आख़िर इस मर्ज़ की दवा क्या है
विष्णु खरे
अपने भारत महान में तथाकथित ‘अमव्य’ (‘अति महत्वपूर्ण व्यक्ति’,’वी आइ पी’– मुझे इस शब्द से उबकाई आती है -) को कोई भी दावत देना बड़े जोखिम का काम है. लोग इंतज़ार करते-करते पत्थर हो जाते हैं, वो वादा करके भूल गए, किसी बहाने या असली वजह से ग़नीमत है कि सिर्फ़ दो घंटे बाद आए, या बिगड़ैल माशूक़ की मानिंद आए ही नहीं. स्थिति ‘जबरा मारे और रोने भी न दे’ की हो जाती है. क्या उन्हें दुबारा नहीं बुलाना है ?
भोपाली विश्व हिंदी सम्मेलन के कल निपटे समापन समारोह में आख़िरी ख़ुत्बे के लिए स्वयं प्रधान मंत्री ने अभिनय-सम्राट अमिताभ बच्चन को चुना था. देश-विदेश में करोड़ों शब्दों में यह ख़बर छपी, रेडियो टीवी पर आती रही, करोड़ों रुपयों के पोस्टर और विज्ञापन छपे, यात्रा, ठहरने और सुरक्षा के बंदोबस्त हुए, जया के मायके भोपाल की जनता अपने कँवर साहब को देखने पलक-पाँवड़े बिछाने लगी, सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह ने अलग-अलग विशेष फेशिअल को सुनिश्चित किया होगा. प्रधान मंत्री ने साउथ ब्लॉक में सीधे प्रसारण वाली ओबी वैन खड़ी करवाई होगी.
किन्तु हाय रे बेदर्दी दाँत के निगोड़े दर्द, तुझे अभी ही अमिताभजी को होना था? वह भी इतना सीरियस कि कुछ घंटों के लिए लोकल अनेस्थेटिक से सुन्न न हो सके, उखाड़ने की नौबत आ जाए ? कौन है वह नामाक़ूल डेंटिस्ट, जो वक़्त रहते यह समझ न सका ? कुछ जाने-पहचाने, कुंठित, अनामंत्रित शरारती लेखक-पत्रकारों ने उनके हिंदी सम्मेंलन में बुलाए जाने के औचित्य पर सवाल ज़रूर उठाए थे, लेकिन उसके लिए अमिताभ प्रधानमंत्री और देश को निराश कर डिप्लोमैटिक डेंटल इलनेस का इतना यथार्थ अभिनय तो करेंगे नहीं. यह तो दिलीप कुमार के भी बूते के बाहर है.
इसमें कोई शक़ नहीं कि आज अमिताभ दक्षिण एशिया के सबसे बड़े सक्रिय अभिनेता हैं,सबसे ज़्यादा और अच्छी हिंदी जानते-बोलते-लिखते हैं, उन्हें बांग्ला का ज्ञान है और उर्दू तथा अंग्रेज़ी के उच्चारण भी निर्दोष हैं. ’मधुशाला’ के अमर गायक और अत्यंत पठनीय आत्म-कथा खंड ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ के रचयिता, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अंग्रेज़ी के प्राध्यापक-अनुवादक,जवाहरलाल नेहरू परिवार के मित्र दि. हरिवंशराय बच्चन के बेटे होने के कारण उन्हें साहित्य-संगीत-कलाएँ विरासत में मिली हैं और पत्नी जया के रूप में एक सुसंस्कृत, बड़ी, पतिव्रता-गृहिणी अभिनेत्री. उन्होंने ज़ीरो पर आउट होने और पिच को दोष देने से पहले एक अत्यंत विस्मरणीय राजनीतिक पारी भी खेली है. वह अपनी प्रतिभा के बल पर ही उपरोक्त यूसुफ़ भाई के बाद सबसे बड़े एक्टर बने हैं लेकिन हिंदी भाषा और साहित्य को उनका निजी योगदान नगण्य है. पिता की स्मृति को थोड़ा बनाए रखने के अलावा उन्होंने दोनों के लिए कुछ नहीं किया है.
लेकिन हमारे देश में विश्वसुलभ सनी लिओने और मसखरे सिद्धू जैसों को ब्रह्माण्ड के हर विषय पर एक्सपर्ट मानने की मीडिया प्रथा है. अमिताभ बच्चन तो उनसे सैकड़ों गुना सुपात्र हैं. लेकिन व्यावहारिक हिंदी और उसे युवा पीढ़ी में लोकप्रिय बनाने के लिए उनमें कोई अनुशासनबद्ध,सुचितित,अर्ध-अकादमिक योग्यता नहीं है.उनकी कंपनी एबीसीएल आत्मनाशक सिद्ध हुई यानी वह बिज़नेस में काम आनेवाली हिंदी भी सिखा नहीं सकते. हिंदी तो पहले से ही दीवालिया है.
नरेंद्र मोदी के कई अभिनेता-परिवारों के साथ बहुत प्रसन्न फ़ोटो देखे गए हैं,पता नहीं उन पर परेश रावल की बहुघोषित फ़िल्म का क्या हुआ, लेकिन हिंदी भाषा की इतनी क़द्र करनेवाले हमारे प्रधानमंत्री को क्या फिल्मों में हिंदी की हक़ीक़त का कोई इल्म है ? क्या वह हिंदी फ़िल्में देखते हैं, यदि हाँ, तो किस तरह की ? जिस भाषा से सिनेमा अब तक खरबों रूपए कमा चुका है और कमाता रहेगा,क्या नरेनभाई उसी माध्यम में उसकी बाँदी-लौंडी जैसी,यूज़-एंड-थ्रो दुर्दशा से परिचित हैं ? क्या अमिताभ को भी इसका कोई शर्मिंदा एहसास है या वह सिर्फ़ अपना रोकड़ा वसूल कर पतली गली से उस तरफ़ कट लेते हैं जहां लॉकरों को उनकी ‘प्रतीक्षा’ है ?
एक युग था जब कुछ फिल्म-निर्माता,निदेशक,कहानी- तथा संवाद-लेखक,संगीतकार और कवि-शायर तथा स्वयं अभिनेता-अभिनेत्री भी स्तरीय,सार्थक.उपयुक्त और प्रासंगिक भाषा पर अनिवार्य जोर देते थे क्योंकि उसके बिना बेहतर सिनेमा मुमकिन ही नहीं है.अच्छी, सही, अभिव्यक्तिशील भाषा के बिना मानवीय गतिविधि का कुछ भी श्रेयस्कर संभव नहीं हो पाएगा.औचित्य हो तो नितांत ‘’आपत्तिजनक’’ या ‘’संकर’’ भाषा भी कला के लिए लाज़िमी हो जाती है और एक भयावह सौन्दर्य जन्म लेता है.लेकिन हमारी फिल्मों की भाषा निरंतर सिर्फ़ फूहड़,चालू और बाजारू होती जा रही है.आज जितने अधकचरे, अनपढ़, बर्बर और प्रतिभाशून्य निर्माता,निदेशक,कहानीकार,गीतकार और अभिनेता फिल्मों में घुस आए हैं उतने पहले कभी न थे.हम जानते ही हैं कि यह हिंदी,उर्दू और अंग्रेज़ी बोलना-पढ़ना-लिखना नहीं जानते.’होमो हाइडेलबेर्गेन्सिस’ का आइक्यू इनसे ज़्यादा रहा होगा.
सरकारें कलाओं को दिशा-निर्देश नहीं दे सकतीं,ख़ासकर हमारे देश की सरकारें.हमारे अधिकांश अफसर,मंत्रालय,कला-संस्थान,नेता और स्वयं घटिया कलाकार कला और संस्कृति के जानी दुश्मन हैं.जिस भारतीय जनता को कलाएँ संबोधित हैं वह भी एक सीमा के बाद न कलाओं को समझती है न उनके प्रति चिंतित होती है.वह एक स्तर तक गुणवत्ता को जानती है, उसके बाद वह उसके लिए कठिन हो जाती है जो उसके मन में आक्रोश और ‘’भाड़ में जाए’’ की क्रुद्ध उदासीनता को जगाती है.वह कलाओं का इस्तेमाल अफीम की तरह कर लेती है,बुद्धि और मस्तिष्क को विकसित करने वाली किसी औषधि की तरह नहीं क्योंकि वह कुछ पथ्य की माँग करता है.सबसे पहले एक स्वस्थ भाषा की.
पहले तो ख़ुद प्रधानमंत्री और अमिताभ बच्चन जैसों को बैठ कर समझना होगा कि क्या हमारी फ़िल्में किसी मर्ज़ की शिकार हैं,हाँ तो उसका निदान क्या है.आज सिनेमा इतना जटिल,वैविध्यपूर्ण माध्यम हो चुका है कि उस पर विचार करने के लिए सिर्फ फिल्म-बिरादरी,प्रौढ़ तथा युवा साहित्यकार,पत्रकार और सिने-समीक्षक काफ़ी नहीं, बल्कि ऐसे विमर्श में सभी स्तरों के शिक्षक, कलाविद्, समाजशास्त्री, राजनेता, प्रशासक, पुलिसकर्मी, धर्मगुरु, नारी-संगठन, दलित-प्रतिनिधि आदि सबकी भागीदारी अनिवार्य होगी.इसमें हिंदी सिनेमा के विदेशी अध्येता भी निमंत्रित किए जा सकते हैं.ऐसा सिने-सम्मेलन सरकार की प्रबुद्ध सहायता और हिस्सेदारी के बिना संभव नहीं है.
यदि प्रधानमंत्री हिंदी को लेकर वाक़ई गंभीर हैं तो बम्बइया सिनेमा पर,विशेषतः उसकी भाषा पर,उन्हें ऐसा सम्मेलन,जिसमें कोई भी दाँव-पेंच वर्जित न हो, गजेंद्रहीन पुणे फिल्म-संस्थान,सूचना एवं प्रसारण,मानव संसाधन तथा संस्कृति मंत्रालयों,राष्ट्रीय नाट्य संस्थान तथा साहित्य और संगीत नाटक अकादेमियों को साथ लेकर शीघ्रातिशीघ्र बुलाना चाहिए.इसमें वह भाजपा-गैर-भाजपा का वह जातिभेद न करें जिसके कारण वह विश्व हिंदी सम्मेलन से हिंदी साहित्य को निर्वासित करने पर विवश हो गए क्योंकि भाजपा के पास स्तरीय लेखकों का भयानक टोटा है. उन्हें समझ लेना चाहिए कि आज की वैश्वीकृत दुनिया में अक्ल की बात भले ही वामपंथियों की बपौती न हो,प्रबुद्ध आधुनिकतावादियों के बगैर भी वह संभव नहीं है.सच बात तो यह है कि अमेरिका के रिपब्लिकन और ब्रिटेन के कंज़र्वेटिव भी बहुत दूर तक वामपंथियों जैसी प्रगतिकामी बात करने पर मजबूर हैं.वह आधुनिकतावादी मानवता की lingua franca बन चुकी है.दकियानूसी इस्लाम के साथ-साथ इसे भाजपा,रा.स्व.सं. और अन्य हिन्दुत्ववादियों को भी तुरंत समझना होगा.उसके बिना कोई भाषा विश्व-भाषा नहीं बन सकती और वैसी ही भाषा सारे भारत और हिंदी सिनेमा को भी चाहिए.क्या उसमें नरेंद्र मोदी, अमिताभ बच्चन और हिंदी फिल्म-जगत की दिलचस्पी है या प्रधानमंत्री को वक़्त-ज़रूरत सिर्फ महँगे शो-पीस आइटम बॉयज़ एंड गर्ल्स की सप्लाइ ही चाहिए ?
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल )
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
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