‘रीझि कर एक कहा प्रसंग’ ‘एडिटर च्याव्स’ किस्म का कालम है. आज यहाँ विष्णु खरे (9 फरवरी, 1940) की एक कविता प्रस्तुत है – A B A N D O N E D.
विष्णु खरे कई तरह की सक्रियताओं के साथ हिंदी में उपस्थित हैं. पिछले पचास सालों से वह कविताएँ लिख रहे हैं, और समकालीन बने हुए हैं. उनकी कविताएँ मानक हैं और चुनौती भी. विष्णु खरे का काव्य-विवेक मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के काव्य-प्रवाहों के बीच निर्मित हुआ, उसमें खुद उनका अपना होना भी शामिल पाया जाता है जो जितना वैश्विक है उतना ही स्थानीय भी.
‘अबेंडंड’ सिर्फ एक प्लेटफार्म के पास की जगह नहीं है, जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते हैं आप को लगता है कि यह एक कांटेदार तारों सा घिरा कोई ‘नो मैन्स लैंड’ है. और यहाँ आपकी मुश्किलें आसान नहीं होने वाली. कविता में उस रिक्त को मानवीय मूल्यों के उजाड़ में धीरे-धीरे बदलते देखना त्रासद सृजनात्मक \’सुख\’ है.
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A B A N D O N E D
वे शायद हिन्दी में त्यागे या छोड़े नहीं जा सकते रहे होंगे
उर्दू में उनका तर्क या मत्रूक किया जाना कोई न समझता
इंग्लिश की इबारत का बिना समझे भी रोब पड़ता है
लिहाज़ा उन पर रोमन में लिखवा दिया गया अंग्रेज़ी शब्द
अबेंडंड
उनमें जो भी सहूलियतें रही होंगी वे निकाल ली गई होती हैं
जो नहीं निकल पातीं मसलन कमोड उन्हें तोड़ दिया जाता है
जिनमें बिजली रही होगी उनके सारे वायरों स्विचों प्लगों होल्डरों मीटरों के
सिर्फ़ चिन्ह दिखते हैं
रसोई में दीवार पर धुएँ का एक मिटता निशान बचता है
तमाम लोहा-लंगड़ बटोर लिया गया
सारी खिड़कियाँ उखड़ी हुईं
सारे दरवाज़े ले जाए गए
जैसे किन्हीं कंगाल फ़ौजी लुटेरों की गनीमत
कहीं वह खुला गोदाम होगा जहाँ
यह सारा सामान अपनी नीलामी का इंतज़ार करता होगा
रेल के डिब्बे या बस में बैठे गुज़रते हुए तुम सोचते हो
लेकिन वे लोग कहाँ हैं जो इन सब छोड़े गए ढांचों में तैनात थे
या इनमें पूरी गिरस्ती बसाकर रहे
कितनी यादें तजनी पड़ी होंगी उन्हें यहाँ
क्या खुद उन्हें भी आखिर में तज ही दिया गया
जो धीरे-धीरे खिर रही है
भले ही उन पर काई जम रही है
और जोड़ों के बीच से छोटी-बड़ी वनस्पतियां उग आई हैं
और मुंडेरों के ऊपर अनाम पौधों की कतार
सिर्फ़ वही ईंटें बची हैं
और उनमें से जो रात-बिरात दिन-दहाड़े उखाड़ कर ले जाई जा रही हैं
खुशकिस्मत हैं कि वे कुछ नए घरों में तो लगेंगी
पता नहीं कितने लोग फिर भी सर्दी गर्मी बरसात से बचने के लिए
इन तजे हुए हों को चंद घंटों के लिए अपनाते हों
प्रेमी-युगल इनमें छिप कर मिलते हों
बेघरों फकीरों-बैरागियों मुसीबतज़दाओं का आसरा बनते हों ये कभी
यहाँ नशा किया जाता हो
जरायमपेशा यहाँ छिपते पड़ाव डालते हों
सँपेरे मदारी नट बाजीगर बहुरूपिए कठपुतली वाले रुकते हों यहाँ
लंगूर इनकी छतों पर बैठते हों
कभी कोई चौकन्ना जंगली जानवर अपनी लाल जीभ निकाले हाँफता सुस्ताता हो
किस मानसिकता का नतीज़ा हैं ये
कि इन्हें छोड़ दो उजड़ने के लिए
न इनमें पुराने रह पाएँ न नए
इनमें बसना एक जुर्म हो
सारे छोटे-बड़े शहरों में भी मैने देखे हैं ऐसे खंडहर होते मकान
जिन पर अबेंडंड छोड़ या तज दिए गए न लिखा हो
लेकिन उनमें एक छोटा जंगल और कई प्राणी रहते हैं
कहते हैं रात को उनमें से आवाज़ें आती हैं कभी-कभी कुछ दिखता है
सिर्फ़ सूने घरों और टूटे या तोड़े गए ढांचों पर
आसान है छोड़ या तज दिया गया लिखना
क्या कोई लिख सकता है
तज दिए गए
नदियों वनों पर्वतों गाँवों कस्बों शहरों महानगरों
अनाथालयों अस्पतालों पिंजरापोलों अभयारण्यों
दफ्तरों पुलिसथानों अदालतों विधानसभाओं संसद भवन पर
सम्भव हो तो सारे देश पर
सारे मानव-मूल्यों पर
किस किस पर कैसे कब तक लिखोगे
जबकि सब कुछ जो रखने लायक था तर्क किया जा चुका
कभी एक फंतासी में एक अनंत अंतरिक्ष यात्रा पर निकल जाता हूँ देखने
कि कहीं पृथ्वियों आकाशगंगाओं नीहारिकाओं पर
या कि पूरे ब्रह्माण्ड पर भी कौन सी भाषा कौन सी लिपि में किस लेखनी से
कहीं कोई असंभव रूप से तो नहीं लिख रहा है धीरे-धीरे
जैसे हाल ही में बनारस स्टेशन के एक ऐसे खंडहर पर पहली बार लिखा देखा परित्यक्त.
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