होंने ही दिया था. सन् 1892 में अँगरेजी हुकूमत की जब भवें ज़रा टेढ़ी हो जाने के कारण काँग्रेस को इलाहाबाद में अधिवेशन करने के लिए कहीं कोई जगह नहीं मिल रही थी, तो लक्ष्मीश्वर सिंह ने एक अँगरेज हाकिम का पूरा ‘लोथर हाउस’ ही ख़रीद कर दे दिया था.[3]
इन्हीं महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह के राजमहल लक्ष्मीश्वर विलास पैलेस में सन् 1887 में जब ‘बड़ी मलका जान’ की साहिबज़ादी गौहर जान ने महज चौदह बरस की उम्र में गाना पेश किया था. राज दरभंगा के लक्ष्मीश्वर विलास पैलेस में मौज़ूद तमाम लोग गौहर की गायकी के कायल हो गए. गौहर का जब गायन समाप्त हुआ, तो राजदबार से जुड़े तमाम गायक, वादक और संगीत के रसिया घंटों वाह-वाह करते रहे. गौहर जान को दरभंगा शहर इतना पसंद आया कि वह बाक़ायदा दरभंगा राज से जुड़ गईं. उसके बाद कुछ वर्षों तक वह इस शहर में रहीं. लक्ष्मीश्वर सिंह जब तक जीवित रहे, दरभंगा राज से गौहर जान सीधे तौर पर जुड़ी रहीं. अपने 56 बरस के जीवन काल में गौहर तीन राजदरबारों से जुड़ीं-दरभंगा राजदरबार से, कलकत्ता के मटियाबुर्ज में निर्वासित जीवन जी रहे अवध के नवाब वाज़िद अली शाह के दरबार से और जीवन के अंत में मैसूर के राजा कृष्ण राजा वडियार-(चतुर्थ) के राजदरबार से. हिंदुस्तान के भद्र समाज के इन चेहरों से बेख़बर गौहर ने बाद में इस चीज़ को देखा कि उनके दौर का रसिक समाज इन गायिकाओं पर रुपया तो भरपूर लुटाता था, किंतु बड़ी से बड़ी पेशेवर गायिका को राज-समाज में न तो ब्याहता का दर्जा मिलता था और न सम्मानित पुरुष कलाकारों जैसा आदर भरा व्यवहार दिखाता था, ख़ास तौर पर तब, जब उनकी गायकी और यौवन ढलाव पर आ जाएँ.
बड़ी मलका जान, जानकीबाई छप्पनछुरी और ज़ोहराबाई आगरेवाली जैसी गायिकाओं की कला के दीवाने भारत के दोमुँहे भद्र समाज के विपरीत इन गायिकाओं की असंदिग्ध प्रतिभा के कारण इन तमाम गायिकाओं का उस दौर के तमाम उस्ताद गायकों के बीच गहरा सम्मान बना रहा. वे अक्सर संगीत की बारीकियों पर इनसे चर्चा करते और अपनी जानकारियों का आदान-प्रदान किया करते.’[4]
तत्कालीन संयुक्त प्रांत यानी आज के उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ में 26 जून, 1873 को पैदा हुई गौहर जान का ख़ानदान मिश्रित धर्म, मिश्रित संस्कृति और मिश्रित राष्ट्रीयता का अद्भूत नमूना था. उनकी दादी हिंदू थीं और दादा ब्रिटिश और पिता आर्मेनियाई मूल के ईसाई. पिता विलियम रॉबर्ट येओवॉर्ड पेशे से इंजीनियर थे और आज़मगढ़ में उनकी ‘ड्राई आईस’ की फैक्ट्री थी. विक्टोरिया की माँ एक आर्मीनियाई यहूदी थी और पिता अँगरेज़ ईसाई. विलियम रॉबर्ट येओवॉर्ड ने सन् 1872 में विक्टोरिया हेमिंग से शादी की थी. विक्टोरिया हेमिंग को गीत-संगीत और नृत्य से जुनून की हद तक लगाव था और वह घंटों रियाज़ में अपना वक़्त बिताया करती थी. इस वज़ह से आईस-फैक्ट्री से थके-माँदे जब विलियम रॉबर्ट येओवॉर्ड घर लौटते, तो घर में गीत-संगीत और नृत्य चल रहा होता. इस वज़ह से पहले तो पति-पत्नी के बीच कहासुनी हुई, फिर उसके बाद झगड़े होने शुरू हो गए. पति-पत्नी बीच दूरियाँ बढ़ने लगीं और दांपत्य-प्रेम में लगातार कमी आती चली गयी. इसी बीच पति-पत्नी के बीच ख़ुर्शीद नामक एक रईस ‘वो’ का भी प्रवेश हो गया.
ख़ुर्शीद से विक्टोरिया की नज़दीकी की एक वज़ह यह भी थी कि ख़ुर्शीद जितना विक्टोरिया को चाहता था, उतना ही उसे विक्टोरिया के संगीत से भी लगाव था. सही वक़्त पर ख़ुर्शीद ने विक्टोरिया के रूप और संगीत दोनों से गहरी मुहब्बत का न सिर्फ़ खुलेआम इज़हार किया, बल्कि कलहपूर्ण वातावरण में रह रही विक्टोरिया हेमिंग के जख़्मी दिल पर मुहब्बत का मरहम भी लगाता रहा. इन्हीं विलियम रॉबर्ट येओवॉर्ड और विक्टोरिया हेमिंग की इकलौती बेटी थी एलीन एंजेलिना येओवॉर्ड, जो बाद में गौहर जान के नाम से मशहूर हुई. बेटी एलीन एंजेलिना येओवॉर्ड जब छह साल की हुई, तो विलियम रॉबर्ट येओवॉर्ड और विक्टोरिया हेमिंग की शादीशुदा ज़िंदगी में इतनी कड़वाहटें आ चुकी थी कि दोनों ने तलाक ले लेना ही बेहतर समझा और अंततः सन् 1879 में दोनों के बीच आख़िरकार तलाक हो ही गया.
पति से अलग होने के बाद विक्टोरिया हेमिंग, बनारस के रईस ख़ुर्शीद से शादी करके आज़मगढ़ से बनारस चली गई. बनारस पहुँचकर विक्टोरिया हेमिंग ने इस्लाम कुबूल करके अपना नाम ‘बड़ी मलका जान’ रख लिया. अपने नाम से पहले उन्हें ‘बड़ी’ शब्द इसलिए जोड़ना पड़ा, क्योंकि उस वक़्त हिंदुस्तान में मलका जान नाम की दो और मशहूर गायिकाएँ मौज़ूद थीं और वे भी मलका जान के नाम से ही जानी जाती थीं. एक थी ख़ुद बड़ी मलका जान आगरेवाली, दूसरी थी मुल्क पुखराज की मलका जान और तीसरी थी चुलबुली मलका जान. बड़ी मलका जान बाकी दो मलका जान से उम्र में बड़ी थीं, तो ज़ाहिर है अपने नाम में मलका जान से पहले बड़ी जोड़ लेना कतई ग़ैर मुनासिब न था.
