• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » दीपन : विष्णु खरे

दीपन : विष्णु खरे

६८वें कान इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में इस बार फ्रेंच फ़िल्म ‘दीपन’ को चुना गया है. फ़िल्म का नायक ‘दीप’ तमिल-सिंहल गृह-युद्ध के दरमियान अपनी नकली पत्नी और बेटी के साथ फ्रांस में राजनीतिक शरण लेता है. ज़ाहिर है इस फ़िल्म का राजनीतिक मन्तव्य भी है जो भारत, श्रीलंका, तमिल आदि मुद्दों से जुड़ता है. इस फ़िल्म की बेसब्री से प्रतीक्षा है. विष्णु खरे का यह आलेख हमेशा की तरह बौद्धिक खुराक से भरपूर है.

by arun dev
May 31, 2015
in फ़िल्म
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

कान से सुना “दीपन’’ का उद्दीपन           

विष्णु खरे 

एक ऐतिहासिक घटना घटी है संसार के सबसे बड़े फिल्म समारोह में, जो हर वर्ष लगभग इन्हीं दिनों दक्षिणी फ्रांस के तटीय शहर कान में होता है. उसका सर्वोच्च पुरस्कार, ‘’स्वर्ण तालपत्र’’ सम्मान, साठ-वर्षीय विख्यात फ़्रांसीसी निदेशक षाक ओदिआर की एकदम ताज़ा, सीधी लैब से निकलकर समारोह के प्रतियोगिता-खंड में आने दी गई, फ़िल्म ‘’दीपन’’ को दिया गया, जिसका संस्कृत-द्रविड़ नाम ‘’दीपन’’       (‘दीप’) उसके उस नायक पर है जो तमिल-सिंहल गृह-युद्ध के दौरान एक नकली पत्नी और बेटी के साथ फ्रांस में राजनीतिक शरण (‘एसाइलम’) लेता है. इसमें कुछ भी नया या आश्चर्यजनक नहीं है – उन वर्षों में मुझ-जैसे जो भी विदेशी यात्री फ्रांस, जर्मनी, स्विट्ज़रलैंड या ऑस्ट्रिया गए होंगे उन्होंने ऐसे सैकड़ों असली-नक़ली तमिल-सिंहल शरणार्थी वहाँ सड़कों-दूकानों पर देखे होंगे. हैरतअंगेज़ यह है कि इस निहायत अछूते विषय पर शायद यह पहली फिल्म फ्रांस में ही बनती है जिसके अधिकांश  डायलॉग तमिल में हैं. यह भी शायद विश्व-सिनेमा में पहली बार हुआ है. 

‘’दीपन’’ अभी क़ानूनी-ग़ैर-क़ानूनी ढंग से कहीं भी उपलब्ध नहीं है, खुद फ्रांस में वह 26 अगस्त को रिलीज़ होने वाली है और अभी सिर्फ उसके कुछ ट्रेलर देखे जा सकते हैं, जिनसे उसका कोई भरोसेमंद मूल्यांकन नहीं हो सकता. हाँ, उसकी सुनी-पढ़ी कहानी ज़रूर दुहराई जा सकती है. निर्णायक-मंडल के अध्यक्ष विश्वविख्यात निदेशक ‘’नो कंट्री फ़ॉर ओल्ड मैंन’’ वाले कोएन-बंधु थे जिनकी  ज्यूरी ने फैसला सुनाते वक़्त यह भी कहा है कि हम ‘’कलाकार हैं और (फिल्म-)समीक्षक नहीं हैं’’. बहरहाल,यह निर्णय निर्विवाद नहीं रहा, कई हाज़रीन ने इसका स्वागत बूबूकार यानी हूटिंग से भी किया. किन्तु कुल मिलाकर इस फिल्म और सम्मान को  व्यापक स्वीकृति मिली.  कुछ ने यह कहा कि भर्त्सना करने वाले यह बर्दाश्त नहीं कर पाए  कि एक अश्वेत (‘ब्लैक’) हीरो वाली फिल्म को पुरस्कृत किया गया, जबकि कुछ अन्य ने स्पष्ट किया कि काले रंग का होने के बावजूद नायक ‘ब्लैक’ ‘अफ्रो’-‘अमेरिकन’ नहीं है बल्कि श्रीलंकाई तमिल है. लेकिन जो गोरे नस्लवादी हैं उन्हें इन बारीकियों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. जितने काले, मेरे बाप के साले. 

