विष्णु खरे
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बीच में निर्देशक नागराज मंजुले |
मराठी शब्द ‘’सैराट’’ का संक्षिप्त अर्थ हिंदी में संभव नहीं है. उसे शायद ‘तितर-बितर’ होने या ‘भगदड़’ से ही समझाया जा सकता है. मैंने ‘पलायन’ चुनना सकारण बेहतर समझा है. कलात्मक या व्यापारिक दृष्टि से सफल फिल्मों के शीर्षक किस तरह अन्य भाषाओँ में जज़्ब हो जाते हैं, यह पड़ताल भी सार्थक और दिलचस्प हो सकती है. बहरहाल, उसे लगे एक महीना नहीं हुआ है कि मराठी फिल्म ‘’सैराट’’ का नाम करोड़ों ग़ैर-मराठी ज़ुबानों पर भी है. अभी उसने नाना पाटेकर अभिनीत कामयाब ताज़ा फिल्म ‘’नटसम्राट’’ को पीछे छोड़ा है और अब वह मराठी सिनेमा के इतिहास की सफलतम फ़िल्म मानी जा रही है. उसने शहर और देहात के मल्टीप्लेक्स और सिंगल-स्क्रीन सिनेमा के अर्थशास्त्र को प्रभावित किया है. यह कल्पनातीत था कि कोई मराठी फ़िल्म सिर्फ़ थिएटरों में पहले तीन हफ़्तों में 50 करोड़ का आँकड़ा छू ले.
महाराष्ट्र में सिनेमा अपने आदिकाल से बन रहा है, वह उसकी मातृभूमि है. स्वाभाविक है कि ‘कलात्मक’ या व्यावसायिक रूप से कुछ मराठी फ़िल्में सफल होती आई हैं. महाराष्ट्र के बहुभाषी निर्माता-निदेशकों, लेखकों, संगीतकर्मियों और अभिनेताओं-अभिनेत्रियों आदि द्वारा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हिंदी और भारतीय सिनेमा के विकास में जो लगातार बेमिसाल योगदान दिया जा रहा है उसके ब्यौरों का बखान असंभव है. बेशक़, कई कारणों से बीच में मराठी फिल्म पिछड़ी, सिनेमा के इतिहास में ऐसा होता रहता है, लेकिन इधर पिछले कुछ ही वर्षों में अनेक नए, युवतर मराठी फ़िल्मकार उसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंच पर हिंदी के समकक्ष ही नहीं, आगे ले जाते दीखते हैं. मराठी सिनेमा की बहु-आयामीय अस्मिता का एक नया ‘’टोटल स्कूल’’ विकसित होता लग रहा है.
‘’सैराट’’ के अधिकांश अभिनेता या तो अज्ञात हैं या अल्पज्ञात. उसका कथा-स्थल सैलानियों में लोकप्रिय नहीं है. क़स्बा देश-भर के सैकड़ों ऐसे क़स्बों की तरह सामान्य है – न सुन्दर, न कुरूप. किशोरों-युवकों के पास आपसी क्रिकेट-मैच, कूएँ की तैराकी और कभी नाव की सैर के अलावा मनोरंजन के कोई साधन नहीं हैं. बस-अड्डा है लेकिन ट्रेन यहाँ से नहीं जाती. फिल्म के नृत्य-संगीत आकर्षक हैं लेकिन वह शेष तत्वों को दबाने की कोशिश नहीं करते. कोई डांस-आइटम-गर्ल नहीं है. ’प्रेम’ की हसरत है, कभी-कभी वह हासिल भी हो जाता है, लेकिन ‘’सेक्स’’उतना नहीं है. समाज निम्न और अन्य वर्गों में यथावत् बँटा हुआ है. बस्ती के बाहर दलित पिंजरापोल जैसे हालात में रह रहे हैं. चीनी मिल है जो सत्ता और राजनीति के केंद्र और हर तरह के शोषण-पेरण का प्रतीक है. गन्ने और केले के घने हरे आदमक़द खेत कोई राहत या सुकून नहीं देते – एस.यू.वी. पर सवार मौत वहाँ भी अपने शिकारों के लिए गश्त लगाती है. क़स्बे पर क़ाबिज़ ताक़तवर खानदानी शरीफ़ लोगों के पास बेशुमार दौलत, रसूख़और ताबेदार क़ातिल माफ़िआएँ हैं. प्रशासन और पुलिस उनके गुलाम हैं. उनसे कोई जीत नहीं सकता, उनके ख़िलाफ़ कोई सुनवाई हो नहीं सकती. न वह कुछ भूलते हैं और न कुछ मुआफ़ करते हैं. जब कोई दलित किशोर-युवा किसी सर्वोच्च सवर्ण लड़की से प्रेम करने लगता है और यह जात-बिरादरी-समाज की इज़्ज़त का सवाल बन जाता है तभी उस और उसके परिवार पर भयावहतम प्रतिहिंसा बरपा की जाती है. यदि खुद अपनी बेटी उसके प्रेम में ज़िद्दी और कुलघातिनी है तो उसे भी किसी क़ीमत पर बख्शा नहीं जा सकता.
मुसलमानों की मुसलमान जानें, ऐसी कहानियाँ अखिल भारतीय हिन्दू समाज में हम आजीवन सुनते-पढ़ते-देखते आए हैं. किसी भी बहु-संस्करण क़स्बाई दैनिक को देखते रहें, यह घटनाएँ मनमानी उबाऊ नियमितता से लौटती आती हैं. उनके प्रस्तार-समुच्चय (permutations-combinations) अपने पल-पल परिवर्तित ख़ूनी कैलाइडोस्कोप में लगभग अनंत हैं. विडम्बनावश, एक कलाकृति के रूप में ’’सैराट’’ अब ख़ुद उनमें शामिल हो गई है. ऐसी हर कृति की एक त्रासद नियति ऐसी भी होती है. फिर यह भी है कि ऐसी ‘सम्मान-हत्याएँ‘’ (ऑनर किलिंग्ज़) भले ही बहुत लोकप्रिय न हों, दलित या विजाति-घृणा और हत्यारी मानसिकता चहुँओर बनी हुई हैं.
यहाँ ध्यान रखना होगा कि विजातीय प्रेम/विवाह तथा दलित-स्वीकृति के मामले में मराठी संस्कृति तब भी कुछ पीढ़ियों से अपेक्षाकृत शायद कुछ कम असहिष्णु हुई प्रतीत होती है. राष्ट्रीय स्तर पर कई अन्य ऐसे विवाह परिवारों द्वारा स्वीकारे भी जाते रहे हैं, मेरे कुछ अनुभव भी ऐसे हैं. आज से 55 वर्ष पहले खंडवा में मेरे घनघोर दलित मित्र कालूराम निमाड़े ने अपनी नारमदेव ब्राह्मण प्रेमिका दमयंती से कमोबेश निरापद विवाह किया था. लेकिन इस समस्या से सम्बद्ध कोई ठोस विश्लेषण और आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं. दम्पतियों की सर-कटी लाशों और उनके बेसहारा शिशुओं को इस सब से कुछ तसल्ली और राहत नहीं मिलतीं.
किसी कम-लागत फ़िल्म को ‘’सैराट’’ जितनी बेपनाह सानुपातिक व्यावसायिक सफलता मिले तो कुछ दुर्निवार प्रश्न खड़े होते हैं. पहला एक घंटा ‘’आती क्या खण्डाला’’-टाइप है और वह प्रचलित homo-erotic (समलिंग–स्नेहिल) भले ही न हो, अधिकांश भारतीय फिल्मों की तरह नाच-गाने और मेल-बॉन्डिंग (पुरुष-मैत्री) पर टिका हुआ है. लेकिन उसमें शराफ़त से किसी एक लड़की से सम्बन्ध बना लेने की जोखिम-भरी हसरत-ओ-तड़प भी है. हमारे किशोर और युवा वर्ग में नारी के लिए दीवानगी तक ललक है. यहाँ एक विचित्र तथ्य है कि फिल्म की नायिका वास्तविक जीवन में अब भी नाबालिग़ है और शायद नायक भी. यह एक घंटा self-indulgent है क्योंकि वह ऐसा कुछ भी स्थापित नहीं करता जो बीस मिनट में establish नहीं हो सकता था. वह क्लिशे (पिष्ट-पेषण) के साठ मिनट हैं और शायद निदेशक वैसा ही वातावरण निर्मित करना चाहता था. लेकिन होश में लानेवाला पहला तमाचा नायिका के भाई के हाथ से उसके पिता के इंटर कॉलेज में मराठी कविता पढ़ानेवाले दलित शिक्षक के मुँह पर नहीं, हमारे गाल पर पड़ता है और पिछला सारा शीराज़ा बिखर जाता है. लेकिन यह तो होना ही था.