अपना धर्म बदलकर विक्टोरिया से बड़ी मलका जान बनने के बाद उन्होंने बेटी को भी धर्म परिवर्तित करवाकर एलीन एंजेलिना येओवॉर्ड से गौहर जान बना दिया. बड़ी मलका जान उस ज़माने की मशहूर कथक नृत्यांगना और शास्त्रीय संगीत की गायिका थीं. ख़ुर्शीद के साथ निकाह के बाद बड़ी मलका जान तकरीबन चार सालों तक बनारस में रहीं. उसके बाद सन् 1883में उन्होंने कलकत्ता में निर्वासित जीवन जी रहे अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में तीन सौ रूपये महीने की मुलाज़मत क़ुबूल करके कलकत्ता चली गईं. बड़ी मलका जान कथक की प्रशिक्षित नृत्यांगना तो थी ही, उन्हें उर्दू कविता और ग़ज़ल गायन में भी महारत हासिल थी. बड़ी मलका जान ध्रुपद, ख़याल से लेकर ठुमरी, होरी, चैती, कजरी और ग़ज़ल सब कुछ गाती थीं. उनके गाये कई गाने रिकॉर्ड किए गए और हर रिकॉर्ड के अंत में वे कहती हैं, ‘माई नेम इज मलका जान’या ‘मलका जान ऑफ आगरा.
दरअसल सन् 1848 में जब साम्राज्य विस्तार की रणनीति लेकर लॉर्ड डलहौजी हिंदुस्तान का गवर्नर जनरल बनकर आया, तो अगले ही साल 1849 में उसने साजिश करके पंजाब को अँगरेजी राज का हिस्सा बना लिया और महाराजा दिलीप सिंह को पेंशन देकर इंग्लैंड भिजवा दिया. इसके बाद सन् 1856 में अँगरेजों ने अवध के नवाब वाज़िद अली शाह (शासन कालः 13 फरवरी, 1847 से 11 फरवरी, 1856) को भी देश निकाला देकर कलकत्ता के मटियाबुर्ज इलाके में भेज दिया, ताकि बरतानवी हुकूमत को उनकी हरकतों पर नज़र रखने में सहूलियत हो. बरतानवी हाकिमों का फरमान सुनने के बाद नवाब वाज़िद अली शाह अपने परिवार के कुछ सदस्यों और अपनी चार बीवियों के साथ कलकत्ता चले गए. अगले साल 1857 में जब गदर का विद्रोह शुरू हुआ, तो बरतानवी हुकूमत ने एहतियातन नवाब वाज़िद अली शाह को नज़रबंद कर दिया.
गदर के विद्रोह को कुचलने के बाद अवध अँगरेजों के कब्जे़ में आ तो गया, मगर सबसे आख़िर में और वो भी लखनऊ शहर में बीस हज़ार लोगों का क़त्ल-ए-आम करने के बाद. इन्हीं नवाब वाज़िद अली शाह ने ‘परीख़ाना’ नाम से एक किताब लिखी थी, जो उनकी ज़िंदगी की खुली दास्तां तो है ही, यह किताब उन्नीसवीं सदी की लखनवी संस्कृति का कीमती दस्तावेज़ भी है. किताबें पढ़ने और लिखने के वे इतने शौकीन थे कि अपने जीवन काल में 60 से अधिक किताबें लिखीं. इसके अलावा वह कथक के कुशल नर्तक और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में इतने गहरे धँसे हुए थे कि कई नये राग भी बनाए और आम लोगों के बीच ‘ठुमरी’ को लोकप्रिय बनाने में उनका बहुत अहम योगदान माना जाता है. लखनऊ से निर्वासित होकर नवाब वाज़िद अली शाह जब कलकत्ता जा रहे थे, तो ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए’ गाते हुए विदा हुए थे. ठुमरी के माहिर और क़द्रदान इन्हीं नवाब साहब के मटियाबुर्ज स्थित राजदरबार से बड़ी मलका जान जुड़ीं, लेकिन उनके राजदरबार से जुड़ने के महज़ चार साल के भीतर ही नवाब साहब का इंतकाल हो गया.
नवाब वाज़िद अली शाह के दरबार से जुड़ने और वहाँ के दीगर रईस क़द्रदानों की बदौलत बड़ी मलका जान ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के 24, चितपुर रोड (वर्तमान में रवीन्द्र सरणी) में चालीस हज़ार रूपये में एक बड़ी-सी कोठी ख़रीद ली. इसी घर में बड़ी मलका जान ने बेटी गौहर जान की नृत्य और संगीत की शिक्षा शुरू करवाई. पटियाला के काले खाँ उर्फ ‘कालू उस्ताद‘, रामपुर के उस्ताद वज़ीर खाँ और पटियाला घराने के संस्थापक उस्ताद अली बख़्श (पटियाला घराना के संस्थापक) ने ग़ौहर को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गायन की शिक्षा दी. महान् कथक गुरु वृंदादीन महाराज (मशहूर कथक नर्तक बिरजू महाराज के दादा के भाई) से गौहर ने कथक सीखा, सृजनबाई से ध्रुपद और चरनदास से बंगाली कीर्तन की शिक्षा ली. वास्तव में बड़ी मलका जान और उनकी बेटी गौहर जान के पहले शिक्षक उस्ताद इमदाद खाँ साहब थे, जो माँ और बेटी के गायन के दौरान सारंगी बजाया करते थे.[5]
ग़ौहर जान की गायकी का व्यापक असर न सिर्फ हिंदुस्तान के भद्र समाज पर था, बल्कि संगीत के क्षेत्र में नाम और नामा की चाहत रखने वाली अनेक गायिकाएँ गौहर जान को सुनते हुए उन्हीं की तरह गाने की हसरत अपने दिल में पाले रखती थीं. इस प्रसंग में अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी उर्फ बेगम अख़्तर की याद भला किसे न आएगी! बेगम अख़्तर बंबई (अब मुंबई) जाकर फिल्मों में अपना किस्मत आजमाना चाहती थीं, लेकिन जब उन्होंने बड़ी मलका जान और उनकी बेटी ग़ौहर जान का गायन सुना, तो फिल्मों में जानने का इरादा छोड़ दिया और अपने आपको पूरी तरह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के लिए वक़्फ कर दिया. हुआ कुछ यूँ कि एक बार गौहर जान शहर फ़ैज़ाबाद तशरीफ़ लाईं, जिनकी उन दिनों पूरे हिंदुस्तान में धूम मची हुई थी. इत्तेफ़ाक से वे उस कमरे में गईं जहाँ ‘बिब्बी’ उर्फ़ अख़्तरी पढ़ती थीं.
किस्सा है कि बिब्बी ने गौहर का दामन थाम लिया और कहा, ‘आप गौहर जान हैं न?’ आप ठुमरी गातीं हैं. गौहर जान बोलीं, ‘क्या तुम भी गाती हो?’ बिब्बी ने उन्हें ख़ुसरो का कलाम ‘अम्मा मोरे भैया को भेजो सावन आया’ गाकर सुनाया. गौहर जान अख़्तरी से इस कलाम को सुनकर अवाक रह गईं. बोलीं, ‘अगर इस बच्ची को सही तालीम मिल गई, तो ये मलिका-ए-ग़ज़ल बनेगी![6] …और वे वाकई बनीं. चूँकि उनकी वालिदा मुश्तरीबाई भी लखनऊ के नवाबों की दरबारी गायिका थीं, इसलिए घर में पहले से ही मौसिकी का अच्छा माहौल था.
गौहर की माँ बड़ी मलका जान चूँकि गीत-संगीत में पारंगत थीं, इसलिए गीत-संगीत और नृत्य की बारीकियों को देखते-सुनते हुए उनका बचपन गुज़रा. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और कथक सीखने के अतिरिक्त गौहर ने रवींद्र संगीत की शिक्षा भी ली थी. दरभंगा के अलावा नवाब वाज़िद अली शाह के दरबार में भी गौहर को ख़ूब वाहवाही मिली. गायन की कला से लोगों को हैरत में डाल देने वाली गौहर पहली ‘डांसिंग गर्ल’ भी थीं और ग्रामोफोन पर रिकॉर्डिंग करवाने वाली पहली प’फॉर्मर होने का एजाज़ भी उन्हें हासिल है. यही नहीं, दिसंबर 1911में दिल्ली दरबार में ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’किंग जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में गाने के लिए ग़ौहर जान को बुलवाया गया, जहाँ अपनी समकालीन तवाइफ़ इलाहाबाद की जानकीबाई ‘छप्पनछुरी’ के साथ इस अवसर के लिए विशेष रूप से एक युगल गीत तैयार किया था, ‘ये है ताज़पोशी का जलसा मुबारक हो, मुबारक हो’. जब यह गीत जब समाप्त हुआ, तो सम्राट और साम्राज्ञी को सलाम करने के लिए दोनों गायिका गौहर और जानकी बाई उनकी क़रीब गई. सम्राट ने दोनों की कला की ख़ूब तारीफ़ की और बतौर इनआम सोने की सौ अशर्फियाँ दीं.
इस शानदार समारोह में सम्राट-साम्राज्ञी और तमाम रियासतों के राजाओं-महाराजाओं और ज़मींदारों की मौज़ूदगी में गौहर जान को जानकीबाई के साथ अपनी गायकी का जलवा दिखाने का एक दुर्लभ अवसर मिला था. गौहर की एक और ख़ास बात क़ाबिले-ग़ौर है कि लखनऊ की तवाइफ़ उमराव जान उर्दू में ‘अदा’ तख़ल्लुस से शेर कहती थीं, तो उर्दू शेरो-शायरी से गहरी दिलचस्पी होने की वज़ह से गौहर जान भी ‘हमदम’ तख़ल्लुस से ग़ज़लें और शेर कहा करती थीं. गौहर जान ‘हमदम’ का एक शेर अब भी उसकी गायकी की क़द्र करने वाले क़द्रदानों की ज़ुबान पर है, ‘शायद कि याद भूलने वाले ने फिर किया/ हिचकी इसी सबब से है गौहर लगी हुई.’
जानकीबाई ‘छप्पनछुरी’
हालाँकि उस ज़माने में राजदरबारों में गाना कोई अच्छी बात नहीं मानी जाती थी. गायिका को तवाइफ़ कहा जाता, बावज़ूद इसके कि उस दौर में तवाइफ़ का मतलब जिस्मफ़रोशी नहीं था. तवाइफ़ें सिर्फ मौसिकी के जरिए महफ़िलों में समां बाँधा करती थीं. गौहर जान अपनी समकालीन तवाइफ़ जिन जानकीबाई ‘छप्पनछुरी’ को जीवन भर अपना प्रतिद्वंद्वी समझतीं रहीं, उन जानकीबाई का जीवन भी उपेक्षा, अपमान और संघर्ष की एक लंबी दास्तां है. सन् 1880 में बनारस में जन्मी जानकीबाई के पिता शिव बालकराम बनारस के जाने-माने पहलवान थे और माँ मानकी गाने-बजाने का शौक रखती थी. मानकी का यह शौक शिवबालक को पसंद नहीं था, लिहाजा पत्नी और बेटी दोनों को छोड़कर शिवबालक ने दूसरी शादी करके अलग घर बसा लिया. मानकी ने बनारस का घर बेच दिया और जान-पहचान की एक महिला की मदद से इलाहाबाद आ गई, जिसने इलाहाबाद में उस ज़माने के एक मशहूर कोठे के मालिक के हाथों दोनों माँ-बेटी मानकी और जानकी दोनों को बेच दिया. कोठे के मालिक की मौत के बाद मानकी ने मालकिन बनकर कोठा चलाना शुरू कर दिया. एक दिन मानकी ने ग़ौर किया कि बेटी जानकी को संगीत में रुचि है, तो मानकी ने बेटी को मौसिकी सिखाने के लिए दो हज़ार रूपये माहवार पर लखनऊ के उस्ताद हस्सू खाँ को रख लिया. नृत्य और संगीत अतिरिक्त जानकी ने अँगरेज़ी, संस्कृत और फारसी भाषा भी सीखी और शेर-ओ-शायरी का उसे ऐसा चस्का लगा कि उसने शेर कहना शुरू कर दिया, जिसका ‘दीवान-ए-जानकी’ उन्वान से एक मजमुआँ (संग्रह) भी छपा.
जानकीबाई के नाम के साथ ‘छप्पनछुरी’ जुड़ने की दास्तान भी बेहद तक़लीफदेह है. उसके दाग़दार और बुरे चेहरे के पीछे कि कहानी छिपी दो कहानी कही-सुनी जाती है, अब ख़ुदा ही जाने इनमें से कौन-सी कहानी सच है. एक कहानी यह है कि एक मनचले के प्रस्ताव को जब जानकीबाई ने ठुकरा दिया, तो उसने छुरी से छप्पन दफा वार करके जानकी की सूरत बिगाड़ दी. दूसरी कहानी यह कही जाती है कि जानकीबाई ने एक बार अपनी सौतेली माँ लक्ष्मी को अपने प्रेमी के साथ केलि करते हुए देख लिया, जिससे क्रोधित होकर सौतेली माँ के प्रेमी ने जानकी की ऐसी गत बना दी. बहरहाल, इस वज़ह से जानकी की आवाज़ जितनी मधुर और कर्णप्रिय थी, उसी अनुपात में उसकी सूरत उतनी ही बिगड़ चुकी थी. जानकी की समकालीन तवाइफ़ें जहाँ अपनी गायकी के अतिरिक्त ख़ूबसूरती की वज़ह से राजदरबारों में शोहरत पा रही थीं, वहीं जानकी ने मात्र अपनी आवाज़ और गायकी के दम पर कामयाबी की ऐसी बुलंदी पर पहुँची कि ग्रामोफोन कंपनी उनकी रिकार्ड का एक संस्करण 25 हज़ार का निकालती थी. जानकीबाई के नाम यह एक ऐसा रिकॉर्ड था, जिसने उसे सुपरस्टार बना दिया था.[7]
इलाहाबाद के अतरसुइया थाने पर आयोजित हुए एक कार्यक्रम में जानकीबाई ने मशहूर गायिका गौहर जान को मुकाबले में हराया था. सत्रह हज़ार चाँदी के सिक्कों से मंच पट गया था. आज के चैनल युग के बग़ैर जो लोकप्रियता जानकीबाई ने उन दिनों कमाई थी, वह सदियों में किसी कलाकार को नसीब होती है. पर ख़ैर, ज़िंदगी ने उन्हें उतने ग़म दिये, जितनी खुशी मौसिकी ने दिये. जानकी बाई की शादी इलाहाबाद में एक वकील शेख़ अब्दुल हक से हुई थी, लेकिन शादी के बाद जानकी ने ग़ौर किया कि वकील साहब उनके साथ धोखा कर रहे हैं, लिहाजा कुछ ही साल बाद ही जानकीबाई वकील शेख़ अब्दुल से तलाक लेकर अलग हो गई. इससे जानकबाई को ऐसा सदमा लगा कि भौतिक सुखों से उसे विरक्ति हो गई. उसके बाद जानकी ने अपने नाम पर एक धर्मार्थ ट्रस्ट की स्थापना की, जो अभी भी इलाहाबाद में मौजूद है. जानकी ने अपनी अर्जित अपार संपत्ति और ग्रामोफोन रिकार्डिंग कंपनी से प्राप्त धन से ज़रूरतमंद छात्रों को आर्थिक मदद देतीं, ग़रीबों के बीच कंबल बाँटती, मंदिरों-मस्जिदों को दान देतीं और भूखे-प्यासे लोगों के लिए सदाव्रत चलवातीं.[8] 18 मई, 1934 को शहर इलाहाबाद में जब जानकीबाई ने इस दुनिया को अलविदा कहा, तो उनके पास उस वक़्त कोई अपना, कोई क़रीबी नहीं था!
