भाई अभी ज़मानती मुजरिम हैविष्णु खरे
|
शेक्सपिअर के ‘जूलिअस सीज़र’ में एक सीन आता है.रोम की बिफरी हुई जनता सीज़र के हत्यारों को,जिनमें से एक का नाम सिन्ना है, ढूँढ-ढूँढ कर मार रही है. अचानक दंगाइयों में से एक चिल्लाता है, “वह रहा सिन्ना”. लेकिन वह सिन्ना,जो शायद पाण्डेके नाम से सीनेट में मंच-संचालन भी करता रहा होगा, गिड़गिड़ाता है : ‘हुज़ूर माई-बाप, मैं वह सिन्ना नहीं, शायर सिन्ना हूँ’. तब भीड़ में से एक पारखी-ए-सुख़न नारा लगाता है : ‘हाँ,हाँ, इसे इसकी घटिया शायरी की वजह से ही दोज़ख़ रसीद करो’. सद् अफ़सोस कि तज़वीज़ की सामूहिक तामील होती है. कितनी राहत की बात है कि मुम्बई में ऐसा बलवा नहीं होता वर्ना ‘इंडस्ट्री’ में डेढ़-दो ‘’शोअरा हज़रात’’ ही बचते. लेकिन,हाँ, उनका धंधा ख़ूब चलता.
यह क़िस्सा इसलिए कि मेरी हक़ीर-ओ-नाक़िस राय में सारे जहान में हिन्दुस्तानी अदालतों के पास ही बर्बाद करने के लिए इतना वक़्त है कि तेरह बरस इसमें लगा दें कि किसी करोड़पति पियक्कड़ ‘’भाई’’ ने किन्हीं सोते हुए मजलूम मज़दूरों को अपनी गाड़ी से कुचला था या नहीं, उनमें से एक की जान ली थी या नहीं, फिर एक जज ने भाई को पाँच साल की सज़ा सुनाई जिसे अगले दिन बड़े जस्टिस ने इन्साफ के उसूलों पर एक लघु-प्रवचन देते हुए मुअत्तिल कर दिया और भाई को ज़मानत दे दी और उसके ख़ेमे में ऐसे जश्न मनाए गए जैसे भाई को सलीम-जावेद के फ़िल्मी डायलागों की ज़ुबान में बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया हो. खुदा-न-ख्वास्ता अगर मैं जज होता तो मैं भाई की किसी भी फिल्म का डीवीडी मँगवाता और उसे बीच में ही रुकवा कर उसे सिन्ना की तर्ज़ पर बेहूदा, बाज़ारू ‘’एक्टिंग’’ और घटिया फिल्मों के लिए ही ताउम्र क़ैद-ए-बामशक्क़त की सज़ा सुना देता. ऊँची अदालतें उल्टा देतीं मेरा फ़ैसला, वह अमर तो हो जाता, जैसे जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला ने अपने एक फैसले के एक जुमले में हिन्दुस्तानी पुलिस को मुल्क का सबसे बड़ा जरायमपेशा गिरोह जैसा कुछ कहा था, जिसे बाद में अगली अदालत से कटवा तो दिया गया, लेकिन जो आज 54 बरस बाद (जस्टिस मुल्ला की कल्पना से भी) ज़्यादासही है और अब तो वह कटने की वजह से ही अमर हो चुका है.
‘’भैया’’ और ‘’भाई’’, हिंदी-उर्दू-हिन्दुस्तानी के यह दो प्यारे शब्द, जो कितने स्निग्ध नाते के लिए सदियों से इस्तेमाल किए जा रहे हैं, मुम्बई में कितने भ्रष्ट और कुख्यात कर दिए गए हैं. यदि किसी, विशेषतः उत्तर प्रदेश और बिहार के उच्चारण वाले और निचले तबके के, हिंदीभाषी को संदिग्ध, बदतमीज़, गुंडा, अपराधी, महाराष्ट्र-शत्रु आदि करार देना हो तो उसे मुंबई में ‘’भैया’’ या ‘’भय्यन’’ कह देना काफ़ी है.लेकिन ‘’भाई’’, जो विडंबना है कि (विशेषतः कमउम्र और युवा) मुस्लिमों में लोकप्रिय और ‘आदर्श’ मुस्लिमों के लिए ज़्यादा प्रचलित है, और भी भयानक अर्थ लिए हुए है. वहाँ वह जरायमपेशाओं,माफ़िआ,आतंकवादियों तक के लिए आदर और दहशत के साथ प्रयुक्त होता है.वह मुस्लिम बाल-किशोर-युवा-ह्रदय-सम्राट,घरों-परिवारों के चहीते फ़िल्मी हीरो के लिए भी अनिवार्यतः इस्तेमाल किया जाता है.आप सिर्फ़ ’शाहरुख’ या ‘आमिर’ नहीं कह सकते.वह तो किसी कुफ्र की तरह होगा. ’’भाई’’ लगाना ही होगा. हालाँकि उस वज़न पर मुस्लिम हीरोइनों को ‘’आपा’’ क्यों नहीं कहा जाता यह मेरी समझ से परे है. बहरहाल, अगर एक जननायक को लाखों-करोड़ों ‘’भाई’’ कह रहे हों, उसकी मख्मूर झूमती-लड़खड़ाती गाड़ी के नीचे आकर कोई पिस भी जाए, फिर वह मुस्लिम ही क्यों न हो,तो कौन सी क़यामत नाज़िल हो गयी ? ‘’ख़ानदानी रईस’’ ऐसा नहीं करेंगे तो क्या फ़ुटपाथ पर सोने-रेंगने वाले कीड़े-मकोड़े करेंगे ?
इस अंग्रेजी उपन्यासकार श्रीमयी पिऊ कुंडू ने तो हद कर दी. औरतें इतनी सरकश कैसे होती जा रही हैं ? इसमें तो लगता है किसी दूसरी तसलीमा नसरीन की रूह समा गई है. कितने खुले, अश्लील, अंग्रेज़ी शब्दों में, जिन्हें इस्तेमाल करने का दैवीय हक़ सिर्फ मर्दों को ही अता किया गया है, इसने भाई, उसके कुनबे, पुलिस, जुडीशिअरी, मीडिया, राजनीति, गोया पूरी भारतमाता की भर्त्सना कर डाली है. अफ़सोस की बात है कि उसने सलीमभाई की शराफ़त को भी नहीं बख्शा. बापों को बेटों का खम्याज़ा भुगतना ही पड़ता है. श्रीमयी पिऊ कुंडू ने इस बात का फायदा उठा लिया कि अभी भाई का मामला नृसिंह-हिरण्यकशिपु की न्यायिक संधिवेला में है. भाई फ़िलहाल सजायाफ्ता है, न बरी हुआ है न छूटा है. ज़मानत पर है. अपील एडमिट होने को है.यह बहुत कुछ कह लेने का बेशक़ीमती अंतराल है.
भाई की सज़ा ने देश को तीनफाँक कर दिया है. एक तो वह है जिसमें है’’बहुमत’’ आता है जिसमें करोड़ों को न तो मालूम है और न पर्वाह है कि भाई कौन है, और उसे क्यों सज़ा हुई है. आज भी करोड़ों को न तो नरेंद्र मोदी तक के बारे में मालूम है न अमित शाह के बारे में, फिर भाई जैसे किस खेत की मूली हैं ? मीडिया और हमारी यह खामखयाली है कि हमारे इन ‘’जननायकों’’ को ‘’सारा देश’’ जानता-पूजता है. दूसरी फाँक उनकी है जिनके लिए भाई भगवान या ख़ुदा के बाद दूसरे स्थान पर है. उनमें से कुछ भाई के लिए पूरी-अधूरी खुदकुशी पर भी आमादा हो सकते हैं. सबसे बड़ा सदमा उन्हें ही अपने आराध्य को फ़िल्मी शैली में अदालत का मुल्जिम और बाद में जज के सामने रोता हुआ मुजरिम देख कर लगा है. क्या एक जज जैसा मामूली आदमी हमारे भाई को इस तरह सज़ा सुना कर सारे मुल्क में उनकी की बेहुरमती कर सकता है ? तीसरी फाँक उनकी है जिन्हें अदालत के फैसले ने ज़ुबान और कलम चलाने की और हिम्मत दी है.
हम यह जानते हैं कि यह युग खबरों की खरीद-फरोख्त का है लेकिन हर तरह के माध्यम में भाई के मामले की अधिकांश कवरेज ने बेशर्मी और उद्दंडता के नए (अप)कीर्तिमान स्थापित किए हैं. अदालत की जितनी अवमानना पिछले दिनों हुई है वह किसी भी अन्य सभ्य, क़ानून-भीरु देश में असंभव है. भाई के पक्ष की ओर से कितना पैसा फूटी हुई पाइपलाइन की तरह बहाया गया है इसकी तह में जाना नामुमकिन है. गूगल, याहू, वाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर,थर्डपेज,समूचे छोटे-बड़े अखबार सब खरीदे जाने के लिए बाज़ार में हैं. इतनी असंख्य अदृश्य चीज़ें हो रही हैं जो आम श्रोता-दर्शक-पाठक की कल्पना और समझ से परे जा रही हैं. यह तक देखा गया की जब फैसला आने को सिर्फ एक मिनट रहगा था तब भी टेलीविज़न के दुकौड़ी ‘’पत्रकार’’ गवाहों से सड़क पर जिरह कर रहे थे.
नहीं ‘’भाई’’ नहीं. तुम खुद को कितना भी दानवीर कर्ण और हातिम ताई का फ़िल्मी अवतार दिखाओ ,लाखों-करोड़ों अभी ऐसे भी है जिन्होंने अपनी आँखें, अक्ल और ईमान बेचे नहीं हैं. उन्होंने इंदौर-मालवा की वह कहावत भी ‘’छाती लगी फटने,खैरात लगी बँटने’’ के संशोधित रूप में सुन रखी है. यह दुनिया बहुत ‘सिनिकल’, सर्वसंशयवादी हो चुकी है, और भले ही तुम इन अलफ़ाज़ का मतलब न समझो, उसकी एक वजह आदमियों और जानवरों के तुम सरीखे शिकारी भी हैं. अभी तो तुम राजस्थान में भी कठघरे में हो और थैलियाँ खुली हुई हैं. तुम खुशनसीब हो कि हिंदुस्तान जैसे ‘’सॉफ्ट’’ और स्पंज-केंचुए देश के नागरिक हो जहाँ तुमसे-भी बड़े सैकड़ों मशकूक जरायमपेशा, जिनका ‘’नैतिक’’ सहारा तुम्हें हासिल हो सकता होगा, विधायिका में बैठे हुए हैं. पश्चिम में बड़े और ऊँचे लोगों को सजाएँ सुनाई गई हैं, वह कहीं मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहते, सारा समाज उनका अघोषित बहिष्कार करता है और उनका नाम फिर कहीं सुनने-पढ़ने में नहीं आता. तुम्हारे पास इतना लवाज़मा-लश्कर है कि तुम कई गवाहों, वकीलों, जजों और हमारे मरने तक अपना मुक़दमा लड़ सकते हो और जीत भी सकते हो. लेकिन जहाँ तक मेरा ज़ाती सवाल है, हालांकि मैं क्या और मेरा सवाल क्या, लेकिन इसमें लाखों-करोड़ों मेरे भी साथ होंगे,कि अफ़सोस है मैं तुम्हें मुजरिम मानता हूँ और,जो भी हो, मानता रहूँगा. That is my way of Being Human.
(पाण्डे: आज हिंदी में कार्यक्रम संचालन एक अश्लील हरकत बन चुकी है. संचालक स्वागतकर्ता, परिचयदाता, विषय-प्रवर्तक, मुख्य अतिथि, अन्य वक्ता, अध्यक्ष, आभार-प्रदर्शक तथा समाचार-लेखक – सभी बन चुका है. वह बताता है की वक्ता क्या बोलेगा और फिर बताता है कि वह क्या बोला. मुंबई की हिंदी-सभाओं में तो संचालक घटियातरीन शेरो-शायरी, लतीफेबाजी, नख-शिख-वर्णन आदि करता चलता है. वह श्रोताओं से लगातार तालियाँ बजाने को कहता रहता है. यह वहाँ एक पेशा बन चुका है और आयोजक संस्थाएं बाक़ायदा इसके पैसे देती हैं. मुंबई के एक ऐसे भांड का कुलनाम पांडे है.) विष्णु खरे
___________________________________________
विष्णु खरे
vishnukhare@gmail.com