बहरहाल, प्लॉट का मोर्चा यह है कि एक मृत श्रीलंकाई-तमिल  परिवार के जाली पासपोर्ट पर दीपन नामक हमारे कथानायक को एक अनजान युवती को अपनी पत्नी और उसके द्वारा गोद ली गई एक अनाथ तमिल बच्ची को अपनी बेटी बनाकर धोखेबाज़ और खतरनाक तरीके से फ्रांस में दाखिल होकर पैरिस में रिफ्यूजियों के एक टब्बरकी तरह रहना है. इस ’’दीपन-परिवार’’ को काम मिलता है एक ऐसे छोटे संदिग्ध मोहल्ले  की देख-भाल  का जिसमें अधिकतर ग़ैर-फ़्रांसीसी गुंडे-मवाली-जरायमपेशा माफ़िआनुमा गिरोहों का बारी-बारी से सत्ता-संघर्ष और राज चलता रहता है. ज़ाहिर है कि एक ऐसा विस्फोट-बिंदु आएगा जब इस लस्टम-पस्टम ढंग से बनते-सँवरते ‘चौकीदार’ ‘परिवार’ का मुकाबला उसी अपराधी बस्ती के बेरहम बाशिंदों  से होगा जिसके रख-रखाव का जिम्मा उन्हें सौंपा गया है. लंकाई गृह-युद्ध में जीने-मारने में जो भी महारत दीपन ने हासिल की थी, वह अब पैरिस के उसके इस बहुआयामी गृह(स्थी)-युद्ध में बहुत काम आती है. दीपन जैसों के लिए ऐसे जानलेवा गृह–युद्ध कभी भी कहीं भी ख़त्म नहीं होते. 

निदेशक ओदिआर ने दोनों प्रमुख भूमिकाओं के लिए जिन एक अभिनेता और एक  अभिनेत्री का चयन किया है वह गहरी सूझ-बूझ और जोखिम से लबरेज़ है. नायक जेसुदासन एन्टनीदासन, जिनके नाम से ही स्पष्ट है की वह ईसाई हैं, अपने वास्तविक जीवन में 16 वर्ष की उम्र से ही तमिल टाइगर्स में शामिल हो गए थे और सक्रिय रूप से तीन वर्ष तक उनके साथ रहे, फिर भाग कर थाइलैंड चले गए और वहाँ से 1993 में फ़्रांस पहुँच कर 25 वर्ष की उम्र में उन्होंने वहाँ पनाह माँगी जो उन्हें दी गई. कई छोटे,फुटकर काम करते हुए वह तमिल में ‘’शोभाशक्ति’’ उपनाम से लिखते रहे. उन्होंने फ़्रांस में लेओन त्रोत्स्की समर्थक एक संगठन के साथ भी काम किया. वह 1997 से पूर्णकालिक स्वतंत्र लेखक हैं और उन्होंने साहित्य की लगभग हर विधा में लिखा है जो भारत,श्रीलंका और संसार भर में फैले तमिल समाज में पढ़ा जाता है. उनके दो उपन्यास ‘’गोरिल्ला’’( 2001) और ‘’ग़द्दार’’ (2004), जिनके मूल तमिल शीर्षक मालूम न हो सके, अंग्रेज़ी में भी आ चुके हैं और तीसरा,जिसका शीर्षक शायद अभी तय नहीं है और जो ‘’दीपन’’ के कारण ही लेट हुआ, मूल तमिल में जुलाई 2015 में आ जाएगा. यह तीनों उपन्यास तमिल-सिंहल संघर्ष के अनुभवों से ही उपजे हैं. 

अभिनय के क्षेत्र में एन्टनीदासन का अनुभव बहुत नहीं था, किशोरावस्था में उन्होंने कुछ पारम्परीण नाटकों में काम किया था, ईलम-वर्षों में कुछ नुक्कड़-नाटक किए, लेकिन उनकी  सबसे उल्लेखनीय और ख्यातिदायक पिछली उपलब्धि थी भारतीय तमिल फ़िल्म-निर्मात्री,अभिनेत्री,कवयित्री तथा स्त्री-समलैंगिकता सक्रियतावादी  लीना मणिमेखलै की  भारतीय फिल्म ‘’सेंगदल’’ (2010) के लिए न केवल पटकथा-सहलेखन, बल्कि उसमें दूसरी प्रमुख पुरुष-भूमिका निबाहना भी. ’’सेंगदल’’ पर भारत सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया था जो बाद में हटा और वह फ्रांस सहित संसार के चालीस फिल्म-समारोहों में दिखाई जा चुकी है और अब तो अपने प्रसिद्ध उप-नायक के कारण और दिखाई जाएगी. 