सन् 1887 में अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में रहने वाले जर्मन मूल के इमाएल बर्लिनर आवाज़ को रिकार्ड करके उसे सुरक्षित रखने और बाद में कभी भी सुनने की तकनीक का आविष्कार करने में अंततः सफल रहे. ठीक दो साल बाद इस तकनीक के व्यावसायिक इस्तेमाल और बड़े पैमाने पर रिकार्डिंग करके रिकॉर्डेड प्लेट्स बनाकर बेचने के लिए सन् 1897 में इमाएल बर्लिनर ने ‘द ग्रामोफोन कंपनी’ के नाम से एक कंपनी बनाई. इसी कंपनी ने बीसवीं सदी के पहले दशक की शुरुआत में अपने एजेंट फ्रेडरिक विलियम गैसबर्ग को कंपनी के लिए व्यावसायिक संभावना की तलाश करने के लिए हिंदुस्तान भेजा. गैसबर्ग ने उन दिनों हिंदुस्तानी की सबसे मशहूर गायिका ग़ौहर जान को ग्रामोफोन कंपनी के लिए गाने का प्रस्ताव दिया. शास्त्रीय संगीत को महज तीन मिनट में गाना और रिकार्ड कराने का काम बहुत चुनौतीपूर्ण तो था ही, बेहद उलझन भरा काम भी था. इसी वज़ह से उस वक़्त के दिग्गज कलाकारों ने ग्रामोफोन कंपनी के एजेंट फ्रेडरिक विलियम गैसबर्ग के प्रस्ताव पर कंपनी के लिए गाने से मना कर दिया. क्योंकि वे लोग यह चुनौती स्वीकार नहीं करना चाहते थे.
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत तो दूर, किसी भी भारतीय संगीत को तीन मिनट में गा देना बेहद मुश्किल काम था. ऐसे में तीन मिनट के अंदर ठुमरी या ख़याल गा देने की चुनौती को गौहर ने स्वीकार कर लिया. इसके एवज में ग़ौहर ने ग्रामोफोन कंपनी के एजेंट गैसबर्ग से 3000 रूपये की माँग की. इतना रूपया उन दिनों हिंदुस्तान में बहुत बड़ी रकम होती थी, क्योंकि बीस रूपये में तो एक तोला सोना मिलता था. बहरहाल, हिंदुस्तान में गौहर जान की लोकप्रियता को देखते हुए गैसबर्ग ने इतनी भारी रकम की माँग को भी मान लिया और रिकॉर्डिंग की तैयारी करने के लिए भारत की राजधानी कलकत्ता चले गए.
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के इतिहास में 02 नवंबर, 1902 वह तारीख़ है, जिस दिन गौहर जान ने कलकत्ता के ग्रेट ईस्टर्न होटल में अस्थायी रूप से बनाए गए स्टुडियो में राग जोगिया में तीन-चार मिनट में ख़याल गाकर उसे रिकॉर्ड करवाया. इस रिकार्डिंग के साथ ही हिंदुस्तान ही नहीं, दक्षिण एशिया के इतिहास में भी गौहर जान पहली ऐसी गायिका बन गईं, जिनके गाने से रिकार्डिंग की शुरुआत हुई. रिकार्डिंग होने के कारण ही आज भी गौहर के गाने लोगों को उपलब्ध हैं. कहते हैं कि गौहर जान अपनी हर रिकॉर्डिंग के लिए नए कपड़े और ज़ेवर पहनकर स्टुडियो आती थीं. एक दिलचस्प बात यह है कि गाने की रिकार्डिंग करवाते समय जब गाना समाप्त हो जाता, तो वे आख़िर में बोलतीं, ‘माय नेम इज ग़ौहर जान’.
गाने के अंत में ऐसा बोलना दरअसल एक तकनीकी बाध्यता थी. क्योंकि गाने की रिकार्डिंग करके प्लेट्स बनाने के लिए उसे जर्मनी के हनोवर शहर भेजा जाता था. वहाँ तकनीशियन गाने को सुनते, प्लेट्स बनाते और अंत में उस कलाकार के नाम को सुनकर यह समझ जाते कि इस गीत को किसने गाया है. तब उस कलाकार के नाम का लेबल प्लेट्स पर लगाकर हिंदुस्तान के बाज़ारों में भेज दिया जाता. इस प्रक्रिया से गुज़रकर प्लेट्स को हिंदुस्तान के बाज़ारों में आने में तकरीबन साल भर का वक़्त लग जाता था और बाज़ार में गौहर जान के नये रिकार्ड्स आने की ख़बर फैलते ही ख़रीदारों की भारी भीड़ उमड़ पड़ती थी.
गौहर जान ने महफिलों में गायन से ज़्यादा अपनी रिकार्डिंग के जरिये ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती, भजन और तराना दूर-दूर के लोगों तक पहुँचाया. इस वज़ह से उनकी शोहरत इस तेज़ी से फैली कि गौहर बीसवीं सदी के तीन दशकों तक हिंदुस्तान की सबसे महँगी गायिका बनी रहीं. महफिल में गाने का दावत देने के लिए आने वाले क़द्रदानों से जब तक सोने की एक सौ गिन्नियाँ नहीं धरवा लेतीं, तब तक हामी ही नहीं भरती थीं. उस वक़्त के हिंदुस्तान की वह पहली करोड़पति गायिका थीं, जो रानियों की तरह बहुत ठाट-बाट से रहती थीं.
शाहखर्च ऐसी कि पालतू बिल्ली ने जब बच्चे दिये, तो अपनी कोठी पर एक पार्टी की, जिसमें बीस हज़ार रूपये फूँक दिये, जिसकी क़ीमत आज के हिसाब से तकरीबन नौ करोड़, छह लाख के आसपास बैठती है. करोड़ कलकत्ता में रहने वाली वह ऐसी पहली शख़्स थीं, जो चार घोड़े जुते हुए सुसज्जित बग्घी से चलती थीं, जिससे चिढ़कर वायसराय ने उन पर एक हज़ार रुपये जुर्माना लगा दिया, जो उन्होंने चुकाया. मगर अपनी शाही शौक और शाही जीवन-शैली से समझौता नहीं किया. बचपन में देखी हुई ग़रीबी ने उन्हें इतना व्यावहारिक बना दिया था कि ग़ौहर ने अपनी कमाई से कलकत्ता में कई कोठियाँ और ख़ूब ज़मीन-जायदाद ख़रीदे और अपनी जवानी के दिनों में रिश्तेदारों पर ख़ूब पैसा लुटाया, बावज़ूद इसके कि तेरह बरस की उम्र में बलात्कार का दंश भी उसे झेलना पड़ा था.
इससे बड़ी दर्दनाक बात और क्या होगी कि एक पेशेवर गायिका और ‘डांसिंग गर्ल’ के तौर पर लोगों की बेपहनाह मुहब्बत हासिल करने वाली गौहर की ज़िंदगी में शौहर तो आए, लेकिन नसीब में सिवाए धोखा और तन्हाई के और कुछ न आया. इसी दौर में उस वक़्त उर्दू के मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी ने ग़ौहर पर तंज़ करते हुए एक शेर कहा था. पूरा किस्सा कुछ यूँ है, ‘गौहर जान एक मर्तबा इलाहाबाद गयीं और जानकीबाई तवाइफ़ के मकान पर ठहरीं। जब गौहर जान रुख़्सत होने लगीं, तो अपनी मेज़बान से कहा कि “मेरा दिल ख़ान बहादुर सय्यद अकबर इलाहाबादी से मिलने को बहुत चाहता है.” जानकी-बाई ने कहा कि “आज मैं वक़्त मुक़र्रर कर लूंगी, कल चलेंगे.” चुनांचे दूसरे दिन दोनों अकबर इलाहाबादी के यहाँ पहुँचीं। जानकीबाई ने तआ’रुफ़ कराया और कहा ये कलकत्ता की निहायत मशहूर-ओ-मा’रूफ़ गायिका गौहर जान हैं. आपसे मिलने का बेहद इश्तियाक़ था, लिहाज़ा इनको आपसे मिलाने लायी हूँ. अकबर ने कहा, “ज़हे नसीब, वर्ना मैं न नबी हूँ न इमाम, न ग़ौस, न क़ुतुब और न कोई वली जो क़ाबिल-ए-ज़यारत ख़्याल किया जाऊँ. पहले जज था अब रिटायर हो कर सिर्फ़ अकबर रह गया हूँ. हैरान हूँ कि आपकी ख़िदमत में क्या तोहफ़ा पेश करूँ. ख़ैर एक शे’र बतौर यादगार लिखे देता हूँ.” ये कहकर मुंदरजा ज़ैल शे’र एक काग़ज़ पर लिखा और गौहर जान के हवाले किया, ‘
‘ख़ुशनसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा
सब कुछ अल्लाह ने दे रखा है शौहर के सिवा.’[9]
सन् 1904-05 के दौरान गौहर जान की मुलाकात मशहूर गुजराती थियेटर कलाकार अमृत केशव नायक से हुई, जो कि पारसी थे. अमृत केशव नायक से गौहर जान ने गीत-संगीत की बहुत-सी बारीकियाँ सीखीं और सीखने-सिखाने की इस प्रक्रिया में दोनों को एक-दूसरे से प्यार हो गया. दोनों शादी करने को लेकर गंभीर थे, लेकिन कुदरत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था. अचानक सन् 1907 में केशव नायक की मौत हो गई और शादी से पहले ही इस प्रेम कहानी का अंत हो गया. इसके बाद अपने से उम्र में काफी छोटे अपने सेक्रेटरी अब्बास के साथ गौहर ने शादी की, लेकिन यह शादी भी कुछ ही वक़्त तक चल पायी. दरअसल अब्बास शुरू से ही उनके प्रति वफ़ादार नहीं था और वह कुछ ज़्यादा ही चालाक किस्म का आदमी था. गौहर तो उसको अपना शौहर मानकर उसके मोहब्बत में गिरफ़्तार थीं, जबकि इधर अब्बास रूपये-पैसे का ग़बन करने और उनकी जायदाद अपने नाम कराने में मुब्तिला था. दोनों के बीच जब अनबन शुरू हुई, तो तलाक का मुआमला अदालत पहुँच गया. कोर्ट-कचहरी के चक्कर में गौहर की जायदाद का बड़ा हिस्सा महँगे वकीलों की फीस देने में बिक गया. उनकी माली हालत बेहद ख़राब हो गई.
कभी रानियों की तरह ठाट-बाट से रहने वाली गौहर के सामने फ़ाकाकशी की नौबत आ गई. इसी समय में उन्हें मैसूर के राजा कृष्णा वाडियर की ओर से अपने राजदरबार में आने का निमंत्रण मिला. नाकाम मोहब्तत और टूट चुके घर का सदमा ही जैसे गौहर के लिए काफी नहीं था. तलाक के मुआमले को लेकर कोर्ट-कचहरी की झंझटों से परेशान हो चुकीं ग़ौहर ने आख़िरकार मैसूर राजदरबार के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. आज़मगढ़, कलकत्ता, बनारस, दरभंगा होते हुए ज़िंदगी के आख़िरी सालों में गौहर मैसूर चली गईं. महज 56 साल की उम्र में 17 जनवरी, 1930 को जब ग़ौहर ने मैसूर में आख़िरी साँस ली, तो वह बेहद अकेली और बीमार थीं और उनके आसपास कहने को कोई भी अपना नहीं था. अपने ज़माने की सुपरस्टार और करोड़पति गायिका गौहर जान की मौत तो आबा-ए-वतन से भी बहुत दूर हुई, जहाँ किसी अपने के हाथों से उन्हें मिट्टी तक नसीब न हुई!
दरभंगा के महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ख़ुद एक अच्छे सितारवादक थे, इसलिए गीत-संगीत से जुड़े लोगों के प्रति उनके मन में बहुत स्नेह और सम्मान था. ग्वालियर घराने के अपने ज़माने के मशहूर सरोदवादक उस्ताद मुराद अली खाँ को उनके समय में दरभंगा में खूब यश और धन मिला. दरभंगा का आमता नामक गाँव विख्यात ध्रुपद गायकों का गाँव है. यहाँ के संगीत को ‘आमता घराना’ या ‘मल्लिक घराना’ भी कहते हैं. पुराने लोग बताते हैं कि आमता घराने के मल्लिक लोग मूलतः गौड़ ब्राह्मण हैं, जिनके पूर्वज राजस्थान से दरभंगा आए थे. इस घराने में ध्रुपद की तीन सौ वर्षों से भी अधिक प्राचीन परंपरा है और आज भी उसी निरंतरता में यह परंपरा कायम है. इस घराने की ख़ासियत है चार पट गायन शैली, जिसमें ध्रुपद के अतिरिक्त ख़याल, ठुमरी, दादरा, लोक संगीत तथा विद्यापति के पद को ठुमरी एवं भजन अंग में प्रस्तुत किया जाता है. आमता घराने में पद्मश्री रामचतुर मल्लिक विख्यात गायक हुए, जिनके परदादा रामकृष्ण मल्लिक और कर्ताराम मल्लिक अपने ज़माने के चर्चित गायक और उस्ताद भूपत खाँ के शागिर्द थे.
रामचतुर मल्लिक को संगीत की शिक्षा अपने पिता राजितराम मल्लिक और चाचा क्षितिपाल मल्लिक से मिली. सन् 1924 में महाराज रामेश्वर सिंह के समय में रामचतुर मल्लिक को दरभंगा राज से निमंत्रण मिला, तो वे दरबार से जुड़ गए. फिर तो दरबार में आने वाले अनेक गायकों-वादकों को सुनने और सीखने का उन्हें स्वर्णिम अवसर मिला और उनकी गायकी में निखार आता चला गया. सन् 1937 जब रामचतुर मल्लिक इंग्लैंड और फ्रांस की यात्रा पर गए, तो अपनी गायकी से उन्होंने दर्शकों-श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर दिया. ध्रुपद के अतिरिक्त विद्यापति के गीतों को अलग अंदाज़ में प्रस्तुत करने के कारण रामचतुर मल्लिक की कीर्ति दूर-दूर तक फैली. वे जुड़े हुए तो थे दरभंगा रियासत, लेकिन उन्हें ग्वालियर, बीकानेर, जोधपुर आदि शहरों में भी गाने का अवसर मिला. रामचतुर मल्लिक के अलावा इस घराने में विदुर मल्लिक, अभय नारायण मल्लिक, प्रेम कुमार मल्लिक ने धुपद की परंपरा को आगे बढ़ाया. बिहार में ध्रुपद के तीन प्रमुख घराने हैं, दरभंगा, बेतिया और डुमराँव. बेतिया घराने में श्यामा मल्लिक, कुंज बिहारी मल्लिक, उमा चरण मल्लिक प्रसिद्ध गायक हुए हैं. इन पेशेवर गायकों के अतिरिक्त बेतिया राजघराने के राजा आनंद किशोर और नवल किशोर दोनों ध्रुपद के रचनाकार और प्रसिद्ध गायक हुए.
तवाइफ़ें उस दौर के रजवाड़ों, नवावों और रईसों की शान-ओ-शौकत का पैमाना हुआ करती थीं. मसलन गौहर जान, ज़ोहराबाई, अल्लाजिलाई, जद्दनबाई-जैसी तवायफ़ों को शादी-ब्याह या किसी अन्य माँगलिक अवसर पर गाने लिए बुलवाना समाज में शान की बात समझी जाती थी. अज़ीमाबाद के पश्चिम में आधुनिक चौहट्टा के सुनसान इलाके में तवाइफ़ों ने आकर बसना शुरू कर दिया, जहाँ अज़ीमाबाद के शरीफ़ घरों के नौजवान आम लोगों की नज़रें बचाकर पहुँचने लगे. फिर तो आज के खजाँची रोड से लेकर मुसल्लहपुर भट्ठी तक तवाइफ़ों का मुहल्ला गुलज़ार हो गया. जहाँ आज दरभंगा हाउस है, वहाँ नवाबों के द्वारा बनवाए गए ‘डांसिंग हॉल’ में उस दौर की महँगी और मशहूर तवाइफ़ें आकर नाचती थीं. सन् 1850 के आसपास पटना सिटी के नवाब सैयद इब्राहीम हुसैन खाँ ने अपने साले की शादी में पाँच दिनों तक नाच-गाने का आयोजन किया था. अनेक शहरों से तवाइफ़ें बुलवाई गई थीं. कलकत्ता और दिल्ली से एक सौ से ऊपर अँगरेज़ हाकिम तवाइफ़ों का नाच-गान देखने के लिए आए थे-कुर्ता, पाज़ामा और टोपी पहनकर. उस दौर के पटना में जस्टिस सर्फुद्दीन और सर अली इमाम का बड़ा नाम था. जस्टिस सर्फुद्दीन ने अपने इकलौते बेटे सैयद अहमद सर्फुद्दीन की शादी में दो दिनों तक सदर गली में तवाइफ़ों की महफिल सजवाई थी. धौलपुर कोठी में बाबू कृष्णा की शादी में जो तवाइफ़ों की महफ़िल सजी थी, वह पटना के बड़े महफिलों में से एक थी.[10]
सन् 1813 में पटना के प्रसिद्ध गायक मोहम्मद रज़ा शाह ने संगीत के बारे में एक किताब लिखी, ‘नग़मात-ए-आसफ़ी’, जिसमें उन्होंने रागों को तक़सीम करने वाली पुरानी रवायत को छोड़कर बिलावल को मूल स्केल के रूप में स्वीकार किया. बाद में इस बात को पंडित विष्णु नारायण भातखंडे (1860-1936) ने भी माना. मोहम्मद रज़ा शाह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में थाट पद्धति के जनक माने जाते थे और ‘थाट’ नाम से ही उन्होंने एक बाजा भी बनाया था.
अज़ीमाबाद (पटना) में तवाइफ़ों की संस्कृति को गहराई से समझने के लिए थोड़ा अज़ीमाबाद की तारीख़ से रू-ब-रू होना पड़ेगा. सन् 1702 ईस्वी में जब मुग़ल बादशाह औरंगजेब के पोते शहजादा अज़ीमुश्शान को बिहार का गवर्नर नियुक्त किया गया, तो वह बिहार सहित बंगाल का भी शासक बना. आलसी और आरामतलब अज़ीमुश्शान ने हुकूमत के कामकाज का ज्यादातर भार मुर्शीद कुली खाँ कंधों पर डाल दिया. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि प्रशासनिक कामकाज को बेहतर बनाने के नाम पर मुग़ल बादशाह से अनुमति लेकर शहजादा ने सन् 1704 में पटना का नाम अज़ीमाबाद रख दिया. अज़ीमुश्शान एक दशक तक पटना का गवर्नर रहा और इस दौरान उसने इस शहर को सुंदर बनाने के लिए तकरीबन एक करोड़ रूपये खर्च किये. उसके बाद पटना के सौंदर्य, वहाँ मिलने वाली सुविधाएँ और दौलत से भरपूर लोगों की चर्चा हिंदुस्तान के अनेक रियासतों में होने लगी. हिंदु-मुसलमान दोनों की मिली-जुली आबादी वाला पटना अपनी क़द्रदानी के लिए भी बेहद मशहूर शहर था. जिसकी वज़ह से एक-से-एक नामी गायक-वादक और अदीब शहर अज़ीमाबाद का रुख करने लगे. बड़ी कनीज़, मोहम्मद बाँदी, ज़ोहराबाई आगरेवाली, अल्लाजिलाई इलाहाबादवाली, बी रमजो, बी छुट्टन सरीखे कलाकारों ने आकर शहर अज़ीमाबाद की रौनक बढ़ाई. लखनऊ से चौधराइन बचवा और मुस्तफा हुसैन भांड का दल तथा जयपुर की गौहर बाई का नाम पटना के लोगों का मनोरंजन करने वालियों में शुमार है. संगीत के इतिहासकारों का मत है कि गायिकी में ज़ोहराबाई के टक्कर की गायिका उन दिनों बहुत कम थी. ऊँगलियों पर गिनी जाने लायक बस एक या दो.
ज़ोहराबाई आगरेवाली
संगीत की दुनिया में ज़ोहराबाई आगरेवाली (1868-1913) का नाम और काम दोनों बेमिसाल है. एच.एम.वी. यानी ‘हिज मास्टर्स वॉयस’ ने सन् 1902 में ग़ौहर जान से भारत में रिकार्डिंग की शुरुआत की थी, लेकिन ज़ोहराबाई को एच.एम.वी. ने सन् 1908 से रिकार्ड करना शुरू किया. ‘क्लासिक गोल्ड कैसेट ऑफ ज़ोहराबाई’ के कार्ड नोट पर ज़ोहराबाई के बारे में क्या लिखा गया है, ज़रा देखिये, ‘ज़ोहरा बाई उस युग की एक महान गायिका थीं जब रिकॉर्डिंग की कला भारत में शुरुआती दौर में थी. ज़ोहराबाई दरअसल ख़ुदमुख़्तारी का दूसरा नाम थीं. एक शाही शादी समारोह में उनका उन दिनों की एक प्रसिद्ध गायिका के साथ झगड़ा हो गया. उसके बाद ज़ोहराबाई छह साल के लिए आत्म-निर्वासन में चली गईं. इस अवधि के दौरान वह एक गाँव में रहीं और आगरा घराने के उस्ताद शेर खान से संगीत का कठोर प्रशिक्षण लिया. ज़ोहरा ने उनसे मंच पर गायन की बारीक-से-बारीक पहलुओं को सीखा. उसके बाद नई ज़ोहराबाई एकदम बदली हुई, एकदम निखरी हुई अलग शख़्सियत के रूप में दुनिया के सामने आईं. उनके गाने का एक अलग ही ढंग था-वह बहुत ताक़त लगाकर मर्दाना अंदाज़ में थोड़ा आक्रामक तरीके से गाती थीं-कुछ-कुछ गंगूबाई हंगल की तरह. उनके प्रशंसकों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है, जिनमें उनकी समकालीन तवाइफ़ गौहर जान से लेकर किराना घराना की मशहूर गायिका गंगूबाई हंगल तक का नाम शामिल है.’[11]
ज़ोहराबाई दरअसल ख़याल के साथ-साथ ठुमरी और ग़ज़ल गायकी के लिए जानी जाती थीं, जिसकी बहुत सारी बारीकियाँ उन्होंने ढाका के उस्ताद अहमद खाँ से सीखी थी. उनके गायन की शैली ने आगरा घराने के उस्ताद फ़ैयाज खाँ को भी बेहद प्रभावित किया और पटियाला घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ तो उनका सबसे ज़्यादा सम्मान करने वालों में से थे.
ज़ोहराबाई ने अपने आपको बहुत कठोर प्रशिक्षण से तैयार किया था, इसलिए ज़ोहरा के गायन में वैविध्य बहुत है. सन् 1985 में अपनी माँ के साथ संगीत के प्रशिक्षण लेने के लिए ज़ोहरा जब शहर दरभंगा पहुँची थी, तो उस वक़्त वह बहुत छोटी थी. साँवली, छरहरी और बड़ी-बड़ी आँखों वाली जोहराबाई ने बाद में अपनी माँ के साथ पटना का रुख़ किया और पटना कॉलेज के पास आकर रहने लगी. सन् 1900 ईस्वी के आसपास कुछ लड़के उसके कोठे पर संगीत सुनने के लिए पहुँचे. उन लड़कों की सूरत देखकर ही ज़ोहराबाई पहचान गई कि ये पटना कॉलेज में पढ़ने वाले शरीफ घरों के लड़के हैं. उन लड़कों का आवभगत करने के बाद उनके कोठे पर आने का कारण पूछा. छात्रों ने बेताब होते हुए कहा कि वे लोग उनका गाना सुनने के लिए आए हैं. उसके बाद ज़ोहरा तैयार होने के लिए भीतर चली गईं और अपने साज़िंदों से भी तैयारी करने को कहा.
दो घंटे तक उन्होंने लड़कों को गाना सुनाया और रुख़्सत करते हुए यह हिदायत दी कि अब फिर कभी किसी कोठे का रुख न कीजिएगा. बाद में पटना के मछरहट्टा में ज़ोहराबाई ने एक आलीशान कोठी बनवाई. ज़ोहरा को शाह अकबर साहब दानापुरी से गहरा लगाव था, लेकिन वह बीवी बनी किसी और की. किसी बीमारी की वज़ह से ज़ोहरा का फेफड़ा ख़राब होने लगा और धीरे-धीरे जिंदगी की डोर कम होने लगी थी. यही उसी मौत की वज़ह भी बनी. औलाद के नाम पर एक ही बेटी थी, जो हैजा के चपेट में आकर मर गई.[12]ज़ोहराबाई के गाए मशहूर गीतों में से एक ‘प्रेम जोगन बन’ जब रिकार्ड हुआ, तब उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ साहब पैदा ही हुए थे. ज़ोहराबाई को बदनाम करने की नीयत से लोगों ने यह अफ़वाह फैलायी कि अपने से उम्र में बहुत छोटे फ़ैयाज़ खाँ साहब के साथ ज़ोहारबाई के ‘ताल्लुक़ात’ हैं, जिनको ज़ोहरा प्यार करती थीं.
संगीत के जाने-माने अध्येता गजेन्द्र नारायण सिंह ने लिखा है कि ‘ठुमरी गाने में पटना की ज़ोहराबाई अव्वल थीं. लोग उन्हें बड़ी ज़ोहरा भी कहते हैं. ज़ोहरा की ‘कहन’ ऐसी दिलकश होती थी कि उनकी एक ‘बोल’ पर ठुमरी के उस्ताद और विख्यात हारमोनियम वादक भैयासाहब गणपतराव ऐसे मुग्ध हुए कि गंडा बँधवा कर शागिर्द बनने पर उतारू हो गए. मियाँ अली क़दर के तबले की ठमक तथा उस्ताद बहादुर हुसैन खाँ की सारंगी की खनक से उनकी ठुमरियों में चार चाँद लग जाते थे. ज़ोहरा बाई ग़ज़लें गाने में भी महारत रखती थीं. क्या रुतबा और शानो-शौकत थी ज़ोहरा की, कि बड़े-बड़े ख़ानदानी गवैये तक उन्हें सुनने के लिए मचल उठते थे. ज़ोहरा की बदौलत संगीत की दुनिया में पटना का बड़ा नाम था.’[13]
आम तौर पर लोग ऐसा मानते हैं कि उस दौर की तवाइफ़ें कव्वाली, ग़ज़लें और नज़्में गाती थीं या कोई ऐसा गीत, जिससे टूटे दिल वाले निराश और हताश लोगों के दिल को करार मिले. मग़र ज़ोहराबाई ने अपनी गायकी से तवाइफ़ की इस छवि को तोड़ा. वे ग़ज़ल, नज़्म गाने के साथ-साथ भक्तिपरक गीत गाने वाली अपने दौर की अकेली गायिका थीं. बेहद अफ़सोस की बात है कि मर्दाना आवाज़ की मलिका ज़ोहराबाई की कुल 78 रिकार्ड को ही बचाया जा सका. बाकी रिकार्ड अब कहाँ हैं, किनके संग्रहालय में सुरक्षित हैं, यह आज शायद ही किसी को मालूम हो.
अल्लाजिलाई
सन् 1935 में सत्रह-अठाहर बरस की अल्लाजिलाई नामक बेहद ख़ूबसूरत और मधुर आवाज़ की धनी तवाइफ़ शहर इलाहाबाद से आकर पटना सिटी में बसी थी. थोड़े ही समय में अल्लाजिलाई ने अपनी कला ऐसा प्रदर्शन किया कि पूरा पटना शहर उस पर फिदा हो गया. गली-गली में लोगों के बीच उसके चर्चे होने लगे. बड़ी-बड़ी कोठियों में रहने वाले ज़मींदारों, नवाबों के बीच जब इलाहाबाद से आकर पटना सिटी में नये कोठे के मालकिन बनी अल्लाजिलाई की चर्चा पहुँची, तो कई क़िस्से बनने और हवा में उड़ने के लिए जैसे तड़फड़ाने लगे. लोग आते और घंटों वाह-वाह किया करते. खुले हाथों से दौलत लुटाया करते. इससे अल्लाजिलाई को इलाहाबाद छोड़कर पटना आने के अपने फ़ैसले पर फ़ख्र होता. अल्लाजिलाई के आत्म-सम्मान और स्वभाव का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उसने अपने क़द्रदानों से कभी कुछ नहीं माँगा, लेकिन उसकी महफ़िल में आकर दौलत लुटाने वाले बहुतेरे थे. जिस वज़ह से कम हैसियत के लोगों अल्लाजिलाई की महफ़िल में जाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी.
अल्लाजिलाई का कोठा इतना आलीशान था कि उसका घर कश्मीरी सनमाइका, हाथी दाँत, बेल्जियम के बने पाँच सौ कमलनुमा झाड़, चाँदी के आईने, गमले और गुलदान आदि बहुमूल्य सामग्रियों से सुसज्जित था. रोम और ईरान की बनी कालीनें, मखमल के पर्दे आदि लगे होने के कारण अद्भुत भव्यता झलकती थी. ये सारी चीज़ें उसकी सुंदरता पर मोहित होकर गुज़री के एक नवाब ने दी थी. पटना की कोई भी महफ़िल उन दिनों अल्लाजिलाई के बग़ैर सजती ही नहीं थी. दो-तीन वर्षों के भीतर बिहार के अनेक ज़मींदारों के यहाँ अल्लाजिलाई के रूप और गायकी क़िस्से पहुँच चुके थे, लेकिन दुर्भाग्य से महज चौबीस साल की उम्र में ही उसका निधन हो गया. पटना सिटी के मख़्दूम शहाबुद्दीन के मज़ार (कच्ची दरगाह) के पास अल्लाजिलाई नामक इस तवाइफ़ का संगरमरमर का मकबरा आज भी देखा सकता है.[14]
बी छुट्टन
सन् 1875 की बात है. पटना के त्रिपोलिया के पास हफ्तख़ाना या कहें सतघरवा में एक तवाइफ़ बी छुट्टन रहती थी. हफ़्ताखाना में एक-दूसरे से बिल्कुल सटे हुए एक ही ढंग के सात मकान बने हुए थे, इस वज़ह से उन मकानों को लोग सतघरवा कहते थे. सतघरवा के इन्हीं मकानों में बी छुट्टन के अलावा बी रमजो और बाकी और तवाइफ़ें रहती थीं. शाम को झरोखे में बैठकर नीचे के लोगों को देखा करती थीं और नीचे के लोग उनको देखा करते थे. झरोखे के नीचे पान की दुकान पर माल-ओ-दौलत के मुआमले में तकरीबन बरबाद हो चुके एक ज़मींदार के चौदह-पंद्रह साल की उम्र का बेटा अली अहमद झरोखे के नीचे खड़े होकर बी छुट्टन को देखा करता. वह रोज़ शाम को आता और सतघरवा के जिस घर में बी छुट्टन रहती थी, उस घर के झरोखे के नीचे पान की दुकान के पास खड़े होकर बी छुट्टन के रूप का दीदार करना उसका रोज़ का काम हो गया. इस तरह जब कई दिन हो गए, तो बी छुट्टन को किसी ने बताया कि एक नवाबज़ादे रोज झरोखे के नीचे आते हैं और आपको मुसलसल देखा करते हैं.
एक दिन अपने किसी मुलाज़िम या मुलाज़मा को भेजकर बी छुट्टन ने अली अहमद नामक उस नवाबज़ादे को अपने कोठे पर ऊपर बुलवाया. बहुत ख़ूलूस से बिठाया और कहा, ‘मियाँ आप आ गए! आपकी बड़ी मेहरबानी. मैं रोज़ आपको दूर से देखा करती थी और आपकी तरफ़ खिंची चली जाती थी. आख़िरकार मुझसे रहा नहीं गया और मुझे आपको अपने पास बुलाना ही पड़ा. अब आ ही गए हैं, तो झिझक छोड़िए और कुछ अपनी सुनाइए, कुछ मेरी सुनिए. बात ऐसे ही तो बनती है!’[15]
बी छुट्टन ने इस ढंग से नवाबज़ादे अली अहमद से बातें की, कि जब वे मुतमइन हो गए कि उनकी इश्क़बाजी की ख़बर उनके घर तक नहीं पहुँचेगी, तो ज़नाब ने दिल की गठरियों को खोलना शुरू किया. बी छुट्टन ने उनको रोज़ नीचे से मुसलसल देखे जाने का जब सबब पूछा किया, तो ज़नाब ने कहा कि वे बी छुट्टन पर फ़िदा हैं. उनसे मोहब्बत हो गई है! बी छुट्टन को नवाबज़ादे की इस बात से थोड़ी हैरत हुई, क्योंकि उम्र के मुआमले में बी छुट्टन और अली अहमद के बीच तकरीबन बारह-तेरह साल का फ़ासला था. मियाँ अली अहमद से तफ़सील जानने के बाद मालूम हुआ कि ज़नाब कैवाशिकोह में रहते हैं. वालिद का इंतकाल हो चुका है. उनसे बड़ी दो बहने थीं, जो अब हयात नहीं हैं. वालिद का इंतकाल होते ही चचा ने जायदाद का ज़्यादातर हिस्सा अपने क़ब्जे में कर लिया. थोड़ी-सी ज़मींदारी बच गई है, शहर में चार छोटे-छोटे मकान और दुकान हैं, जिनका किराया आता है. किरायेदार भी वक़्त पर किराया नहीं देते. बस इसी तरह घर चल रहा है.
बी छुटट्न ने जब उनकी पढ़ाई-लिखाई के बाबत पूछा, तो ज़नाब ने बताया कि थोड़ी उर्दू-फारसी घर पर पढ़ी है. दो साल पहले स्कूल में दाख़िला करवाया था. मोगलपुरा में रिश्ते के मामूँ रहते हैं, वही कभी-कभार आकर ख़ैरियत ले लेते हैं. स्कूल में भी लोकल गार्जियन वही हैं. चूँकि वे ख़ुद ही एक नवाब साहब के यहाँ मुलाज़मत करते हैं, इसलिए ज़रा मसरूफ रहते हैं. बराबर मिलने नहीं आ पाते हैं. अली अहमद साहब की रुदाद सुनने के बाद बी छुट्टन ने मुहब्बत की ऐसी मिसाल पेश की, जिसकी कोई दूसरी मिसाल मुहब्बत की तारीख़ में नहीं मिलती. बी छुट्टन ने न केवल अली अहमद को अपने खर्चे से पढ़ाया-लिखाया, बल्कि उनकी वालिदा की पसंद की लड़की से शादी भी करवाई. लॉ की पढ़ाई करवा कर अली अहमद साहब को नामी वकील बनवाया और यह सलाह दी कि वे पटना की बजाए कलकत्ता में रहें और वहीं अपना घर बसाएँ.
विदेशी व्यापारियों और विदेशी सैनिकों के पटना आने-जाने के कारण ज़ोहराबाई, अल्लाजिलाई, बी छुट्टन, बी रमजो जैसी जिन तवाइफ़ों ने कभी जिन इलाकों को बाज़ार-ए-हुश्न बना रखा था, वे इलाके धीरे-धीरे अपनी अपनी ढलान की ओर जाने लगे. सन् 1900 ईस्वी के बाद चौहट्टा के आसपास बहुत तेज़ी से आबादी बढ़नी शुरू हुई. पटना कॉलेज और उसके आसपास रहने वाले लोगों ने इस इलाके में तवाइफ़ों के घर होने पर एतराज़ करना शुरू कर दिया. तवाइफ़ों को इस इलाके से हटवाने के लिए लोग इस मुआमले को लेकर पटना हाई कोर्ट चले गये. अदालत में ज़िरह के मैदान में दलाएल (तर्कों) के ज़िरह-बख़्तर पहनकर नामी वकील उतारे गए. महीनों तक लंबी-लंबी बहसें चली और आख़िरकार सन् 1935 में पटना हाई कोर्ट में तवाइफ़ें अपना मुकद्दमा हार गईं. उसके बाद उनको इस इलाके से हटाकर पटना सिटी भेज दिया गया.[16]
जिन तवाइफ़ों के रहने से इस इलाके की आलीशान इमारतें कोठे के रूप में जानी जाती थीं, वे तमाम इमारतें अब फिर से कोठी में तब्दील की जाने लगीं. फिर से शरीफ़ज़ादों और नवाबज़ादों के रहने के लायक होने लगीं. सन् 1913 में ही ज़ोहराबाई अल्लाह को प्यारी हो चुकी थी और 1930 में ग़ौहर जान का भी अपने आबा-ए-वतन से दूर मैसूर में इंतकाल हो चुका था. सन् 1800 में जो बाज़ार-ए-हुश्न पटना में बसा था, वह 1935 तक आते-आते उजड़ गया.
इन तवाइफ़ों के साथ ही तहज़ीब और मौसिकी के ठिकानों का भी धीरे-धीरे इंतकाल हो गया. अब रह गये हैं उनके क़ब्रों के कुछ निशां और कुछ पुराने बुजुर्गों की यादों में बसी वे दास्तां जो कहीं-कहीं दर्ज़ तो हो गईं, मगर ज़्यादातर बेचैन रुह अफ़साने आज भी पटना सिटी की गलियों में अपने अफ़सानानिग़ारों बड़ी बेकली से ढूँढ़ती रहती हैं. इस ग़म-ए-दुनिया ने ग़र थोड़ी भी मोहलत दी, तो आगे कोशिश रहेगी कि इन अफ़सानों को रोने के लिए एक कंधा दे सकूँ और ज़ेहन से आहिस्ता-आहिस्ता उतरने के लिए सुकून चंद लम्हे भी! आमीन.
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संदर्भ