अपना संभावित जाति-विवाह तोड़ना, माता-पिता-भाई को समाज और कस्बे में बदनाम कर भयानक जोखिम उठा अपने दलित प्रेमी के साथ पलायन, अत्यंत कठिन परिस्थितियों के बीच सीमावर्ती आंध्रप्रदेश में डोसा बनाते हुए और पीने के पानी की मशीनी बोतलें भरते हुए टीन की दीवारों-छतों वाली एक गन्दी बस्ती में अज्ञातवास,बीच में एक लगभग आत्मघाती ग़लतफ़हमी और अनबन और पुनर्मिलन, फिर वह दो बरस जिनमें एक बेटे, एक स्कूटी और एक छोटे से फ़्लैट का जीवन में आना, और इस सब बदलाव में नायिका आर्ची का अपने माता-पिता, भाई-बहनों और घर को सहसा याद करना. सर्वनाश मायके से कई भेंटें लेकर आता है.
क्या दर्शकों ने सिर्फ़ उस सुपरिचित, लगभग टपोरी पहले घंटे को चाहा? क्या उन्हें बीच का ‘’दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे’’-स्पर्श अच्छा लगा ? क्या उन्हें क़स्बाई माफिया द्वारा नायक-नायिका को चेज़ करने और उस पलायन में पराजित होने में आनंद आया? क्या वह आँध्रप्रदेश में अपने आदर्शवादी, ’पवित्र’ नायक-नायिका के सफल संघर्ष से खुश हुए? क्या उन्हें यह हीरो अच्छा लगा जो एक एंटी-हीरो,अ-नायक है ? क्या उन्हें बीच में उन दोनों के मनमुटाव के सस्पेंस ने रोमांचित किया ? क्या वह जानते या चाहते थे कि बाद की सुख-स्वप्न जैसी ज़िन्दगी न चले? फिर यह दर्शक हैं कौन? इनके पैसे कैसे वसूल हुए? कितने दलित,कितने सवर्ण,किन जातियों के ? कितने किशोर/युवा ? कितने वयस्क,बुद्धिजीवी ? क्या सब सवर्णवाद के आजीवन शत्रु रहेंगे ? क्या वाक़ई ‘’सैराट’’ कोई जातीय, सामाजिक और राजनीतिक प्रश्न उठाती है ? यदि वह त्रासदी को ही उनका एकमात्र हल बनाकर पेश कर रही है तो उसमें कहाँ मनोरंजन हो रहा है कि फिल्म सुपर-हिट है?
क्या यह फिल्म दर्शकों को और मनोरंजन की उनकी अवधारणाओं को बदल रही है ? क्या दर्शकों ने इसे एक समूची ज़िन्दगी की फाँक की तरह देखा,टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं? क्या इसमें कहीं कोई सैडो-मैसोकिस्ट, परपीड़क-आत्मपीड़क तत्व, किशोर-प्रेम का नेत्र-सुख,prurience और voyeurism भी सक्रिय हैं? क्या यह फिल्म सिर्फ़ मराठी संस्कृति में वैध फिल्म है? हिंदी में बनी तो नतीज़े क्या होंगे? \’\’सैराट\’\’ की अपूर्व सफलता गले से तो उतरती है,दिमाग़ में अटक कर रह जाती है.
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विष्णु खरे
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
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फ़िल्म मीमांसक विष्णु खरे की मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की विवेचना ने अब एक बहस का रूप ले लिया है. ‘सैराट’ हिंदी ‘मायने’ से शुरू हुआ यह विवाद अब फ़िल्म के मंतव्य तक पहुंच गया है. इसका एक दलित एंगल भी है. इस बहस को आगे बढ़ाते हुए श्री आर. बी. तायडे का आलेख जो मूल अंग्रेजी में है दिया जा रहा है.
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