’’दीपन’’ की 30 वर्षीय नायिका, चेन्नै-निवासी कालीश्वरी(?) श्रीनिवासन भी कोई बाजाब्ता अभिनेत्री न थीं और न उनकी वैसी कोई महत्वाकांक्षा थी. अचानक 24 वर्ष की उम्र में उनमें रंगमंच जागा और उन्होंने प्राचीन-अर्वाचीन नाटकों में काम करना शुरू किया. मंच-तकनीक सीखी और निदेशन भी किया. बच्चों को नाट्य सिखाया और प्रायोजित सोद्देश्य प्रचार-नाटक भी किए. कुछ मित्रों के कहने पर उन्होंने ‘’दीपन’’ की अपनी भूमिका के लिए ‘ऑडिशन’ दिया और फिल्म में दीपन की ‘पत्नी’ ‘’यालिनी’’ की अपनी अरंगेत्रम् भूमिका के लिए चुन ली गईं. बच्ची का किरदार क्लोदैन वीणासितम्बी(?) ने निबाहा है जिसके पहले नाम से शक़ होता है कि वह फ्रांस में ही जन्मी है और यूँ भी उसे फिल्म में स्कूल में बहुत जल्दी फ्रैंच सीखते दिखाया गया है. 

1994 में शाजी करुण की मलयालम फ़िल्म ‘’स्वहम्’’ के बाद कान के प्रतियोगिता-खंड में यह पहली फिल्म है जो पूरी तरह से (दक्षिण-)भारतीय तो नहीं है लेकिन तमिल-सिंहल,भारत-श्रीलंका समस्या के बिना संभव ही न होती. इसके अनेक महत्वपूर्ण दृश्य भारत के रामेश्वरम्,मण्डपम् तथा उदकमंडलम् में ही फिल्माए गए हैं. निदेशक  षाक ओदिआर ने इसे बहुत सोच-समझकर, सावधानी से, पूरा ‘होम-वर्क’ करके बनाया है. यह भारत-श्रीलंका-फ्रांस के राजनीतिक संबंधों पर भी असर डाल सकती है और कान फिल्मोत्सव और कोएन-बंधु सहित उसके निर्णायक मंडल को भी विवाद की ज़द में खींच सकती है. वैसे इस वर्ष के इस समारोह को बहुत सफल या उच्चस्तरीय नहीं माना जा रहा, शायद इसलिए भी कि उसमें कुछ हिन्दीभाषी ठग-उचक्के घुसपैठ कर रहे हैं, लेकिन यह देखना बहुत दिलचस्प और महत्वपूर्ण होगा कि भारत एवं श्रीलंका सरकारें ‘’दीपन’’ को  कैसे देखती हैं और विश्वव्यापी तमिल बिरादरी इसे कैसे लेती है, क्योंकि पुराने घाव अभी तक भरे नहीं हैं और शायद कभी न भरें. राजीव गाँधी की नृशंस हत्या के बाद नरसिंह राव, बाबरी मस्जिद, मनमोहन सिंह और सोन्या-राहुल माँ-बेटे  की मुतवातिर नामाकूलियत ने भारत का इतिहास हमेशा के लिए बदल दिया. आज यदि भारत पर भाजपा का वर्चुअल वर्चस्व है तो उसके राजनीतिक कारक-तत्वों में एक तमिल-सिंहल संघर्ष भी है जिसमें लाखों परिवार होम दिए गए. ’’दीपन’’ ऐसे समय में विश्वव्यापी चर्चा के केंद्र में है जब ‘पुरत्ची तलैवी’ जयललिता‘अम्मा’ तमिलनाडु, भारत तथा दक्षिण-एशियाई राजनीति में बाजे-गाजे के साथ लौट रही हैं. वह स्वयं सिने-अभिनेत्री और फिल्म-पारखी रही हैं. ’’दीपन’’ उन्हें उजाला देगी या आग ? वह उसे बुझाने की कोशिश करेंगी या उसमें घी डालने की ? एक अच्छी फिल्म जो न करे सो कम है.

__________

 विष्णु खरे

Tags: दीपन
ShareTweetSend
Previous Post

कथा – गाथा : प्रेमचंद गांधी

Next Post

मंगलाचार : वल्लरी

Related Posts

No Content Available

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक